Thursday, 10 October 2013

A Tale of Fengadya.--- DR ARUN GADRE + some sundry from NCW

INTRODUCTION

      Climb an uphill. Wait for a moment to take a breath and casually look down. And say to each other, "Look! Can you see that signpost hidden in the bushes? That is the one that announced the start of the uphill. From that point onward, we started moving up with speed. And see how far we have come within a short time!"
      Similar feelings should gather in one's mind after reading this novel, A Tale of Fengadya.
      On this Earth, the human culture is dispersed all over. It has left behind many signs of its existence over the period of last 30 to 40,000 years. Many of these signs are nothing but the signs of his animal-ness. But some signs are definitely of his humanness.
      Particularly, at which point in the history, did man perceive his humanness? When he perceived it, how did he accept it? How did the animal in him came to know about his humanness?
      This novel tries to give answers to these questions.
      The theme of the novel sparked in my mind when I read a quote produced by a Christian missionary doctor, Dr. Paul Brand who has worked in the field of leprosy at Vellore medical college, India.
      In his book, 'Fearfully and Wonderfully Made', he writes beautifully in one chapter, on the subject, The Bone.
      In this chapter, he gives a quote from a social anthropologist, Dr Margaret Mead. When Dr Margaret Mead was asked by a reporter, "When do you declare that the human civilization has started at this particular point while doing excavation?"
      Her answer was, "Not roads, not utensils, nor the constructions, but when I found a healed femur bone, I declare that the human civilization has started here!"
      This particular answer by Dr. Margaret Mead enthralled me!
      Being a medical person by profession, I immediately understood the gravity of the statement! 30 to 40 thousand years back, when the man was living in the jungle, when he was fighting for his own survival, when he had to hunt his food on his own, it was a well accepted rule to leave behind the wounded person and to go ahead. So later in excavation we get either the intact femur bones or the broken femur bones.
      When we get a healed femur bone, however, it means that some person had actually lifted the wounded person to the cave. Had hunted for the wounded person. Had fed that wounded person for at least six months! Thus,  the broken femur of that person had healed, to announce this wonderful happening when found in the excavation by present-day man!
      I started wondering, who this person was? How he stood against the routinely accepted rule?
      The novel that developed has unique characteristic.
      First of all, brevity. The sentences tended to be short and crisp. It became the convergence of space, time and many cultures into a single place of particular time frame.
      The names of the characters emerged strange and unique. They have to be different from those of today. The names that are correlated to the appearance got upper hand. For example, Lameo for  lame. Longleggy, implying one with long legs.
      The novel in the process became Pre-historical rather than Historical one. It became Pre-social rather than Social.
      The novel became somewhat, a poetic truth.
      As the Nobel laureate Peter Medwar has observed, "The poetic truth can be interpreted as a distinct, separate and parallel truth. It cannot be compared with scientific truth or the actual reality. Being one of the alternatives among many, the poetic truth helps us to enter an entirely different universe and helps us to understand the reality in a different perspective. It enriches our understanding of reality."
      The history showed in the novel, A Tale of Fengadya, is also a kind of poetic truth. The claim of Dr. Margaret Mead, which turned out to be the stimulating point for this novel, may be declared obsolete or irrelevant by some another study in the future, but that cannot negate the poetic truth in this novel. This poetic truth in the novel has now become an independent existence on its own.
      I may say as a writer, that the success of this novel lies in the following realization:
      If the reader, after completing the novel, wonders for a moment:
      "Where do I stand today? Am I in the Dhanbasti ? Or is it that I have not left the cave of Fengadya at all? Or am I living in the man eater Vaghoba Toli even today?"
      Everybody is familiar with the scientific work, `The Ascent of man’ by J.Bronowski.        Modestly I can claim, that I have written a small literary volume of Ascent of man, in the form of this novel, A Tale of Fengadya.

                                                             --- DR ARUN GADRE.









some sundry from NCW REMOVE FROM HERE







Tuesday, 8 October 2013

******** समाज बनाम प्रशासन -- जनता की रायकी भूमिका व सूची


जनता की राय -- भूमिका
समाज बनाम प्रशासन 

मेरी हिंदी आलेख कई वर्षोंसे 'यदा-कदा' रूपमें छपते रहे। पुणेमें रहनेके कारण मराठी आलेख लिखना तुरन्त-फुरन्त हो जाता था। हिंदी लिखनेके लिये आलस आडे आता- तो भौगोलिक दूरीका कारण बताकर अपने आपको उचित ठहरानेमें कोई परेशानी नहीं थी।

    लेकिन दिल्लीमें पोस्टिंग हुई तबसे कहानी उलटी हो गई। पिछले पांच वर्षोंमें 'जनसत्ता'के लिये काफी लेखन किया। अब सबकी रायसे उन्हींमेंसे कुछ लेखोंका संग्रह छप रहा है। कुछेक लेख दूसरे अखबारोंमें भी छपे हैं जैसे हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाइम्स इत्यादि।

    इन लेखोंके मुख्य मुद्दे हैं समाज और प्रशासन! या कहूँ कि समाज बनाम प्रशासन। दोनों ओरसे बहस करने वाला मुख्य पात्र मैं, और बहसके अच्छे कमजोर मुद्दोंकी निर्णायक या जज भी मैं। इसका कारण भी है।

    मैं भारतीय प्रशासनिक सेवामें आई तब एक सपना लेकर कि इस नौकरीके माध्यमसे कई सामाजिक कुरीतियाँ दूर करनी हैं- लोगोंको बहस और सोचके लिये उकसाना है। लेकिन अपना कर्तव्यभार पूरी सच्चाई और निष्ठासे निभानेके बावजूद भी दिख जाता कि इससे समाजकी कठिनाई दूर नही हुई हैं। एक अफसर होनेके नाते, कानून और शासन व्यवस्थाके दायरेमें रहकर मैं जो कुछ करूँ, जरूरी नही कि उसका असली और समग्र लाभ समाजको मिले। समाज नामक संस्थाकी भी कुछ अपनी परंपराएँ हैं, मान्यताएँ हैं, मजबूरियाँ भी हैं। इसलिये जब समाजकी उंगली नौकरशाहीकी ओर उठते हुए आरोप लगाती है तो उसमें एक उंगली अपनी तरफ उठी हुई पाती हूँ- अपनी तमाम निष्ठाके बावजूद ! इसने मुझे अक्सर सोचनेको मजबूर किया कि क्या ऐसा संभव है कि नौकरशाहीके अच्छे लोग और समाजके अच्छे लोग इकट्ठे कर अच्छाइयोंके परिमाणमें कई गुना मूल्यवृद्धि करें? लेकिन उसके लिये केवल 'एकत्र आना' पर्याप्त नही है, हमारी सोच, प्रबुद्धता, और काम करनेकी दिशा भी एक हो तभी परिमाणमें गहराई और व्यापकता होगी।

    यही कारण है कि कोई मुद्दा उठे तो मैं पहले देखती हूँ कि यदि मैं 'सामान्य जन' होऊँ तो यह मुद्दा मुझे किस प्रकार प्रभावित करेगा? मुझपर, मेरे सुचारू जीवनयापनकी इच्छापर इसका क्या परिणाम होगा। एक अफसर होनेके नाते जो कुछेक सुविधाएँ मेरे पास हैं, वे रहें तो मैं स्थितीको कैसे  झेलूँगी? बाकी लोग कैसे झेलते हैं? इस भुक्तभोगी होनेकी लालचने मुझे कई बार ठेलकर 'सामान्य जन' की भीडमें खडा कर दिया और चैलेंज दिया कि अब दिखाओ कि एक सामान्य सज्जन, एक सज्जन अफसर तक अपनी बात कैसे पहुँचाए ताकि उनकी काम करनेकी दिशा एक हो?

    यही कारण है कि जनसत्ताके 'दुनियाँ मेरे आगे' स्तंभके लिये लिखे गए कई लेख ऐसे हैं जो जन सामान्यके प्रश्नोंको समाज और प्रशासन दोनोंके दृष्टिकोणसे देखते हैं। इन लेखोंमें यह जाननेका प्रयास है कि कोई ईमानदार अफसर तमाम निष्ठाओंके साथ कैसे, कहाँ और कितना अच्छा काम कर सकता है, निष्ठाके बावजूद कहाँ उसका प्रयास चूक सकता है- उधर समाजके सज्जन व्यक्ति भी अच्छाईको बढानेमें क्या योगदान देते हैं और कहाँ चूक जाते हैं। यह पुस्तक नही, बल्कि प्रजातन्त्र पर गहन विश्वास रखनेवाले मुझ जैसे एक सामान्य व्यक्तिकी दुहाई है- कि समाज अपनी रायके प्रति सजग हो, सोचता हो और मुखर भी हो।

जनता की राय

१.  हिंदीमें शपथ               -  जन. १९ अक्तूबर १९९९
२.  बच्चोंको तो बख्शिए         -  जन.  ३० अक्तूबर १९९९
३.  उठो जागो                 -  जन. ११ दिसंबर १९९९
४.  नई सहस्त्राब्दी के पहले      -   जन.  १७  दिसंबर १९९९
५.  हर जगह वही भूल         -   जन.  ३० दिंसबर १९९९
६.  सुयोग्य प्रशासन           -   जन.    जनवरी २०००
७.  पचास साल बाद हिन्दी     -   जन.    फरवरी २०००
८.  पुलिस प्रपंच              -   जन.  २५ मार्च २०००
९.  दिल्ली में युधिष्ठिर         -   जन.    अप्रैल २०००
१०. भीड़ के आदमी का हक      -   जन.  १४ अप्रैल २०००
११.  नमक का दरोगा           -   जन.    जून २०००
१२. जनतंत्र की खोज में        -   जन.  १७ जून २०००
१३. अर्थव्यवस्था का नमक      -   जन.    अक्टूबर २०००
१४  लालकिले पर कालिख      -   जन.  १४ अक्टूबर २०००
१५. इक्कीसवीं सदी की औरत   -   जन.  १७ दिसंबर २०००
१६. अपने अपने शैतान         -   जन.    दिसंबर २०००
१७. तबादलों का अर्थतंत्र        -   जन.    दिसंबर २०००
१८. काननून अन्याय          -   जन.  २६ दिसबंर २०००
१९. राष्ट्रीय संकट में हम        -   जन.    फरवरी २००१
२०. गुजरात ने जो कहा         -   जन.    मार्च २००१
२१. कलाकार की कदर          -   जन.    मई २००१
२२. नीरस जीवन की भुक्तभोगी     -   जन.    मई २००१
२३. गुजारा भत्ते की दावेदार कैसे बनें  -  रा.स. १८ फरवरी २००१
२४. एड्स का खौफ              -   रा.स. २७ मई २००१
२५. छोरी साइकिल चलावै छे     -   प्र.ख   ३१ अक्टूबर २००२
२६. बीजींग कान्फरंस, सीडॉ और भारतीय महिला नीति - (जालंधर में दिया गया भाषण)
27.    परीक्षा प्रणाली मे आमूलाग्र सुधार हो नभाटा १२फरवरी १९९९
२८. एक स्त्री का साहस             -   जन.  फरवरी २०००
२९. एक श्रद्धांजली               -   प्र.ख जून १९९९
३०. पढाई का बोझ              -   रा.स  २२ जुलाई २००१
३१. क्या हमारे खून में कश्मीर है  -   हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२
३२. लिंगभेद से जूझते हुए - तारा  -   सनद, अंक १०
३३. शीतला माता           -   हिंदुस्तान २३ मार्च २००४
३२.     सत्ता तंत्र में कमाई : जनता क्या है तेरी की राय  - हिंदुस्तान २३ मार्च २००४