Monday 7 October 2013

नीरस जीवन की भुक्तभोगी - जनसत्ता 6, मई 2001

नीरस जीवनकी भुक्त भोगी
कुछ महिने पूर्व मैंने महाराष्ट्रमें महिलाओंपर होने वाले अपराधोंसे सम्बन्धित ऑकडोंकी पढाई की। उसके आधारपर कुछेक भाषण दिए और कुछ लिखा भी जो महाराष्ट्रमें यहॉं वहॉं पढा गया।
इसमें मैंने दो बातोंकी ओर ध्यान आकर्षित किया था। पहला कथ्य यह था कि मराठवाडा नामक महाराष्ट्रका एक हिस्सा औरतोंकी पढाईके मामलेमें काफी फिसड्डी है। यहॉंके ग्रामीण इलाकोंमें महिलाओंकी साक्षरता तीस प्रतिशतसे भी नीचे है। फिर भी पिछले दस वर्षोंमें महिलाओं पर किए गए बलात्कार के आँकडे देखनेपर पता चलता है कि मराठवाडाके सातों जिलोमें बलात्कारके ऑंकडे अन्य जिलोंकी तुलनामें कम हैं। अपनी पढाईमें मैंने जलगॉंव वासनाकांडका भी उल्लेख किया था। सात वर्ष पहले घटी इस घटनाने पूरे महाराष्ट्रको हिला दिया था। इसमें कुछ लोगोंने लडकियोंको फुसलाकर उनके गन्दे फोटो खींचे थे और बादमें उन्हें फोटो उजागर करनेका डर दिखाकर उनपर बार-बार बलात्कार किया। फुसलानेके लिए लडकियोंको परिक्षाकी प्रश्न पत्रिका बतानेका या नौकरी देनेका लालच दिया गया था। हालॉंकि इस घटनामें कई लडकियॉं आहत हुईं और कई पुरुषोंने गुनाह किए फिर भी केवल बीस गुनाह कोर्टतक गए और उनकी सुनवाई हुई। सेशन कोर्टमें दोषी पाए जानेके बावजूद सारे आरोपी हायकोर्टमें छूट गए। हालमें ही सातारा जिलेमें यही घटना दुहराई गई, उसमें भी लडकियोंको नौकरी देनेका लालच दिया गया था।
कल अचानक मुझे एक पत्र मिला। बच्चों जैसे मोटे अक्षरोंमें लेकिन बगैर कॉंच-छॉंटके इस पत्रमें लेखिकाने जिन्दगीकी एक सच्चाईको अपनी भाषामें प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि मैं एक चौथी पास घरेलू औरत हूँ जिसकी सत्तावन वर्षकी उमर चूल्हा चक्कीके प्रपंचमें ही बीती है। फिर भी आपका लेख पढनेके दो महिने बाद, काफी हिचकिचाहट और संकोचके बावजूद यह पत्र लिखनेकी हिम्मत कर रही हूँ। इसके बाद अपने स्वयंके अनुभवसे पत्र-लेखिकाने विश्लेषण किया कि ग्रामीण इलाकोंमें किशोरी लडकियोंको बार-बार यही सुनाया जाता है कि पढकर क्या करोगी, आखिर तो तुम्हें चूल्हा ही फूँकना है। लडकियँ अपने अगल-बगल चारों ओर देखती हैं कि उनकी मॉंए, बडी बहनें, बडी भाभियॉं, यानी कि सभी बडी औरतें पूरा दिन चूल्हेके ही प्रपंच में पडी रहती हैं। उनकी जिन्दगीका प्रत्येक दिन इसी एकरस या नीरस कामको करते हुए गुजरता है।
इसीलिए जो लडकियॉं थोडा बहुत पढ लेती हैं, उन्हें आशाकी एक किरण-सी दिखाई पडती है कि य़दि नौकरी मिल जाए तो रोजानाके इस कमरतोड, उबाऊ, नीरस कामसे छुटकारा मिल सकता है। इसी मुक्तिकी तलाशमें लडकियॉं नौकरीके लालचमें रहती हैं और फिर उन दलालोंके हाथ चढ जाती हैं जो उन्हें छोटी-मोटी नौकरीयोंकी लालच दे सकते हैं। क्या यह सम्भव नहीं कि घरेलू औरतोंकी जिन्दगीमें कुछ ऐसा हो कि उनके हिस्सेमें केवल चूल्हा ही न हो? यदि ऐसा हुआ तो नौकरीके पीछे भागनेकी लडकियोंकी मजबूरी कम हो जाएगी।
यह पत्र कई तरहसे मेरे मनको छू गया। ऐसा पत्र वही औरत लिख सकती है जो भुक्त भोगी है और जिसकी अपनी जिन्दगी इस मुक्तिकी तलाशमें बीती है। हम महिला सशक्तीकरणकी बातें तो करते हैं लेकिन यह नही जानते कि चूल्हा चौका सॅंभालने वाली महिलाओंकी जिन्दगीकी इस नीरसतामें कुछ नया, कुछ अलग-अलग, कोई ब्रेक हम कैसे लाएँ। इस पत्रने यह भी दिखा दिया कि कलम उठाकर पत्र लिख पाना भी उतना सहज नहीं है जितना हम समझते हैं। यह भी पता चलता है कि दूर दराजके गॉंवमें जीवन भर चूल्हेके ही पास बैठी हुई औरत भी जब थोडा-सा समय निकालकर अखबारमें कोई विषय पढती है, तो उस पर कितना गहरा चिन्तन कर सकती है। यही चिन्तनकी शक्ति, जो हमारी ग्रामीण महिलाओंमें आज भी दिख रही है, हमारे लिए एक आशाकी झलक है।

(जनसत्ता: 6, मई 2001) 














































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