जनता की राय
बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख
'दुनिया मेरे आगे' जनसत्ता का लोकप्रिय
कॉलम है ! यह स्वतंत्र विचारों का कॉलम है ! मेरे ख्याल में इसे लिखने की कोई शर्त नहीं होती ! बस, लिखने वाले को अपने विचार ठीक से रखने का शऊर होना चाहिए !
लीना मेहेंदले का नाम इस कॉलम के जरिये ही मैंने पहली बार जाना ! शयद उन्होंने और भी अखबारों में लिखा हो, पर इस कॉलम में जिस तरह उन्होंने लिखा, वह मेरे लिए पठनीय रहा है ! राष्ट्रिय मुद्दों के अलावा भी लीना मेहेंदले ने ऐसी बहसें
खडी करने की कोशिश की कि आश्चर्य होता कि समाज और जीवन की छोटी-सी घटना को किस तरह वे एक राष्ट्रिय मुद्दा बना देती हैं !
लीना मेहेंदले के ये आलेख हिन्दी पत्रकारिता के उत्कृष्ट नमूने हैं ! घटना पर पैनी नजर, सटीक विवेचन और न्यायपूर्ण पक्ष ! कानून का पक्ष, जनता का पक्ष और
सरकार का पक्ष भी, यदि वह जनविरोधी न
हो ! समाज के व्यापक
सरोकारों वाला कोई भी विचार लीना मेहेंदले की गहरी समझ का स्पर्श पाकर उद्दीप्त हो
उठता है ! मैंने अभी हाल ही
में उनके लिखे तीस-पैंतीस आलेख पढे ! कुछ आलेख तो मैं जनसत्ता में पढ ही चुका था ! फिर भी उन्हें दुबारा पढते हुए उनके लेखन की गहराई में जाने की कोशिश की !
लीना मेहेंदले किसी दूर की कौडी का इंतजार नहीं करतीं ! वे लिखने के विषय अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से चुनती हैं ! घटनाएँ रोज आती हैं -- अखबारों की सुर्खियों के रूप में ! बलात्कार, हत्या, लूटपाट और आगजनी ! ये रोज की घटनाएँ हैं, पर कभी-कभी इससे अलग और
विशिष्ट भी घटित हो जाता है, तो लगता है कि जीवन अभी इससे भी आगे है ! क्या समाज की टुच्ची घटनाओं में सिर खपाना जरूरी है? यदि जरूरी है तो लीना उस पर पूरे अधिकार के साथ लिखती हैं ! जैसे कि वे सती शब्द को गलत अर्थो में समझने वाली महिलाओं
के खिलाफ लिखती हैं -- 'उठो जागो !' जब वे 'सती' शब्द की व्याख्या
कर रही होती हैं तो उसके पास पौराणिक आख्यानों की सत्यता होती है ! उसके माध्यम से वे सती के भावार्थ को गलत तरीके से इस्तेमाल
करने वाले और सरकार की नीयत को कठघरे में खडा करती हैं !
इसी तरह लीना मेहेंदले ने
हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक विडंबनाओं की भी बखिया उधेडी है ! 'हिन्दी में शपथ', 'बच्चों को बख्शिए', 'हर जगह वही भूल', 'दिल्ली में युधिष्ठिर', 'भीड के आदमी का हक', 'नमक का दारोगा', 'लालकिले की कालिख', और 'अपने-अपने शैतान' आदि आलेखों में उन्होंने उन मुद्दों को बहस तलब बनाने का साहस किया है, जिस पर कम ही पत्रकार और लेखक विचार करने की जहमत उठाते हैं! निश्चित ही राज्य शासन का कार्य अपनी
राज्य व्यवस्था को दुरूस्त रखना है, पर इसमें नागरिकों की भागीदारी को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है? लेखिका इस बात की तरफ पाठकों या इस देश के जागरूक नागरिकों
का ध्यान बार-बार आकर्षित करती
हैं, साथ ही मुर्दा और
निकम्मी सरकार, इसके भ्रष्ट और
नाकारा मंत्रियों तथा कर्मचारियों के दुराचरण की जमकर आलोचना भी करती हैं !
लीना मेहेंदले के विचारों में गहरी समझ का जादू है ! इससे पाठक बच नहीं सकता! नारीवादी
चेतना
का
इनमें
एक
स्वाभाविक
स्फुरण
है, मगर
इस
मामले
में
उनका
ज्ञान
अधूरेपन
से
ग्रस्त
नहीं
है
! वे
महिला
स्वातंत्र,
महिला
जागरूकता
और
महिला
अस्मिता
की
पक्की
हिमायती
हैं, मगर
व्यापक
मानवीय
संदर्भों
और
उद्देश्यों
के
साथ
! महिला
सशक्तीकरण
के
पक्ष
में
उन्होंने
काफी
लिखा
है
! 'गुजरात
भत्ते
की
दावेदार
कैसे
बनें?',
'इक्कीसवीं
सदी
की
औरत', और
'अंजना
मिश्र
कांड
में
उडीसा
के
पूर्व
महाधिवक्ता
को
तीन
साल
की
कैद' आदि
आलेख
नारी
की
अस्मिता
पर
गहरे
विमर्श
के
लिए
तीखी
दस्तकें
हैं,
जिनको
अनसुना
करना
आसान
नहीं
है
! पत्रकारिता
का
मूलधर्म
है
उन
लोगों
को
आगाह
करना,
जो
शासन
और
सत्ता
के
नशे
में
हमेशा
मस्त
और
बेखौफ
रहते
हैं
! उन
अशिक्षित
और
अनजान
लोगों
को
शिक्षित
करना,
जिनकी
निरीहता
का
लाभ
उठाकर
इस
व्यवस्था
की
खाल
संवेदनहीन
और
मोटी
होती
जा
रही
है
! मुझे
ये
आलेख
उस
नश्तर
की
तरह
लगते
हैं, जो
वैचारिक
रूप
से
शून्य
होते
रहे
समाज,
साहित्य
और
राजनीति
को
नई
चेतना
प्रदान
करते
हैं
! मैं
आशान्वित
हूँ
कि
पत्रकारिता
की
नई
पीढी
को
इनसे
बहुत
कुछ
सीखने
को
मिलेगा
!
मुझे
बेहद
खुशी
है
कि
ये
आलेख
पुस्तकाकार
में
अपने
विस्तार
के
लिए
जगह
बनाने
जा
रहे
हैं
! इनके
विचारों
को
व्यापक
समर्थन
मिलेगा,
इसकी
मुझे
पूरी
उम्मीद
है
!
अपार
शुभकामनाओं
के
साथ
!
कमलेश्वर
२०-०८-२००४
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