..............लीना मेहेंदळे
दिल्ली में युधिष्ठिर - जनसत्ता ६ अप्रैल २००० -- लीना मेहेंदळे
पहले भी सरकारी काम से दिल्ली आना-जाना होता था लेकिन पोस्टिंगपर यहां आनेके बाद कुछ विस्तारसे दिल्लीको समझना आरंभ किया- खासकर नई दिल्लीके रास्तों को - और पाया कि संसारके कई राजनायकों, देश भरके स्वतंत्रता सेनानियों और जिन तमाम सम्राटोंने दिल्ली पर राज किया उन सभीके नाम दिल्लीके विभिन्न मार्गोंकी पहचान कराते हैं। यहां ओलाफ पाल्मे मार्ग है, नासिर मार्ग है, महात्मा गांधी मार्ग हैं, अरविंदो मार्ग है। विश्वके प्रसिद्ध वैज्ञानिकोंके नामपर भी सड़कें हैं, जैसे कोपरनिकस मार्ग, न्यूटन मार्ग आदि।
लेकिन एक नाम नहीं है, जो सबस पहले होना चाहिए था। वह है सम्राट युधिष्ठिरका। पांडवोंने हस्तिनापुरसे अलग हटकर यह नगर इंद्रप्रस्थ बसाया, जिसे स्वयं विश्वकर्माने बनाया। पांडवोंने यहां वर्षों तक राज किया और राजसूय यज्ञ किया। उसके पहले चारों दिशाओंमें जाकर दिग्विजय करके लौटे। इसी शहरमें मयसभा बनी। उसे बनाने वाला मयासुर उस जमानेका सर्वश्रेष्ठ वास्तुशिल्पी था और उसे विश्वकर्माके समकक्ष माना जाता था। उसके नामका भी कोई रास्ता दिल्लीमें नहीं है। फिर युधिष्ठिरके दिन फिरे तो उसने हस्तिनापुरकी राजसभामें सम्राट धृतराष्ट्र्के साले शकुनि मामासे द्यूत खेलनेका निमंत्रण स्वीकार किया। वहां हारे, वनवास किया, फिर कुरूक्षेत्रके मैदानमें युद्ध किया। जीते तो हस्तिनापुरके सम्राट बन गए। उनके बाद परिक्षित, जनमेजय आदि उनके सभी वंशजोंने अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें ही रखी, इंद्रप्रस्थमें नहीं। द्वारकाके डूबनेके पश्चात् कृष्णके प्रपौत्र वज्रको इंद्रप्रस्थमें राज्य दिया गया।
हस्तिनापुर गांव आज भी दिल्लीसे कुछ हटकर हरियाणामें मौजूद है और युधिष्ठिरद्वारा सुप्रतिष्ठित इंद्रप्रस्थ ही आजकी दिल्ली है। पांडवोंके वंशजोंने अगर हस्तिनापुरसे ही राजकाज किया तो मध्ययुगमें किसके द्वारा और किस समय भारतकी राजधानीको वापस इंद्रप्रस्थ (या दिल्ली) लाया गया, यह इतिहास मुझे ज्ञात नहीं। पढ़ा तो इतना ही है कि बुद्धके समय भारतभरमें पढ़ाईके दो केंद्र थे - तक्षशिला और नालंदा। और सम्राट-पद चला गया था मगध अर्थात पटनामें। तकरीबन तीन सौ वर्षबाद वहां सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय अर्थात विक्रमादित्यने राजधानीको पटनासे हटाकर उज्जैनमें बसाया। वहांसे इतिहासकी स्कूली किताबें छलांग लगाती हैं सम्राट हर्षवर्धनपर, जो स्थानेश्वरके सम्राट थे, और फिर वहांसे पृथ्वीराज चौहान पर, जो दिल्लीके राजा थे। लेकिन यह दिल्ली हस्तिनापुर न होकर इंद्रप्रस्थ थी।
वही इंद्रप्रस्थ आज भी है। मुगल काल, ब्रिटिश कालसे होते हुए आज भी वह भारतकी राजधानी है। दिल्ली शहरका एक विशाल भूभाग इंद्रप्रस्थके नाम से जाना जाता है। यहां तक कि होटलोंको भी यह नाम दिया जा चुका है। लेकिन उस सम्राटका नाम कहीं नहीं दिखता जिसने इसे बनाया, बसाया और यहां न्यायोचित राज किया। वह जो धर्मका पुत्र था और खुद धर्मराजके नामसे जाना जाता था। वह, जिसने सत्य, धर्म, न्याय, नीति और शांतिका पंचशील निर्मित किया और राज चलानेके ये पांच सिद्धांत स्थापित किए। उन शीलोंके नामसे तो रास्ते हैं - और एक लंबा-सा पंचशील मार्ग भी है -लेकिन युधिष्ठिरका नाम नहीं। उसके चारों पराक्रमी भाइयोंका नाम नहीं। उसकी सम्राज्ञी द्रोपदीका नाम नहीं, जबकि सुदूर पांडिचेरीमें द्रोपदीके मंदिर भी हैं और वहां द्रोपदीको इसलिए पूजा जाता है कि वह नारीके अधिकारके लिए लड़ी।
जब बड़ी बड़ी सड़कों पर घूमकर यह निश्चित कर लिया कि इनमें युधिष्ठरका नाम नहीं है, तो आइशर कंपनीका दिल्ली मैप बुक खरीद कर देख डाला। पाया कि दिल्लीमें रजिया सुल्तानका भी कहीं नाम नहीं। और नूरजहां भी नहीं जबकि सम्राट जहांगीरके शासनकालमें असल राजकाज वही चलाती थीं। क्या किसी भी महिलाके नामपर दिल्लीमें कोई सडक है?
फिलहाल मैं युधिष्ठिरकी ही बात कर रही हूं। स्वतंत्रता प्राप्तिके बाद जब नई दिल्ली शहरकी सड़कोंका नामकरण किया गया होगा तब 'भारतकी खोज' जैसे महान ग्रंथके लेखक नेहरू प्रधानमंत्री थे। देशके अन्य दिग्गज इतिहासज्ञ यहां मौजूद थे। फिर क्या कारण है कि इस शहरको रचने-बसाने वाले युधिष्ठिरको भुला दिया गया। अगर हमारी लोकसभाके पन्नों में या किसीके स्मरणमें यह कहानी हो, तो उसे भी हमें जानना चाहिए।
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