Wednesday 3 July 2013

19 राष्ट्रीय संकट में हम

राष्ट्रीय संकट में हम
राष्ट्रीय संकट में हम

..........लीना मेहेंदळे

   दिनांक २६ जनवरी।  सुबह साढ़े आठ के बाद पूरा ध्यान इस ओर था कि तैयार होकर राजपथ की परेड में जाना है।  वापसी में एक बज गया।  फिर अपने कामों में उलझी रही।  सात बजे टीवी खोला तो भीषण भूकंप के समाचार रहे थे जिसने गुजरात के एक बड़े क्षेत्र में हाहाकार मचा दिया था।  तब से रात दस बजे तक मैं चैनल बदल-बदल कर देखती रही।  और क्या देखा?   दूरदर्शन और जी और स्टार के न्यूज चैनलों पर भूकंप के समाचार थे।  लेकिन अन्य चैनलों परवही हर रोज की तरह नाच-गाने। कहीं बूगी-वूगी में बच्चे अपने शरीर को झटके दे रहे थे तो कहीं फिल्मों के हीरो और हीरोइन एक दूसरे के पीछे दीवाने बने भाग रहे थे।  न्यूज चैनलों में भी ब्रेक के दौरान वही खुशनुमा विज्ञापन रहे थे जैसे रोजाना आते हैं।  एक वाक्य में कहा जाता है कि  गुजरात में दो हजार से अधिक लोगों के मरने की आशंका है और दूसरा वाक्या होता पिज्जा खाओ, कोका कोला पिओ या वैलेंटाइन डे के लिए प्रेमपत्र भेजो।

   दूसरे और तीसरे दिन क्रमशः पता चला कि विनाश का जो अनुमान पहले दिन लगाया गया, वास्तविकता उससे कई गुना अधिक भयावह थी।  फिर भी टीवी पर रंगारंग कार्यक्रमों की भरमार ज्यों की त्यों थी।  याद दिलाया जा रहा था कि मिलेनियम के पहले ब्यूटी पेजेंट के लुभावने कार्यक्रम देखना भूलें।  भोंडे मजाक हो रहे थे और छप्पर फाड़-फाड़ कर लोगों को करोड़पति बनाया जा रहा था।  लग रहा था मानो टीवी के कुछ चैनलों को भूकंप समाचार की डयूटी देकर हम कर्तव्य मुक्त हो सकते हैं और बाकी सारा समय फिर एक बार उत्सवों को समर्पित कर सकते हैं, फिर से नए खनकीले एल्बमों की धुन पर थिरक सकते हैं, फिर से बिस्कुटों के पैकेट में करोड़पति बनने के लिए नंबर खोज सकते हैं।  इससे भी बुरा बर्ताव था उन महान पुरुषों का, जो अपने जन्मदिवस और पद्म पुरस्कार पाने की खुशी को
किसी के गम के साथ बांटने को तैयार नहीं थे।  उनका इतना की कर्तव्य था कि टीवी पर देख लिया कि भूकंप में इतने आंकड़े गए हैं।  यह भी सुन लिया कि सरकार अभी तक कुछ भी नहीं कर रही है।  फिर वे अपनी मौज-मस्तियां मनाने के लिए आजाद हो गए।

   लेकिन इससे अधिक दुख मुझे यह है कि छब्बीस जनवरी की सुबह हम कहां थे और क्या कर रहे थे। जब हम राजपथ पर अपनी-अपनी आरामदेह कुर्सियों पर बैठे सामने चल रहे उत्सव का आनंद लूट रहे थे उसी समय गुजरात के कई जिलों में हमारे ही भाई-बहन विकराल काल के तांउव को झेल रहे थे।  हम अपनी सेनाक की नई-नई उपलब्धियां देखने में मगन थे।  इनफॉर्मेशन टेक्नालॉजी के क्षेत्र में अपने बड़प्पन पर इतरा रहे थे, विभिन्न प्रांतों, यहां तक कि गुजरात की भी झांकियों और नृत्यों की चमक-दमक पर खुश हो रहे थे।  हम मन से भी उनके पास नहीं थे जिनहें हर तरह से हमारी जरूरत थी और जो पल-पल मृत्यु की ओर जा रहे थे।

   यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि ऐसे संकट में भी तत्काल लोगों को नहीं बता सके कि भाइयों-बहनों, यह हो रहा है, आइए हम सारा ध्यान इसी ओर लगाएं, भुला दें आज के उत्सव का आयोजन, क्योंकि उस विनाश के सामने यह आयोजन बेमानी है।  यह हम क्यों नहीं बता सकेक्यों हम उत्सव के नशें में डूबे रहेंवह भी पूरे तीन घंटेकोई कह सकता है कि लोगों को बता देने से क्या हो जाता।  कोई जाकर भूकंप तो नहीं रोक सकता था।  लेकिन मैं मानती हूं कि सवाल भूकंप को रोक पाने या किसी को तत्काल बचा पाने का नहीं है।  सवाल यह है कि संकट के समय सारा राष्ट्र एक होकर अपना तन-मन-धन और ध्यान उस संकट की ओर लगा सकता है या नहीं।  सारा राष्ट्र विपदाग्रस्तों के साथ जुड़ सकता है या नहीं?

   सवाल यह नहीं है कि भूकंप को कैसे रोक सकते हैं या इमारतों के नीचे कुचलकर मारे जाने वालों को कैसे बचा सकते हैं।  सवाल यह है कि
राष्ट्रीय संकट के समय हम कितनी जल्दी और अंतःप्रेरणा से उनके साथ खड़े हो जाते हैंकितनी तेजी से हम पूरे देशवासियों को उनके साथ होने का आहावन कर सकते हैंमैं यह नहीं कहती कि हमें अपने काम रोक देने चाहिए।  यदि हम गुजरात जाकर कुछ भी नहीं कर पा रहे हों तो इतना ही करें कि अपना काम ठीक से निभाते हुए गुजरात की स्थिति का स्मरण करते रहें।  लेकिन काम में और आनंदोत्सव में अंतर है।  संकट की घड़ी में काम नहीं रुकना चाहिए, लेकिन आनंदोत्सव को तत्काल रोक देना चाहिए।  क्या यह नहीं हो सकता था कि दस बजे राष्ट्रध्वज फहराने के तुरंत बाद यह घोषण कर दी जाती कि गुजरात में भूकंप आया है और इस संकट में सारा देश वहां के लोगों के साथ रहेगा?   क्या यह नहीं हो सकता था कि परेड के लिए आयोजित सभी झांकियां, फ्लोट आदि राष्ट्रध्वज के सामने से गुजरते लेकिन बगैर किसी वाद्य संगीत केक्या यह नहीं हो सकता था कि हर्षोल्लास की आवाज में की जाने वाली कमेंट्री की जगह हम गुजरात संकट के प्रति अपनी जिम्मेदारी की घोषणा करतेक्या यह नहीं हो सकता था कि परंपरा तोड़कर परेड ग्राउंड से ही  देश को संबोधित करते हुए इस राष्ट्रीय संकट में बिजली की तेजी से एकत्रित होने का आहावन किया जातापूरे देश को एक साथ जुटाने का महत्व हम कब सीखेंगे?
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