Wednesday 3 July 2013

गुजरात ने जो कहा - जन. ६ मार्च २००१ Y

२०.गुजरात ने जो कहा  जन. ६ मार्च २००१ 
गुजरात ने जो कहा
मेरी प्रिय कहानियों में से एक हैं – ‘ब्रेनड्रेन’। कहानी कुछ यों हैः शिव-पार्वती के दो पुत्र थे। बडा कार्तिकेय और छोटा गणेश। जब दोनो इंजीनियर बन गए तो उनकी प्रवृत्ति देखकर शिव ने कुछ योजना बनाई। दोनों के लिए एक प्रतियोगिता तय की और विश्वकर्मा के पास भेजा। योजना में विश्वकर्मा भी शमिल थे। प्रतियोगिता की शर्त उन्हें तय करनी थी। दो महीने के भीतर दस किलोमीटर के रास्ते बनाने होंगे। देखे, कोन कैसा रास्ता बनाता है। प्रतियोगिता की शर्त होगी कि इकतीस मार्च से पहले पैसे खर्च होनो चाहिए वरना बजट लैप्स हो जाना हैं।
दोनो रास्ते बनाने में जुट गए। कार्तिकेय हर मामले नें सतर्क थे। गुणवत्ता में, फिजूलखर्च रोकने में। दो महिनें में काम पूरा करने की गरज से वे काम में पिल पडे। ठेकेदारों ने समझाने या बहकाने के लिए जो जाल बिछाए, उसमें नहीं फॅंसे। दो महीनों में रास्ता बनाकर अपनी कार्यकुशलता सिद्ध कर दी।लेकीन ट्रेजरी वालों ने बीस मार्च से ही नए बील लेना बन्द कर दिया था। अब क्या हो ? आखिर मदद के लिए अनुभवी हेड क्लर्क आगे आया। सारे बिल फाड कर नए बनाए। उसमें लम्बी - चौडी रकम कंटेंजेंसी में डाली। उस पैसे से ट्रेजरी वालों ने पटाया। एकतीस मार्च को सारे गलत बिल पास करवाने का मलाल था, फिर भी अच्छा-पक्का रास्ता बना पाने की कर्तव्यपूर्ति का सन्तोष चेहरे पर लिए कार्तिकेय अपले घर पहुंचे। दूसरे और गणेश के हिस्से का रास्ता अधूरा पडा था। रास्ते के दस सब-सेक्शन वनाकर एक-एक ठेकेदार को एक-एक काम सौंपा गया था। उनमें कोई मेलजोल नही था। साइट पर काम सुस्त था, लेकिन प्रसन्न हर कोई था – दफ्तर के क्लर्क से सीनियर अफसर, ठेकेदार सभी प्रसन्न थे और मिल-बॉंटकर खाने की नीति जल्दी से सीख लेने के लिए गणेश की प्रशंसा करते थे।
अपने घऱ कमरे में पहुंचकर कार्तिकेय नें देखा, गणेश वहॉं पहले से ही विराजमान थए। कार्तिकेय के पूछने पर गणेश ने बताया- ‘मेरे बिल तो छब्बीस मार्च को पास हो चुके थे। रास्ता नही बना तो क्या, एडवांस मेजरमेंट कर डाला, ठेकेदारों से वादा ले लिया रास्ता पूरे कर देने का, औक फिर इनके चेक अभी तक दफ्तर में ही रोख रखे हैं। काम पुरा होने पर दे देंगे। सेकिन बडे भैया, याद करो, प्रतियोगिता की शर्त क्या थी- कि पैसा इकतीस मार्च से पहले खर्च हो। रास्ता बनने की बात प्रतियोगिता में नहीं थी।’
कार्तिकेय क्रोध में उफनते हुए उठे. मयूर पर सवार हुए ओर सीधे अमेरिका पहुंचकर दम लिया। वहॉ अपनी मेहनत और लगन से फले-फुले। शिवजी ने उमा को समझाया, भगवती, वह बेकार ही देशप्रेम आदि के चक्करों में पडकर सही रह जाता। लेकिन प्रतियोगिता ने उसे सिखा दिया की इस देश में कौन टिक सकता हैं और कौन नहीं। इस देश को, यहॉं के प्रशासकों को, यहॉ की प्लानिंग करने वाली व्यवस्था को, नियम कानून बनानेवालों को और सबसे बढकर यहॉ के नेता और जनता को अच्छे रास्ते बनानेवालें इन्जीनियर नहीं, पैसा खर्च करने वाले इन्जीनियर चाहिए। कार्तिकेय के पास क्या था? केवल मेहनत, लग, अच्छे-बुरे काम की परख और अच्छा काम कर दिखाने की जिद। वे गुण इस देश में नहीं, अमेरिका में चलेंगे।
इस कहानी का सीध सम्बन्ध गुजरात के भूकम्प से जुडता हैं। इतनी बडी सजी झेलने के बाद जनता ने पहली बार कहॉ हैं कि हमे अच्छे काम करने वाले लोग चाहिए। जनता ने पहली बार कहा कि जिनके खराब कामों से भूचाल में इतनी बडी मनुष्य हानी हुई, उन पर सदोष मनुष्य वध का आरोप लगाया जाए। गुजरात कि जनता कुछ और भी कह सकती थी जो उसने अभी तक नही कहा हैं। वह हैं, प्रशासन के कार्यकलापों की जॉंच। अभी तक केवल कुछेक जनहित याचिकाओं में कोर्ट से इस तरह की जॉच की गुजारिश की गइ और कोर्ट ने उसे मान भी लिया, लेकिन हर कोर्ट इस तरह के का अपने सिर पर नही ले सकते। इसीलिए जनती को जृच परख के ऐसे तरीके मिलने चाहिए ताकि वह खुद जॉच कर सके। इसे एक उदाहरण से सनझआ जा सकता हैं। हम मान कर चलें कि भूकन्प के बाद सरकार ने क्षतिग्रस्त इलाकों में अनाज पहुंचाने की व्यवस्था की होगी।जनता को यह बताया जाना चाहिए की अब तक कितने टन अनाज सरकार ने गुजरात में भेजा हैं, अच्छी वितरण व्यवस्था के लिए सरकार ने कितना मनुष्य-बल लगाया है, जिला और तालिका स्तर पर कितने अफसर इस काम के लिए लगाए हैं और कितना पैसा अब तक खर्च किया है। इसी प्रकार के विवरण अन्य सभी विभाग सार्वजनिक तौर पर जारी करें। इन आकडों को जनता में से कोइ एक मामुली व्यक्ति भी, कोई एक मामूली संगठन भी जॉच-परख सकेगा। और उन्हे अपने अनुभवों के तराजू में तोल सकेगा। जिसे हम मामूली व्यक्ति कहते हैं या कार्टुनिस्ट लक्ष्मण जिसे कॉमन मैन कहते हैं, उसे जब तक सरकार के ऑंकडों और कामों को जॉचने-परखने का संसाधन नही मिल पाता, तब तक केवल कोर्ट को बीच में लाकर और कोर्ट द्वारा राहत कार्य की निगरानी से बात नही बनेगी।

(जनसत्ताः 6 मार्च, 2001)













 

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