Wednesday 31 December 2008

पुलिस प्रपंच -- police prapanch (8)y

08-पुलिस प्रपंच
जनसत्ता २५ मार्च २०००
महिला दिवस के अवसर पर आयोजित कई कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते हुए महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और पुलिस की भूमिका की बराबर चर्चा होती रही। मुझे अपनी नौकरी के प्रारंभिक दिन याद आये जब महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के साथ मेरी ट्रेनिंग चल रही थी। गुनाह की छानबीन की बाबत उन्होंने मुझे जो बातें समझाईं, मैं सोचा करती थी कि मेरे सिवा बाकी लोग वह सब जानते हैं। लेकिन अब देखती हूं कि कई लोग नहीं जानते। इसलिए उन्हें दुहराना उचित होगा। जो मुझे उन्होंने समझाया वह इस प्रकार थाः

जब पुलिस किसी गुनाह की छानबीन करती है तो कई लोगों को पुलिस के सामने बयान देना पड़ता है (और पुलिस को कइयों के बयान लेने पड़ते हैं) अक्सर बयान देने वाले नागरिक और बयान लेने वाली पुलिस दोनों ही नहीं जानते कि बयान देने वाले सभी व्यक्तियों को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता। पुलिस के सामने आने वाले व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं। पहली श्रेणी में वे हैं जो पुलिस के सामने ऐ विशेषज्ञ के रूप में आते हैं। दूसरे वे हैं जिन्हें घटना की जानकारी होती है और वे गवाह के रूप में पेश होते हैं। तीसरे वर्ग में वे आते हैं जिन पर कोई आरोप है या शक है, जो अपराधी हैं और पुलिस को उनके विषय में पड़ताल करनी है।

जब कोई पुलिस के सामने बयान देता है, तो उसे यह मालूम होना चाहिए कि वह किस श्रेणी में है। यदि वह पहली या दूसरी श्रेणी में है तो पुलिस को उससे सम्मान के साथ पेश आना चाहिए। यह बात कई बार बयान लेने वाली पुलिस को नहीं मालूम होती और हर व्यक्ति से पुलिस इस तरह व्यवहार करती है जैसे वह अपराधी हो। उससे गुर्राकर बात करना, उचित सम्मान के साथ न बिठाना, प्रश्न पूछते समय कड़े तेवर दिखाना जैसे व्यवहार प्रायः देखने में आते हैं। विशेषज्ञ की हैसियत से पुलिस से पेश आने वाले कई व्यक्तियों को यह भी पता नहीं रहता कि वे पुलिस या कोर्ट के सामने गवाह के रूप में नहीं, बल्कि विशेषज्ञ के रूप में हैं, सलाहकार के रूप में हैं। उन्हें हक है कि यदि पुलिस उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार नहीं करती तो वे पुलिस की कोई बात न सुनें। कभी-कभी पुलिस उन्हें धौंस में लेकर उनसे जानकारी लेना चाहती है। ऐसी स्थिति में उन्हें आग्रह करना चाहिए कि पुलिस लिख कर दें कि उनकी हैसियत एक विशेषज्ञ की है। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार के मामलों में कई बार यों होता है कि किसी घटना में भ्रष्टाचार का मामला बनता है या नहीं, यह तय करने के लिए पहले उस कार्यालय की कार्यप्रणाली को समझना जरूरी होता है। ऐसे में पुलिस उसी कार्यालय के किसी व्यक्ति से ऐसी जानकारी लेती है। जानकारी देने वाले को यह समझ लेना चाहिए कि वह विशेषज्ञ की श्रेणी में है और पुलिस से विशेष आदर का पात्र है। ऐसे समय यदि कुछ लिखकर देने की गरज पड़ी तो उन्हें स्पष्ट रूप में लिख देना चाहिए कि ये बातें वे एक विशेषज्ञ के रूप में पुलिस की सहायता के लिए लिख रहे हैं।

इसी तरह, पुलिस के सामने जो लोग गवाह रूप में आते हैं वे भी सम्मानजनक व्यवहार के अधिकारी हैं। सड़क दुर्घटना के मामलों में अधिकतर देखा जाता है कि लोग गवाही देने से हिचकते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि पुलिस उल्टे उन्हीं को तंग करेगी। दहेज उत्पीड़न के मामले में भी जब मां-बाप या अन्य रिश्तेदार शिकायत करने जाते हैं या जहां स्वयंसेवी संस्थाएं किसी दुखियारे या प्रताड़ित व्यक्ति के साथ पुलिस के पास जाती हैं तो वे भी उस सम्मानपूर्ण व्यवहार की अधिकारी हैं क्योंकि अपने साक्ष्य के बतौर वे समाज के अपराधी तत्वों को कम करने का अच्छा काम कर रहे हैं, जिसे अंततः कानून और सुव्यवस्था टिकने वाली है। अंतिम श्रेणी में वह व्यक्ति है जिस पर आरोप हैं। पुलिस उसके साथ कम से कम तब तक सम्मानपूर्ण व्यवहार की अधिकारी हैं क्योंकि अपने साक्ष्य के बतौर वे समाज के अपराधी तत्वों को कम करने का अच्छा काम कर रहे हैं, जिससे अंततः
कानून और सुव्यवस्था टिकने वाली है। अंतिम श्रेणी में वह व्यक्ति है जिस पर आरोप है। पुलिस उसके साथ कम से कम तब तक सम्मानपूर्ण व्यवहार करे जब तक वह केवल संदिग्ध की श्रेणी में है और जब तक पुलिस के पास कोई मोटे सबूत नहीं पहुंचे हैं।

सामानय आदमी पुलिस के पास जाने से हिचकता है, क्योंकि उसे नहीं मालूम होता कि पुलिस उसे सम्मान से सुनेगी भी या नहीं। कई बार जब पुलिस पूछताछ के लिए किसी सामान्य व्यक्ति के घर जाना चाहती है, तब भी वह व्यक्ति और उसके घर-परिवार वाले सशंकित रहते हैं कि पता नहीं पुलिस उनके साथ कैसा व्यवहार करेगी। आस पड़ोस के परिवार उनकी तरफ या तो संशय की नजरों से देखेंगे या फिर सहानुभूति की। पर न तो पड़ोसी, न पुलिस और न वह स्वयं इस बात को महसूस कर पाएगा कि वह अपनी जानकारी पुलिस को देकर कानून की मदद कर रहा है, जिसके लिए वह आदर का पात्र है न कि धौंस का।

आज इतने वर्षों बाद देखती हूं कि पुलिस का बर्ताव वैसा ही है, लोग भी नहीं जानते कि वे किस श्रेणी में हैं और वे पुलिस से कैसे व्यवहार की मांग कर सकते हैं। अंतर आया है कुछ खास शहरों में, किन्ही खास बातों से। जब से बम फटने के कांड हुए, पुलिस ने लोगों से मदद लेनी शुरू की ताकि बम अगर कहीं हो तो उसकी जानकारी समय पर मिल जाए। सड़क दुर्घटनाओं में पुलिस पहले उसी को आड़े हाथों लेती थी जो रपट लिखवाता था, सो लोगों ने रपट लिखवाने के लिए जाना ही बंद कर दिया। इस तरह जब कई दुर्घटनाग्रस्त लोग समय पर इलाज न होने से मरने लगे तो पुणे जैसे शहरों में पुलिस के रवैये के प्रति क्षोभ प्रकट होने लगा और अब वहां सुधार हुआ है। ऐसा सुधार तभी होता है जब सामान्य व्यक्ति को पुलिस के पास जाने में कोई डर या हिचक नहीं होती। तभी वह पुलिस को जानकारी देने के लिए सामने आएगा। तभी अपराध कम होंगे।
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पचास साल बाद हिन्दी (7)y

07-पचास साल बाद हिन्दी
जनसत्ता ३ फरवरी २०००
देश को स्वतंत्र हुए पचास वर्ष से अधिक और संविधान लागू हुए पचास वर्ष हो गए हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया, लेकिन उसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयास नहीं के बराबर हुए। जो हुए भी, वे करीब-करीब विफल हो गए। अब हमारे देश की आबादी सौ करोड़ है। और चीन की आबादी १२० करोड़ । यानी चीन और भारत की मिलाकर आबादी २२० करोड़ है जबकि विश्र्व के बारी सारे देशों की मिली-जुली आबादी ८० करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र संघ में जो छह भाषाएं मान्यता प्राप्त हैं वे हैं : चीनी, अरबी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रूसी और स्पानी। यानी विश्र्व की आबादी का छठा हिस्सा होते हुए भी हमारे देश की भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाओं में नहीं है।

इसका मूल कारण यह है कि जब भी हम विश्र्व के अन्य देशों के साथ कोई बात करना चाहते हैं तो मान कर चलते हैं कि यह काम हमें अंग्रेजी भाषा में ही करना है। पिछले पचास वर्षों में हमने एक बार भी नहीं माना कि विश्र्व के अन्य देशों के साथ हम राजकीय और शासकीय व्यवहार हिंदी में चला सकते हैं। हम प्रतीक के रूप में भी अपने देश की भाषा विश्र्व और खासकर विभिन्न वैश्र्िवक शासकीय संगठनों के सामने नहीं लाते। यहां तक कि हमारी रिपोर्टों के मुखपृष्ठ पर भी हमारे देश का नाम राष्ट्रभाषा में नहीं लिखा होता।

संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे वैश्र्िवक संगठनों में भारत सरकार की और गैरसरकारी संगठनों की जो रिपोर्टें जाती हैं, उन्हें देखने का अवसर मुझे मिलता रहता है। सारी रिपोर्टें विद्वतापूर्ण अंग्रेजी में बनाई जाती हैं। यह भी तो किया जा सकता है कि हम अपनी रिपोर्ट हिंदी में बनाकर संयुक्त राष्ट्र को दें और फिर उनके नियमों का पालन करते हुए उसका अंग्रेजी अनुवाद उन्हें मुहैया कराएं। हालांकि इससे थोड़ा खर्च अवश्य बढ़ेगा, लेकिन हिंदी भाषा के अस्तित्व की जानकारी और एहसास करने के लिए यह खर्च भी उचित होगा। आज तो हम उनहें अपनी भाषा का एहसास कराने में भी झिझक रहे हैं। क्या हम शर्मिंदा हैं कि हमारा राष्ट्रभाषा अंग्रेजी न होकर हिंदी है?

मुझे पता है कि संविधान हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने, के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि अंग्रेजी का उपयोग पंद्रह साल तक थोड़ी सुविधा के लिए देश के अंतर्गत प्रशासन में स्वीकृत होगा। बाद में यह प्रावधान सदा के लिए बना दिया गया। आज सरकर में हिंदी का पक्षधर कोई नहीं है। विदेशों के साथ तो केवल अंग्रेजी का ही उपयोग किया जाता है। हर मूल टिप्पणी अंग्रेजी में होती है। हिंदी अनुवाद बाद में कभी उपलब्ध कराए जाते हैं। ऐसी अनूदित हिंदी टिप्पणियों को बाद में पढ़ा जाता है या नहीं, इसमें भी संदेह है। अंग्रेजी या
विश्र्व की अन्य कोई भी भाषा सीखने में हमें गर्व महसूस होना चाहिए क्योंकि इससे हम अपनी योग्यता बढ़ाते हैं। लेकिन अपनी भाषा को ताक पर रख कर यदि हम चलते हैं तो इससे आत्म-उन्नति या देश की उन्नति नहीं हो सकती।

हमारे यहां एक राजभाषा संबंधी आयोग भी है लेकिन आज तक यह पता नहीं चल पया कि विश्र्व के सम्मुख विभिन्न शासकीय प्रयासों के दौरान हिंदी के अस्तित्व का भान कराने या संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए आयोग ने या भारत सरकार ने क्या किया है। देश की जनता भी यह पूछना भूल गई। शायद यह कहा जा सकता है कि देश की १०० करोड़ आबादी में से सारे के सारे १०० करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है। करीब ५० करोड़ लोग अन्य भारतीय भाषाएं बोलते हैं। जैसे बंगाली, मराठी, पंजाबी, तमिल, कन्नड इत्यादि। लेकिन इस संबंध में दो बातें कही जा सकती हैं। एक यह कि अन्य भारतीय भाषाएं बोलने वाले भारतीय नागरिकों की राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही है। खासकर जब हम विश्र्व के अय देशों के समक्ष अपनी भाषाओं की बात करते हैं तो सारी ही भारतीय भाषाओं की एकात्मकता का लाभ उठा सकते हैं। हिंदी बढ़ी तो उसके साथ-साथ विश्स स्तर पर अन्य भारतीय भाषाएं भी जानकारी में आएंगी और उनका सम्मान भी बढेगा। कम से कम सरकारी स्तर पर तो यह प्रयास अवश्य होना चाहिए।
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हिन्दी में शपथ (1) y

01-हिन्दी में शपथ
जनसत्ता - १९ अक्टूबर १९९९
दिनांक तेरह अक्तूबर, समय सुबह के साढ़े दस। सभी की आंखें दूरदर्शन पर लगी हुई थीं जिस पर तेरहवीं लोकसभा की मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण समारोह का प्रसारण होना था। तेरहवीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव चंद रोज पहले ही संपन्न हुआ था और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल चुका था। गठबंधन के अंदर भारतीय जनता पार्टी निर्विवाद रूप से लोकसभा के सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आई थी। इसी कारण किसी के मन में कोई शंका नहीं थी। सब जान रहे थे कि शायद शपथ ग्रहण समारोह की अधिकतर शपथें हिंदी में ही ली जाएंगी। सबसे पहले शपथ लेने वाले स्वयं प्रधानमंत्री थे। उन्हें यह गौरव प्राप्त है कि कई वर्ष पहले जब वे संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री की हैसियत से भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब उन्होंने हिंदी में भाषण देकर इस देश की राष्ट्रभाषा को विश्र्व के सामने पहुंचा दिया था। आशा के अनुरूप ही प्रधानमंत्री और उनके अनेकानेक सहयोगियों ने हिंदी में शपथ लेना पसंद किया।

लेकिन शपथ को सुनते हुए जो हिंदी भाषा कानों में पड़ी वह खटकने वाली थी। शपथ के दूसरे वाक्य में यह कहना था कि मंत्री पद की जिम्मेदारी निभाते हुए जो गोपनीय बातें मंत्री महोदय की जानकारी में लाई जाएंगी उन्हें वे गोपनीय ही रखेंगे और किसी भी अन्य व्यक्ति के सम्मुख तभी प्रकट करेंगे यदि वह अन्य व्यक्ति कार्यालय स्तर पर उस विषय को समझने और निभाने के लिए जिम्मेदार हो। मैं जानती हूं कि ऊपर लिखा गया वाक्य बहुत लंबा है। शपथ ग्रहण की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए इसे छोटा होना चाहिए। लेकिन इतना लंबा वाक्य मैंने इसलिए लिखा कि पाठकों को पता चले कि मुद्दा क्या है। क्या इस लंबे वाक्य को छोटा करना संभव है? जी हां, है और वह इस प्रकार लिखा जा सकता हैः 'मैं शपथ लेता हूं कि मंत्री पद निभाते हुए मेरे सामने जो गोपनीय जानकारी लाई जाएगी उसको मैं किसी व्यक्ति के सम्मुख तब तक प्रकट नहीं करूंगा जब तक वह जानकारी उस व्यक्ति के कार्यालय से संबंधित और आवश्यक न हो।'

लेकिन शपथ विधि के दौरान जो हिंदी वाक्य सुनने को मिला उसकी संरचना बड़ी ही उलझी हुई थी। उसका कारण यह है कि शपथ का मसौदा पहले अंग्रेजी में तैयार किया गया था और बाद में उसी अंग्रेजी मसौदे से शब्द-दर-शब्द अनुवाद करते हुए हिंदी मसौदा तैयार किया गया। अतः जो हिंदी वाक्य प्रयुक्त हुआ उसके शब्द थे- 'मंत्री पद का निर्वाह करते हुए मेरे सामने जो गोपनीय जानकारी लाई जाएगी उसे मैं 'तब के सिवाय जबकि' अन्य व्यक्ति कार्यालीय स्तर पर इस जानकारी से संबंधित न हो, किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करूंगा।'

'तब के सिवाय जबकि' यह तकियाकलाम बार-बार हिंदी शपथ में सुना जा रहा था और मैं खीझ रही थी। क्या ही अच्छा होता यदि शपथ का मसौदा पहले हिंदी में बनाया जाता। फिर हमें ऐसे तोड़-मरोड़ कर तैयार किए वाक्य भी सुनने नहीं पड़ते जिनमें वाक्य बनाने के हिंदी व्याकरण के सारे नियमों को ताक पर रखा हुआ था। आप पूछिए क्यों हमारी सरकार पहले अंग्रेजी में मसौदे तैयार करती है? क्या हम पहले हिंदी मसौदा तैयार नहीं कर सकते? इसका उत्तर यह है कि सरकारी नियम के अनुसार शपथ जैसे गंभीर विषयों के मसौदे और न्याय या कानून में प्रयुक्त होने वाले मसौदे पहले अंग्रेजी में ही बनाए जाते हैं। फिर उनका हिंदी में अनुवाद किया जाता है। फिर किसी सरकारी अफसर को यह लिखकर देना पड़ता है कि मसौदे का अंग्रेजी रूप ही असल व सही रूप है और यह कि हिंदी मसौदा उसका अनुवाद है। आगे यह भी लिखकर देना पड़ता है कि यदि अंग्रेजी और हिंदी रूपों में कोई विरोधाभास हो तो अंग्रेजी रूप ही सही माना जाएगा।

देश की स्वतंत्रता के दिन से आज ५० वर्ष से भी ज्यादा वक्त तक राष्ट्रभाषा कहलाने के बाद भी हमारी हिंदी को प्रामाणिकता की जांच अंग्रेजी ही करती है।
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