कानूनन अन्याय
२६, दिसंबर २०००,
............लीना मेहेंदळे
कल्पना करिए, कोई एक जघन्य अपराधी है जिसने तीन बार बलात्कार किए हैं। दो बार गुनाह साबित न होने से छूट चुका है, लेकिन तीसरी बार सजा भुगत चुका है, चौथी बार उसने फिर बलात्कार किया और केस अदालत में पेश हुआ। बयान देने की बात आई। वह स्त्री बयान के लिए पेश हुई जिसके साथ बलात्कार हुआ था। आरोपी भी पेश हुआ।
दोनों के प्रति कानून का क्या रवैया होगा? या पहले यह पूछें कि समाज के किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का रवैया क्या होगा? जिसे समाज में ऐसे अपराधों के प्रति चिंता है और जो इस विषय में गंभीरता से कुछ सोचता है और चाहता है कि समाज में अपराध कम हों, समाज का निर्वाह अधिक सुगम हो, उस व्यक्ति का रवैया क्या होगा? यानी हमने तीन तरह के वर्गीकरण किए। एक ओर तमाम संवेदनशील व्यक्ति, दूसरी और तमाम चिंतनशील व्यक्ति और तीसरी ओर कानून और कानूनी व्यक्ति-जैसे, वकील और जज। हमें तीनों के सोच में क्या अंतर नजर आएगा?
यह जानने के लिए देखें कि बयानी ओर जिरह के दौरान क्या होता है।
शायद इस देश के तमाम संवेदनशील और तमाम चिंतनशील लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि बलात्कार का कोई भी केस जब होता है तो आरोपी पुरूष और उसके वकील बलात्कृत स्त्री के पूर्व चरित्र को संशय का पात्र साबित करें, इसकी उन्हें पूरी छूट होती है। कानून इसकी इजाजत देता है। यह छूट इंडियन एविडेंस एक्ट सेक्शन १५५ (४) के तहत मिली हुई है। इसका पूरा फायदा उठाते हुए वकील स्त्री से अत्यंत लांदनास्पद और अपमानजनक सवाल पूछ सकते हैं, पूछते हैं और वाकई में स्त्र्िायों को रूला कर छोड़ते हैं। इससे उनका ध्यान वर्तमान केस की तरफ से बंट जाता है। वे जल्दी से जल्दी इस अपमानजनक वातावरण से छूट कर भागना चाहती हैं और न्यायाधीश भी उनके वर्तमान बयान को संशय की दृष्टि से देखने लगते हैं।
दूसरी ओर, आरोपी के पिछले तीन बलात्कार के अपराधों से संबंधित केस के कागजात आपका (यानी सरकारी) वकील कोर्ट में दाखिल करना चाहे तो क्या होगा? उसी इंडियान एविडेंस एक्ट के सेक्शन ५४ के तहल वकील को बताया जाएगा कि आरोपी के पूर्व चरित्र का मुद्दा वर्तमान किस में नहीं उठाया जा सकता। आरोपी को यह संरक्षण मिला हुआ है। उसका पूर्व चरित्र चाहे कितना ही जघन्य या घृणित क्यों न हो, आप न्यायाधीश को उसके प्रति 'पूर्वहग्रस्त' नहीं कर सकते क्योंकि न्यायधीश सिर्फ वर्तमान अपराध की जांच कर रहे हैं।
देख लीजिए कानून की विडंबना कि आरोपी पुरूष को हर तरह का संरक्षण है, लेकिन बलात्कृत स्त्री के चरित्र की धज्ज्िायां उड़ाने की पूरी छूट है। कोई भी संवेदनशील स्त्री या पुरूष, कोई भी चिंतनशील स्त्री या पुरूष यह बताए कि न्याय की दौड़ में क्या स्त्री को पहले से ही पीछे नहीं छोड़ दिया गया है। क्या इसे आप समदृष्टि वाला न्याय मानते हैं? बलात्कार की शिकार कोई स्त्री बताए कि ऐसे कानून से न्याय पाने की संभावना क्या पहले से ही नहीं चुक गई है? कोई पुरूष बताए कि जब स्त्र्िायों पर बलात्कार की घटनाएं घटती हैं और आरोपी छूट जाते हैं तो क्या उनकी अपनी बहन-बेटियों, मां और पत्नियों के खतरे नहीं बढ़ जाते? फिर इस कानूनी अन्याय को दूर करने का प्रयास हम क्यों नहीं करते? क्या यह जरूरी नहीं है कि हम सब मिल कर आवाज उठाएं कि इंडियन एविडेंस एक्ट की धारा १५५ (४) को रद्द किया जाए और धारा ५४ में यह सुधार किया जाए कि यदि केस बलात्कार के आरोप से संबंधित है तो आरोपी के पूर्व-चरित्र की जांच भी इस दायरे में लागू होगी। आज स्थिति यह है कि लगभग ८०,००० बलात्कार के मामले विभिन्न कोर्टों में लंबित पड़े हैं। इनमें हर साल दस हजार मामलों का इजाफा हो रहा है। हर बलात्कार-पीड़ित लड़की को चुभते हुए प्रश्नों से गुजरना पड़ता है।
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Saturday, 31 October 2009
तबादलों का अर्थतंत्र 17 y
तबादलों का अर्थतंत्र
जनसत्ता ६ दिसंबर २०००
.........लीना मेहेंदळे
सरकारी नौकरी में लगे हर व्यक्ति को पहले दिन से ही पता रहता है कि उसका कभी भी तबादला हो सकता है। एक दफतर से दूसरे दफतर, एक शहर से दूसरे शहर और देश के एक कोने से दूसरे कोने में। 'एक देश ' और 'एक देश की सरकार' - ये दोनों अवधारणाएं अंग्रेजी राज के साथ आईं। उस राज में जो कोई सरकारी नौकर लग जाता, उसके निहित स्वार्थ की बात सरकार को कभी भी परेशान कर सकती थी, अतः ऐसी संभावना टालने के लिए तबादले जरूरी माने जाते थे। आज भी जरूरी माने जाते हैं। इसी से गांव के पटवारी से लेकर कलेक्टर तक और दफतर के बाबू से लेकर सेक्रेटरी तक सबके तबादले होते रहते हैं। जब मैं सरकारी नौकरी में आई तो एक ओर अपने आपको तबादलों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया तो दूसरी ओर अपने अधीनस्थों के तबादलों के सिलसिलों को भी समझना आरंभ किया। तबादला होने पर सबसे बड़ी समस्या आती है बच्चों की पढ़ाई की। अब तो अच्छे शहरों के अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलना असंभव-सा होता जा रहा है, खासकर वर्ष के बीच में। इसलिए सरकार को भी नियम बनाना पड़ा कि तबादले प्रायः उन्हीं दिनों किए जाएं जब स्कूलों में परीक्षाएं समाप्त हो चुकी हों।
एक बार मेरे कार्यालय में सरकारी शिक्षकों के तबादले की टिप्पणी बन रही थी कि मुझे दौरे पर एक गांव जाना पड़ा। इस गांव का शिक्षा के मामले में काफी अच्छा रेकार्ड था और सरपंच बड़े ही सुलझे हुए बुजुर्ग थे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहना आरंभ किया कि शिक्षक बच्चों को केवल अपनी क्लास की पढ़ाई से ही नहीं, बल्कि अपने आचरण से भी पढ़ाता है। शिक्षक के साथ विद्यार्थी का भावनात्मक रिश्ता जुडना आवश्यक होता है। लेकिन हमारे अधिकारी क्या करते हैं? दो-चार वर्ष हुए नहीं कि शिक्षक का तबादला कर दिया, वह भी इसलिए कि किसी विधायक ने, किसी पंचायत अध्यक्ष ने, किसी सरपंच ने शिकायत कर दी। फिर कैसे वह शिक्षक बच्चों के लिए प्रेरणा बन सकता है, कैसे इन नन्हें पौधों को सजा-संवार सकता है?
उनकी बातों से सीख लेकर मैंने तो तबादलों के संदर्भ में अच्छी नीतियाँ बनाकर उनकी जानकारी सबको देनी शुरू कर दी।
तबादलों की बाबत कई कहानियां सुनने को मिलती हैं कि किसने कितनी रकम देकर आदेश पाया है या रद्द करवाया है। पिछले पचीस वर्षों में इसके तरीके और भी परिष्कृत हुए हैं। अब तो कई कार्यालयों में पहले आदेश, फिर रद्द -- इतना कष्ट नहीं उठाया जाता, जिस-जिस को जहाँ तबादला चाहिए उसकी बोली लगती है। जिसे कहीं से हटाना है उसे भी न हटाए जाने के लिए बोली लगाने का मौका दिया जाता है।
तबादलों का सीधा संबंध सुव्यवस्था और सुचारु प्रशासन से भी है । हाल में ही मुझे उत्तर प्रदेश के एक जिले में जाना पड़ा। शिकायत थी कि किसी स्त्री पर बलात्कार हुआ और पुलिस रपट नहीं लिख रही थी, न आगे कुछ कर रही थी। हमने जांच के दौरान पुलिस अधीक्षक से पूछा तो पता चला कि वे बस चार महीने पहले वहां आए थे और इससे पहले जहां अधीक्षक थे वहां से भी उनका तबादला आठ महीनों में हो गया था। वर्तमान जिले में पिछले दो वर्षों में आनेवाले वे तीसरे अधीक्षक थे। ऐसी हालत में यदि कोई ईमानदार अफसर भी हुआ तो वह कैसे सुव्यवस्था को बनाए रखेगा? उसे नए इलाके को जानने-समझने में जितने दिन लगते हैं उससे पहले ही उसका तबादला हो जाता है।
पुणे जैसे बड़े और विकसित शहर के नए म्युनिसिपल आयुक्त आए और उन्होंने गैर-कानूनी इमारतों को गिराना शुरू कर दिया। जनता खुश हुई। लेकिन सरकार ने अचानक उनका तबादला कर दिया। अब की जनता क्रोधित हुई तो चुप नहीं बैठी। जुलूस निकले, सभाएं हुईं। अंत में लोगों ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की और कोर्ट ने भी स्टे दे दिया। यह अलग किस्सा है कि बाद में घटनाओं ने कुछ अन्य मोड़ ले लिया और हाईकोर्ट ने केस खारिज कर दिया। कोर्ट में जो याचिका दाखिल हुई उसमें केवल यही बातें थीं कि कैसे वे अच्छे अफसर थे और सरकार उन पर कैसा अन्याय कर रही थी। मुझे लगा कि यहाँ जनता चूक गई। मुद्दा यह उठाया जाना चाहिए था कि क्या पुणे की भरपूर म्युनिसिपल टैक्स देनेवाली जनता को अच्छे प्रशासन का हक नहीं है? और यदि हां तो कोई बताए कि दस-पंद्रह दिनों में अधिकारी बदलते रहें तो जनता को अच्छा प्रशासन कहां से मिलेगा?
एक महत्वपूर्ण आर्थिक पहलू और भी है जो मुझे आरंभिक दिनों में नहीं पता था। जब किसी सरकारी अधिकारी का तबादला होता है तो उसके नए कार्यालय को उसकी इच्छा के अनुरूप सजाया जाता है। अधिकारी जितना वरिष्ठ होगा, सजावट का खर्चा भी उसी अनुपात में जायज माना जाता है। और अब तो यह सजावट एक स्टेटस सिंबल भी बन गई है। यदि कोई अफसर अपने पहले के अफसर द्वारा कराई गई सजावट को नहीं बदलता तो माना जाता है कि उसमें कोई दम नहीं। और फिर यह खर्चा क्या केवल अधिकारियों के तबादलों में ही होता है? जी नहीं, मंत्रियों के खाते भी जब बदले जाते हैं, नए मंत्री आते हैं तो उनके भी घरों और दफतरों में सब कुछ बदल कर नया लगवाया जाता है।
कैसा रहे यदि इन खर्चोंका ब्योरा हर वर्ष माँगा जाय?
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जनसत्ता ६ दिसंबर २०००
.........लीना मेहेंदळे
सरकारी नौकरी में लगे हर व्यक्ति को पहले दिन से ही पता रहता है कि उसका कभी भी तबादला हो सकता है। एक दफतर से दूसरे दफतर, एक शहर से दूसरे शहर और देश के एक कोने से दूसरे कोने में। 'एक देश ' और 'एक देश की सरकार' - ये दोनों अवधारणाएं अंग्रेजी राज के साथ आईं। उस राज में जो कोई सरकारी नौकर लग जाता, उसके निहित स्वार्थ की बात सरकार को कभी भी परेशान कर सकती थी, अतः ऐसी संभावना टालने के लिए तबादले जरूरी माने जाते थे। आज भी जरूरी माने जाते हैं। इसी से गांव के पटवारी से लेकर कलेक्टर तक और दफतर के बाबू से लेकर सेक्रेटरी तक सबके तबादले होते रहते हैं। जब मैं सरकारी नौकरी में आई तो एक ओर अपने आपको तबादलों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया तो दूसरी ओर अपने अधीनस्थों के तबादलों के सिलसिलों को भी समझना आरंभ किया। तबादला होने पर सबसे बड़ी समस्या आती है बच्चों की पढ़ाई की। अब तो अच्छे शहरों के अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलना असंभव-सा होता जा रहा है, खासकर वर्ष के बीच में। इसलिए सरकार को भी नियम बनाना पड़ा कि तबादले प्रायः उन्हीं दिनों किए जाएं जब स्कूलों में परीक्षाएं समाप्त हो चुकी हों।
एक बार मेरे कार्यालय में सरकारी शिक्षकों के तबादले की टिप्पणी बन रही थी कि मुझे दौरे पर एक गांव जाना पड़ा। इस गांव का शिक्षा के मामले में काफी अच्छा रेकार्ड था और सरपंच बड़े ही सुलझे हुए बुजुर्ग थे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहना आरंभ किया कि शिक्षक बच्चों को केवल अपनी क्लास की पढ़ाई से ही नहीं, बल्कि अपने आचरण से भी पढ़ाता है। शिक्षक के साथ विद्यार्थी का भावनात्मक रिश्ता जुडना आवश्यक होता है। लेकिन हमारे अधिकारी क्या करते हैं? दो-चार वर्ष हुए नहीं कि शिक्षक का तबादला कर दिया, वह भी इसलिए कि किसी विधायक ने, किसी पंचायत अध्यक्ष ने, किसी सरपंच ने शिकायत कर दी। फिर कैसे वह शिक्षक बच्चों के लिए प्रेरणा बन सकता है, कैसे इन नन्हें पौधों को सजा-संवार सकता है?
उनकी बातों से सीख लेकर मैंने तो तबादलों के संदर्भ में अच्छी नीतियाँ बनाकर उनकी जानकारी सबको देनी शुरू कर दी।
तबादलों की बाबत कई कहानियां सुनने को मिलती हैं कि किसने कितनी रकम देकर आदेश पाया है या रद्द करवाया है। पिछले पचीस वर्षों में इसके तरीके और भी परिष्कृत हुए हैं। अब तो कई कार्यालयों में पहले आदेश, फिर रद्द -- इतना कष्ट नहीं उठाया जाता, जिस-जिस को जहाँ तबादला चाहिए उसकी बोली लगती है। जिसे कहीं से हटाना है उसे भी न हटाए जाने के लिए बोली लगाने का मौका दिया जाता है।
तबादलों का सीधा संबंध सुव्यवस्था और सुचारु प्रशासन से भी है । हाल में ही मुझे उत्तर प्रदेश के एक जिले में जाना पड़ा। शिकायत थी कि किसी स्त्री पर बलात्कार हुआ और पुलिस रपट नहीं लिख रही थी, न आगे कुछ कर रही थी। हमने जांच के दौरान पुलिस अधीक्षक से पूछा तो पता चला कि वे बस चार महीने पहले वहां आए थे और इससे पहले जहां अधीक्षक थे वहां से भी उनका तबादला आठ महीनों में हो गया था। वर्तमान जिले में पिछले दो वर्षों में आनेवाले वे तीसरे अधीक्षक थे। ऐसी हालत में यदि कोई ईमानदार अफसर भी हुआ तो वह कैसे सुव्यवस्था को बनाए रखेगा? उसे नए इलाके को जानने-समझने में जितने दिन लगते हैं उससे पहले ही उसका तबादला हो जाता है।
पुणे जैसे बड़े और विकसित शहर के नए म्युनिसिपल आयुक्त आए और उन्होंने गैर-कानूनी इमारतों को गिराना शुरू कर दिया। जनता खुश हुई। लेकिन सरकार ने अचानक उनका तबादला कर दिया। अब की जनता क्रोधित हुई तो चुप नहीं बैठी। जुलूस निकले, सभाएं हुईं। अंत में लोगों ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की और कोर्ट ने भी स्टे दे दिया। यह अलग किस्सा है कि बाद में घटनाओं ने कुछ अन्य मोड़ ले लिया और हाईकोर्ट ने केस खारिज कर दिया। कोर्ट में जो याचिका दाखिल हुई उसमें केवल यही बातें थीं कि कैसे वे अच्छे अफसर थे और सरकार उन पर कैसा अन्याय कर रही थी। मुझे लगा कि यहाँ जनता चूक गई। मुद्दा यह उठाया जाना चाहिए था कि क्या पुणे की भरपूर म्युनिसिपल टैक्स देनेवाली जनता को अच्छे प्रशासन का हक नहीं है? और यदि हां तो कोई बताए कि दस-पंद्रह दिनों में अधिकारी बदलते रहें तो जनता को अच्छा प्रशासन कहां से मिलेगा?
एक महत्वपूर्ण आर्थिक पहलू और भी है जो मुझे आरंभिक दिनों में नहीं पता था। जब किसी सरकारी अधिकारी का तबादला होता है तो उसके नए कार्यालय को उसकी इच्छा के अनुरूप सजाया जाता है। अधिकारी जितना वरिष्ठ होगा, सजावट का खर्चा भी उसी अनुपात में जायज माना जाता है। और अब तो यह सजावट एक स्टेटस सिंबल भी बन गई है। यदि कोई अफसर अपने पहले के अफसर द्वारा कराई गई सजावट को नहीं बदलता तो माना जाता है कि उसमें कोई दम नहीं। और फिर यह खर्चा क्या केवल अधिकारियों के तबादलों में ही होता है? जी नहीं, मंत्रियों के खाते भी जब बदले जाते हैं, नए मंत्री आते हैं तो उनके भी घरों और दफतरों में सब कुछ बदल कर नया लगवाया जाता है।
कैसा रहे यदि इन खर्चोंका ब्योरा हर वर्ष माँगा जाय?
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अपने-अपने शैतान 16 y
अपने-अपने शैतान
जनसत्ता, २ दिसम्बर २०००
..........लीना मेहेंदले
मानव समाज कई धर्मों में बंटा हुआ है और हर धर्म के अपने-अपने भगवान हैं। किसी के राम हैं, किसी के रहीम, किसी के ईसा हैं तो किसी के और कोई। जब हम भगवान की कल्पना करते हैं तो एक ऐसी तस्वीर दिमाग में उतरती है जो सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञानी है, दयालु है, न्यायप्रिय है, अच्छों की मदद करने और बुरों को सजा देने के लिए तत्पर है, कृपालु है, संकटमोचन है इत्यादि। अर्थात् वह उन सारे गुणों से युक्त है जो आदमी का और समाज का संबल बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हम मानते हैं कि उन्हीं गुणों की बदौलत संसार चल रहा है, हम फल-फूल रहे हैं और आगे भी फूलने-फलने वाले हैं। इसके साथ ही हर धर्म में शैतान भी रहा है जिसने अच्छे व्यक्तियों को सताया है, बुराई और बुरे लोगों को बढ़ावा दिया है, समाज को ध्वंस करने का प्रयत्न किया है, उसे त्राहि-त्राहि की पुकार के लिए मजबूर किया है और आखिरकार उसके दमन के लिए भगवान को खुद मैदान में उतरना पड़ा है। कोई भी सूझबूझ वाला और समाज की भलाई चाहनेवाला मनुष्य शैतान के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता।
चूंकि समाज धर्मों में बंटा हुआ है इसलिए एक धर्म के लोग यदि दूसरे धर्म के भगवान को मान्यता नहीं देते या उस पर अपना ईमान नहीं लाते तो सामाजिक सद्भावना के लिये यह अच्छी बात तो नहीं, पर कुछ-कुछ समझ में आने लायक है। यदि मेरा राम मुझे वह सब कुछ दे रहा है जो एक भगवान को एक अच्छे मनुष्य को देना चाहिए, तो मैं किसी दूसरे धर्म के भगवान की बाबत, खास कर उससे कुछ मांगने की बाबत क्यों सोचूं?
सही है। इससे अगला प्रश्न है कि क्या यह आवश्यक है कि मैं दूसरे धर्मवाले से इसलिए लड़ाई करूं कि वह मेरे भगवान को अपना भगवान नहीं मानता? ऐसी लड़ाइयों को जिहाद और न जाने क्या-क्या अच्छे-खासे नाम दिए गए हैं। ये लड़ाईयां यह कह कर लड़ी गईं कि तुम भी मेरे भगवान को मानो तो वे तुम्हारे दुख-दर्द को दूर करेंगे।
इसलिए यह तो समझ में आता है कि क्यों एक धर्म के भगवान के विरूद्ध दूसरे धर्म के लोग लड़ते हैं। लेकिन शैतान की बात अलग है। उसके साथ लड़ाई तो उसी के धर्मवालों ने लड़ी है, उसी धर्म के भगवान ने लड़ी है। आप हिंदू हों या मुसलमान या ईसाई, यदि आप सच्चे इंसान हैं तो आप शैतान से हर हालत में लड़ेंगे, चाहे वह ईसाइयों का शैतान हो या हिंदुओं का। एक हिंदू भले ही ईसाई या मुसलमानों के भगवान के विरूद्ध लड़ ले, लेकिन उनके शैतान का पक्ष वह कभी नहीं ले सकता। शैतान या शैतानियत का पक्ष लेना अपने इंसानी अस्तित्व को नकारने जैसा ही होगा। अर्थात् हम एक दूसरे के भगवान के विरोधी तो हो सकते हैं, लेकिन दूसरों के शैतान के पक्षधर कभी नहीं हो सकते। शैतान सारे धर्मभेदों से परे, बस शैतान ही होता है। यही मेरी सोच-विचार और तर्क प्रणाली थी, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व इसे धक्का लगा और उस दुखद तर्क को मैं आज तक नहीं समझ पाई।
अंडरवर्ल्ड जिस तरह से समाज का कांटा बनकर चुभ रहा है, मवादवाले घाव की तरह समाज के तन-मन को सड़ा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। अंडरवर्ल्ड के कई डॉन आए और गए, लेकिन हर कोई समाज के लिए खतरा ही था। यदि दो टक्कर के डॉन आ जाते हैं तो एक जरा-सी संभावना है कि वे दोनों एक दूसरे पर गोलियां चलाकर आपस में ही एक दूसरे को खत्म कर देंगे, लेकिन दूसरा बच जाता है तो वह दुगुने जोश के साथ समाज का शोषण और प्रताड़ना आरंभ कर देता है। इसलिए अंडरवर्ल्ड में एक की जगह दो डॉन आ जाएं तो जनता की कठिनाईयां दुगुने ही नहीं, बल्कि कई गुने बढेंगी। मैं अपने इस तर्क से पूरी तरह आश्र्वस्त थी और सोचती थी कि इससे अलग कोई दूसरा तर्क हो ही नहीं सकता।
इसके बावजूद जब कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरदार दाऊद इब्राहिम के गिरोह से लडकर उसके दो छुटभैये बाहर निकले और उन्होंने अपने-अपने गिरोह बनाये तो मुंबई की सज्जन जनता भले ही काँप गई हो, लेकिन कुछ लोगों ने गर्व जताकर कहा कि चलो, उनका यदि दाऊद है तो हमारा भी अश्र्िवन नाईक है या छोटा राजन है या अरुण गवली है। यानी हमारी 'उनसे' रेस किस बात पर है? इस पर कि हम भी 'उनसे बड़े' शैतान पैदा कर सकते हैं? और उनसे बड़े 'शैतान' पाल सकते हैं?
मुझे भुलाए नहीं भूलता कि रिश्र्वत खाकर जिसने दाऊद के लिए कस्टम क्लियरेंस करवाया और मुंबई में आरडीएक्स जाने दिया वह कस्टम अधिकारी कोई राणा था, हिन्दू था, जो आज भी मुंबई की जेल में बंद है और उस पर आज तक हम मुकदमा पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन जो हजारों जानें बम फटने से गईं उस अपराध में वह भी शामिल है। क्या उस पर हम कभी 'उनका' या 'अपना' लेबल लगा सकते हैं?
'अपने' शैतान के लिए गर्व और सम्मान महसूस करनेवाली आत्मघाती सोच की बात इसलिए याद आई कि उस सम्मान के प्रतीक के रूप में जिसे 'नगरसेविका' के पद के लिए टिकट देकर जितवाया गया था वह नीता नाईक किसी अजनबी हत्यारे की गोलियों की शिकार बन गई है। क्या वह अजनबी कोई 'अपना', 'सगा ', 'चहेता ' शैतान ही नही है जिसने यह किया? उधर छोटा राजन भी बैंकाक से भागने में सफल हुआ क्योंकि किसी ने उसे अपना माना है, भले ही मुंबई पुलिस उन्हें अपनी न लगती हो।
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जनसत्ता, २ दिसम्बर २०००
..........लीना मेहेंदले
मानव समाज कई धर्मों में बंटा हुआ है और हर धर्म के अपने-अपने भगवान हैं। किसी के राम हैं, किसी के रहीम, किसी के ईसा हैं तो किसी के और कोई। जब हम भगवान की कल्पना करते हैं तो एक ऐसी तस्वीर दिमाग में उतरती है जो सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञानी है, दयालु है, न्यायप्रिय है, अच्छों की मदद करने और बुरों को सजा देने के लिए तत्पर है, कृपालु है, संकटमोचन है इत्यादि। अर्थात् वह उन सारे गुणों से युक्त है जो आदमी का और समाज का संबल बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हम मानते हैं कि उन्हीं गुणों की बदौलत संसार चल रहा है, हम फल-फूल रहे हैं और आगे भी फूलने-फलने वाले हैं। इसके साथ ही हर धर्म में शैतान भी रहा है जिसने अच्छे व्यक्तियों को सताया है, बुराई और बुरे लोगों को बढ़ावा दिया है, समाज को ध्वंस करने का प्रयत्न किया है, उसे त्राहि-त्राहि की पुकार के लिए मजबूर किया है और आखिरकार उसके दमन के लिए भगवान को खुद मैदान में उतरना पड़ा है। कोई भी सूझबूझ वाला और समाज की भलाई चाहनेवाला मनुष्य शैतान के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता।
चूंकि समाज धर्मों में बंटा हुआ है इसलिए एक धर्म के लोग यदि दूसरे धर्म के भगवान को मान्यता नहीं देते या उस पर अपना ईमान नहीं लाते तो सामाजिक सद्भावना के लिये यह अच्छी बात तो नहीं, पर कुछ-कुछ समझ में आने लायक है। यदि मेरा राम मुझे वह सब कुछ दे रहा है जो एक भगवान को एक अच्छे मनुष्य को देना चाहिए, तो मैं किसी दूसरे धर्म के भगवान की बाबत, खास कर उससे कुछ मांगने की बाबत क्यों सोचूं?
सही है। इससे अगला प्रश्न है कि क्या यह आवश्यक है कि मैं दूसरे धर्मवाले से इसलिए लड़ाई करूं कि वह मेरे भगवान को अपना भगवान नहीं मानता? ऐसी लड़ाइयों को जिहाद और न जाने क्या-क्या अच्छे-खासे नाम दिए गए हैं। ये लड़ाईयां यह कह कर लड़ी गईं कि तुम भी मेरे भगवान को मानो तो वे तुम्हारे दुख-दर्द को दूर करेंगे।
इसलिए यह तो समझ में आता है कि क्यों एक धर्म के भगवान के विरूद्ध दूसरे धर्म के लोग लड़ते हैं। लेकिन शैतान की बात अलग है। उसके साथ लड़ाई तो उसी के धर्मवालों ने लड़ी है, उसी धर्म के भगवान ने लड़ी है। आप हिंदू हों या मुसलमान या ईसाई, यदि आप सच्चे इंसान हैं तो आप शैतान से हर हालत में लड़ेंगे, चाहे वह ईसाइयों का शैतान हो या हिंदुओं का। एक हिंदू भले ही ईसाई या मुसलमानों के भगवान के विरूद्ध लड़ ले, लेकिन उनके शैतान का पक्ष वह कभी नहीं ले सकता। शैतान या शैतानियत का पक्ष लेना अपने इंसानी अस्तित्व को नकारने जैसा ही होगा। अर्थात् हम एक दूसरे के भगवान के विरोधी तो हो सकते हैं, लेकिन दूसरों के शैतान के पक्षधर कभी नहीं हो सकते। शैतान सारे धर्मभेदों से परे, बस शैतान ही होता है। यही मेरी सोच-विचार और तर्क प्रणाली थी, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व इसे धक्का लगा और उस दुखद तर्क को मैं आज तक नहीं समझ पाई।
अंडरवर्ल्ड जिस तरह से समाज का कांटा बनकर चुभ रहा है, मवादवाले घाव की तरह समाज के तन-मन को सड़ा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। अंडरवर्ल्ड के कई डॉन आए और गए, लेकिन हर कोई समाज के लिए खतरा ही था। यदि दो टक्कर के डॉन आ जाते हैं तो एक जरा-सी संभावना है कि वे दोनों एक दूसरे पर गोलियां चलाकर आपस में ही एक दूसरे को खत्म कर देंगे, लेकिन दूसरा बच जाता है तो वह दुगुने जोश के साथ समाज का शोषण और प्रताड़ना आरंभ कर देता है। इसलिए अंडरवर्ल्ड में एक की जगह दो डॉन आ जाएं तो जनता की कठिनाईयां दुगुने ही नहीं, बल्कि कई गुने बढेंगी। मैं अपने इस तर्क से पूरी तरह आश्र्वस्त थी और सोचती थी कि इससे अलग कोई दूसरा तर्क हो ही नहीं सकता।
इसके बावजूद जब कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरदार दाऊद इब्राहिम के गिरोह से लडकर उसके दो छुटभैये बाहर निकले और उन्होंने अपने-अपने गिरोह बनाये तो मुंबई की सज्जन जनता भले ही काँप गई हो, लेकिन कुछ लोगों ने गर्व जताकर कहा कि चलो, उनका यदि दाऊद है तो हमारा भी अश्र्िवन नाईक है या छोटा राजन है या अरुण गवली है। यानी हमारी 'उनसे' रेस किस बात पर है? इस पर कि हम भी 'उनसे बड़े' शैतान पैदा कर सकते हैं? और उनसे बड़े 'शैतान' पाल सकते हैं?
मुझे भुलाए नहीं भूलता कि रिश्र्वत खाकर जिसने दाऊद के लिए कस्टम क्लियरेंस करवाया और मुंबई में आरडीएक्स जाने दिया वह कस्टम अधिकारी कोई राणा था, हिन्दू था, जो आज भी मुंबई की जेल में बंद है और उस पर आज तक हम मुकदमा पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन जो हजारों जानें बम फटने से गईं उस अपराध में वह भी शामिल है। क्या उस पर हम कभी 'उनका' या 'अपना' लेबल लगा सकते हैं?
'अपने' शैतान के लिए गर्व और सम्मान महसूस करनेवाली आत्मघाती सोच की बात इसलिए याद आई कि उस सम्मान के प्रतीक के रूप में जिसे 'नगरसेविका' के पद के लिए टिकट देकर जितवाया गया था वह नीता नाईक किसी अजनबी हत्यारे की गोलियों की शिकार बन गई है। क्या वह अजनबी कोई 'अपना', 'सगा ', 'चहेता ' शैतान ही नही है जिसने यह किया? उधर छोटा राजन भी बैंकाक से भागने में सफल हुआ क्योंकि किसी ने उसे अपना माना है, भले ही मुंबई पुलिस उन्हें अपनी न लगती हो।
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इक्कीसवीं सदी की औरत जन. १७ दिसंबर २०००
१५. इक्कीसवीं सदी की औरत
जन. १७ दिसंबर २०००
जन. १७ दिसंबर २०००
इक्कीसवीं
सदी
की
औरत
नई
शताब्दी
और
सहस्त्राब्दी
की
दहलीज
पर
खडे
हम
कह
सकते
हैं
कि
बीसवीं
सदी
की
नारी
चेतना
और
इक्कीसवीं
सदी
की
नारी
चेतना
में
बहुत
अन्तर
होगा
!
बीसवीं
सदी
में
नारी
के
अधिकारों
की
बातें
हो
रही
थीं
और
अगला
पर्व
सक्षमता
का
होगा
!
इसकी
दिशा
कैसी
होनी
चाहिए
और
उसमें
हम
क्या
योगदान
दे
सकते
हैं,
यह
मनन
का
विषय
है
!
भारत
के
परिप्रेक्ष्य
में
कहा
जा
सकता
है
कि
बीसवीं
सदी
में
नारी
को
कई
अधिकार
मिले
!
उन्नीसवीं
सदी
में
बंगाल
से
सती-प्रथा
विदा
हुई
अर्थात्
जीने
का
हक
मिला
!
लेकिन
उसी
समय
भारत
की
आजाद
साँसों
को
बचाने
की
अन्तिम
लडाई
में
लक्ष्मीबाई
को
अंग्रेजों
से
मात
खानी
पडी
!
फिर
हमारी
अर्थव्यवस्था
के
छिन्न-भीन्न
होने
का
दौर
चला
!
हमारे
कारीगर,
हमारा
आयुर्वेद,
हमारा
व्यापार,
सब
धीरे-धीरे
ब्रिटिश
राज
में
सिकुड
रहे
थे,
लेकिन
इसके
साथ
ही
सार्वजनिक
शिक्षा
प्रणाली
खुल
रही
थी
!
इस
नई
शिक्षा
प्रणाली
का
उपयोग
प्राय:
हर
समाज-सुधारक
ने
किया
और
इस
तरह
बीसवीं
सदी
में
स्त्री
शिक्षा
का
दौर
चला
!
विधवा
विवाहों
को
मान्यता
मिली
!
बाल
विवाह
रूके
!
एक
तरह
से
कहा
जा
सकता
है
कि
नारी
को
दुख
की
जिन्दगी
को
सुख
में
बदलकर
जीने
का
और
शिक्षा
पाकर
अपने
रास्ते
आप
ढूँढने
का
अधिकार
मिल
गया
है
!
बीसवीं
सदी
में
भारत
को
नारी
चेतना
को
दो
अलग-अलग
कालखण्डों
के
सन्दर्भ
में
देखा
जाना
चाहीए
!
पहली
अर्धशती
गुलामी
में
और
दूसरी
स्वतंत्रता
के
माहौल
में
!
पहले
कालखंण्ड
की
तीन
महत्त्मपूर्ण
बातें
गिनाई
जा
सकती
हैं
!
बडे
पैमाने
पर
महिलाओं
की
शिक्षा
का
कार्यक्रम
चला
!
फिर
आर्यसमाज,
ब्रह्मसमाज
जैसी
संस्थाओं
के
कारण
सामाजिक
कार्यक्रमों
में
महिलाओं
की
सहभागिता
बढी
!
स्वतन्त्रता
की
लढाई
में
भी
महिलाएँ
क्रान्तिकारी
और
सत्याग्रही
दोनों
तरह
से
शरीक
हुईं
!
लेखन
क्षेत्र
में
भी
उनका
आगे
आना
आरम्भ
हुआ
!
इस
दौर
में
हम
पंडिता
रमाबाई,
दुर्गा
भाभी,
कस्तूरबा
गाँधी,
सरोजिनी
नायडू
जैसे
नाम
गिना
सकते
हैं
!
स्वतंत्रता
के
बाद
अगले
पचास
वर्षों
में
कई
क्षेत्रों
में
महिलाएँ
आगे
आई
!
प्रधानमन्त्री
का
पद
सँभालने
वाली
इन्दिरा
गाँधी
से
लेकर
ऐसे
कई
क्षेत्र
और
कई
नाम
गिनाए
जा
सकते
हैं
जहाँ
महिलाओं
को
व्यक्तिगत
रूप
से
अभूतपूर्व
सफलता
और
कर्त्तव्यपूर्ति
का
सन्तोष
मिला
है
!
लेकिन
इसके
बावजूद
यह
सच
है
कि
कई
क्षेत्रों
में
अब
भी
नारी
अनपहतानी
है
!
गणित,
भौतिक
विज्ञान
और
दर्शन
शास्त्र
जैसे
गहन
माने
जाने
वाले
विषयों
में
औरतों
की
दखल
को
हिकारत
से
देखा
जाता
है
!
युद्ध,
यु्द्धशास्त्र,
सेना
आदि
में
स्त्रियाँ
बहुत
कम
हैं
!
रणनीति,
रिजर्व
बैंक,
रॉ
या
आईबी
जैसी
गुप्तचर
एजेंसियों,
व्यापार
और
उद्योग
के
क्षेत्र,
बैंकिंग
और
यहाँ
तक
कि
शतरंज
के
खेल
में
भी
औरत
को
कम
दर्जे
का
माना
जाता
है
!
एक
समान
सूत्र
उन
सारे
क्षेत्रों
में
है
जहाँ
बीसवीं
सदी
की
महिला
अभी
तक
नहीं
पहुँच
पाई
है,
और
वह
यह
कि
जहाँ
हर
पल
सतर्कता
रखकर
रणनीति
और
व्यूहरचना
बदलकर
दिमागी
लडाई
लडने
की
बात
है,
वहाँ
नारी
आब
भी
अबला
समझी
जा
रही
है
!
केवल
राजनीतिक
नेतृत्व
का
क्षेत्र
अपवाद
है
जहाँ
पग-पग
पर
लडाई
लडते
हुए
काफी
हद
तक
यह
साबित
और
स्वीकृत
करा
लिया
कि
नारी
भी
राजनीति
के
क्षेत्र
में
पुरूषों
जितनी
ही
सक्षम
है
!
कुछ
ऐसे
प्रसंगों
का
उल्लेख
करना
उचित
होगा
जो
स्त्री
चेतना
को
आगे
ले
जाने
की
दिशा
या
रास्ता
दिखाते
हैं
!
जब
मेरी
नौकरी
की
पहली
पोस्टिंग
पुणे
में
थी
तो
एक
महिला
से
परिचय
हुआ
जो
पुणे
में
१९४०
के
पहले
से
दुपहिया
स्कूटर
चलाया
करती
थी
!
आज
भी
कई
ऐसे
बडे
शहर
हैं
--
गाँवों
की
बात
तो
छोड
ही
दीजिए
– जहाँ
कोई
महिला
स्कूटर
चलाने
लगे
तो
वह
एक
खबर
बन
जाती
है
!
लेकिन
पुणे
में
स्कूटर
चलाने
वाली
जनसंख्या
में
आज
आधे
से
ज्यादा
महिलाएँ
निकल
आएँगी
!
एक
और
घटना
तमिलनाडु
की
है
!
वहाँ
एक
महिला
कलेक्टर
ने
तय
किया
कि
ऑफिस
में
काम
करने
वाली
तृतीय
और
चतुर्थ
श्रेणी
की
सभी
महिलाओँ
को
साइकि
दी
जाएगी
!
इसके
बाद
उन
महिला
कर्मचारियों
कास
जो
आत्मविश्वास
बढा
उससे
सभी
दंग
रह
गए
!
इस
लेखिका
ने
एक
बार
देवदासियों
के
आर्थिक
पुनर्वास
का
एक
कार्यक्रम
आरम्भ
किया
!
वे
काम
तो
सीख
रही
थीं,
लेकिन
बहुत
अधिक
उल्लास
न
था
!
फिर
उनके
लिए
व्यक्तित्व
विकास
कार्यक्रम
चलाने
की
योजना
बनी
!
कर्यक्रम
का
नियोजन
करनेवाली
एक
शिक्षाविद्
महिला
थीं
!
उन्होंने
केवल
चार
कार्यक्रमों
पर
जोर
दिया
--
सामूहिक
गीत
गाना,
मार्च
पास्ट
और
झण्डे
को
सलामी
देना,
साइकिल
चलाना
और
फोटोग्राफी
!
इस
कार्यक्रम
का
परिणाम
जादुई
रहा
!
व्यक्तिमत्व
विकास
की
ही
एक
मिसाल
इला
भट्ट
की
संस्था
'सेवा'
है
!
इसकी
महिलाएँ
कम
पढी
लिखी
होने
के
बावजूद
वीडियो
फिल्में
बनाना
सीख
चुकी
हैं
!
अपना
विषय
खुद
चुनती
हैं
!
खुद
बजट
बनाती
हैं,
खुद
स्क्रिप्ट
लिखती
हैं
और
शूटिंग
करती
हैं
!
इसी
तरह
महाराष्ट्र
के
औरंगाबाद
जिले
में
एक
बार
स्त्रियों
को
मिस्त्री
बनने
को
मिस्त्री
बनने
का
प्रशिक्षण
दिया
गया
!तो
उन्होंने
माँग
की
--
हमें
मजदूर
नहीं
मालिक
बनना
है
!
फिर
अगले
छह
महीने
उन्हें
सिखाया
गया
कि
ग्राम
पंचायतों
के
छोटे-छोटे
कामों
के
ठेके
पाने
के
लिए
टेंडर
कैसे
भरे
जाते
हैं,
खर्चे
का
और
लगने
वाले
सामान
का
हिसाब
कैसे
किया
जाता
है,
मजदूर
कैसे
लगाए
जाते
हैं,
मजदूरी
कैसे
तय
होती
है,
मजदूरों
से
कैसे
काम
करवाया
जाता
है
और
उनके
काम
का
निरीक्षन
कैसे
किया
जाता
है
!
ग्राम
पंचायतों
में
महिला
आरक्षण
के
बाद
ऐसी
घटनाएँ
पढने-सुनने
में
आई
कि
कैसे
महिला
सरपंचों
को
भ्रष्टाचार
के
घोटाले
में
फँसाकर
उन्हें
अपमानित
किया
गया,
पन्द्रह
अगस्त
पर
उन्हें
ध्वजारोहण
का
हक
नहीं
दिया
गया,
इत्यादि
!
लेकिन
दूसरी
तरफ
ऐसी
भी
घटनाएँ
सामने
आई
हैं
जहाँ
महिला
सरपंचों
ने
अच्छे
काम
कर
दिखाए,
खासकर
शिक्षा
और
जल
आपूर्ति
के
क्षेत्र
में
!
महाराष्ट्र में इन्जीनियरिंग कॉलेजों की भरमार होने के कारण बाहरी इलाकों से कई लडके वहाँ दाखिला लेते हैं ! कॉलेजों में कई छात्राएँ होती हैं ! इस शहर में यातायात नियंत्रित करने वाली छात्राएँ या स्कूचर चलाने वाली महिलाएँ अक्सर दिखाती हैं ! उनके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं करता ! ऐसे ही बाहरी छात्रों के एक समूह से पूछा गया कि यदि तुम्हें वापस अपने शहर में जाकर स्कूटर तलाने वाली या ट्रैफिक कंट्रोल करने वाली महिलाएँ-छात्राएँ दिखें और दूसरे छात्र उन पर फिकरे कस रहे हों तो तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी ! इसका उत्तर था कि शायद वे भी उन फिकरे कसने वाले लडकों में शामील हो जाएँगे ! अर्थात पुणे जैसे शहर को देखकर भी उनकी मानसिकता नहीं बदली ! इसके विपरीत एक युवती पुणे से मथुरा अकेली यात्रा कर रही थी ! वह पुणे की किसी कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम करती है और मथुरा रिफाइनरी में नया सॉफ्टवेयर लगवाने जा रही है ! उम्र कोई बाईस-तेईस वर्ष थी ! यह पूछने पर कि ट्रेन तो रात में मथुरा पहुँचेगी, तुम अकेली लडकी कैसे मैनेज करोगी, उसका उत्तर था : कम्पनी गाडी भेजेगी, मेरे पास सबके फोन नम्बर इत्यादि हैं, मैनेज कर लेना कौन-सी बडी बात है? एक तरफ यह आत्मविश्वास है तो दूसरी तरफ बिहार, उत्तर प्रदेश की यह मानसिकता भी है कि महाराष्ट्र में पढाई कर वहाँ के मुक्त वातावरण में लडकियों की सक्षमता देखने के बाद भी जब वे अपने शहरों में वापस जाएँगे तो वहाँ लडकियों के लिए सुरक्षित परिवेश निर्माण करने की बजाय शायद वे अपनी दकियानूसी मानसिकता ही चलाएँगे !
बहरहाल,
इन
प्रसंगों
पर
सोचने
से
कुछ
दिशा-निर्देश
अवश्य
होता
है
!
नारी
चेतना
के
विकास
के
लिए,
आत्मविश्वास
और
ओजस्विता
के
लिए
आज
स्कूल-कॉलेजों
में
दी
जाने
वाली
शिक्षा
शायद
अपर्याप्त
है
!
उसकी
जगह
आवश्यकता
है
कर
दिखाने
के
अवसर
की--चाहे
वह
साइकिल
या
स्कूटर
सवारी
हो,
ठेकेदारी
हो
या
दूर-दराज
की
कम्पनी
की
कंसल्टेंसी
हो
!
गतिशीलता
और
देशाटन,
मिल्कियत
और
निर्णय
का
अधिकार
जैसी
कुछ
बातें
हैं
जिन्हें
पाकर
नारी
चेतना
अधिक
प्रखर
हो
सकेगी,
केवल
स्कूल-कॉलेज
की
शिक्षा
से
नहीं
!
हाँ,
इस
शिक्षा
प्रणाली
को
बदलकर
इसे
अधिक
व्यावहारिक
बनाया
जाए
तो
कुछ
अच्छे
नतीजे
मिल
सकते
हैं
!
बीसवीं
सदी
की
भारतीय
नारी
अर्थशास्त्र
या
वित्तीय
मामलों
में
अपनी
क्षमता
सिद्ध
नहीं
कर
पाई
!
अगली
सदी
में
उसे
इसके
लिए
तैयार
रहना
होगा
!
मैनेजर,
टीम
लीडर,
कोऑर्डिनेटर
की
भूमिकाओं
में
महिलाओं
को
अपनी
पहचान
बनानी
होगी
!
परमाणु
या
अन्तरिक्ष
विज्ञान,
समुद्र
विज्ञान,
एक्स्प्लोरेशन
के
क्षेत्र
में,
औधोगिक
और
व्यापारिक
संस्थाओं
के
मुखिया
के
रूप
में
भी
महिलाएँ
आएँगी
उन्हें
आना
होगा
!
पर
तब
भी
कुछ
सवाल
रह
जाते
हैं
!
क्या
इक्कीसवीं
सदी
की
नारी
दार्शनिक
भी
हो
पाएगी
!
बीसवीं
सदी
में
महात्मा
गाँधी
जैसा
दीर्शनिक
हमारे
देश
में
पैदा
हुआ
!
उससे
पहले
की
कई
सदियों
में
कई-कई
चिंतक
भारत
में
पैदा
हुए
!
लेकिन
किसी
महिला
का
नाम
इस
श्रेणी
में
नहीं
आया
है
और
तब
तक
नहीं
आ
पाएगा
जब
तक
चिन्तन
की
आदत
प्रयत्नपूर्वक
नहीं
डाली
जाएगी
!
दूसरा
प्रश्न
है
कि
परिवार
नामक
संस्था
का
क्या
होगा
!
कई
लोग
इस
बात
से
दुखी
हैं
कि
नारी
चेतना
जागने
से
परिवार
संस्था
को
खतरा
पहुँच
रहा
है
!
गुण
गाए
जा
रहे
हैं
कि
कैसे
नारी
का
इसी
संस्था
के
नियमों
के
अन्तर्गत
रहना
उचित
है
!
एक
वृद्ध
सज्जन
से
राय-मशविरा
करने
अधिकारियों
का
ग्रुप
पहुँचा
!
अधिकारीगण
अलग-अलग
क्षेत्रों
से
थे
और
उनमें
एक
महिला
अधिकारी
भी
थीं
जो
वरिष्ठता
में
उनसे
ऊपर
थीं
!
चाय
लाकर
रखी
गई
!
चर्चा
चल
रही
थी
!
यजमान
ने
अपने
सेवक
को
बुलाकर
सबके
लिए
चाय
पकोडे
परोसने
को
कहा
!
एक
ने
सेवक
से
कहा,
तुम
जाओ
हम
ले
लेंगे
!
फिर
उसके
जाने
पर
वृद्ध
सज्जन
से
कहने
लगे--यहाँ
ये
बैठी
हैं,
महिला
हैं,
चाय
इत्यादि
सर्व
करना
तो
इनका
काम
है,
ये
कर
लेंगी
!
महिला
अधिकारी
शिष्टता
से
कन्नी
काट
गईं
जो
मुझे
अच्छा
लगा
!
उक्त
महिला
की
जगह
उतनी
ही
वरिष्ठता
का
कोई
पुरूष
अधिकारी
होता
तो
वह
व्यक्ति
उसकी
मेहरबानी
पाने
के
लिए
खुद
उसे
चाय
पेश
करता
!
परिवार
का
क्या
होगा?
इस
प्रश्न
का
उत्तर
इस
घटना
के
सन्दर्भ
में
खोजना
पडेगा
!
परिवार
संस्था
बेशक
सुविधा
के
लिए
बनी
है
!
इस
संस्था
में
कमजोर
और
बीमार
लोगों
की--
जैसे
बच्चे
और
वृद्ध
व्यक्तियों
की
देखभाल
की
व्यवस्था
है,
एक-दूसरे
से
भावनात्मक
सहयोग
पाने
और
देने
की
व्यवस्था
है
!
भूत,
वर्तमान
और
भविष्य
की
व्यवस्था
है
!
लेकिन
क्या
यह
सब
केवल
पुरूष
वर्ग
के
लिए
है--
और
वह
भी
नारी
के
परिश्रम,
समर्पण
और
खुद
को
दबाए
रखने
की
कीमत
पर?
यदि
परिवार
का
प्रयोजन
यही
होता
तो
नारी
इसे
कभी
स्वीकार
नहीं
करती
और
न
आगे
करेगी
!
वर्तमान
परिवेश
में
नारी
की
चेतना
और
बुद्धि
विकसित
हुई
है
तो
वह
अपना
अधिकार
माँग
रही
है,
पर
उसके
अधिकार
को
स्वीकार
करने
और
उसे
न्यायोचित
मानने
की
संवेदनशीलता
पुरूष
वर्ग
में
बडी
मन्द
गति
से
आ
रही
है
!
अत:
परिवार
में
संघर्ष
होना
अवश्यंभावी
है
!
एक
वर्ग
की
चेतना
जाग
रही
है
!
दूसरे
की
संवेदनशीलता
अभी
सो
रही
है
!
संघर्ष
की
जड
यहीं
है
!
पर
इसमें
दोष
उस
नारी
का
नहीं
जिसकी
चेतना
जाग
रही
है,
बल्कि
उस
पुरूष
का
है
जिसकी
संवेदना
अभी
सो
रही
है
!
इस
संवेदनहीनता
का
दूसरा
रूप
है--नारी
पर
अत्याच्यार
!
तीसरा
प्रश्न
यह
है
कि
इक्कीसवीं
सदी
में
भूमंडलीकरण
का
और
भी
बोलबाला
होगा
!
सूचना
तकनीक
के
कारण
सूचनाएँ
और
कल्पनाएँ
तेजी
से
इधर-से-उधर
पहुँचेंगी
!
बायो-टेक्नोलॉजी
के
विस्तार
के
साथ
पैदावार
के
तरीके
बदलेंगे,
चाहे
वह
अन्न
की
पैदावार
हो
या
मनुष्य
की
!
इन
सभी
में
भारत
क्या
भूमिका
निभाएगा
!
क्या
दिशा
निर्देशन
ती
राय
केवल
दिशा
या
दीशा-ग्रहण
की?
इस
भूमिका
को
कौन
तय
करेगा
और
निभायगा?
देश
की
आधी
आबादी
वाली
महिलाएँ--
जिनमें
से
आधी
आज
भी
अशिक्षित
या
अर्धशिक्षित
हैं
और
अगले
पचास
वर्षों
में
भी
शायद
वैसी
ही
रहें,
वे
महिलाएँ
क्या
भूमिका
निभाएँगी?
(जनसत्ता,१७
दिसंबर,२०००)
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