Saturday 29 September 2007

२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१ Y

२१. कलाकार की कदर   - जन. ४ मई २००१ 
कलाकार की कदर
कुछ बरस हुए, मैंने तबले की एक जोडी इस जिद के साथ खरीदी थी कि तबला सीखूंगी। तीन-चार साल में एक बार कभी सनक उभर आती है, तो नए उत्साह से मैं कुछ सीखती हूं। फिर सब ठप पड जाता है। लेकिन इस दोर में रा ध्यान एक विशिष्ट जाति के कलाकारों की तरफ गया। यह जाति है संगीत-वाद्य बनानेवाले या उन्हें सुधारनेवाले कलाकारों की। पुणे में एक सज्जन श्री औटी तबला पर स्याही लगाने का , तबले की वादियॉ कसने का और जरूरी हुआ तो चमडा लगाने का भी काम करतो आए हैं। वे नए तबले भी बनाते हैं। साल भर काम चलता हैं। इसमें महिलाए जादा लगी हैं, सो पन्द्रह से बीस महिलाओं को रोजी-रोटी मिलती हैं। लेकिन औटीजी बताते हैं – “तबला बनाना या उसकी मरम्मत करना अपने आप में एक कला हैं, जिसे सीखने के लिए काफी श्रम औप लगन चाहिए। मेरे दोनो बेटे पढ-लिख कर बैंक अफसर हो गए। वे इस कला को सीखना नही चाहते। मेरे काम में दखल नही देते, लेकिन में बूढा हो चला, कभी न कभी तो रुक जाऊंगा”। मैनें पूछा, आप किसी दूसरे को या काम करने वाली उन्हीमहिलाओं को क्यो नही सिखाते? उनका उत्तर था- कोई अपना समय खर्च करके इसे क्यो सीखना चाहेंगा? क्या इस काम में कोई पैसा या सन्मान हैं? मैनें कहा कि ‘पैसा तो जरुर होगा, तभी तो आपकी तीन पीढियों ने इस कला से उपजीविका चलाई।’ लेकिन मेरा यह उत्तर पर्याप्त नही है, यह मैं भी समझ रही थी।
मुम्बई में दादर स्टेशन के बाहर फुटपाथ पर बरसों से श्री गिंडे बॉंसुरी बेचा करते थे। उनकी बनाई बॉसुरी बडी सुरीली हुआ करती थी। पुणे के एक प्रसिद्ध लेखक और शौकिया बॉसुरीवादक अनिल अवचट को किसी ने वहॉ से कुछ बॉसुरीयॉ खरीदवाईं । अवचटजी ने उनसे पूछा, जाना। फिर एक लम्बा लेख लिखकर उन्हें प्रसिद्ध बना दिया। लेकिन आज भी मुम्बई महानगरपालिका के अतिक्रमण-रोको विभाग के कर्मचारी कोर्ट स्टे के कारण बॉसुरी की फुटपाथी दुकान हटा नही पाए और कोर्ट ऑर्डर के बावजूद गिंडेजी दुकान के लिए कोई टपरी नही दे रहे हैं।लेख को कारण इस दिकान की पहचान बनी तो मुम्बई की एक कला – संस्था चतुरंग ने कलाकारों के कार्यक्रम में उनका भी सन्मान किया। लेकिन ऐसे उदाहरण अत्यंत कम पाए जाते हैं जब वाद्य बनानेवाले को सन्मानित किया जाए।आज गिंडे जीवित नही हैं, लेकिन उनके बेटे ने वह काम सॅभाल लिया है। गिंडे बताते थे कि कैसे उन्हें खरीदकर लाए बॉस अपने घर में ही रखने पडते हैं और कैसे महानगरपालिका के लोग उनके घर का व्यापारिक कारण से उफयोग बताकर गाहो-बगाहे बॉस जब्त कर लेते हैं। इसी तरह नासिक में शहनाई बनानेवाले एक कलाकार हैं जो उस्ताद बिस्मिला खान के लिए शहनाइयॉ बनाते हैं और उन्हे गर्व है कि उनका लडका भी उनसे यह कला सीख कर माहिर हो गया है।
आजकल के सभी बॉसुरीवादक प्रायः दो बॉसुरियों का प्रयोग करते हैं। एक बार बात चली तो किसीने मुझसे कारण पूछा। मेरी जानकारी इतनी ही है कि सामान्यातः बॉसुरी पर दो ही सप्तक बज सकते हैं जब कि अच्छे वादन के लिए कम-से-कम ढाई सप्तक का विस्तार चाहिए। प्रथम श्रेणी के गायक तीन स्प्तक तक का सूर गा लेते हैं। इसी कारण दो बॉसुरिय़ॉ रखनी पडती हैं जिनमें एख का निचला स्वर दूसरी के ऊंचे स्वर से मेल खाता हो। लेकिन स्वर्गीय पन्नालाल घोष एक ही बॉसुरी बजाते थे। इस बॉसुरी में ढाई या तीन सप्तक के सुर निकल सकें, इसके लिए उसकी लम्बाई बढी पडती हैं। उती लम्बाई पर उंगलियों से नियन्त्रण कर पाना बहुत कठीण हैं। पन्नालाल घोष ने यह कठीन कार्य कर दिखाया। उन्होंने अपनी बॉसुरीयों की लम्बाई धीरे धीरे बढाई और उस पर अभ्यास करते गए। एक बार पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के साथ जुगलबन्दी करने और उनकी आवाज की हद को बॉसुरी में पकड पाने के लिए उन्होंने तीस इंच लम्बी बॉसुरी बनवाई थी और उसे बजाकर पंडितजी से वाहवाही लूटी थी। यह जानकारी मिली पुणे आकाशवाणी के सेवानिवृत्त डायरेक्टर गजेन्द्रगडकर के संस्मरण से। संस्मरण में लिखा है कि स्वयं पन्नालाल घोष बॉसुरी बनाने वाले उन सज्जन का बहुत सन्मान करते थे, लेकिन आकाशवाणी, संगीत कला अकादमी, भारत सरकार आदि ने कभी ऐसे व्यक्तियों का सन्मान किया हो, याद नही आता।
मिरज एक जमाने में अपनी संगीत परम्परा के लिए बडा प्रसिद्ध था। उस्ताद अब्दुल करीम खॉ औऱ लता मंगेशकर भी कभी वही रहे हैं। वहॉ एक परिवार में उच्च कोटि के तानपुरे, सितार, सरोद इत्यादि बनाए जे हैं। में वहॉ कलेक्टर थी तो उनका गोदाम देखने का मौका मिला। छोटे-बडे सैकडो जंगली सीताफल (पीले कद्दू ) सुखाकर वहॉ रखे हुए थे। उन्हीं को बीच से चीर कर उनसे जोडी के तानपुरे बनते हैं। कद्दू के खोल पर पॉलिश करना, उसे लकडी के साथ जोडना, जोड छिपाने के लिए नक्काशी करना, सुर मिलाना आदि तमाम कलाकारी उसी दिन देखने को मिली। चलते-चलते उस परिवार के मुखिया ने अपा दिख भी खेती करने लगे। अब खेतों की बाड पर जंगली सीताफल की बेलें नही लगाई जाती। जंगली सीताफलों का स्टॉक बडी मुश्किल से मिलता है। वह प्रजाति भी नष्ट हो रही है। फिर सितार – तानपुरे कैसे बजेंगे? मैडम, कदर केवल मेरी ही नही, उन जंगली बेलों की भी होनी चाहिए।
(जनसत्ता : 4 मई, 2001)





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