Saturday 31 December 2016

एक स्त्री का साहस - जनसत्ता ३ फरवरी २००० (28-1 )

एक स्त्री का साहस  - जन. ३ फरवरी २०००   
अंजना मिश्र के साथ बलात्कार की कोशिश के आरोप में उडीसा के पुर्व महाधिवक्ता इंद्रजीत राय को तीन वर्षों की बामशक्कत कैद की सजा सुनाई गई है। जो लोग अंजना मिश्र के मामले से परिचित रहे है उन्हे एहसास होगा कि अपने साथ हुए अन्याय के प्रतिकार में यह फैसला हासिल करने की लडाई अंजना मिश्र के लिए कितनी तिखी और कितना तोड दोने वाली रही है। अंजना मिश्र एक बडे अफसर की बीवी थी जिन्होंने अपने पति से तलाक चाहा था । उसी मुकदमे के सिलसिले में वे राज्य के महाधिवक्ता से मिलने गई थी । इस मुलाकत मे उन्हें अपने जीवन के एक निहायत कडवे अनुभव का सामना करना पडा । उनके मुताबिक राज्य के महा धिवक्ता ने ही उनके साथ बलात्कार की कोशिश की ।यह अंजना मिश्र की हिम्मत ही थी कि उन्होने  इस ताकतवर अभियुक्त के विरूद्ध भी लडके का संकल्प किया ।मगर यहीं से उनके संघर्ष शुरू हुए उन्हें  कई तरह से प्रताडित किया जाता रहा। यहाँ तक की जब एक बार वे अपने एक पत्रकार मित्र के साथ अपने वकिल से मिलने जा रही थीं तो चार लोगों ने उन्हे जबरन रोका ,उनकी इज्जत लुटी और साथ में  धमकी भी दि की वे इस प्रसंग को आगे न बढाएँ ।
        यह सारी कीमत अंजना मिश्र ने इसलिए चुकाई कि पहले वे अपने पति के अत्याचारों के विरूद्ध लड रही थीं और बाद में एक ऐसी ताकतवर जमात से लडने को मजबुर हुई जो वैध -अवैध सारे तरीकों पर काबिज था । उन्होंने पूर्व महाधिवक्ता के खिलाफ उस वक्त के मुख्यमंत्री  जानकी वल्लभ पटनायक से शिकायत की तो पटनायक ने उलटा उन्हे गलत ठहराया । वस्तुतः पटनायक के सत्ता से जाने की जो वजहें  बनीं ,उनमें अंजना मिश्र कांड में उनकी नकारात्मक भुमिका भी थी । इस लिहाज से
उडिसा के जनसंगठनों की सराहना की जानी चाहिए जिन्होंने अपने तई इतना दबाव बनाया जिसमे इस मामले को अपनी परिणीती तक पहुँचाना संभव हो सका। साथ ही ऊपरी अदालत ने यह भी आदेश दिया कि इसकि शीघ्र सुनवाई की जाए । नतीजा सामने है और महाधिवक्ता को सजा सुनाई गई है।
      हालाँकि इस  लडाई ने अभी आधी दूरी ही तय की है । तय है कि इंद्रजीत राय इस फैसले के विरूद्ध उँची अदालतों का दरवाजा खटखटाएँगे ।क्या इन अदालतों में भी मामला इतनी ही जल्दी निपटाया जाएगा कही ऐसा न हो कि वहाँ काफी वक्त लगे और इस दौर में चींजे कुछ इस तरह बदल जाएँ कि अंजना मिश्र को मिला न्याय उनके हाथ से निकल जाए । ताकतवर लोग न्याय की प्रकिया को किस हद तक प्रभावित कर सकते है इसके उदाहरण हमारे पास सैकडों में नहीं ,हजारों में होंगे। हाल ही में प्रियदर्शनी मट्टू के मामले मे जज ने ही स्वीकार किया की अभीयोजन पक्ष ने सबूतों को इतने कच्चे रूप में पेश किया है कि उसके सामने अभियुक्त को छोड देने के सिवा कोई चारा नहीं रहा। अंजना मिश्र और इंद्रजीत राय के मामलें में यह नही होगा ,इसकी उम्मीद बस दो आधारोंपर ही बँधती है। एक तो यह कि यह मामला पहले ही काफी संगीन हो चुका है और कई जनसंगठनों की इस पर निगाह है। दूसरे इस मामले की शिकार अंजना  मिश्र ने अब तक जिस जुझारूपन का प्रदर्शन किया है, उससे भरोसा बनता है कि वे इसे एक मुकाम तक पहुँचाकर दम लेगी। लेकिन यह समूचा मामला बनता है कि हमारी  व्यवस्था में एक अकेली स्त्री के लिए न्याय हासिल करना कितना मुश्किल काम है और एक अत्याचार का विरोध करने की एवज में कितने अत्याचारों से कितने अत्याचारों से गुजरना पड सकता है।
     पुनश्च
    अजंना मिश्र का आरोप है कि उसके बलात्कार के पीछे एक उच्च पदस्थ साँठ -गाँठ है जिसका कारण है वह पुरानी यौन -उत्पीडन की शिकायत जो उसने त्तकालीन  मुख्यमंत्री के चहेते अफसर   और उडीसा के पुर्व महाधिवक्ता इंद्रजीत राय के विरूद्ध की थी । हाल में ही पुरानी शिकायत पर कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए राय को दोषी करार दिया है। हालाँकी  राय अवश्य ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाएँगे।
            (जनसत्ता -3फरवरी ,2000)



परिक्षा प्रणाली में आमुलाग्र सुधार हो

परिक्षा प्रणाली में आमुलाग्र सुधार हो
      यह बात अब स्पष्ट रूप से उजागर हो गई है कि हमारी शिक्षा प्रणाली को आमूलाग्र सुधार कर इक्कीसवी सदी के लायक बनाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से हमारे देश मे जेपी नाईक, आचार्य राममूर्ती और मौलाना आजाद जैसे शिक्षाविद् होते हुए भी राज्यकर्ताओं की निगाह में शिक्षा भी अन्य अनेकानेक विभागों की तरह एक और विभाग हो गया और दफ्तरबाजी में उलझकर रह गया। शिक्षा को मात्र एक विभाग का छोटा -सा दर्जा न देकर संंसाधन का दर्जा देना चाहिए। आज यद्यपि हमने शिक्षा विभाग का नाम बदलकर मानव संसाधन विभाग कर दिया है पर अब भी हमें उसे एक विभाग ही मानकर चलते है, न कि संसाधन। यदि हम इसे संंसाधन मानतें हो तो होना यह चाहिए कि देश कि योजना लिखते समय हम पहलें यह लिखे कि हमारी जनसंख्या क्या है ,लोगों के पास प्रशिक्षण, हस्तकौशल और कलाएँ क्या-क्या  हैंं, उनका उपयोग हम किस दिशा में किस काम के लिए कर सकतें हैं। जो उद्दिष्ट हम पाना चाहते है उसमें हमें जनता का सहयोग कितना मिलेगा, जनताकी क्षमताएँ जहाँ नही है, वहाँ क्षमता दिलवाने के लिए हम क्या कर सकतें हैं, इत्यादी। सारांश यह कि योजना बनाते समय जिस तरह हम अपनी जमीन और अपने धन का ब्यौरा लेते हैं, वैसे ही हमारे मानवीय संसाधनों का ब्यौरा लेना जरूरी है। शुरू में वह नही हुआ। फिर अस्सीके दशक में किसी समय हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग का नाम बदलकर उसे मानव-संंसाधन मंत्रालय भी घोषित कर दिया। फिर भी यह नहीं हुआ। योजना बनाते हुए यह भी तय करना पडता है कि हम अपने संंसाधनो का प्रयोग किस तरह करने वाले हैं। आज जब हम नौवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल समाप्त करनें जा रहे हैं तब भी प्लानिंग कमीशन में कही यह देखने-पढने के नही मिलता कि मानवीय संसाधनों की प्रयुक्ति या विनियोग करने का क्या उपाय किया जा रहा है, और किन-किन क्षेत्रों में और उस विनियोग से हमारे मानवीय संसाधनों को और अधिक सक्षम करने कि योजना बन रही है। हम अपनी पंचवार्षिक योजनाकी पुस्तकमें यह तो लिख देते हैं कि हमारे पास अमुक हजार करोड कृषि में लगाने के लियें है, तमुक बिजली में फलानी रकम यातायात में, इत्यादी। लेकिन यह नहीं कहते कि हमारे पास कितने वैज्ञानिक हैं, तकनिशियन हैं, कलाकार हैं, विद्वज्जन हैं और उनमेंसे हम कितने कहाँ लगाने वाले है ।
      चलिये, यह तो एक बडी बहस का विषय हो गया, जिससे हम शिक्षा प्रणाली का सुधार करना चाहेंगे। लेकिन एक दूसरी बडी किन्तु तात्कालिक बहस का मुद्दा है हमारी वर्तमान परीक्षा प्रणाली। और वही प्रस्तुत लेख का विषयहै।
       परीक्षा के माध्यम से हम क्या जानना चाहते है और वर्तमान पद्धति में क्या हम ठीक से जान पाते हैं यह भी एक लम्बे चिंतन, मनन और बहस का विषय है।
       यदि हम थोडासा सोंचें कि आजकी परीक्षा प्रणाली किस तरह से कार्यान्वित की जाती है तो हम देखते हैं कि यह प्रिटिंग टेक्नॉलॉजी पर निर्भर है। बडी संख्या में प्रश्नपत्रिका उपलब्ध कराने के लिए उन्हें छपवाना पडता है। फिर एक गोपनियता बनाने रखने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। पहलें चुनिंदा लोगोंसे पेपर सेट करवाओ, फिर उन्हें बगैर लीक हुए छपवाओ, फिर उन्हें सुरक्षितता के साथ जगह-जगह परीक्षा केंद्रों पर भिजवाओं, परीक्षा आरंंभ होने तक उनके विषय में चिन्तित रहो इत्यादि। इस सारी व्यवस्था में घुसकर पेपर्स का पता लगानेवालों की कमी नहीं। नयी तकनीकोंमें फैक्स, दूरध्वनी इत्यादि का उपयोग कर पेपर्स लीक कराने, बिकवाने और रातोंरात पैसा कमाने का तरीका भी बखूबी चलाया जा रहा है। अब तक केवल दसवी, बारहवीके पेपर्स लीक होते थे। पर पिछले दो -तीन वर्षो में आइआइटी एन्ट्रेंन्स और केन्द्रीय लोक सेवा आयोग जैसी देशव्यापी संंस्थाओंके पेपर्स भी लीक होने लगे ।         इसीलिए परीक्षा प्रणाली को सुधारने का अच्छा मंत्र यह है कि उसे विकेन्द्रित ढंग से चलाया जाय और वर्तमान प्रिटिंग तकनीकी की बजाय संगणक तकनीकी का उपयोग करने से यह काम आसानीसे हो सकता है ।
     अगली सदी के लिए इस दिशा में अपने देश को तैयार कराने का जिम्मा हमारे सारे विश्वविद्यालयों एवम् स्कूली परीक्षा बोर्डों को उठाना चाहिए।
     विकेन्द्रिकरण की भूमिका व उसका अधिष्ठान बडा ही सरल है। विकेन्द्रिकरण न केवल भौगोलिक स्तर पर हो बल्कि समय के स्तर पर भी। अर्थात सारी परीक्षाएँ एक बार एक साथ न होकर विद्यार्थी की सुविधा से वह जिस महीनें में चाहे, उसी महीने परीक्षा दे। साथ ही वह सारे विषयोंकी परीक्षा एक बार न दे -- अपनी सुविधानुसार जब चाहे जिस विषय की परीक्षा दे दे।
      इसके लिए एक प्रश्न मंजूषा या क्वैश्चन बैंक तैयार कर संगणकों में डाल दिया जायगा। इस मंजूषा में नये-नये  प्रश्न जब चाहें डाले जा सकते हैं। किसी परिक्षाके समय संगणक खुद ही रैण्डम प्रणाली से प्रश्न चुनकर, एक प्रश्न-पत्र का प्रिंट निकालकर परीक्षार्थी को देगा। इस प्रकार हर विद्यार्थी का पेपर अलग-अलग होगा तो कॉपीकी समस्याका समाधान भी हो जाएगा।
          यहाँ एक बात रखना बहुत आवश्यक है। प्रिंटिंग तकनीक और संंगणक की तकनीकमें एक मौलिक अंतर है। प्रिटिंग तकनीक अपनानेपर हमें केन्द्रीकरण करना पडेगा क्योंकि बार-बार गोपनीयता और सुरक्षितता को निभाते हुए प्रिंटिंग करवाना मुश्किल काम है और इसमें युनिवर्सिटी कर्मचारियों के कई दिन लग जाते हैं। इसी कारण सभीकी परिक्षा एकसाथ करवाना भी आवश्यक है। संगणक तकनीक में विद्यार्थी कम रहें तो ही अच्छा। इसी का फायदा उठाकर हर विद्यार्थी को अपना समय आप चुनने की सुविधा दी जा सकती है।
         इस पद्धती के कई फायदे है। सबसे पहले तो यह कि आज पेपर सेटिंग  और छपवाई के काम में हमारे जितने शिक्षक एवं अन्य कर्मचारी उलझे रहते हैं उनके  समयकी बचत होगी, क्योंकि क्वैश्चन बैंक से प्रश्न चुनने का काम संंगणक स्वयं कर लेगा। यह बचत होने वाला समय वे शिक्षा सुधार के अन्य मुद्दों में लगा सकते हैं। दूसरा बडा फायदा है कि कॉपीकी संभावनाएँ बहुत ही कम और असफल हो जाएँगी। तीसरा फायदा अभिभावकोंंका है क्योंकि विकेन्द्रीकरण और सुविधानुसार  परीक्षा के मौसम में स्ट्राइक करनेवालोंंको अपनी भूमिका बदलनी पडेगी और अभिभावक इस तनाव से मुक्ति पा लेंगे कि यदि स्ट्राइककी घोषणा हुई तो क्या होोोगा।
        सबसे अधिक फायदा विद्यार्थियों का होगा कि वे अपनी स्वयंकी सुविधाके अनुसार परीक्षा दे सकेंगें, और अपने मनचाहे विषय का चयन स्वयं कर सकेंगे । जैसे यदि मैं इतिहास विषय में कमजोर हूँ लेकिन गणित में तेज, तो मैं गणितकी चौथी, पाँचवी ....दसवींकी परीक्षाओं में अपनी योग्यता तेजी से सिद्ध कर सकती हूँ ,भले ही मुझे इतिहास अच्छी तरह नही आता हो।
          यहाँ और एक मौलिक प्रश्न उठ खडा होता है। मैंने कई शिक्षाविदोंसे पूछा कि क्यों हम स्कूल या कॉलेज में दाखिला लेना और कक्षाएँ अटेंण्ड करना अनिवार्य मानते हैं ? इसका समाधानकारक उत्तर नही है। यह मान्यता है कि हम फॉर्मल सिस्टममें जो पढते हैं, अर्थात स्कूल या कॉलेजकी कक्षामें बैठकर, वही सही है। मेरे विचार में फॉर्मल सिस्टमकी खूबी केवल इतनी है की यदि बहुत से बच्चों को बहुत से विषयों के बारे में एक समान बातें सिखानी हों तो क्लास रूम में बैठने के तरीकेमें यह काम बडी सरलतासे हो जाता है। अर्थात् फॉर्मल एज्युकेशन की उपयोगिता संंख्यात्मक वृद्धि और फालतू मेहनत बचाने के लिए है। इसमें सुविधा है सरकारी यंंत्रणा की, स्कूल व कॉलेजके मैनेजमेंटकी, किताबे तैयार करनेवालों और छापनेवालों की। साथ उन विद्यार्थी या अभिभावकोंकी, जो एक स्टैण्डर्ड ढर्रे से, किसी खास समय में एक काम पूरा करना चाहते हैं और वह काम है सर्टिफिकेट प्राप्त करने का। बेशक यह एक बहुत बडा काम है, लेकिन यह अन्तिम सत्य नही है और न ही एकमात्र तरीका। यह तो केवल संख्यात्मक या स्टैटिस्टिकल सुविधाकी बात है। फॉर्मल प्रणाली की एक और उपयोगिता यह है कि अभ्यासक्रम (Carriculum) बनानेवाले कई नये विषयोंंको उसमें डाल सकते हैं जो स्वयंप्रेरणा से पढने वाले शायद नही जान पायें । अर्थात फॉर्मल एज्युकेशन की खूबियाँ हैं- अधिकतम लोगोंके लिए एक स्टैण्डर्ड सुविधा, जानकारीका आदान-प्रदान, अच्छे शिक्षाविदों द्वारा तैयार किया गया समग्र ढाँचा और हम उम्रके लोगोंमे  घुलने-मिलने की सुविधा ।
     फिर भी यह सिद्ध नहीं होता की केवल वही तरीका सही है और देशके हर बच्चे के लिए केवल एक यही मुहैया कराया जा सकता है। यह साफ जाहिर है कि देश के तमाम बच्चे और तमाम वयस्क जो आज निरक्षरोंकी गिनतीमें आते है - वे आज तक फॉर्मल ढॉंचेमें अपनी पढाई नहीं कर पाये और न कर पाएँगे ।जब हम देखते है कि देश में निरक्षरता का प्रमाण 48 प्रतिशत है, पहली से पाँचवी कक्षी तक ड्रापआउट होनेवालोंका प्रमाण 30 प्रतिशत है, जब हमारे आँकडे बताते है कि सौ करोड की जनसंख्या में केवल बीस लाख अर्थात 0.2 प्रतिशत जनसंख्या ग्रेज्युएशन तक पहुँच पाती है और केवल 10 करोड ही मैट्रिक्युलेशन तक पढ पाते है, तो हमारी फॉर्मल स्कूल पद्धतिकी मर्यादा और अनुपयुक्तता भी इन आँकडोंसे जाहिर हो जाती है। फिर भी क्या वजह है कि हमने अपनी शिक्षा पद्धतिको ऐसे ढाँचेमें कैद किया है कि बच्चा शारीरिक रूप से स्कूलमें हो ,भले ही मनसे न हो, तो ही उसे हम परीक्षा की अनुमति देंंगे लेकिन यदि उसे किसी ढाबेमें काम कर गुजारा करना पडता हो, शतरंजकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताकी तैयारी  करने के लिए अपना अधिक समय देनेकी इच्छा हो, जंगलोंकी खान छानना अच्छा लगता हो और अपनी मनमर्जी से समय निकालकर वह पढाई भी करना चाहता हो तो हमारी शिक्षा प्रणाली उसे इसकी अनुमति नही देती। हमें यह महत्वपूर्ण परिवर्तन करना आवश्यक है कि जो भी जब चाहे स्कूलमें अपनी योग्यता जँचवाकर स्कूलमें प्रवेश भी ले सके और जिस महीनेमें और जिस विषयमें चाहे परीक्षा दे सके ।
        शायद कोई यह आपत्ति उठा सकता है कि यदि हम संंगणकमें एक प्रश्न मंजूषा संग्रहित कर लें तो हो सकता कि बच्चे उन प्रश्नोंका उत्तर रट लेंगें। यह डर निरर्थक है। प्रश्नमंंजूषा में इतने प्रश्न होंंगे मसलन हजार, दो हजार,कि सबको रट पाना असंभव होगा। वैसे आज भी विद्यार्थी गाइडें पढ-पढ कर रट्टा ही मारते हों तो ज्यादा नुकसान क्या होने वाला है, और यदि कोई हजार प्रश्नोंका उत्तर रट सकता हो तो यह उसकी काबिलीयत माननी चाहिये, उसे हिराकत से देखना जरूरी नहीं है।
      यह डर भी निरर्थक है कि क्या हम इस प्रकारकी प्रश्नमंजूषा संगणकमें तैयार कर पाएँगे। ऐसा प्रयास आरंभ हो चुका है। मेरे अपने संगणकमें पाँच विषयों की अलग-अलग स्तरों की प्रश्नमंजूषा है। मुक्त विद्यापीठ नासिक, इंदिरा गाँधी ओपन युनिवर्सिटी दिल्ली आदि में कुछ काम हो रहे है। SAIL ने भी एक बार इसी तरीके से परीक्षा ली थी। और अमेरिकामें जानेवाले भारतीय विद्यार्थियों की GRE परीक्षा भी संंगणक के माध्यमसे आरंभ हो गई है। इन प्रयत्नों को आगे बढाना और विद्यार्थियोंको परीक्षाके डरसे मुक्त कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
    एक दूसरा सुधार भी परीक्षा पद्धतीमें आवश्यक है जो हमारी न्याय-अन्याय की संवेदनाओं के साथ जुडा हुआ है। कई अच्छे -अच्छे छात्र अपने परीक्षा-फलसे असंतुष्ट हो जाते हैं कि उनके उत्तरपत्रकी जाँच ठीक नहीं हुई है। दुबारा जाँचके पैसे भी भरनेको वे तैयार होते है। पर हमारे कई स्कूल बोर्ड दुबारा जाँच करनेसे मना कर देते है। कोई भी बोर्ड विद्यार्थीको उत्तर पत्र देखनेकी अऩुमती  नहीं देता। यदि देते तो कम से कम विद्यार्थी यह तो तसल्ली कर लेता कि उसीके उत्तरपत्र की जाँच की गई । उधर उत्तर पत्रिकाओंकी जाँचमें काफी धाँधली होती रहती है जिसके किस्से अखबारोंमें भी पढे जाते है। कई बार उत्तर पत्रिकाएँ अपने गंतव्य स्थान तक अर्थात अपने परीक्षक के पास नही पहुँचती -डाक में इधर -उधर खो जाती हैं। या पार्सलों के जत्थे कूडें में मिल जाते हैं। एक वाकया मैंने खुद देखा जब एक परीक्षक अपने घरेलू काम पूरे कर रहे थे और अपनी छोटी बच्चीको निर्देश दे रहे थे कि किस प्रश्नके लिए कितने अंक देने है। वे प्रश्नोंकी  व उत्तरोंकी जाँच नही कर रहे थे बल्कि रैण्डम बेसिस पर या मनमाने ढंगसे उत्तरोंके अंक लिखवा रहे थे । ऐसी हालतमें कई बच्चोंका नुकसान हो जाता है और वे जिन्दगीभर अपने मनमें गाँठ  बाँध लेते है कि इस पद्धतीमें उन्हे कोई न्याय नही मिल सकता। यही बच्चे जब बडे हो जाते है, तो हम उनसे ये उम्मीद करते है कि वे अपने सारे व्यवहारोंमें न्याय को प्राथमिकता दें और नीति-अनीतिकी बातोंको मानकर चलें । अगर यह संस्कार हमें उनके मन में पैदा करना है तो सबसे पहले हमें उनको यह सिद्ध कर दिखाना होगा कि उनके मनकी अन्यायकी भावनाको समझने व सुलझानेमें हमारी परीक्षा प्रणाली सक्षम है।
         परीक्षा प्रणाली को सुधारने का एक और महत्वपूर्ण रास्ता यह है कि जो बच्चे स्कूल बोर्ड व कॉलेज में पहले दूसरे स्थान पर आते है उनके उत्तर पत्रों को प्रकाशित किया जाए ताकि दूसरे कई बच्चोंको मालूम पडे कि अच्छा उत्तर किसे कहा जाता है। चूँकि पेपर जाँचनेमें परिक्षककी व्यक्तिगत मान्यताओंका कुछ असर पडना अवश्यंंभावी है इसलिए कुछ हद तक हम इस मर्यादाको मानकर चलेंगे फिर भी अच्छी उत्तर-पत्रिकाओंको प्रकाशित करनेकी पद्धति यदि हम अपनायें तो इससे कई बच्चोंको सुविधा हो सकती है।
        इसी सिलसिलेमें यह भी एक व्यापार बन चुका है कि प्रश्नोंके मॉडल उत्तर तैयार किये जाते हैं और जो बच्चे इस मॉडल उत्तरको रटे-रटाये ढंगसे दुबारा लिख देते है उन्हें अच्छे नंबर मिल जाते हैं, लेकिन अगर किसी छात्रका उत्तर अच्छा भी हो पर वह मॉडल उत्तर से अलग तरहका हो तो उसके अंक काटे जाते हैं। कई बार परीक्षकको यह पहचान नहीं होती कि अच्छा उत्तर क्या है, उसे केवल गाइडके मॉडल उत्तर पता होते हैं। मॉडल उत्तर तो केवल परीक्षक या सामान्य छात्रकी सुविधा के लिए होते है। लेकिन यह उनका यह उपयोग नहीं है कि बच्चोंको उसी प्रकारसे उत्तर लिखनेके लिए व उसी प्रकारसे बातको समझनेके लिए बाध्य किया जाए। इस सिलसिलेमें मुझे अपने स्कूली दिनोंका एक अनुभव आज भी याद है, जब हमें सोनेके अंडे देने वाले बत्तखकी कहानी पढाई गई और पूछा गया कि इससें हमें क्या सीख मिलती है। हम सभी ने लिखा कि लालच बुरी बला है। लेकिन एक बच्चेने लिखा कि पक्षियोंको नहीं मारना चाहिए। आज मुझे लगता है कि उसका  उत्तर हमसें अधिक सही था।
         इन सारी बीरीकियों के साथ-साथ उत्तर पत्रिका को जाँचने के लिए परीक्षक को शान्ति की भी आवश्यकता होगी और काफी मेहनत भी करना पडती है। आज परीक्षकको साधारणतया एक उत्तर पत्रिकाकी जाँच के लिए सत्तर पैसे से एक सौ पैसे तक मुआवजा दिया जाता है जो हास्यस्पद है। इतने कम मेहनताने में हम उससे यह उम्मीद नहीं कर सकते की वह पूरे मनोयोगसे उत्तर पत्रिकाको जाँच करे। साथ ही स्कूल कॉलेजोंके कई शिक्षक प्रश्न पत्रोंको सेट करवाने, छपवाने, बँटवाने इत्यादि काममे फँसे होनेके कारणसे उत्तर पत्रिकाओंकी जाँच करनेवाले शिक्षकोंकी संख्यामें भारी कमी महसूस होती है। किन्तु संगणक पद्धतिसे परीक्षा लेने पर यह कठीनाई भी दूर हो सकती है और उत्तर पत्रिकाओं को सुनिश्चित समय में जाँचने के लिए परीक्षक मुक्त हो सकेंगे। इस प्रकार हम आशा कर सकते हैं कि हर परीक्षक उत्तर पत्रिकाकी जाँच अधिक अच्छी तरहसे कर सकेंगे। लेकिन जरूरी है कि उन्हें इसका मेहनताना भी अच्छा मिले।
        कई छात्रों व अभिभावकोंसे मैंने ये प्रश्न पूछा कि क्या आवश्यक है कि परीक्षा होने के बाद उनके अंक सुनिश्चित संख्या के रूप में बताये जाएँ या उनकी श्रेणी बताना काफी होगा । कई विद्यार्थी जो मेडिकल या इंजिनियरिंग की धमाचौकडी में नहीं पडना चाहते हैं वे इस बातका आग्रह नही रखते कि उनके सुनिश्चित अंक उन्हे बतायें जाएँ। वे केवल श्रेणीकी जाँचसे ही संतुष्ट हो सकते है। अतएव परीक्षकोंका उत्तर पत्रिका जाँचनेका बोझ इस तरह भी कम किया जा सकता है कि जिस छात्रने यह प्रस्ताव लिख कर दिया हो कि उसे आँकडों के बजाय केवल श्रेणी बतानेसे काम चल जाएगा उनकी उत्तर पत्रिका केवल श्रेणीके हिसाब से जाँची जाए और दूसरे छात्रों की उत्तर पत्रिका अंकोंके हिसाब से जाँची जाए । जिन छात्रोंको अंकोंके हिसाबसे उत्तर पत्रिका जँचवानी हो उनसे परीक्षा फीस कुछ अधिक ली जा सकती है । परन्तु यह उपाय मैंने केवल कुछ छात्रोंका आर्थिक बोझा हल्का करने के लिए नहीं सुझाया है। करीब दो वर्ष पहले महाराष्ट्रमें यह घटना हुई कि दसवींके पेपर्स लीक हो गये । सरकारने यह तय किया कि दसवी कक्षाके लिए दुबारा गणित और भैतिकी विषयकी परिक्षा हो। इन विषयोंमें प्राप्त किए जाने वाले अंकोंका इंजिनियरिंग व मेडिकलके एडमिशनके लिए बहुत अधिक महत्व है अतः कई बच्चोंने वे उनके अभिभावकोंने इस कदमको सही बताया। लेकिन कई हजारोंं ऐसे अभीभावक व बच्चे थे जिनका उस एडमिशनसे कोई सरोकार नहीं था, उन्होने मोर्चा निकालकर, साथ ही अखबारोमें पत्र लिखकर और सरकारके पास निवेदन भेजकर यह प्रार्थना की कि जो बीत चुका सो बीत चुका। अब बच्चों से दुबारा परीक्षाएँ न दिलवायी जाएँ। उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि कुछ बच्चे इस रैट रेस में जाना चाहते है, उनके लिए करीब 5 से 10 लाख बच्चोंको दुबारा परीक्षा दिलवाना अन्यायकारक है। बाद में महाराष्ट्र सरकार और कोर्टने भी उनका यह निवेदन स्वीकार कर लिया और दुबारा परीक्षा देनेकी बात टल गई । इस घटनासे भी सिद्ध हुआ कि कम से कम 50 प्रतिशत विद्यार्थी अपने अंकोंकी सही-सही जाँच के बजाय श्रेणीकी जाँचसे सन्तुष्ट हो सकते है। इस तरहके अन्य कई छोटे-मोटे उपाय सुझाये जा सकते हैं।
        आजकी फॉर्मल शिक्षा पद्धतिमें यह भी होता है कि सारे स्कूल या कॉलेज एक ही दिन खुलते हैं। और एक ही साथ उनकी परीक्षाएँ होती हैं। दूसरे वर्ष फिर एक ही दिन सारे स्कूल कॉलेज खुलते है और एक ही साथ परीक्षाएँ होती है।दुसरे वर्ष फिर एक ही दिन सारे स्कुल कॉलेज खुलते हैं। यह कार्यक्रम भी सुविधाकी दृष्टीसे तय किया गया है, इसलिए कई विद्यार्थि जिन्हे यही पद्धति सुविधाजनक लगती हो वे तो इसी पद्धतीसे स्कूल व कॉलेजोंमें दाखिला लेंगे और अपनी शिक्षाका कार्यक्रम जारी रखेंगे।परन्तु वे कई विद्यार्थी जो सरकार के समय-बद्ध स्कूलोंमें दाखिला नही ले सकते, उन्हे एक अच्छा मौका मिल जायगा कि अपनी सुविधा के अनुसार परीक्षा देकर वे बादमें किसी समय अगर चाहे तो फॉर्मल पद्धतिमें दाखिला ले सकते है।
       इस प्रकार परीक्षामें बैठनेके लिए यदि हम यह अनिवार्यता हटा दें कि स्कुल या कॉलेजमें दाखिला होना आवश्यक है तो आज जो कॅपिटेशन फीवाले लेकिन कम दर्जेवाले स्कूल और कॉलेज खुल रहे है, उनकी आवश्यकता भी घट जाएगी। फिर तो उन्ही संस्थाओं में बच्चे जाएँगे जहाँ पढाईका स्तर सचमुच अच्छा है।इस प्रकार शिक्षा-संस्थाओं में पनम रहा व्यापार भी कुछ हद तक कम हो पाएगा। 
      परीक्षा प्रणालीमें सुधार के लिए एक और आवश्यक मुद्दा भाषा का भी है। एक तरफ हिन्दी भाषाकी दुहाई देते समय दूसरी तरफ हमारे सारे विश्वविद्यालयोंमें बारहवी, इंजीनीयरिंग, मेडिकल या साइंस आदि विषयोंमें यह अनिवार्य किया गया है कि परीक्षा के उत्तर अंग्रेजी भाषा में ही दिए जाएँ। हर वर्ष ईमानदारी से हिन्दी दिवस मनाने वाले भी इस बारे में कुछ नही कहना चाहते। अक्सर यह देखा गया है कि काफी बच्चे नवीं, दसवी तक हिन्दी भाषा के माध्यम से या अपनी प्रान्तीय भाषा के माध्यम से परीक्षा देते हैं। लेकिन जब वे 11 वीं व अन्य परीक्षाओंके लिए आगे जाना चाहते है तो उन्हे पिछडना पडता है क्योंकि 12 वीं के उत्तरमें केवल उनके विषयोंका ज्ञान जाँचनेकी बजाय सबसे पहले उनकी अंग्रेजी भाषा प्रभुता जाँची जाएगी। इस प्रकारकी दोहरी परीक्षाका बोझ इन बच्चों पर पडता है। हमारी परीक्षा पद्धतिमें यह सुविधा अत्यंत आवश्यक है कि साइस व गणित जैसे विषयोंमें भी हिन्दी व अन्य प्रादेशिक भाषाओंमें ही उत्तर लिखनेकी सुविधा हो। कई विश्वविद्यालयोंमें यह नियम है कि जिन बच्चोंको हिन्दी व प्रादेशिक भाषाओंमें अपने उत्तर लिखने हों वे अपने उत्तरमें साइस के सभी शब्दोंके लिए हिन्दी व प्रादेशिक भाषाओंके शब्दों का ही उपयोग करेंगे किन्तु अंग्रेजी भाषाके शब्दोका प्रयोग करनेकी अनुमती नहीं है। उदाहरण के लिए एटम शब्द देवनागरी लिपि में लिखा जाना विश्वविद्यालयों या शिक्षकों को  मंजूर नहीं । उनकी जिद है कि परमाणु शब्द ही लिखना पडेगा। मान लिजिए मैंने अपने उत्तरमें लिखा कि एटमके सेण्टरमें एक न्युक्लियस होता है और सारे इलेक्ट्रॉन उसके चारों तरफ घूमते है या मैंने लिखा कि हार्टकी  प्रत्येक बीटके साथ ब्लड आगे बढता है और इस प्रकार हमारी पूरी बॉडी में ब्लड सर्कुलेशन कायम रहता है तो इस तरहकी भाषा परीक्षामें लिखना जुर्म माना जाता है। मैं यह पूरे विश्वास के साथ मानती हूँ कि पिछडी आर्थिक परिस्थिति या ग्रामीण प्रान्तोंसे आने वाले कई बच्चे इसी जिदके शिकार हो जाते हैं । यदि हम वैसी मिलीजुली भाषा लिखनेकी अनुमति दें जो मैंने उदाहरण स्वरूप बताई है तो आजकी अपेक्षा काफी अच्छे परिणाम आ सकते है । 
 गणित और साइसमें काफी अच्छी जानकारी और जिज्ञासा रखने वाले कई बच्चोंका बेहाल होना मैंने देखा है। बारहवीं व अन्य परीक्षाओंमें अंग्रेजी भाषाके बोझके कारण इन विषयों  में उनकी रूचि कम हो जाती है ।एक तरफ चीन या जपान जैसे  देश पूरी संगणक प्रणाली भी अपनी भाषा में चला पाते हैं। और हम अपने विद्यार्थियोंको हिन्दी या मातृभाषामें परीक्षाके उत्तर देनेकी अनुमती तक नकार देते है। यह कई बार साबित हो चुका है कि मातृभाषाका उपयोग करनेसें छात्रोंके परिणाम अच्छे आते है। जब से आईएएस .परीक्षामें छात्रोंको अपनी मर्जीकी भाषा चुननेकी अनुमती मिली है तबसे यह देखा गया कि मराठी व अन्य कई प्रान्तोंके छात्र इस परीक्षा में अधिकतासे उत्तीर्ण होने लगे और अंग्रेजी स्कूलोंका व अंग्रेजी भाषापर प्रभुता रखनेवाले बच्चोंका वर्चस्व तोडकर प्रान्तीय भाषाओंमें अपनी प्रभुता रखने वाले भी छात्र आगे आने लगे। ।     इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी पढाई -लिखाई व सीखनेकी भाषा हिन्दी या अन्य मातृभाषा ही हो और हमारी वाक्य रचना भी वही हो । केवल अपनी सुविधासे कहीं -कहीं अंग्रेजी शब्द लिखनेकी अनुमति छात्रोंको दी जाए तो उनकी परीक्षा काफी आसान हो जाएगी, उनके विषयमें उनकी रूचि व जानकारीकी जाँच सही तरहसे हो पाएगी और अंग्रेजी भाषामें अप्रभुता उनकी कमजोरी का कारण नहीं बनेगी।
        कुस मिलाकर यही अंतिम निष्कर्ष निकलता है कि परीक्षा पद्धति में काफी सुधार करने होंगे। पहला अनिवार्य उपस्थिति का मुद्दा हमें तुरन्त समाप्त कर देना चाहिए। हम आज एक छात्र को एक साथ तीन या चार अलग-अलग कोर्स पढनेकी अनुमति नही देते। इसके लिए मुझे कोई सही कारण नहीं दिखाई पडता। हमे तो यह कहना चाहिए कि जिसमें हिम्मत है व पढाई करने की क्षमता है वह एक साथ दो क्यों दस कोर्स भी कर सके । यही बच्चे जब बडे होते है और उनमें से एक अच्छा साइंटिस्ट बनकर संगीतमें भी कुछ विशेषता रखता है तो हम यह कहकर उसकी पीठ ठोंकते है कि भई वाह साइंंटिस्ट और म्युझिक इकट्ठे हैं। लेकिन अपनी छात्रदशामें छोटी उम्रमें कोई लङका बीएससी. फिजिक्स करते हुए भूगोल में भी बीए .करना चाहे या ड्राइंग में भी कुछ परीक्षा देना चाहे तो हमारे विश्वविद्यालयोंमें उसे यह अनुमति नकारी जाती है। यदि कोई एक्सपर्ट वायरमैन है और अपना काम करते हुए किताबें पढकर बी.ई .इलैक्ट्रिकल की परीक्षा देना चाहता है तो भी हम उसे अनुमति नही देते। गरज यह कि आजके सारे विश्वविद्यालय नकारात्मक नियम तो कई बनाते है, पर सकारात्मक नहीं। कई बार देखा जाता है कि रेसके घोडे सीधे दौडते रहें, इधर-उधर न देख पाएँ या इधर-उधर की न सोच पाएँ इसलिए उनकी आँखों के दोनोंं ओर मोटे-मोटे गत्ते लगा दिये जाते हैं। मुझे सगता है कि हमारे विश्वविद्यालय छात्रोंको भी उन्हीं घोडे जैसे मानते है और उनकी आँखोंके चारों तरफ गत्ते लगा देते है कि बस ऐसे ही सीधे दौडते रहो, इधर-उधर देखना व सोचना मना है। इस भूमिका से हम शायद कई सामान्य छात्रों को कमसे कम समय में अधिक से अधिक आगे ले जानें में सफल हों लेकिन जो छात्र बहुत दूर फेंके जाते हैं उनकी संख्या पचास प्रतिशत से ज्यादा है। साथ ही हमारे देशके जो मेधावी छात्र हैं उनकी स्वाभाविक तेज प्रगति हम अवरूद्ध कर देते हैं क्योंकि उन्हे भी इसी तरह आँख पर पट्टी बाँधकर बिना दिमाग वाले ढाँचे में ही दौडना पडता है।
       यदि हम देशके ड्राप आउट हो रहे पचास प्रतिशत बच्चोंको पढाईमें फिरसे मौका देना चाहते है, या छात्रोंको आगे आनेका बेहतर अवसर देना चाहते हैं तो हमारी शिक्षा पद्धति केवल लीक वालोंकी न रहे ,लीकसे हटकर चलने वालोंके लिए भी उतनी ही शुभंंकर हो। तभी तो सा विद्या या विमुक्तये वाली बात सही सिद्ध होगी।
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Monday 12 December 2016

२४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१

    एड्स का खौफ
     २४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१ 
       कुछ वर्ष पूर्व मेरी केन्द्र सरकार की एक संस्था राष्ट्रीय  प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान में निदेशक के पद पर हुई थी । तब हमारे सारे स्वास्थ के सिद्धान्तों को एलौपैथी से नितान्त भिन्न एक दूसरी प्रभावशाली प्रणाली के दृष्टीकोण से समझने का मौका मिला था । मेरी धारणा है कि अनुभव को सच्चा जानो,और पुस्तक में लिखे ज्ञान की अपेक्षा उसके महत्व को अधिक मानो। वैज्ञानिक का भी यही तकाजा है कि जो तर्कसंगत और अनुभवसिद्ध है कि (अर्थात् प्रयोगों में पाया जाने वाला) उसे बाकी भी सिद्धान्त से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । कुल मिलाकर यह कि चिकित्सा चाहे एलोपैथी की हो या आयुर्वेद की या प्राकृतिक चिकित्सा, हमें यह जानने का प्रयास करना ही होगा की उसमें तर्कसंगत क्या है इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा ,चाहे वे भारत के हों ,श्रीलंका के या आस्ट्रेलिया या अमेरिका के सारे , यह मानते है कि एड्स के विषय में एलोपैथी के दावे हैं  नितान्त अतार्किक हैं और शायद किन्ही वस्तुओं का उत्पादन करनेवाली लॉवीज व्दारा चलाए गए प्रचार है। 
     सबसे पहले बात आती है कंडोम की । एड्स  यानी अक्वायर्ड इम्युन डेफिशियन्सी सिण्ड्रोम को फैलने से रोकने के लिए कंडोम की वकालत की जाती है। एलोपैथी के तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि एड्स का मुल कारण कोई खास किस्म का विषाणु या वायरस है। संभोग के दौरान यह विषाणु बाधित व्यक्ति के शरीर से स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुँचता है और उसे भी बाधित व्यक्ति के शरीर में पहुँचता है और उसे भी  बाधित कर सकता है। अतएव संभोग के दौरान कंडोम का उपयोग करना चाहिए । लेकिन मजेदार सवाल यह है कि वायरस तो आकार -प्रकार में अत्यंन्त सूक्ष्म होते हैं - वैक्टीरीया से भी सैकडों गुना सुक्ष्म छिद्र होते है और चूँकि  यह छिद्र पूरूष के विर्य या शुक्राणुओं को गुजरने नहीं देंगे इसलिए गर्भधारणा को तो रोक सकते है। लेकिन सच्चाई यह है कि ये छिद्र सूक्ष्मतर वायरस की आवाजाही को रोक नहीं सकते ।फिर यह किस आधार पर कहा जाता है कि कंडोम का इस्तेमाल करो और एड्स सो बचो निश्चय ही यह प्रकार केवल कंडोम की खपत बढाने के लिए है न कि एड्स से सुरक्षा दिलाने के लिए।
       प्राकृतिक चिकित्सकों का दुसरा प्रश्न एलोपैथी के मुल सिद्धान्त पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है । अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियन्सी सिण्ड्रोम का अर्थ ही है कि एचआईवी विषाणु से शरीर की रोगनिरोधक ताकत कम होती है। ऐसा हो जाने के बाद दूसरी बीमारीयों के जीवाणु शरीर पर आक्रमक करतें है तो शरीर उनका प्रतिरोध समुचित ढंग से नहीकर पाता और उस दूसरी बीमारी से बाधित हो जाता है,यथा -टी .बी  ,खाँसी इत्यादि । यह है एड्स के विषय में एलोपैथी का सिद्धान्त । इस पर कई प्रश्न उठ खडे हो जाते है। यों भी एलोपैथी में सिस्टम अर्थात् लक्षणों के आधार पर चिकित्सा की जाती है-यदि बुखार हुआ तो एण्टीपीयरेटिक (यानी तपन कम करने वाली ) दवाई दो-मलेरिया हो गया तो उसके पॅरासाइट्स को मारनेवाली क्विनाइन दो।
उसी प्रकार जब दूसरा रोग हो जाए तो उसकी भी दवाई दे दो ।इसके लिए एड्स के विषाणु की कहानी गढने और इतना बडा बवाल खडा करने कि क्या आवश्यकता प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोग होने का कारण तो एक ही है-इम्युनो डेफिशियन्सी ,चाहे वह नेचुरल हो या अक्वायर्ड ।और इम्युन डेफिशियन्सी को अपने आप में रोग न मानने की एलोपैथी की परंपरा है। फिर अक्वायर्ड वाले को रोग मानना ,उसकी दवाइयाँ ढूँढना,क्या यह सब अतार्किक नहीं है।
       एलोपैथी के डॉक्टर कहते है कि एड्स बाधित व्यक्ति को करीब सत्तर भिन्न -भिन्न बीमारियाँ हो सकती है।लेकिन यह बीमारियाँ तो पहले भी होती थीं  । और जो लोग एचआईवी पॉजिटिव हो या एचआईवी निगेटीव ।फिर बस वही दवाइयाँ देते रहो  एचआईवी का नाम लेकर सिरपीटने कि क्या एक तर्क देते है। पूरी प्राकृतिक चिकित्सा तथा आयुर्वेद का दारोमदार इस बात पर है कि अपने शरीर की रोग प्रतिरोध शक्ति को बढाओँ ।उसके विभिन्न तरीके बताए गए हैं जैसे जलचिकित्सा ,उपवास ,आहार ,विहार में संयम ,पथ्य -कुपथ्य का विचार ,कुछ खास आयुर्वेदिक दवाइयाँ यथा -च्यवनप्राश ,योगासन,प्राणायम ,ध्यान ,अन्य समुचित व्यायाम ,सुर्य चिकित्सा ,मौन इत्यादि ।आयुर्वेद का एक अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है कि स्वस्थ वृत जिसका विषय ही है शरीर की रोग -प्रतिरोधक शक्ति बढाना । आयुर्वेदिक उपायों में बताए गए चालिस प्रतिशत उपाय इस पर है कि कैसे रोग -प्रतिरोध शक्ति को बढाकर बीमारीको  होने से पहले ही रोक लिया जाए । अन्य तीस प्रतिशत इलाज इस बात के लिए है कि कैसे रोग होने के बाद शरीर की रोग -प्रतिरोधक शक्ति को बढाकर ही रोग नष्ट किया जाए-यथा उपवास या जलचिकित्सा । केवल बाकी तीस प्रतिशत दवाइयाँ ही लक्षणिक आधार पर और लक्षणों का दमन करने की खातिर दी जाती है। फिर क्या यह अधिक उचित नही है कि एड्स से बाधित व्यक्ति के संसर्ग से हमें कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और यदि हमारी इम्युनिटी ठीक है तो बैसे भी हम रोग के शिकार हो हा जाएँगे।फिर एचआईवी पॉजिटिव वाले व्यक्ति से डरकर य़ा बचकर क्यों रहों
     सबसे बडा प्रश्न चिन्ह तो उन दावों पर है जिनमें कहा जाता है कि  हमने एचआईवी पॉजिटीव की दवा ढूँढ ली। क्या उससे हमारी अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियन्सी घट जाएगी ।और यदि नेचुरल डेफिशियन्सी फिर भी बनी रही तो फिर फायदा ही क्या  बीमार तो हम फिर भी होंगे ही। 
      असल बात तो यह है कि अब तक एलोपैथी का कोई सिद्धान्त इस बात का उत्तर नहीं दे पाया है कि क्यों नेचुरल इम्युन डेफिशियन्सी और अक्वायर्ड इम्युन डेफिशियन्सी को अलग-अलग माना जाए ऐसी कौन -सी अलग बात दोनों में है और यदि हम नेचुरल इम्युन डेफिशियन्सी वाले को रोगी क्यों माने आखिर वह बात तो वही है कि यदि रोगी का शरीर बाहर से आने वाले आक्रमणकारी जीवाणुंसे नही लड रहा -मसलन टी.बी .के जीवाणुओं से -तो आप उसे टी.बी .की दवाइयाँ देंगें । पर साथ में यह एड्स वाला हौब्बा किस लिए खडा किया जा रहा है
      प्राकृतिक चिकित्सकों की यह बात मुझे और भी महत्वपूर्ण इसलिए लगती है कि हाल में सुप्रिम कोर्ट ने एड्स के सम्बन्ध में कुछ ऐसा फैसला दिया है जो आगे चलकर डरवाना रूप ले सकते है। एक एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति  के मामलें में  
सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि उसे शादी करने का अधिकार नहीं रह जाता। अब चेत जाइए । यदि एचआईवी पॉजिटिव का अर्थ केवल इतना है कि उसकी रोग निवारक शक्ति कम हो गई है, तो फिर ऐसी कम शक्ति तो और भी कइयों में   है जो एचआईवी
 निगेटिव हैं।  क्योंकि कभी-कभी बीमार तो वह भी पडते है ।क्या उन सबका शादी का अधिकार समाप्त हो जाना चाहिए ।फिर तो इस देश में हर व्यक्ति को भगवान बुद्ध की तरह तुरन्त घऱ बार छोडकर निकल जाना पडेगा -जरा,व्याधि और मृत्यु से बचने का उपाय खोजने के लिए ।जैसे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ ,वैसे हम आप सबको हो।
                (राष्ट्रिय सहारा .27मई ,2001)
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Tuesday 6 December 2016

॥ उपसंहार॥

॥ उपसंहार॥

रात्रि में नक्षत्र चमचमा रहे थे।
पावस ऋतु बीत चुकी थी।
अब ठण्ड पडने लगी।
दूर नदी बह रही थी। मंथर, शांत गति से।
किनारे धान के पौधे।
लहलहाते, जीवन्त।
बस्ती पर नाच के दिन बीत चुके थे।
अब काम के दिन थे।
झोंपड़ी के बाहर पत्थर पर निश्चल बैठा फेंगाडया।
थोड़ी दूर पर औंढया देव के पेड़ के नीचे पायडया, पिलू, कुछ सू और कुछ आदमी। चहुँ ओर आनन्द।
एक नदी बह रही है- आनंद की, उष्मा की, मानुसपन की।
देवाच् तूने ही दिखाया यह दिन।
यही रात मैंने देखी थी उस रात भी।
उस रात जब लुकडया और लंबूटांगी गुहा में थे।
और मैं घाटी की कगार पर, मेरे पेड़ के पास।
तब भरमाकर मैंने जो देखा, वह तूने सच कर दे दिया मुझको।
हाथ की लुकडया की हड्डी को बार बार देखा फेंगाडया ने। फिर उसे नचाते हुए बोला-
बापजी, तू खोटा था।
बस्ती ऐसी है।
ऊष्मा देने वाली। सहारा देने वाली। पिलुओं को जिलाने वाली।



टूटी हड्डी को जोड़ने वाली।
थरथरी में भरकर वह खड़ा हो गया।
हड्डी की गाँठ को बार बार छूकर देखने लगा।
झोंपड़ी से कोमल बाहर आई।
पिलू को सँभालते हुए उसके पास पहुँची।
उससे सट कर खड़ी रही।
उसने लम्बी साँस खींचकर कोमल की देहगंध को अपने नथुनों में भर लिया।
केवल इसी की यह गंध.... इसी का यह श्र्वास।
उसकी बाँहों में एकआँखी का पिलू सो रहा था।
पिलू के मुँह में कोमल का थान।
एक मंथर सी साँस पिलू की।
फेंगाडया एक टक पिलू को देखता रहा।
उसकी छाती गदगदा गई।
पिलू को देखकर।
अचानक किसी आवाज से पिलू चमक गया।
दोनों हाथ उठाकर हलचल करने लगा।
कुनमुनाने लगा।
आधार खोजते हुए उसका छोटा सा हाथ कोमल के थान पर जा टिका। वहीं रुक गया।
आश्र्वस्त होकर पिलू सो गया।
उसकी साँस फिर मंथर हो गई।
फेंगाडया थरथरा गया।
यही है आधार, जो सबको चाहिए।
पिलू को सू का आधार। आदमी को बस्ती का आधार।
उसने दूर बैठे पायडया को देखा। पायडया सारे जमावडे को वही कहानी सुना रहा था.....
एक दिन औंढया देव पाँव पसार कर आकाश में बैठा था।
बैठे बैठे ऊबने लगा।
उसने मुठ्ठी भर धान लिया.....
आकाश में उछाल दिया....
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॥ १०१॥ फेंगाडया को भ्रम हुआ लुकडया का ॥१०१॥

॥ १०१॥ फेंगाडया को भ्रम हुआ लुकडया का ॥१०१॥

चारों ओर जल्लोष ! नाच। ऊँची लपटों वाला अलाव।
फेंगाडया अकेला।
औंढया देव के पेड़ के नीचे बैठा।
सबके चेहरे चमकते हुए।
बुढिया और वाघोबा टोली की सू पेट में पहुँचे धान के कारण तृप्त, सुखी, लेकिन अब भी दूर ही खडी थीं। शंका में। बाई नाच छोड़कर बाहर आई।
हाथ से पकड़ कर एक एक सू को नाच के घेरे में ले गई। बुढिया को भी ले गई।
उनके भी चेहरे चमकने लगे।
उनके पाँव भी लय पर थिरकने लगे।
फेंगाडया को हंसी छूटी। हंसते हंसते वह थमक गया।
चारों ओर उजियारा।
ऊपर आकाश में खिला खिला चंद्रमा।
फेंगाडया ने साँस खींची। फिर खींची।
मानुसपन की ऊष्मा उसके नथुनों में भर गई।
वह कँपकँपाया।
मरण का खेल अब समाप्त हो चुका था। उसकी आँखों के आगे फिर से दीखने लगा। वे सारे प्रेत। जिनपर गीध मंडरा रहे थे। उन्हीं में बापजी भी दिखा।
वह सिहर गया।
वह भी सच था और आज का यह नाच भी सच है। वह बुदबुदाया।
औंढया देव के पेड के तने से पीठ टेककर बैठ गया।
  
सभी नाच में मगन।
उसे भ्रम हुआ लुकडया का।
लगा वह भी है नाचने वालों में।
उसकी छाती गदगदा गई। उसने घुटनों में मुँह छिपा लिया।
नही, वही एक है जो नही है। लुकडया नही है।
समय चलता रहा।
अचानक पास में आवाज आई तो फेंगाडया झटके से उठा। बचाव के लिए तैयार! सावधान। और उसे ध्यान आया- वह गुफा में नही है। वह अकेला भी नही है।
आवाज है किसी अपने की। जानवर की नही।
उसने अपने को ढीला छोड दिया।
मुडकर देखा, पंगुल्या था।
उसके हाथ में हड्डी थी।
लुकडया की हड्डी।
वह चिल्लाया- देख फेंगाडया।
यह हड्डी देख। लुकडया के जांघ की हड्डी।
यह टूटकर फिर भर गई है- जुड़ गई है। मैंने कहा नहीं था?
पंगुल्या की आंखों में चंद्रमा सूरज जैसी चमक।
कांपते हाथों से फेंगाडया ने हड्डी को अपने हाथों में लिया। बाकी हड्डियों जैसी सीधी सपाट नही थी। हड्डी जुडने की जगह एक गांठ बन गई थी।
उन्माद में भरकर फेंगाडया ने गांठ को गाल पर टिकाया। चूमा।
क्या फायदा? वह बुदबुदाया।
ऐसा मत कह फेंगाडया।
लुकडया मर गया। मरने दे। तू भी मरेगा।
मैं भी मरूँगा।
लेकिन पिलू जनमते रहेंगे- बढते रहेंगे।
फेंगाडया, मेरी बात ध्यान से सुन।
यह मानुसों की नदी है और अब इसने एक नया मोड ले लिया है।
तू ही बना उसका डोह, जहाँ ठहर कर नदी मुड सकी।
तुमसे ही बनी है यह कहानी।
यह कहानी कोई नही भूलेगा।
एक फेंगाडया की कथा। कभी न भूलने वाली।
तुझे पता है? मरण के इस खेल में बाकी क्या बचेगा? बापजी बचेगा? या तू? मैं? बाई?
नहीं- हममें से कोई नहीं बचेगा।
बचेगी लुकडया के जांघ की हड्डी।
टूट कर जुड़ी हुई। गांठ वाली हड्डी।
यह बची रहेगी। सूरज और चंद्रमा जैसी लम्बी ऋतुओं तक।
लुकडया की हड्डी और फेंगाडया की कहानी।
और हाँ, पायडया की धीमी धीमी सीटी भी बची रहेगी।
और देवता की आवाज....
जो तेरी छाती में बजती है और तू सुनता है।
हमारे बाद.... इस मरण के खेल में यही बाकी बचेंगे।
तूने जिस नदी को मोड़ा है, अब वह और चौड़ी होगी। दूर तक चलेगी। जय फेंगाडया।



पंगुल्या रुका। लम्बी सांस खींचकर फिर बोला- जय फेंगाडया।
फेंगाडया अब भी भरमाया सा। हाथ में हड्डी लिये वैसा ही थमा हुआ।
बाई ने दूर से उन्हें देखा।
नाच से बाहर आ गई।
नाच रुका, उसने हंसकर सबको नाच चालू रखने का इशारा किया।
लोग फिर नाचने लगे।
बाई धीर गति से फेंगाडया के पास आई।
फेंगाडया को भान आया। हाथ की हड्डी दिखाते हुए बोला- पता है, यह किसकी हड्डी है?
लुकडया की।
फेंगाडया फिर से गदगदा गया।
बाई की आँखें भी तालाब हो गईं।
फेंगाडया को लगा- बापजी ही है सामने।
वह झुका। बाई ने उसे अपनी ओर खींच लिया।
उसका सिर अपने थानों में चिपटा कर बोली तू फेंगाडया..............
केवल तू ही है फेंगाडया...........
बाकी सारे जानवर। छाती की आवाज नहीं सुन पाने वाले।
तू ही एक फेंगाडया.............।
आँधी में पेड़ थरथराए, ऐसे फेंगाडया बाई की बांहों में थरथराता रहा।
पंगुल्या दूर से देखता रहा।
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॥ १००॥ पंगुल्या कहलवाता है जय पंगुल्या ॥ १००॥

॥ १००॥ पंगुल्या कहलवाता है जय पंगुल्या ॥ १००॥

झोंपडी में कोई नही था।
बाहर कोलाहल मचा हुआ।
बुढिया ने हाथ के खपरैल को देखा।
खपरैल में रटरटाया धान। वह थरथराई-- बाई का मंत्र तो नही है इसमें?
सूखे पत्तों पर पैरों की खस खस सुनाई दी। उसने सिर उठाकर देखा-- सामने पंगुल्या था। एक अजीब गुस्से और उन्माद में।
बुढिया रोने लगी।
पंगुल्या थूका।
जानवर कहीं की। आ गई यहाँ?
वह और उंची आवाज में रोने लगी।
खा ले.... वह धान खा ले।
बुढिया लपालप खपरैल चाटने लगी।
पंगुल्या उकडूँ बैइ गया।
अब कहेगी बाई से कि पंगुल्या को मार डालो?
बुढिया पथराई सी देखती रही। उसकी गर्दन लटलट काँप रही थी।
जानवर....... तुझे खाया जाना ही ठीक था। सोटया थोड़ा देर से पहुँचता तो अच्छा था। पंगुल्या फिर खिलखिलाया।
फिर तेरी हड्डियाँ भी आ जातीं मेरे पास।

बुढिया थरथराती बैठी रही।
पंगुल्या उठा।
यहाँ रहना है? मरना नही है?
बुढिया ने गर्दन हिलाई।
तो फिर ठीक तरह से रहना। मेरा ध्यान रहेगा। जानवरपना किया और इसको मार डालो, उसको मार डालो कहती फिरी तो एक ही झटके में तुझे मार डालूँगा।
पंगुल्या की फटकार सुनी और बुढिया ने फिर रोने का सुर पकड़ा।
पंगुल्या उसी उन्माद से आगे आया। बुढिया की जांघ दबाते हुए बोला-
अच्छा स्वाद देगी- यदि ठीक से भूंजी जाये।
बुढिया पथरा गई।
उसके झुर्रियाँ पडे चेहरे को देखता हुआ पंगुल्या बोला-
मुझे मार डालने वाली थी, मुझे।
पंगुल्या थरथरा उठा।
बोल..........बोल......... जय पंगुल्या।
वह चीखा।
बुढिया धडपडाती उठी। पूरी जान से चिल्ला उठी।
जय पंगुल्या।
पंगुल्या हंसा। मुडा और घिसटते हुए निकल गया।
बुढिया धप्प से बैठ गई।
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॥ ९९॥ धानबस्ती पर एक गंभीर शाम ॥ ९९॥

॥ ९९॥ धानबस्ती पर एक गंभीर शाम ॥ ९९॥

सायंकाल।
शांत।
कई दिनों बाद ऐसी शांति पसरी थी धानबस्ती में। बाई पुटपुटाई-- धान भी अच्छा उगेगा इस बार।
पायडया ने गर्दन हिलाकर हाँ भरी।
मोड़ पर कुछ हलचल नही दिखी तो बाई ने कहा-- आदमी अभी नही लौटे।
पायडया ने फिर हाँ भरी।
धानबस्ती पर आजकल आदमी कम थे। सू और पिलू की संख्या अधिक थी।
आनेवाली हर सू, हर पिलू धानबस्ती को चाहिए।
अपने बहुत आदमी मरे।
ये सू आएंगी, नये पिलू जनेंगी तभी तो अपने आदमी बढेंगे।
आदमी कोई मिट्टी से थोड़े ही उपजता है धान की तरह?
कि डालो जमीन में बीज और उग आएं आदमी।
पायडया जोर से हंसने लगी।
बाई भी हंसने लगी। फिर बोली- इसीलिये मैंने सोटया को भेजा है कि उन सूओं को लाने।
पायडया ने गर्दन हिलाई। बोला- हाँ ठीक ही है। बस्ती बढाने में आदमी का क्या काम? यह तो सू ही कर सकती है।
बाई हंसी। तभी एक सू पिलू को ले आई। पिलू चीख चीख कर रो रहा था।
बाई ने देखा। गुस्सा होकर बोली- एकआंखी का पिलू है। भूख से रो रहा है। जाओ, ले जाकर उसके थान से लगा दो। वह मूरख सो रही होगी।
  
एक झोंपडी से फेंगाडया, कोमल और कोमल का पिलू बाहर आए।
फेंगाडया ने चढाई के मोड़ को देखकर पूछा- आए वे वापस?
बाई ने गर्दन हिलाई- अभी नही।
फेंगाडया कोमल के साथ आगे बढ गया।
जगह जगह अलाव जलने लगे।
उस पर खप्परों में धान पकाया जाने लगा।
आज की शाम अलाव तापने की..... धान की कहानी सुनाने की....... । बाई ने एक लम्बी साँस छोड़ी।
पायडया ने भी गर्दन हिलाई। आँखों में आई नमी पोंछते हुए बोला-
औंढया देव ने ही भेजा फेंगाडया को, पंगुल्या को। ये पंगुल्या। पंगु पैर वाला। एक पैर घिसट कर चलने वाला। इसे भी ले लिया हमने बस्ती में। इसीसे.....
बाई गंभीर हो गई। बोली--
सुन रखो पायडया।
जो बस्ती सबको अपने में समाएगी, सबको आश्रय देगी, वही बस्ती टिकेगी। वही जिएगी।
आने वाले में से कौन होगा फेंगाडया? कौन पंगुल्या? ये पहले से कोई कैसे कह सकता है? जब वैसा समय आएगा तभी उनकी परख होगी।
आने वाले में कोई बापजी भी हो सकता है। पायडया ने धीरे से कहा।
बाई बोली- यह सही है। लेकिन जो भी बापजी होगा, उसे यहाँ से भागना पडेगा। यहाँ केवल फेंगाडया ही जड़े जमा समता है।
पायडया हंसा। बोला- आता हूँ। देखूँ, सोटया कौन कौन सू ले आता है।
वह जल्दी जल्दी उठकर चढाई चढने लगा।
बाई उसे एकटक देखती रही।
कौन जाने आने वाली सूओं भी कोई निकले बाई की तरह। जो एक नई धानबस्ती को देख सके।
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॥ ९८॥ धानबस्ती वाले वाघोबा बस्ती पर ॥ ९८॥

॥ ९८॥ धानबस्ती वाले वाघोबा बस्ती पर ॥ ९८॥

बुढिया ग्लानि में पडी थी- भूख से निढाल होकर।
वर्षा की झड़ी रुक गई।
वह वैसी ही पड़ी रही। कीचड़ में।
शाम होने को आई।
कुछ खुसफुसाया।
बुढिया ने आँखें खोलीं। चार पांच पिलू पास आये। सू पिलू और आदमी पिलू। भूखे।

हाथ में किसी पेड़ की टहनियाँ। कचाकच पत्त्िायाँ चबाते और थूकते, शोर मचाते वे खडे रहे उसके पास।
गुरगुराहट हुई। पीछे से एक जान लेवा गर्जना। एक जानवर निकल कर आगे आया। रुका।
पिलूओं ने शोर मचा दिया।
जानवर पीछे हटा। सूँघते हुए निकल गया। बाई ओर से लाठियाँ लिये चार पांच सू दौड़ी आई।
वर्षा रुक गई। एक चिल्लाई।
तो?
अलाव जला लो। वह आगे आकर बोली।
बुढिया के पास बैठ गई। उसके हाथ पैरों को दबाती हुई बोली- इसके माँस पर दो दिन निकल जायेंगे।
बुढिया रों रों रोने लगी।
सारी सू खिद खिद हँसने लगीं। तैयारी करने लगी।
लकड़ियाँ लाईं।
बली की जगह पर फिर से अलाव जलाया।
पिलूओं के चेहरे चमकने लगे।
एक सू ने बुढिया के हाथ पैर बांधे।
बुढिया थरथरा रही थी।
दूसरी सू उसके पास आई। उस पर थूकी। बापजी ने उसकाया तब नाची थी बुढिया। पाषाण्या मर गया। लाल्या का जय लाल्या हुआ तब भी नाची थी।
अब लाल्या और बाकी आदमी गए।
उधर जाकर मर गए या बाघों ने खा लिए?
या उस शैतान बाई ने मंत्र फेंक कर सबको मार डाला?
अब तू भी मर यहाँ।
अलाव धुआँ धुआँ हो रहा था। एक सू उसके पास गई। लकड़ी गीली थी।
फूच् फूच्......। आग चेताने के लिये सारी सू उस औंधी होकर फूंक मारने लगीं।
अचानक सारे पिलू चिल्ला उठे। वे मुड़ी। सामने कुछ आदमी, कुछ सू।
वे थरथराईं। कोई भी चेहरा परिचित नही था।
सोटया आगे बढा। बुढिया को बंधा देखकर बोला-
यह क्या? इस बुढिया को जलाएंगे? उंचाडी आगे आई। सोटया के आदमियों ने लाठियाँ संभाली। चादवी स्तब्ध थी।
उंचाडी थरथराते हुए बोली-
इसका मांस भून कर खाने वाली थीं ये सारी सू।
वाघोबा टोली की सारी सू डर गई। एक चिल्लाकर भागने लगी लेकिन सोटया के आदमी ने दो ही छलांगों में उसे घेर लिया और खींचकर वापस ले आया।
वह चीखती रही। सोटया ने आगे बढकर उसे एक थप्पड़ मारा।
सारी सू चुप हो गई।
सोटया ने बुढिया के हाथ पाँव खोले। वह थरथराती उसके पांवों पर लोटने लगी। एक आदमी आगे आया। उसने धानभरा चमडे का खोल अलाव के पास रख दिया।
उंचाडी ने खोल से धान के साथ दो मिट्टी के खप्पर भी निकाले। उन्हें आग पर रखकर उस पर
धान भूजने लगी।
दो और खप्पर लेकर सोटया ने एक आदमी को पानी लाने भेज दिया।
धान भूंजकर सौंधी महक देने लगा तब चांदवी ने उसमें पानी भी डाल दिया।
वाघोबा टोली की सू चुपचाप देखती रहीं।
पिलू भी देखते रहे।
यह भी नरबली देने वाली टोली।



चांदवी शांत भाव से उन्हें देखती रही।
रट रट रट धान पकता रहा।
चांदवी ने एक एक सू को खप्पर में रखकर धान दिया। सब खाते गए।
अंत में बुढिया को भी धान दिया।
समय बीतता गया।
भूख अब शांत चुक हो चुकी थी।
चांदवी ने सारी सू, सारे पिलूओं को बुलाया।
हम सब तुम्हें बुलाने आए हैं-- धानबस्ती पर चलने के लिये।
धानबस्ती.....। उसने सबको समझाया क्या होती है धानबस्ती।
सारी सूओं में खलबली मच गई।
थोड़ी देर में थककर सारी सू सो गई। चांदवी और उंचाडी भी उन्हीं के साथ सो लीं।
सोटया और उसके कुछ आदमी जागते रहे।
सोटया उकडूँ बैठा था।
औंढया देवा। कितना कुछ नया दिखा रहे हो तुम। पहले वह फेंगाडया और उसका बचाया हुआ लुकडया। फिर ये सारे भूखे सू और पिलू जिन्हें केवल बाई की आँखें ही देख पाईं।
लगता है एक नई कहानी का आरंभ हो रहा है।
दो बस्तियों को मिलाने वाली कहानी का।
होंठ सिकोड़ कर धीमे धीमे सोटया धुन बजाने लगा।
धुन......। जो वही सीख सका था  पायडया से।
नरबली टोली पर पहली बार कोई धुन बजा रहा था।
उस धुन पर उतर रही थी कोई कहानी।
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॥ ९७॥ बापजी और फेंगाडया की भेंट ॥ ९७॥


॥ ९७॥ बापजी और फेंगाडया की भेंट ॥ ९७॥

सोटया, दो आदमी, उंचाडी और चांदवी आगे बढ़ गए। पिछले मोड़ पर फेंगाडया और पंगुल्या रुक गए। लौटने में देर न करना। फेंगाडया ने चिल्लाकर उनसे कहा। वे आँखों से ओझल हुए तो फेंगाडया खिन्नता से
बैठ गया।
एक पत्थर उठाकर दूर फेंका।
पंगुल्या ने उसकी हालत देखी तो आगे आया।
फेंगाडया के पास बैठ कर उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
वहाँ से निचला मोड़ स्पष्ट दीख रहा था।
पीछे घाटी में पवन घों घों करता हुआ ऊपर चढ रहा था।
नीचे के मोड़ पर प्रेत पडे थे और उनपर गीध मंडरा रहे थे।
 दोनों चुप थे।
बापजी के कारण हुआ ये सब कुछ। पंगुल्या ने थूक कर कहा।
फेंगाडया ने चमक कर पंगुल्या को देखा। उसका सारा शरीर तन गया। पंगुल्या ने पहली बार यह नाम लिया था।
उसने उठकर पंगुल्या को दोनों कंधों से झकझोर दिया।
बापजी के कारण?
हाँ। बापजी के कारण।
बूढा, लम्बा, सफेद बालों का? फेंगाडया ने पूछा।
हाँ।
टोली में कभी न जाना........ बाई की टोली भयानक है....... बाई के पास मंत्र है....... कहने वाला?
पंगुल्या की आँखों में भय की स्पष्ट छाप।
हाँ, हाँ, वही। पंगुल्या चीखा।
फेंगाडया वापस बैठ गया। सिर हिलाते हुए पूछा- ये सारे......इतने प्रेत...... मरण का सारा खेल.....सब उसके कारण हुआ?
पंगुल्या फिर सिर हिलाकर पुटपुटाया- हाँ।
वह फेंगाडया को बताने लगा।
उसे नरबली के लिए लाया था-- लाल्या के आदमियों ने। लेकिन बच गया।
वह हँसा इसलिए बच गया।
फिर उसने टोली ही अपनी तरफ मोड ली।
सबको भय दिखाया-- मरने का।
लगाई सारी आग..... यह सब होने के लिए। पंगुल्या थरथरा रहा था।
फेंगाडया की बाँह मजबूती से थामकर बोला-- उसने लाल्या को उकसाया। मुझे भी मार डालने वाला था।
मैं, पाषाण्या उसका झूठ भाँप गए थे। इसी से। पाषाण्या भी मर गया होगा...... उसके हाथों।
मैं उंचाडी के साथ भाग लिया। इसीलिए बच गया।
नही तो मार दिया जाता उस टोली में।
या लढना पडता उस टोली की ओर से।
फेंगाडया के शरीर में एक थरथरी दौड़ गई।
उसने हौले से अपनी बाँह पंगुल्या की पकड़ से छुडा ली।
उकडूँ बैठकर उसने आकाश की ओर देखा।
देवाच् यह पंगुल्या यदि उस नरबली टोली में होता?
वह हथियार उन्हें मिला होता।
फिर यह प्रेतों का ढेर हमारा होता। मैं भी होता इसमें।



पंगुल्या की आँखें फैल गईं।
फेंगाडया ने शांत होकर उसे देखा।
वह भी होगा यहाँ? बापजी?
पंगुल्या ने सिर हिलाया- हो भी सकता हे।
नीचे झाडियों में कुछ खुसफुस हुई। दो तीन गीध भी फड़फड़ाते हुए उड़े और वापस बैठ गए।
फेंगाडया उठा। अकेला ही लम्बे डग भरता हुआ मोड के पार जंगल में घुस गया।
पंगुल्या घिसटता हुआ पीछे छूट गया।
एक बूढा पेड़ के तने से टिक कर बैठा था।
फेंगाडया पहली झलक में उसे पहचान न सका। लाठी तौलते हुए सावधानी से आगे बढ़ा। बापजी ने प्रयास से आंखों पर आती ग्लानि को दूर करके देखा।
सामने फेंगाडया।
फेंगाडयाच् वह चिल्लाया।
फेंगाडया भी थरथरा उठा। आनन्द से उसने हांक लगाई।
वह दौड़ गया। बापजी को उठा लिया। गोल गोल घुमाकर वापस नीचे बिठा दिया।
बापजी ने कांपते हाथों से उसे स्पर्श किया। वह कुछ कहें, उससे पहले फेंगाडया ने उसे हिलाते हुए कहा-
तू जो मानूसपने की बात कहता था बापजी-- उसे मैंने आगे बढाया है।
आगे बढाया है।
मैंने घायल लुकडया को मरने के लिए छोड़ नही दिया।
उसे उठाकर गुफा में ले गया।
उसे शिकार दी।
उसे धानबस्ती पर ले गया। उसे खाने के लिए धान मिला। उसके घाव ठीक हुए।
उसकी टूटी हुई हड्डी जुड़ गई।
बापजी की आँखें फिर से गँदला गईं। उसे मूर्च्छा होने लगी।
उसे फिर हिलाकर फेंगाडया ने कहा--
इस बस्ती को भी मैंने बचा लिया। मैंने और पंगुल्या ने।
इस बस्ती में धान है, अलाव हैं, उष्मा है। और अब घायल के लिए आधार भी है।
अब कोई लुकडया घाव के कारण नही मरेगा।
सू और पिलू शिकार के बिना भूखे नही रहेंगे।
उनके पेट के लिए भी धान है।
मैंने बचाई ये बस्ती बापजी, मैंने।
बापजी का सिर हिला। उसकी मानों वाचा ही बंद हो गई।
बापजी, तूने नरबली बस्ती को तोड़ दिया। मैंने धानबस्ती को बचा लिया।
लेकिन बापजी, तू सही नही था।
फेंगाडया रुका। शब्द टटोलने लगा।
फिर बोला-- मैं तुम्हें ले चलूँगा।
बस्ती पर ले चलूंगा। फिर तुम देखना।
देखना तुम कि बस्ती कैसे बनती है। कैसे टिकती है।
बापजी कराहा। आधी बातें उसकी समझ से बाहर हो रही थीं।
उसकी देह तप रही थी। एक अलाव की तरह। दो-तीन दिनों से मूत्र भी रुक गया था।
वह पुटपुटाया-- मैंने ही उकसाया।
इन जानवरों को मैंने ही भडकाया।
मैंने ही आरंभ किया मरण का यह खेल।



लेकिन क्यों? फेंगाडया ने पूछा।
बस्ती में, टोली में आदमी जानवर बन जाता है।
उसका मानूसपना खत्म होने लगता है।
फेंगाडया हंसा।
भरमा गया है तू बापजी। भरमा गया है।
बापजी की साँस तेज चल रही थी। अचानक वह मंद पड़ गई।
मूर्च्छा से वह लुढक गया।
फेंगाडया ने जमीन पर बैठकर उसका सिर गोद में ले लिया। बापजी धीरे धीरे सावधान हुआ।
देवाच् वह कराहा।
वह धानबस्ती वैसी ही बची रही।
वह अस्पष्ट बुदबुदाया।
फेंगाडया के रोंगटे खड़े हो गए।
बापजी मर रहा है। वह पुटपुटाया।
पंगुल्या पास आ चुका था। फेंगाडया की बगल में बैठते हुए खिदकने लगा-- विचित्र स्वर में चिल्लाया--
बापजी, तू मरेगा।
मैं जिऊँगा बापजी, और तू मरेगा।
तुझसे धानबस्ती देखी नही जा रही थी। कहता था बाई के पास मंत्र हैं।
यह सब तुमने कहा था। कहा था कि बाई शैतान है। वह झूठ था बापजी। धानबस्ती वैसी नही है।
फेंगाडया तुझे धानबस्ती में ले आया।
वहाँ की बाई ने, वहाँ के धान ने मुझे जिलाया।
वहाँ जाकर मैं सुख की नींद सोया।
बिना भय के सोया।
फेंगाडया जीता है बापजी, तू नही जीता।
तुम्हारे मानुसपने को वही आगे ले गया। इसीलिए वह जीत गया।
फेंगाडया की आँखें शांत हो चलीं। जो वह नही कह पा रहा था- पंगुल्या ने उसके लिए शब्द जुटाए थे।
पंगुल्या का तनाव निकल गया। बापजी, तू मुझसे कहता था, मेरे आड़े न आना। मैं नही आया बापजी। तुझे और किसी की गरज ही नही थी। तू खुद अपने आड़े आ गया। मर अब।
फेंगाडया की नसे फिर एक बार तन गईं।
एक विचित्र तनाव, और स्तब्धता तीनों की बीच गहराने लगी।
फेंगाडया ने आँखें मूंद लीं। फिर खोलीं। उसकी थरथरी कुछ कम हुई।
बापजी ने आँखें खोलीं।
सुन फेंगाडया- मेरी बात ठीक से सुन। वह बुदबुदाया। उसने एक लम्बी सांस खींचकर छोड़ी। फिर एक और.....!
सुन फेंगाडया।
बापजी की गर्दन फिर थरथराई। फेंगाडया की गोद में सिर हिलता रहा।
उसके होंठ विलग हुए।
टोली में, बस्ती में देव की आवाज खो जाती है। सुन लो मेरी बात।
यह टोली बडी होती चलेगी। फिर नियम बदलेंगे।
नरबली टोली की तरह.........। बहुत नियम बढेंगे।
ये आदमी, तब जानवर बनेंगे।
फिर एक बार जय वाघोबा, जय औंढया पुकारते हुए मरण का खेल खेलेंगे।
फिर एक बार। और फिर एक बार।
आदमी को अब रक्त का स्वाद लग चुका है।


याद रखना।
ये अभी भूल जाएंगे कुछ समय तक।
लेकिन फिर कोई नया बापजी आएगा।
वो फिर इन्हें भरमाएगा। उन्हें भैंसे बनाएगा। बिना विचारों वाले भैंसे।
मानूसपने को न जानने वाले भैंसे।
नया उकसाना। नए भैंसे।
लेकिन पुराना मरण, पुराने गीध।
यही खेल चलेगा।
समय की आहट यही कहती है।
बापजी ने आखरी साँस ली।
फेंगाडया ने उसकी छाती से कान लगाया।
वहाँ कोई धड़धड़, कोई आवाज नही थी।
फेंगाडया शांति से उठा।
बापजी का शरीर पीले पत्ते की भाँति जमीन पर लुढक गया।
पंगुल्या धडपडाते हुए उठा। दोनों दूर हुए।
फेंगाडया ने एक बार बापजी को देखा। उसे लगा। इसे गाड़ दूँ।
वह थूक दिया।
यह कैसा बापजी? वह आक्रोश कर उठा--
यह बापजी तो शैतान बन चुका था।
मेरा बापजी अलग था पंगुल्या।
अलग था।
ताड्ताड चलते हुए फेंगाडया मोड की ओर बढ चला। पंगुल्या उसके पीछे घिसटने लगा।
किसी तरह उसने फेंगाडया को पकड़ा-- उसे रोककर खड़ा हो गया।
फेंगाडया के गले से गुर्राहट निकली।
पंगुल्या ने आकाश की ओर उंगली उठाकर संकेत किया।
वहाँ गीध मँडरा रहे थे। बाट जोह रहे थे।
फेंगाडया एक क्षण वहीं रुका रहा। फिर पीछे मुडा।
बापजी के शरीर को खींचते हुए ले चला।
पास ही एक छिछला गड्ढा था। उसमें डाल दिया।
लाठी से मिट्टी उकेरी और बापजी के उपर डाल दी।
सामने एक बड़ा पत्थर था। जान लगाकर फेंगाडया ने उसे ढकेला और बापजी के ऊपर सरका दिया।
पसीने से थबथबाते हुए वह पत्थर पर जा बैठा। पंगुल्या फटी फटी आँखों से उसे देखता रहा।
फिर फेंगाडया ने एक लम्बी छलांग लगाई और लम्बे डम भरता हुआ बस्ती की ओर चल दिया। पंगुल्या उसके पीछे पीछे। उपर गीध मँडराते रहे।
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॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

दौड़कर आता हुआ, थका हुआ फेंगाडया अलाव के पास कर चित्त लेट गया।
बाई ने उसे देखा। पास जाकर उसका सिर गोद में ले लिया।
पायडया, पंगुल्या, उंचाड़ी, चांदवी, सारे जमा हो गये।
कोमल आगे आई। खप्पर का धान उसके मुँह से लगा दिया।
पंगुल्या उत्सुकता से थरथराता हुआ आगे आया-- उसने पूछा-
हथियार चल गया। है ना? वो सारे भाग गए? बोलो, भाग गए ना?
फेंगाडया ने आँखे खोली। सामने पंगुल्या को देखकर वह हर्ष से चिल्ला उठा-
होच्होच्ओच्ओच्
उसका आनंद पंगुल्या को छू गया। अपने लंगडे पैर को संभालते हुए वह नाचने लगा।
सभी नाच में साथ देने लगे।
फेंगाडया ने थोड़ा धान और खाया।
अब उसकी साँसे संभल गई।
वह चिल्लाया- आज इस पंगुल्या ने पूरी बस्ती को बचाया है। उसका वह नया हथियार- हड्डी से बना हुआ-
पत्थर फेंककर मारने वाला। वे भाग गए। मर गए। हम जीत गए।
सच? बाई ने थरथरा कर पूछा।
हाँ, हाँ, बिल्कुल सच।
सोटया थका हुआ था। फिर भी उसने दौड़कर पंगुल्या को गलबांही डाल दी।
पायडया आगे आया। उसने भी पंगुल्या को गलबांही दी।
बाई हंसने लगी।
अलाव की ऊष्मा लेकर फेंगाडया भी उठा।
अलाव के चारों ओर गोल बनाकर सारे नाचने लगे।
नाचते नाचते उंचाडी ने आवेग से पंगुल्या को अपनी ओर खींच लिया। अलाव के पास ही दोनों जुगने लगे।
एकआँखी नाचते नाचते थक गई। जाकर बाई के पास बैठ गई। एक कराह उसके मुँह से निकली।
कमर दुखती है? बाई ने उसे सहलाते हुए पूछा।
एकआँखी ने हाँ में सर हिलाया। बाई उसकी कमर पर हाथ फेरती रही। दबाती रही।
 बारिश की एक जोरदार झड़ी आई और थम गई।
एकआँखी उठकर नदी की तरफ जाने लगी तो बाई ने उसे रोक लिया।
अब दूर नही जाना है। नदी तक नही।
यहीं पास में। इस झोंपडी में......। जाओ।
चांदवी आगे बढी। बाई के पास आकर रुक गई।
बाई ने निश्चय से फिर कहा-- अब से पिलू होने के बाद सू को धान मिलता रहेगा। उठकर खड़ा होने की ताकद आने तक।
दो दिनों के बाद धान बंद कर देने की रीत आज से बदलेगी।
चांदवी बाई से लिपट गई।
उसने पूछा- अब हम जीत गए?
बाई ने सिर हिलाया।
हार गई नरबली वालों की टोली। अब वहाँ कौन बचा होगा?
आज चांदवी बाई की आंखों से आंखें मिलाकर प्रश्न पूछ रही थी।
बाई की आँखें अचानक चमक उठीं। ठीक ही पकड़ा इस छोटी सू ने। उस टोली में बचे होंगे केवल सूएँ और बच्चे।
बाई बुदबुदाई-- सब आदमी मर गए। या भाग गए।
पंगुल्या अचानक हंसने लगा मानों भरमा गया हो।
बाई ने पूछा-- क्या रे?
उस बस्ती की वह बुढिया याद आ रही है। मरेगी अब भूख से।
भूख से?
क्या वहाँ धान है? बाई ने पूछा।
नही।
केवल शिकार से मिटती है भूख? बाई ने फिर पूछा।
हाँ।
सारे स्तब्ध थे। कुछ नया होनेवाला था।
बाई आवेग से सोटया की ओर मुड़ी।
तुम्हें जाना है- अभी।
उन सारी सूओं को, पिलुओं को ले आना है।
फेंगाडया असमझ देखता रहा। उन्हें लाना है?
बाई ने पूछा- कौन शिकार करेगा उनके लिए?
मर जाएंगी उनमें से कई।
इतने पिलू, इतनी सूएँ।
बाई का स्वर भर्रा गया।
आदमी ने आदमी को मारने का खेल रचा।
सूओं ने नहीं खेला था मारने का खेल। फिर उन्हें मरण क्यों?
उन्हें लाना होगा। उंचाडी को ले जाओ। वह जानती है रास्ता।
उस बस्ती पर पहुँचो। चांदवी के साथ ले जाओ।
वह सबको समझा सकती है।
बताओ उन्हें कि धानबस्ती पर अलाव है। उष्मा है। और धान है। मरण से बचने का रास्ता है।
पायडया गदगदा उठा--
सही है बाई। सही है। यही है बाई की समझ।
इसीलिए वह बाई है। पायडया चिल्लाया।
सारे सहमत थे।
अलाव के चारों ओर नाच में एक नया रंग चढ गया।
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