Saturday, 31 October 2009

लाल किले पर कालिख 14 y

लाल किले पर कालिख
१४, अक्टूबर २०००
.........लीना मेहेंदळे

मेरी पोस्टिंग दिल्ली हुई तो घर के लोग बड़े उत्साहित हुए। घुमक्कड़ी के लिए एक और 'हक' की जगह मिल गई। हमारे संज्ञान हो चुके बच्चे छुट्टियों के लिए आए और हमें लाल किले के बारे में कुछ सुनाने लगे। इशारा था कि लाल किले चलना है।

आजकल की युवा पीढ़ी से अब मैं डरने लगी हूँ। खासकर अपने घर की प्रश्नकारी निगाहों से और सवालों से। वे सरकारी बेखयाली और नासमझी को जगह-जगह देखते हैं और पूछते हैं कि सरकार में इतने ऊंचे पद पर पहुंचकर आप लोग इतने हतप्रभ कैसे हो जाते हैं कि इसे रोक नहीं सकते! अभी कल-परसों तक जब हम 'थोड़े जूनियर ऑफीसर' कहलाते थे तब हम भी अपने सीनियर अफसरों के बारे में तमतमाकर यही पूछते थे। चाहे ऑफिस में, चाहे घर की चर्चाओं में। तब ये नन्हें-मुन्ने लगते थे जो चुपचाप हमारी बातें सुनते थे, बोलते कुछ नहीं थे। लेकिन अब उनकी उमर बढ़ी, कद हमसे ऊंचा निकल गया तो उनकी निगाह और स्वर में वही प्रश्न हैं कि अब आप क्या कर पा रही हैं।

मैं किसी भी युवा को देखती हूं और उसे सरकारी लापरवाही या नासमझी के विरूद्ध आक्रोश या आवेश से भरा पाती हूं, तो उसके बगैर पूछे ही मुझे पता चल जाता है कि वह मुझसे क्या-क्या सवाल करना चाहता है और अंत में किस सवाल पर अवश्यंभावी रूप से आएगा। खैरियत इसी में है कि दिल्ली में मुझे युवाओं का सामना उतना नहीं करना पड़ता जितना पिछले पदों पर रहते हुए करना पड़ता था।



बहरहाल, बात थी लाल किले की। लाल किले के इतिहास के बारे में मोटे तौर से जानना हो तो सबसे अच्छा उपाय है कि वहां शाम को चलने वाला लाइट एंड साउंड कार्यक्रम देखें। सो हम लोग चले गए देखने। दिल्ली की बिजली-समस्या उस दिन भी उतनी ही बरकरार थी जैसी और दिनों में होती है। अतएव हम कुर्सियों पर बैठे मोती महल और स्वच्छ खुले आकाश को देख रहे थे। गोधूलि प्रकाश अभी तक छाया हुआ था। अचानक झक सफेद मोती महल के पीछे धुएं के बड़े-बड़े काले अंबार लग गए। वह दृश्य वाकई आवाक कर देने वाला था। काला धुआं निकलता रहा, हम लोग रेलवे और पुरातत्व दोनों ही सरकारी विभागों को कोसते रहे।

पता चला कि मोती महल तो काफी ऊंचाई पर है। लेकिन उसके पिछवाड़े नीची सतह पर रेलवे यार्ड है, जहां कोयले और डीजल के इंजनों की शंटिंग की जगह ठीक मोती महल के नीचे ही है और ऐसा दृश्य तो प्रत्येक दिन या दिन में कई बार देखा जा सकता है। जो मोती महल तीन-चार सौ वर्ष पहले कभी बना, देश की सुंदर कलात्मक उपलब्धि का नमूना बनकर आज भी खड़ा है और कभी जहां शाहजहां का दरबार और स्वर्ण मयूर सिंहासन लगता था, उसे आज घने काले धुएं के अंबार अपनी लपेट में ले रहे हैं। बच्चों ने केवल इतना पूछा-क्या कभी कोई बड़ा सरकारी अफसर अपनी अफसरी बिना बखाने, एक आम आदमी की हैसियत से यहां आता है। और इस नजारे को अपनी आंखों से देखता है? और देखता है तो आगे क्या करता है? (क्या केवल लेख लिखकर रह जाता है!) क्या पुरातत्व विभाग के अधिकरी कभी आते हैं? और अफसर की नजर से (बच्चों का मतलब जिम्मेदाराना निगाहों से था) इस कार्यक्रम का 'इंस्पेक्शन' करते हैं?

जैसे-तैसे कार्यक्रम आरंभ हुआ। आधा हम लोग देख पाए कि बिजली फिर चली गई। अबकी बार उसने आधे घंटे तक कोई संकेत नहीं दिया। सो हम लोग उठकर चले आए। अब लाल किले में चारों ओर अंधेरा था और


लोग अनुमान से ही दूर की आकृतियों को सहारा बनाकर चल रहे थे। जब लंबे-चौड़े मैदानों को पार करके उस भाग में आए जहां लाल किले की प्राचीरों से गुजरते हुए मुख्य द्वार पर आना था तो भौंचक करने वाली एक और बात हमारे सामने थी। प्राचीर में अंधेरा नहीं, बल्कि रोशनी थी। दूर से लगा कि हम जैसे लोगों की सुविधा के लिए किसी ने समझदारी दिखाकर यह व्यवस्था की है। लेकिन पास आए तो पता चला कि वह रोशनी किसी सरकारी समझदारी के कारण नहीं थी। प्राचीर के अंदर छोटी मोटी दुकानों में फैंसी साजसज्जा के छोटे-मोटे आइटम, कुछ चमकीले पत्थर, कार्ड, उपहार सामग्री आदि बिक रही थी। बिजली चली जाने से उन्होंने जगह-जगह छोटे-छोटे जनरेटर लगाए थे या पेट्रोमैक्स जलाए थे। उनका काला कड़वा धुआं पूरे रास्ते में छाया हुआ था। हमें तो वहां से निकलने में पांच मिनट लगने थे लेकिन उन दीवारों को और उन दुकानदारों को जाने कितने वर्ष से यह कालिख सहनी पड़ रही है। क्या हमारी इतनी सम्मानित धरोहर, जहां से हर स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराया जाता हो, इस कदर उपेक्षा की पात्र हो सकती है कि वहां हर रात डीजल के धुएं के बाद घुमड़ते रहें और सरकारी अफसर पूरे बेखबर, बेखयाल अपनी ही झोंक में अपने दफ्तरों में एयर कंडीशनरों में बैठे रहें?

हमारी युवा पीढ़ी वैज्ञानिक भी है। मुझसे पूछा, क्यों नहीं सोलर चार्ज होने वाली या सामान्य बिजली से चलने वाली इमर्जेंसी लाइटें यहां लगवाई जातीं? क्या इतनी छोटी-सी बात के लिए सरकार को इंतजार करना पड़ता है कि कोई इस बात को 'सरकार की निगाह में लाए'!

मेरा उनसे डरने का सबब दिल्ली आकर भी खत्म नहीं हो रहा है।
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अर्थव्यवस्था का नमक प्लस 13 y

(यह नया जोड के रखा है काम आयेगा।)
 दररोज आयोडीनचे प्रमाण १५0 मायक्रोग्रॅम आवश्यक मानले आहे. गर्भार होऊ घातलेल्या, गर्भ राहिलेल्या आणि स्तनपान देणार्‍या महिलांना दोन जीवांच्या असल्यामुळे जवळजवळ दुपटीपर्यंत आयोडीन हवं असतं. आयोडीनप्रमाणेच जीवनाला आवश्यक असणारी बाकीची पोषणद्रव्येही अधिक प्रमाणात आवश्यक असतात. स्त्री वयात आल्यापासूनच तिला पोषणमूल्ये अधिक मिळतील याकडे लक्ष दिले पाहिजे. आपल्या पुढच्या पिढय़ा सशक्त, सुदृढ, चपळ आणि हुशार व्हाव्यात असं वाटत असेल तर मुलींना पूर्वीपासूनच सकस आहार दिला पाहिजे. मुलांनाही दिला पाहिजेच.
जगभरात अनेक संशोधकांनी विविध पाहण्या केल्या. सर्वांनाच मानवी शरीरातील आयोडीनचं प्रमाण कमी असल्याचं आढळतं. अशी शरीरे विविध रोग, आजार, व्याधी आणि विकार यांना फोफावायला आमंत्रण देणारी ठिकाणं आहेत, असंच म्हटलं पाहिजे. जागतिक आरोग्य संघटनेच्या अहवालानुसार जगातल्या १२९ देशांत २00 कोटी लोकांना आयोडीनच्या कमतरतेची समस्या भेडसावत आहे.
समुद्री अन्न समुद्रापासून लांब राहणार्‍या समूहांना मिळणं तितकेसं शक्य नाही. त्यांनी पाणथळ दलदलीच्या भागातलं अन्न खाल्लं तर ते उपकारक ठरेल. गेल्या शतकापर्यंत देशाच्या अंतर्गत भागात राहणार्‍या लोकांमध्ये आयोडीनचा अभाव तितकासा आढळला नाही. कारण त्यांना निर्मळ झर्‍यांच्या, ओढे-नाल्यांच्या, विहीर, तलाव, नद्यांच्या पाण्यातूनही पुरेसं आयोडीन मिळू शकतं. मग पाण्याच्या स्रोतांचं, साठय़ांचं प्रदूषण व्हायला लागलं. शेतीमध्ये, उद्योगामध्ये तीव्र स्वरूपाची रसायनं वापरायला सुरुवात झाली. पाण्यातील, अन्नातील आयोडीनचं प्रमाण कमी झालं. त्याशिवाय आयोडीन शरीरात सामावून घेणार्‍या रसायनांचं प्रमाण वाढलं. त्यामुळे शरीरात गेले तरी आयोडीन समाविष्ट होत नाही आणि शरीर तंदुरुस्त राहत नाही, अशी परिस्थिती आली.
रासायनिकदृष्ट्या आयोडिनाच्याच गटात बसणार्‍या ब्रोमीन, क्लोरीन, फ्लोरीन या मूलद्रव्यांची आपल्या आहारात, वातावरणात वाढ झाली.
आधुनिक फास्ट फूड संस्कृतीत वावरणार्‍या व्यक्तींमध्ये आयोडीनचं प्रमाण झपाट्यानं कमी होण्यामागं अन्नातून, पाण्यातून येणार्‍या ब्रोमीन आणि क्लोरीनची भूमिका मोठी आहे. नळावाटे शुद्ध पाणी घरात पोचवणं हे आधुनिक नागरिकशास्त्रात पालिका-नगरपालिका यांचं कर्तव्य आहे. पाणी शुद्ध करण्यासाठी काही ठिकाणी थेट क्लोरीन वापरतात, काही ठिकाणी ब्लिचिंग पावडर, काही ठिकाणी पॉलीअँल्युमिनाइज्ड क्लोराईड. काहीही वापरा नळाच्या पाण्यावाटे क्लोरीन तुमच्या घरात, स्वयंपाकात आणि पोटात प्रवेश करणारच. क्लोरीनचा हा प्रवेश नाकारण्यासाठी एक साधा उपाय आहे. नळावाटे ‘शुद्ध’ करून आलेलं पाणी भरून ठेवून दोन दिवसानंतर ‘शिळं’ झालं की वापरायचं म्हणजे तोपर्यंत त्यातील अतिरिक्त क्लोरीन उडून जाईल. आपण शरीराला उपकारक ‘शिळं’ पाणी फेकून देतो आणि नळावाटे आलेलं क्लोरीनचा घमघमाट असलेलं पाणी वापरायला घेतो. मग शरीरातलं आयोडीन कमी होणारच. अनेक बाजूंनी आपणच शरीरातल्या आयोडीनला हाकलायला त्याच्यापेक्षा भारी ऑक्सिडीकारक या ना त्या मार्गानं भरल्यावर आयोडीनची कमतरता नाही झाली तर नवल. याला म्हणतात आपणच आपल्या पायावर कुर्‍हाड मारून घेणं.
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अर्थव्यवस्था का नमक

२, अक्टूबर २०००
.........लीना मेहेंदळे

पिछले पचास वर्ष से सिर धुन-धुनकर रोया जा रहा था कि सरकार में लाइसेंस-कोटा-परमिट राज है जबकि इसे मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाना चाहिए ताकि उद्यमियों के लिए उत्पादन क्षमता के नए आयाम खुलें। लेकिन हर उद्यमी अपने-अपने उत्पाद और अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार आंशिक नियंत्रण की बात करता था। यानी वे नियंत्रण हटने चाहिए जिनका हटना उसके लिए फायदेमंद हो और वे रहने चाहिए जो उसे स्पर्धा से बचाते हों। अर्थात यह भी एक तरह से आरक्षणवादी सिद्धांत है। सामाजिक आरक्षण को लेकर हजार चर्चाएं और आंदोलन होते रहे, जबकि आर्थिक या आद्योगिक आरक्षण का खेल हमेशा पर्दे के पीछे खेला जात रहा। बहरहाल, विदेशियों की नजर हमारे देश में मिल सकने वाले बाजार पर पड़ी और पूरे विश्र्व में अचानक यह आलोक क्षण मात्र में फैल गया कि आयात प्रतिबंध हटने चाहिए। हमारी अर्थव्यवस्था खुले तो यों भक से खुले कि ब्रह्मांड के दूसरे छोर तक कहीं कोई दीवारें, दरवाजे या रुकावटें न हों। जो भी अपनी पेदावार यहां लाकर बेचना चाहता है, बेचे। जो भी यहां टोल-नाकों पर बैठकर उगाही करना चाहता हो, करे। अब हम खुल गए हैं।

लेकिन हम खुले हैं तो किसके लिए? उनके लिए जो उत्पादक हैं। उनके लिए नहीं, जो उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता पर तमाम बंधन लगाए जा सकते हैं और लगाए जाएंगे क्योंकि तभी तो उत्पादक निश्च्िंात रहेंगे कि उनके माल की खपत होगी। उपभोक्ता पर बंधन लगाने के दो तरीके होंगे : स्वच्छ और प्रच्छन्न। स्वच्छ का अर्थ यहां सफाई से नहीं है। स्वच्छ यानी जो डंके की चोट पर बताए जाएंगे। प्रच्छन्न वे जिन्हें किसी बहाने से लगाया जाएगा। एक बहाना इसमें बहुत काम आएगा और वह है सरकार की अनुपलब्धियों का, जो कि पिछले पचास वर्षों से चली आ रही हैं और
आगे भी चलेंगी। इसके माध्यम से बहाने मिलते रहेंगे।

उदाहरण खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। नमक का उदाहरण समाने है। जिस देश पर अपनी संपत्त्िा लुटाने के लिए समुद्र तीन दिशाओं से पलकें बिछाए बैठा है वहां छोटे-छोटे हजारों नमक-भंडार हों तो कोई आश्चर्य नहीं। यहां कई-कई पीढ़ियां सदियों से नमक बनाने के व्यवसाय में जुटी हों और सारी जनता को अत्यंत सस्ती दर पर नमक मुहैया होता रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रकृति ने तो सौगात देने में इतनी उदारता बरती कि समुद्र के अलावा हमारे कई पहाड़ों से भी नमक प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन नमक खाने वाला कौन है? करीब बीस प्रतिशत अतिधनवान से लेकर अस्सी प्रतिशत गरीब और अतिगरीब तक सभी। उन बीस प्रतिशत को नमक की महंगाई से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिन अस्सी प्रतिशत को पड़ता है उन्हें क्षुद्र उपभोक्ता कहा जा सकता है। उन्होंने अभी तक 'अधिक सफेद नमक' खाने की धन्यता को नहीं जान है।

उधर हजारों छोटे नमक उत्पादक व्यवसायियों की तुलना में उन महिमामय उत्पादकों का पलड़ा भारी है तो बनाएंगे तो नमक ही, लेकिन पर्याप्त साज-सज्जा के साथ, और उस नमक से प्राकृतिक आयोडिन हटाकर। उसमें दुबारा बड़े तामझाम और निहित कर्मकांड (यहां-प्रोसेसिंग के अर्थ में) संपन्न कराकर आयोडीन वापस डाला जाएगा और उपभोक्ता से कहा जाएगा-लो, इसे खाओ। नहीं खाते? अरे भाई, कहां हो मेरी सरकार? इस पर कुछ प्रतिबंध लगाओ। क्या प्रच्छन्न तरीके चाहिए? तो उन बीमारियों के आंकड़े फाइल में दर्ज करो जो आयोडीन की कमी से होते हैं । लेकिन फैसले का हक उपभोक्ता को न दो। उत्पादक के लिए खुली अर्थव्यवस्था है, उसे अपने आयोडीन-नमक कारखाने की क्षमता बढ़ानी है तो वह बढ़ाएगा। लेकिन यदि उपभोक्ता कहे कि वह आयोडीन-नमक मैं नहीं खाता, मुझे वही पुराना सस्ता, प्राकृतिक (और समुद्र-जल से बना हो तो आयोडीन की पर्याप्त मात्रा को प्राकृतिक रूप से संजोने वाला) नमक चाहिए, तो भई सरकार इसे इतनी खुली छूट, खुली आजादी तो न दो कि वह हमारा उत्पाद खाने की
बजाय उन छोटे समुद्रतटीय सस्ते नमक उत्पादकों का उत्पाद खरीदें।

बंधन लगाने के बहानों के लिए भी दूर तक दौड़ लगाने की जरूरत नहीं है। कह दो कि हमारे स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग कार्यक्षम नहीं थे, वे जनता को आयोडीनयुक्त नमक की आवश्यकता से अतगत कराने में कामयाब नहीं थे, न होंगे। जब जनता ज्ञानी हो, तब फैसला उस पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन घोर अज्ञान में घिरी जनता को लेकर दो कठिनाइयां हैं। पहली यह कि उसे आयोडीनयुक्त नमक की आवश्यकता का ज्ञान नहीं है ओर दूसरी यह कि समुद्री नमक में प्राकृतिक रूप से आयोडीन मौजूद होता है, यह ज्ञान उससे छिपाने की भी आवश्यकता है। सो, खुली अर्थव्यवस्था उत्पादकों के लिए सारे दरवाजे खोलती चली जाएगी। उपभोक्ता के लिए दरवाजे बंद हो सकते हैं।
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जनतंत्र की खोज में 12 y

जनतंत्र की खोज में
१७, जुन २०००
-----लीना मेहेंदळे

बड़ा शोर सुना था जनतंत्र का। मैंने मां से पूछा, यह जनतंत्र क्या होता है? कहानियों में तो राजा हैं, रानी हैं, परियां हैं, दुष्ट राक्षस हैं, बुद्धिमान मंत्री हैं, कहीं कोई शहरयार भी है राजा को कहानियां सुनाने के लिए। लेकिन जनतंत्र कहीं नहीं। उसने कहा, ठहर मैं तुझे दिखाऊँगी कि जनतंत्र क्या चीज है?

उन दिनों चुनावों की बड़ी धूम थी। स्वतंत्रता के बाद देश का दूसरा चुनाव था। माता-पिता मुझे भी साथ ले गए। कतार से गुजरकर हम चुनावी कमरे में पहुंचे। प्रिसाइडिंग अफसर से कहा-छोटी बच्ची है, देश की भावी नागरिक। इसे समझाना जरूरी है कि चुनाव क्या होता है? वे सज्जन भी कोई शिक्षक रहे होंगे। कहा, 'हां ', 'हां ', बेशक । और मुझे खुद चुनाव पत्रिका दिखाई, मतदान का बक्सा दिखाया। मां के साथ गुप्त कक्ष में भी जाने दिया। पर ठप्पा लगाने का समय आया तो मां ने मुझे दिखाने से इनकार कर दिया कि उसने किस उम्मीदवार के निशान पर मोहर लगाई है। कहा कि मतदान गुप्त होता है ताकि हरेक को अपना हक जताने की पूरी सुविधा हो।

क्या ऐसा है कि आज हम जब चुनावों में अपने नेता को चुनते हैं तो उसे पूरी आश्र्वस्ति से चुनते है? चुनाव का अर्थ-कारण ही लीजिए। प्रसिद्ध गांधीवादी निर्मला देशपांडे ने मुझे एक घटना सुनाई कि १९५२ में देश के प्रिय चुनावों के समय उनकी मां उम्मीदवार थीं। तब उनके दोस्तों ने घर-घर जाकर प्रचार किया था और बगैर एक पैसा खर्च किए उनकी मां ने चुनाव जीता। जीतने के बाद भी उनका कोई प्रचारक यह मांग करने नहीं आया कि हमने आपको जिता दिया है इसलिए आप हमें कोई सरकारी नौकरी या ठेका-परमिट दिलवाइए। लेकिन अब वह जमाना जा चुका है। अब स्वयं चुनाव आयोग का कहना है कि लोकसभा के उम्मीदवार को चुनाव के लिए पंद्रह लाख रूपए तक की रकम खर्चने का हक है। असली खर्च एक करोड़ भी हो जाता है, यह सभी जानते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि हर चुनावी उम्मीदवार यह पैसा एक लागत के रूप में लगाएगा। अगर जीता तो क्या उसे यह लागत वसूल करने का मोह नहीं होगा? और उस लागत का सूद? चुनावी उम्मीदवारों की इन सारी आर्थिक मजबूरियों को समझने के बाद उनके भ्रष्टाचार से पिसने के बावजूद उसके विरूद्ध आक्रोश व्यक्त करने के लिए जनता में हिम्मत कहां से बचेगी? जनता को कहना पड़ता है - भाई कर लेने दो भ्रष्टाचार !

नरसिंह राव जैसे देश के पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने राजकीय अनुभव लिखते हुए चुनावों के दौरान होने वाले आर्थिक उत्पातों के बारे में विस्तार से बताया है। एक नेता का किस्सा सुनने में आया कि वह चुनावों से पहले बैंक से नए नोट निकलवाता है जो कि उसके चुनावी क्षेत्र में बांटे जाते हैं- यह कहकर कि यदि मैं जीत गया तो मेरे कार्यालय में यह नोट ले आइए और पांच गुनी रकम ले जाइए। पैसे बांटते समय लेने वाले की मर्जी है कि वह एक निश्च्िात सीमा तक जितने चाहे पैसे ले सकता है। यह 'इलेक्शन फिक्सिंग ' किसी भी मैच फिक्सिंग या पौल रिगिंग से ज्यादा प्रभावशाली है। इस प्रकार की चुनावी अर्थनीतियों के आगे मेहनत की कमाई जैसी कोई बात क्या मायने रखती है ! पिछले पुणे लोकसभा चुनाव में सिद्धांत की लड़ाई को मजबूत करने के लिए एक चुनावी उम्मीदवार अविनाश धर्माधिकारी ने अपना नामांकन पत्र भरते समय पहले शपथ पत्र दाखिल कर अपनी सांपत्त्िाक ब्यौरा जनता के सामने रखा और प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार को चुनौती दी कि वे भी अपनी संपत्त्िा का ब्यौरा जनता के सामने रखें। इस चुनौती के बावजूद किसी भी प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार ने अपना सांपत्त्िाक ब्यैरा जनता के सामने नहीं रखा।

जमाना था जब उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए बाहुबल का सहारा लेते थे। लाठी, तलवार, बंदूक, रायफल वाले गुंडों को अपनी सेवा में रखते थे। धीरे-धीरे बाहुबल के धनियों ने सोचना शुरू किया कि हम उन्हें जिताने की बजाय खुद क्यों न जीतें ! हमारे पुराणों में कृत्या राक्षसी का चरित्र है। एक बहुत बड़े तपस्वी किसी धर्मपरायण राजा से चिढ़ गए। राजा का विनाश करने के लिए उन्होंने अपने सर की एक जटा खींची और उसे जमीन पर पटकते हुए कुछ मंत्र पढ़े। कहते हैं, मंत्रों में उनकी तपस्या की सारी शक्ति समाई हुई थी। मंत्र पढ़ चुकने के बाद तपस्वी की शक्ति निकल चुकी थी - वे एक सामान्य व्यक्ति की भांति रह गए। हां, जहां जटा पटकी गई वहां से कृत्या नामक एक भयानक राक्षसी का जन्म हुआ जो तपस्वी की आज्ञा-पालन के लिए बाध्य थी। उसने पूछा, मेरे आका, हुकुम? तपस्वी ने राजा की तरफ इशारा किया, 'इसका विनाश करो।' कृत्या राजा पर आक्रमण करने दौड़ी। लेकिन धर्मपरायण राजा के सम्मुख निर्बुद्धि, बाहुबल की एक न चली। अब कृत्या तड़प उठी। उसका निर्माण ही हुआ था बलि लेने के लिए। यदि वह राजा की बलि नहीं ले सकती तो उसे अपने निर्माता की बलि लेनी पड़ेगी। थोड़े समय पहले उसने जिनसे हुक्म पूछा था, उन्हीं पर दौड़ पड़ी। बिचारे तपस्वी की शक्ति समाप्त हो चुकी थी। अब वे किसी उपाय से कृत्या को नहीं रोक सकते थे। अपना अंत दिखाई पड़ा तो भागकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश की शरण में पहुंचे। सबने कृत्या की शक्ति के सम्मुख अपनी असमर्थता दिखाई। फिर तपस्वी को आखिरी उपाय सूझा। वे उसी राजा
की शरण में आए। राजा ने उन्हें अभय दिया और घनघोर लड़ाई के बाद कृत्या का विनाश किया।

बड़ी ही आशावादी कहानी है, क्या कहीं हमें भी आशा की किरण दिखती है कि राजनीति में आने वाले अपराधी तत्वों का विनाश इस देश की जनता कर सकेगी?
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नमक के दरोगा 11 y

नमक के दरोगा
४, जुन २०००
.......लीना मेहेंदळे

दांडी यात्रा की घटना हमारी मैट्रिक की किताबों में थी और उस पर सवाल पूछे जाते थे। शायद यही वजह रही हो कि दांडी यात्रा का फलसफा हमने घोट-घोट कर पढ़ा था। फिर उसे और मजबूत किया एटनबरों की फिल्म 'गांधी' ने। इसीलिए कुछ वर्ष पूर्व जब महाराष्ट्र सरकार ने टाटा के आयोडाइज्ड सॉल्ट को बढ़ावा देने के लिए मुंबई के मिठागर (नमक बनाने वाले क्षेत्र) उठवा दिए तो मैं बहुत छटपटाई थी। इन मिठागरों पर गुजारा करने वाले कई सौ परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी नमक बनाकर अपना गुजारा करते थे, अब बेरोजगार हैं।

लेकिन मैंने जब आयोडाइज्ड नमक के विषय में जानने की कोशिश की तो कई आश्चर्यजनक बातें सामने आईं। मसलन, नमक बनाने का सबसे सस्ता उपाय है समुद्र के पानी से नमक बनाना। परंपरागत पद्धति से जो समुद्री नमक बनाया जाता है उसमें असली नमक यानी सोडियम क्लोराइड के अलावा अन्य कई तरह के लवण सूक्ष्म मात्रा में उतर आते हैं। मैग्नीशियम, पोटेशियम और मैगनीज के लवण। अल्प मात्रा के ये लवण हमारे शरीर के लिए कई तरह से आवश्यक हैं। यह पाया गया है कि शरीर को बहुत सूक्ष्म मात्रा में आयोडीन की आवश्यकता होती है। यह जरूरत पूरी न होने पर गॉयटर और कुछ अन्य किस्म की बीमारियां होती हैं। शरीर को
को अपने काम भर लायक यह आयोडीन कहां से मिलता है? भले ही कारखाने इसे छिपाना चाहें लेकिन तथ्य यह है कि हमें यह समुद्री नमक से मिलता है। पूरे संसार में आयोडीन के उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में समुद्र का पानी ही काम आता है। इसी से समुद्री नमक खाने वालों में गॉयटर जैसे रोग नहीं पाए जाते हैं। पहाड़ों से भी नमक बनाया जाता है। उसमें आयोडीन नहीं पाया जाता, लेकिन उसमें सल्फाइड और फॉस्फेट जैसे
अन्य लवण सूक्ष्म मात्रा में मिलते हैं जो शरीर की कुछ अन्य जरूरतों को पूरा करते हैं। पहाड़ी नमक खाने वालों को आयोडीन की अनुपलब्धता के कारण गॉयटर होने की आशंका रहती है।
लेकिन आयोडाइज्ड नमक की बड़ी-बड़ी लागत वाली फैक्ट्रियों में क्या करते हैं? पहले समुद्र से नमक बनाते हैं। फिर उसका शुद्धीकरण करते हैं अर्थात सोडियम क्लोराइड के अलावा अल्प मात्रा वाले अन्य सभी लवण उसमें से हटा देते हैं। फिर उसमें आयोडाइड मिला देते हैं। लेकिन वे सारे अल्प मात्रा के लवण जो पहले समुद्री नमक में थे और शरीर के लिए आवश्यक थे, उन्हें हटाए जाने से शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। फिर डॉक्टर आपको अलग से गोलियां खाने को कहते हैं। इससे उनका और दवाई बनाने वाली कंपनियों का धंधा बढ़ता रहता है। यानी परंपरागत समुद्री नमक जो पचास पैसे किलो के भाव से मिल जाता था, उसे बड़ी फैक्ट्री में डालो, उससे आयोडाइड और अन्य लवण निकाल लो, फिर से दुबारा आयोडाइज्ड करो और जनता को दस रूपए किलो के भाव से बेचो। मुनाफा हो फैक्ट्री वालों का, जेबें खाली हों ग्राहकों की और उसे खाली करवाने के लिए आयोडाइज्ड नमक को अनिवार्य करने का और परंपरागत नमक पर पाबंदी लगाने का उंडा चलाए सरकार। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि यदि बगैर जरूरत के आपने ज्यादा आयोडाइज्ड नमक को अनिवार्य करने का और परंपरागत नमक पर पाबंदी लगाने का डंडा चलाए सरकार। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि यदि बगैर जरूरत के आपने ज्यादा आयोडाइज्ड नमक खा लिया तो कुछ अन्य रोग भी हो सकते हैं। क्या हमें कोई बताएगा कि परंपरागत नमक में आयोडीन की मात्रा क्या होती थी और अब बाजार में बिकने वाले आयोडाइज्ड सॉल्ट में कितनी होती है और अधिक आयोडीन खा लेने से किन रोगों की आशंका बढ़ती है? कहां है राइट टू इंफॉर्मेशन?

सच तो यह हे कि जो आयोडाइज्ड नमक फैक्ट्रियों में बनाया जाता है उससे आयोडीन की मात्रा धीरे-धीरे निकल जाती है। कहा जाता है कि उसकी मियाद केवल तीन महीने की है। यानी बीमारी से बचने के लिए जो
आयोडाइज्ड नमक लिया हो वह केवल तीन महीनों के बाद प्रभावहीन होने लगता है। इसी तरह फैक्ट्री में पैक होने के बाद ग्राहक तक आते-आते यदि वह नमक तीन महीने पुराना हो गया तो वह बेअसर होकर ही महारे पास आएगा। हमारे अचार इत्यादि साल भर चलने वाले पदार्थों के लिए वह नमक किसी काम का नहीं। फिर भी हम अचार के लिए पुराना सस्ता नमक क्यों नहीं खरीद सकते?

गरीब की जिंदगी पर नमक कितना असर करता है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सारे आदिवासी क्षेत्रों के आदिवासी टोकरियां भर-भर कर चिरौंजी, शिकाकाई, हर्रा, कात, करौंदा जैसे जंगली फल केवल एक किलो नमक के लिए दे डालते हैं (इसे 'बेचना' कहने में मेरी कमल रूकती है) । ऐसा नमक गरीब आदमी को अत्यंत किफायती दाम पर मिले, इसलिए महात्मा गांधी ने आंदोलन छेड़ा था। लेकिन आज कहां है वह नैतिक साहस या सिद्धांत की लड़ाई? नमक का परंपरागत उत्पादन रोक देने के कारण मुंबई मिठागरों से कितने परिवार बेरोजगार हुए, इसकी सुध लेने की जिम्मेदारी न सरकार की है और न फैक्ट्री लगाने वालों की। इन्हीं बेरोजगार परिवारों की युवा पीढ़ी गुनहगारी में जा पहुंचती है, इस सामाजिक तथ्य को हम भुला देते हैं।

इन सवालों के उत्तर लिए बिना मैंने यही उचित समझा कि टीवी पर चाहे जितना कैप्टन कुक और टाटा नमक का बखान सुन लो, लेकिन घर में आएगा वही पुराना ढेला नमक, जो बेवजह महंगा या बेवजह फैशनेबल नहीं है, जो लघु उद्योग का हिमायती है और प्राकृतिक रूप से शरीर के लिए सही हैद्य लेकिन बुरा हो दिल्ली का। महाराष्ट्र से दिल्ली आने पर पाया कि दक्षिण दिल्ली में ढेला नमक तो मिलता ही नहीं। ऊपर से आए दिन आयोडाइज्ड नमक के अनिवार्य होने की खबरें पढ़ने में आती हैं। मुझे महाराष्ट्र से ढेला नमक मंगवाना पड़ता है। हाल में मुझे किसी ने बताया कि पुरानी दिल्ली के बाजारों में ढेला नमक मिल जाएगा। मैं इंटरनेट पर ऐसी दुकानों की सूची छपने की प्रतीक्षा में हूं।
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भीड़ के आदमी का हक 10 y

भीड़ के आदमी का हक
जन. १४ अप्रेल २०००
बचपन की एक कहानी ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। एक ग्रामीण अपना बैल बेचने के लिए बड़े गांव के बाजार ले गया। बाजार की गुंडागर्दी और दलाली से वह अपरिचित था। अचानक एक मुस्टंड आदमी चालबाजी कर रहा है, लेकिन बैल को उससे छुड़ाने का कोई तरीका नहीं सूझता था। तभी अचानक भीड़ के एक आदमी ने अपनी पगड़ी खोली और बैल के मुंह पर डाल दी और फिर उस मुस्टंडे से कहा कि अच्छा बताओ तुम्हारे बैल की कौन-सी आंख में जख्म है, दाहिनी या बाईं? चालबाज आदमी को तत्काल कोई जबाव नहीं सूझा, उसने फिर भी कहा-दाहिनी, लेकिन शायद, बाईं भी हो, मुझे याद नहीं आ रहा। फिर भीड़ के अदमी ने पहले व्यक्ति से पूछा तो उसने कहा-मेरे बैल में कोई दोष नहीं है, उसकी दोनों आँखें अच्छी हैं। कपड़ा हटाया गया तो सबने देखा कि बैल की आंखें सही सलामत थीं। इस तरह दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। एक गरीब व्यक्ति को न्याय मिल गया और लोगों को भी विश्र्वास हुआ कि हां, न्याय हुआ है।

इस कहानी का महत्व यह है कि उचित न्याय प्रक्रिया के लिए उचित और दिमागी सूझबूझ वाले प्रश्न का हक एक सामान्य 'भीड़ के आदमी ' के पास भी था, जैसा कि होना चाहिए। लेकिन आज हमारी पुलिस अन्वेषण की प्रक्रिया में या अदालत की न्यायदान की प्रक्रिया में भी बाहरी आदमी की सूझबूझ को कोई स्थान नहीं दिया जाता। यही कारण है कि कोई मामला चाहे कितना ही गंभीर क्यों न हो - जैसे प्रियदर्शिनी मट्टू का केस, अंजू इलियासी का केस या मुंबई का रमेश किणी हत्या का केस, उनकी जांच-पडताल में सामान्य आदमी को अपना योगदान देने का हक नहीं होता, न ही उसके सुझावों का स्वागत होता है।

गुनाहों की जांच और न्याय प्रक्रिया में सामान्य आदमी की सूझबूझ को उजागर करने वाले कुछ माननीय लेखक और पात्र रहे हैं': आर्थर कानन डायल का पात्र शरलॉक होम्स, अर्ल स्टेनली गार्डनर का पात्र पेरी मैसन, अगाथा क्रिस्टी की पात्र मिस मेपल और जाने माने साइंस फिक्शन लेखक आइजैक असिमोव के अनेक पात्र। इन रचनाओं से पश्च्िामी समाज में सामान्य व्यक्ति की सूझबूझ को मिलनेवाले सम्मान और हक का अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन भारत में गुलामी के दो सौ वर्षों के इतिहास में यही मनोवृत्त्िा बन गई थी कि 'माई-बाप सरकार न्याय करेगी।' इस मनोभाव से हम अभी उबरे नहीं हैं। हम यानी सरकार। सरकार अब भी कहती है कि हम ही माई बाप हैं, जांच और न्याय हम ही करेंगे। तुम्हें अपनी सूझबूझ दिखाने का दिमाग खपाने की कोई जरूरत नहीं। तुम विश्राम करो।

फिर भी अपने हठ से विवश मैं भीड़ के एक सामान्य जन की हैसियत से एक सवाल जांच एजंसियों से पूछना चाहती हूं - अंजू इलियासी के मामले में। अखबारी रिपोर्टों में लिखा है कि अंजू के पेट में दो या तीन बार छुरा भोंका गया था। मैंने पढ़ा है कि आत्महत्या के मूड में आवेशित व्यक्ति एक बार तो अपने आपको पूरी ताकत से छुरा भोंक सकता है, लेकिन सवाल दूसरे और तीसरे वार का है। पहले वार की तीव्रता के कारण जो मानसिक, आघात, जो दर्द और जो खून का बहाव शुरू होता है, उसके बाद भी क्या किसी व्यक्ति का दिमाग इतना दृढ़ रह सकता है कि उसके हाथ छुरे को खींचकर बाहर निकालें और उन हाथों में फिर भी इतनी ताकत बाकी हो कि वे जानलेवा आवेग से दुबारा पेट में छुरा भोंक सकें?

करीब पचास वर्ष पहले तक जापान में हाराकिरी अर्थात अपने ही पेट में छुरा घोंप कर आत्महत्या करने का रिवाज था। इसे एक 'रिचुअल' के रूप में किया जाता था। हाराकिरी करने वाला अपने आपको ध्यान और प्राणायाम के माध्यम से आघात करने के लिए पूरी तरह से तैयार कर लेता था ताकि एक ही वार में उसका काम तमाम हो जाए। क्या हमारे मनोवैज्ञानिकों ने ऐसा पढ़ा या पाया है कि कोई व्यक्ति एक सशक्त वार के बावजूद मरने के लिए अपने आप पर दूसरा और तीसरा सशक्त वार भी कर सकता है? मुझे संदेह है । लेकिन यदि कहीं पुराने केसों की फाइलों में इस संदेह का यह उत्तर नोट किया गया हो या यदि यह सवाल अनुत्तरित हो तो सामान्य जन को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए।
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Thursday, 22 October 2009

छोरी साइकिल चलावै छे 25 y

छोरी साइकिल चलावै छे
---लीना मेहेंदले

स्त्री मुक्ति, स्त्री विकास, स्त्री सबलीकरण इत्यादि शब्दों का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने संदर्भ के अनुसार लगा लेता है । मेरे लिये इसका सीधा- सादा अर्थ है कि स्त्री को घुमक्कड़ी का पूरा अधिकार और सुविधा होनी चाहिये - घूमो, जहाँ, जब चाहो ।

अधिकार के लिये घर-परिवार में कहीं कोई मनाही नही थी । लेकिन सुविधा के लिये माता-पिता को, समाज को प्रो-अक्टिव होना पड़ता है । सो मेरे पाता-पिता थे । उत्तरी बिहार जैसे पिछड़ा माने जानेवाले प्रांत के दरभंगा शहर में सन्‌ साठ के दशक में मेरे पिताजी ने बड़ी जिद से मेरे लिये लेडीज साइकिल खरीदी, खुद मैदानों में ले जाकर मुझे सिखाई और बढ़ावा देते रहे स्कूल में साइकिल से जाने के लिए । घुमक्कड़ी का बीज तभी पड़ा ।

यह वो जमाना था जब हमारे गर्ल्स स्कूल में सभी लड़कियों को स्कूल लाने- लेजाने के लिये बस थी । उसकी भारी फीस चुका पानेवाली लड़कियाँ ही वहाँ पढ़ सकती थीं क्यों कि लड़कियों का पैदल चलना खतरों भरा माना जाता था । बस अक्सर बंद हो जाती और स्कूल में छुट्टी घोषित हो जाती जिसकी सूचना एक बेचारा स्कूल- सिपाही घर घर जाकर दे आता । उस खटारा बस को चलाने के लिये 'हैंडिल मारना' पड़ता था । इस शब्द के माने भी आज की तारीख में शायद ही कोई समझेगा ।

बहरहाल, साइकिल से स्कूल जाते हुए मुझे अक्सर 'छोरी साइकिल चलावै छे' सुनना पड़ता । (जिनके दिमाग में बिहार की कोई अन्य छवि हो उनके लिए यह भी कह दूँ कि यह अक्सर प्रशंसा भरा होता था) लेकिन क्षणैक भर ही । अगले पल मैं कहीं दूर होती - आश्चर्य से मुँह बाये खड़े उस दर्शक के अगले रिमार्क की पहँच से कहीं दूर । फिर चाहे वह प्रशंसा भरा हो चाहे निंदात्मक, उसे जानने के मोह से भी मैं परे हो जाती । वह दूरी और वह गति ही स्वतंत्रता की असली पहचान बनती थी । बाद में घूमने के इतने मौके मिले कि भ्रमणशीलता और स्वतंत्रता का नाता मेरे मन में पक्का हो गया । दोनों के लिये गतिशील वाहन का स्वामित्व आवश्यक है ।

नौकरी के लिये पुणे आई और स्कूटर खरीदा तो किसी ने पुणेरी महिलाओं के ऐतिहासिक साहस की कथाएँ भी सुनाई । पुणे में मोटर साइकिल चलानेवाली पहली महिला श्रीमति इंदू नातू (१९५३) थीं, फिर इरावती कर्वे ('युगान्त' की चर्चित लेखिका) और फिर प्रभा नेने जिन्होंने उस दशक में पुणे - नागपुर स्पर्धा पुरूषों के मुकाबले में जीती थी । फिर लैम्ब्रेटा स्कूटर का दौर आया । इन महिलाओं के साहस का फल है कि आज पुणे शहर में दोपहिया वाहन चलानेवाली महिलाओं की संख्या पुरूषों के बराबर है, चाहे साइकिल पर हो चाहे स्कूटर पर । महिलाएँ रात में भी अकेली, पैदल या वाहन पर सवार होकर निर्भयता से घूम सकती हैं । भ्रमण की यह सुविधा इतनी भरपूर शायद ही अन्य किसी शहर में हो ।

जब मारुति कार पहली बार बाजार में आई तो उसे चलाना इतना सरल और सुविधाजनक था (खासकर अम्बेसेडर की तुलना में) कि महिलाओं ने इसे तत्काल अपनाया । किसी भी शहर के आर टी ओ के आँकड़े इस बात की गवाही देंगे कि जब उनके शहर में मारूति आई तो महिला लाइसेन्सधारियों की संख्या अचानक बढ़ गई । लेकिन ये बढ़ोतरी केवल संपन्न वर्गों से हुई - मध्यम वर्ग की महिलाएँ इसे अफोर्ड नहीं कर सकती थीं । उन्हें चाहिए थी स्कूटर- दो पहियों वाली, जो गति तो दे पर जेब पर भारी भी न पड़े । लेकिन महिलाओं के स्कूटर चलाने का चलन जितना पुणे में बना उतना अन्य शहरों में नही । स्कूटर चलाना थोड़ा कठिन तो अवश्य है । अस्सी के दशक तक जितने स्कूटर बाजार में आये उनमें ब्रेक के लिए दाहिना पैर लगाना पड़ता है जिससे दहिने मुड़ने में थोड़ी दिक्कत है । कई पुरूषों ने भी मुझसे यह कहा है और महिलाओं को तो छोटे कद और स्कूटर के भारी होने की दिक्कत होनी ही थी । इस अड़चन की परवाह न करना जैसा पुणे की महिलाओं को आया वैसा अन्य शहरों में इतने बड़े पैमाने पर नही आया ।

उन दिनों कार्यवश मैं कभी भी दिल्ली आती थी तो यह अखरता था कि यहाँ औरतें स्कूटर नहीं चलाती थीं । चला भी नही सकती थीं क्यों कि दिल्ली की भीड़ में स्कूटर की मॅन्यूवरिंग असंभव न सही, कठिन तो अवश्य थी । वह उनके उत्साह पर रोक तो लगा ही देती होगी । (हालाँकि इक्का-दुक्का स्कूटरधारी महिलाएँ मैंने तब भी देखी हैं)

मैं अक्सर सोचती थी कि दिल्ली में भी औरतें स्कूटर चलाने लगें तो कितना अच्छा होगा - क्यों कि इससे ट्रैफिक का 'कंपोजिशन' ही बदल जाता है । सड़कों पर अधिक औरतें दीखती रहें यह भी महिला विरोधी अपराध कम करने का एक कारगर उपाय है । लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है ? सबलीकरण का वह दौर जो पुणे में पचास वर्ष पूर्व आ चुका था, अभी तक दिल्ली नहीं पहुँच पाया था।

फिर आँटोमॅटिक गियर वाली 'कायनेटिक होंडा' मार्केट में आई और पुणे में ही मैनें देखा कि कितनी तेजी से महिलाओं ने अपनी पुरानी स्कूटर बदलकर नई कायनेटिक खरीदी । इसकी खूबियाँ थीं कि ब्रेक पैर की बजाय हाथ से लगाया जाता है, सीट की उँचाई कम है, गियर अपने आप बदलता है । खासतौर पर महिला चालकों की स्कूटर कहा जा सकता है इसे । मैने हस्तीमल फिरोदिया जी को बधाई दी -- कि औरतों के स्वावलंबी बनने की प्रक्रिया में एक बढ़िया आयाम उनकी कायनेटिक ने जोड़ा है । यह सन्‌ नब्बे की बात है ।

कायनेटिक ने पुणे से दिल्ली तक की दूरी दस वर्षों में तय की । पिछले एक वर्ष से देख रही हूँ कि दिल्ली में कायनेटिक चलाती हुई महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है । यह हुई ना बात। अब अधिक महिलाएँ कायनेटिक चलाएंगी - सड़कों पर उनका आवागमन, उनकी उपस्थिति बढ़ेगी । कभी रात में परिस्थितिवश किसी महिला को पैदल चलना पड़ा (जो मुझे कभी कभी पड़ता है) तो उसे आशा रहेगी कि कोई स्कूटरचालक महिला उसे लिफ्ट दे सकती है । कालांतर में रात में भी पैदल चलने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ेगी तो अकेले पैदल चलना नही अखरेगा । महिला सबलीकरण की सुविधा जुटाने वाली कायनेटिक होंडा जिंदाबाद।
कायनेटिक, तुम दरभंगा कब पहुँचोगी ?
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प्रकाशित प्र.ख. ३१ अक्टूबर २००२
15जनवरी 2003 -- PCRA द्वारा ऑइल-बचाओ पखवाडे के उपलक्ष्य में दिल्ली में आयोजित दुपहिया वाहन-चालक महिलाओंकी रैली के अवसर पर व वितरित लेख.

Tuesday, 24 March 2009

समाज बनाम प्रशासन -- मेरे लेखोंकी भूमिका y

समाज बनाम प्रशासन -- मेरे लेखोंकी भूमिका
मेरी हिंदी आलेख कई वर्षों से 'यदा-कदा' रूप में छपते रहे। पुणे में रहने के कारण मराठी आलेख लिखना तुरन्त-फुरन्त हो जाता था। हिंदी लिखने के लिये आलस आडे आता- तो भौगोलिक दूरी का कारण बताकर अपने आपको उचित ठहराने में कोई परेशानी नहीं थी।

लेकिन दिल्ली में पोस्टिंग हुई तबसे कहानी उलटी हो गई। पिछले पांच वर्षों में 'जनसत्ता' के लिये काफी लेखन किया। अब सबकी राय से उन्हीं में से कुछ लेखों का संग्रह छप रहा है। कुछेक लेख दूसरे अखबारों में भी छपे हैं जैसे हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाइम्स इत्यादि।

इन लेखों के मुख्य मुद्दे हैं समाज और प्रशासन! या कहूँ कि समाज बनाम प्रशासन। दोनों ओर से बहस करने वाला मुख्य पात्र मैं, और बहस के अच्छे व कमजोर मुद्दों की निर्णायक या जज भी मैं। इसका कारण भी है।

मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में आई तब एक सपना लेकर कि इस नौकरी के माध्यम से कई सामाजिक कुरीतियाँ दूर करनी हैं- लोगों को बहस और सोच के लिये उकसाना है। लेकिना अपना कर्तव्यभार पूरी सच्चाई और निष्ठा से निभाने के बावजूद भी दिख जाता कि इससे समाज की कठिनाई दूर नही हुई हैं। एक अफसर होने के नाते, कानून और शासन व्यवस्था के दायरे में रहकर मैं जो कुछ करूँ, जरूरी नही कि उसका असली और समग्र लाभ समाज को मिले। समाज नामक संस्था की भी कुछ अपनी परंपराएँ हैं, मान्यताएँ हैं, मजबूरियाँ भी हैं। इसलिये जब समाज की उंगली नौकरशाही की ओर उठते हुए आरोप लगाती है तो उसमें एक उंगली अपनी तरफ उठी हुई पाती हूँ- अपनी तमाम निष्ठा के बावजूद! इसने मुझे अक्सर सोचने को मजबूर किया कि क्या ऐसा संभव है कि नौकरशाही के अच्छे लोग और समाज के अच्छे लोग इकट्ठे आ कर अच्छाइयों के परिमाण में कई गुना मूल्यवृद्धि करें? लेकिन उसके लिये केवल 'एकत्र आना' पर्याप्त नही है, हमारी सोच, प्रबुद्धता, और काम करने की दिशा भी एक हो तभी परिमाण में गहराई और व्यापकता होगी।

यही कारण है कि कोई मुद्दा उठे तो मैं पहले देखती हूँ कि यदि मैं 'सामान्य जन' होऊँ तो यह मुद्दा मुझे किस प्रकार प्रभावित करेगा? मुझ पर, मेरे सुचारू जीवनयापन की इच्छा पर इसका क्या परिणाम होगा। एक अफसर होने के नाते जो कुछेक सुविधाएँ मेरे पास हैं, वे न रहें तो मैं स्थिती को कैसे झेलूँगी? बाकी लोग कैसे झेलते हैं? इस भुक्तभोगी होने की लालच ने मुझे कई बार ठेलकर 'सामान्य जन' की भीड में खडा कर दिया और चैलेंज दिया कि अब दिखाओ एक सामान्य सज्जन, एक अफसर सज्जन तक अपनी बात कैसे पहुँचाए ताकि उनकी काम करने की दिशा एक हो?

यही कारण है कि जनसत्ता के 'दुनियाँ मेरे आगे' स्तंभ के लिये लिखे गए कई लेख ऐसे हैं जो जन सामान्य के प्रश्नों को समाज और प्रशासन दोनों के दृष्टिकोण से देखते हैं। इन लेखों में यह जानने का कोई कि ईमानदार अफसर तमाम निष्ठाओं के साथ कैसे कहाँ और अच्छा कर सकता है, निष्ठा के बावजूद कहाँ प्रयास है, चूक सकता है- उधर समाज के सज्जन व्यक्ति भी अच्छाई को बढाने में क्या योगदान देते हैं और कहाँ चूक जाते हैं। यह पुस्तक नही, बल्कि प्रजातन्त्र पर गहन विश्र्वास रखने वाले मुझ जैसे एक सामान्य व्यक्ति की दुहाई है- कि समाज अपनी राय के प्रति सजग हो, सोचता हो और मुखर भी हो।