Wednesday, 3 July 2013

31 क्या हमारे खून में काश्मीर है? हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२



क्या हमारे खून में काश्मीर है?
दैनिक हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२ 
-- लीना मेहेंदले

   'काश्मीर हमारे खून में है' का नारा जनरल मुर्शरफ पीटीव्ही पर दो बार लगा चुके हैं। उसके पीछे मकसद साफ है - पाकिस्तानी जनता की भावनाएं उक्साना।
   मैं जब भी टीव्ही देखती हूँ - तो बीच-बीच में पीटीव्ही की ओर जरूर झांक लेती हूँ वैसे मुझे विश्र्वास है कि हमारे रक्षा, या गृह या सूचना मंत्रालय के किसी अनुभाग की डयूटी जरूर लगाई गई होगी कि पीटीव्ही के कार्यक्रमों को हर दिन चौबीस घंटे देखते रहें और उसका फीड बॅक देते रहे। फिर भी मैं अपने तौर पर पीटीव्ही की मॉनिटरिंग करती रहती हूँ, मानों मैं ही उस अनुभाग में हूँ। और में मानती हूँ कि पीटीव्ही के कुल प्रोपोगांडा की तुलना में हमारा दूरदर्शन काफी फीका है। दूसरी बातों को छोड़ भी दें, तो भी इसमें संदेह नहीं कि काश्मीर के संबंध में दूरदर्शन पर बहुत कुछ किया जाता सकता है। खैर यह तो विषयान्तर हो जायेगा।
   क्या हमारे खून में भी काश्मीर है? लेकिन इस प्रश्न से पहले मुशर्रफ के वक्तव्य का उत्तर देना आवश्यक है। उनके खून में काश्मीर है। तो क्या दिल्ली उनके खून में नहीं है? उन्नीस सौ सैंतालीस में जो लोग दिल्ली या मुंबई या लखनऊ या पटना छोड़कर पाकिस्तान चले गये, क्या उनके खून में वे शहर, वे गाँव नही हैं? क्या अडवानी जी के खून में सिंध या कराची नहीं है? अयोध्या के राजा श्रीराम ने जब अयोध्या का राज कुश को सौंपा, उसी समय एक नई राजधानी बसाई और वहाँ का राज्य लव को सौंपा था। वह लवपुर या लौहार क्या हमारे खून में नहीं है? सिकंदर के आक्रमण के समय जिन प्रांतों के राजे ग्रीक सेना के विरूद्ध लड़े, क्या वे सारे प्रांत हमारे खून में नहीं हैं? जिस तक्षशिला में बैठकर आर्य चाणक्य ने ग्रीकों के विरूद्ध रणनीति बनाई, चंद्रगुप्त और अन्य कई शिष्य तैयार किये, जहाँ से 'अर्थशास्त्र' लिखा, क्या वह तक्षशिला हमारे खून में नहीं? जिस तलवंडी से चलकर पूरे मध्य एशिया तक गुरू नानक ने अपने धार्मिक अभियान चलाये, क्या वे प्रांत हमारे खून में नहीं है? जिस लहौर से महाराजा रणजीत ने अफगानिस्तान के पार भी अपना राज पहुँचाया, जिस लाहौर में लाला लाजपत राय ने कई मुहिमें चलाई और खासकर साईमन कमिशन के विरोध में शहीद हुए, जहाँ भगतसिंह  ने अपनी स्वतंत्रता मुहिम की शुरूआत की क्या वे सारे हिस्से हमारे खून में नहीं हैं?
   मुशर्रफ को पूछने के लिये ये सारे सवाल ठीक हैं। लेकिन यदि अपने आपसे पूछना हो, तो यह प्रश्न अलग तरीके से पूछना पड़ेगा। जहाँ हमारे हजारों जवानों का खून और श्रम लगाये जा रहे हैं, वह काश्मीर क्या हमारे खून में है? पिछले दस वर्षों में लाखों काश्मीरी पंडित वादियों को छोड़कर शरणार्थी हो गये -- कोई दिल्ली में, कोई कोई मद्रास में तो कई गोवा तक चले गये -- क्या उनके और हमारे खून में काश्मीर है? जिस काश्मीर की हवाएँ और बर्फ पंजाब, हिमाचल और दिल्ली तक की हवाओं और मौसम पर असर करते हैं वह काश्मीर क्या हमारे खून में है? वेदों से भी पहले - जहाँ आगम दर्शन का जन्म हुआ, जहाँ अनंतनाग, वैष्णोदेवी जैसे हमारे तीर्थस्थान हैं, जहाँ शंकराचार्य ने अपनी साधना के कुछ वर्ष बिताये, वह काश्मीर क्या हमारे खून में है?. सैंतालीस में कबाईली आक्रमण के विरूद्ध जिस काश्मीर के हिंदू और मुसलमान दोनों ने लड़ाईयाँ लड़ीं और जिस सीमा पर हवालदार अबदुल हमीद शहीद हुए, वह काश्मीर क्या हमारे खून में है?
   यदि है तो हम क्या कर रहे हैं? स्वतंत्रता के छह दशक बाद आजके काश्मीर में आतंकवाद ने घाव पैदा कर दिये हैं जो रिस रहे हैं। यह अतंकवाद उसी पाकिस्तानी जनरल की शह पर पनप रहा है जो अरने खून में काश्मीर के होने का इजहार करते नहीं थकते। संविधान की धारा तीन सौ सत्तर को हमने एक अलग पृष्ठ-भूमि में स्वीकार किया था। उसकी चर्चा पीछे बार बार हो चुकी है। एक जमाने में मैं भी बडी संजीदगीसे यह मानती थी कि काश्मीर का प्राकृतिक सुंदरता को बचाने के लिये, वहाँ के शांत जीवन को उपभोक्तावाद की रॅट रेस से बचाने के लिये घारा ३७० के अंतर्गत दिया गया स्पेशल स्टेटस आवश्यक था। एक जमाना था जब काश्मीर में पल रहा हिन्दू मुस्लिम भाईचारा और सौहार्द देश के अन्य प्रांतों के लिये मिसाल था। काश्मीर का यह चरित्र बरकरार रखने में  जब तक धारा ३७० उपयोगी थी, तभी तक उसकी उपयुक्तता थी।
   लेकिन जब पाकिस्तानी आतंकवाद के जाल में फँसकर काश्मीर एक घाव बनता गया, तब भी यदि हम इस धारा की समीक्षा करने से भागते रहे, यह धारा हमारे  हाथ की साँकल हो गई और हमने उसे नहीं तोडा तो परिणाम की कल्पना भी भयावह होगी। यदि किसी दुर्बल क्षण में हमने काश्मीर खो दिया तो तत्काल हिमाचल, पंजाब और दिल्ली के लिये खतरा पैदा होता है।
   करीब दस वर्ष पहले तक यह संभावना के बराबर थी। लेकिन पिछले दस वर्षों में काश्मीर में आतंकवाद इतने बड़े पैमाने पर पनपा कि भारत सरकार असहाय दर्शक बनी रही, कुछ कर नहीं सकी। काश्मीरी हिंदूओं को अपनी जमीन, घर, चल-अचल संपत्त्िा छोड़कर भागना पड़ा। दस वर्ष पहले वह जमाना था जब काश्मीर की वादियों
में आम मुसलमान हिंदू - द्वेषी नहीं था। हिंदुओं के कई मंदिरों में, त्यौहारों में मुसलमान शरीक होते थे। वे भाईचारे में विश्र्वास रखते थे। ऐसे कई मुसलमान भी आंतकवाद के शिकार हुए।
    हमारी अनदेखी का यह भी नतीजा था कि भाईचारे के जो हामी बच भी गये उनकी उमर बढ रही थी और समाज में उनकी लीडरी की साख घट रही थी समाज नेतृत्व जिस युवा पीढ़ी के हाथ जा रहा था, वह पूरी की पूरी पीढ़ी हिंदूओं से द्वेष करने लगी थी और अब भी कर रही है। इसके लिए तीन कारण थे। सबसे प्रमुख कारण है काश्मीर की गरीबी, विपन्नता और बेरोजगारी। आतंकवाद के दौरान हिंसाचार में जितने हिंदू - मुसलमान मारे गये उससे कई गुना अधिक लोगों ने अपनी रोजी -रोटी गँवाई। आतंकवाद के कारण काश्मीर में पर्यटन व्यवसाय पूरी तरह से बैठ गया। भूखे पेट, बेकार युवक किसी भी हद तक जा सकते थे। तभी उन्हें हवाला के माध्यम से ईजी मनी का लालच दिया गया। पाकिस्तानी एजेंट उन्हें रिक्रूट करने लगे, सीमा पार ले जाने लगे। वहाँ उन्हें आतंकवाद का प्रशिक्षण दिया जता था, साथ ही हिंदू - विद्वेष भी उनमें कूट-कूट कर भरा जाता था। फिर उन्हें सीमा पार कराकर काश्मीर में वापस पहुँचाया जाता था। सीमा पार आने जानेमें रिशवत तंत्र का बड़े पैमाने पर उपयोग हुआ। रिशवत तंत्र एक ऐसी बला है जो हर व्यवस्था में छेद बना ही लेती है और अन्तत पूरे समाज को सडा देती है। क्रिटिकल क्षेत्रोंमें इसकी रोकथाम करना आज भी दुर्भाग्यवश हमारी प्राथमिकता नही है। वह भी लानी पडेगी।
   पिछले दस वर्षों में स्वार्थपरता के कारण भी एक और कट्टर हिन्दू विरोधी गुट पनपा है। ये वे लोग हैं जिन्होंने काश्मीरी पंडितों के घरों पर कब्जा किया है। हिन्दू विरोध का तीसरा कारण परम्परागत तनाव है और  भाईचारा बढाकर ही इसे रोका जा सकता है।  
   क्या हमारे खून में काश्मीर है? यह प्रश्न इसलिये महत्वपूर्ण है कि अभी भी समय है। सुबह का भूला यदि रात होने से पहले, शाम रहते रहते घर लौटाया जा सके तो बहुत कुछ बचाया जा सकता है। अब भी यदि हम संविधान की धारा ३७० को हटा दें तो स्थिति पर काबू किया जा सकता है। देश के दूसरे हिस्सों से हिंदू, मुसलमान, ख्रिश्चन, सिख, डोगरी, नेपाली, गरज की हर तरह के लोग यहाँ जाते रहेंगे और बसते रहेंगे तो वहाँ का जनसंख्यात्मक अनुपात बदल जायगा। अन्य लोगोंका आधार पाकर ही काश्मिरी पंडित वापस लौट सकते हैं, अन्यथा नही। यही एक तरीका है काश्मीर में नये उद्यम, या कल कारखाने लगाने का। आज यदि अपने देश में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियोंका आना हम आवश्यक मानते हैं, तो काश्मीर में अन्य भारतियों के जा बसने या निवेश करने पर रोक क्यों?
   क्या क्या किया जा सकता है काश्मीर में? संविधान की धारा ३७० को हटा देने पर भारत के अन्य भागों से लोग वहाँ निवेश कर सकेंगे, नये व्यापार शुरू कराये जा सकेंगे। फल और फूलों की पैदावार बढाई जा सकेगीगरज की आतंकवाद को समाप्त करने लायक माहौल बनाया जा सकेगा। सीमावर्त्ती क्षेत्रों में कॅन्टोनमेंट बनाये जायें ताकि वहाँ निगरानी में सेना के साथ साथ नागरी जनता का सहयोग भी बढे। जिन सैनिक और सिविल अफसरों ने पहले काश्मीर में अपना समय दिया है, जो वहाँ के इतिहास, भूगोल और संस्कृति से परिचित हैं, ऐसे सैंकडों लोग वहाँ जा सकते हैं और काश्मीर के विकास में हाथ बँटा सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो ही हमारी सेना का अस्तित्व सार्थक होगा। तभी आतंकवाद रुक सकेगा।
   अफगानिस्तान में अराजकता रोकने के लिये एक जमाने में रशिया ने और आतंकवाद रोकने के लिये आज अमरिका ने वहाँ अपनी फौजें घुसाई थीं। फिर काश्मीर तो हमारे ही खून का हिस्सा है। हमारा ही पैसा टॅक्स के रूप में वसूल होता है, और काश्मीर के विकास के लिये लगाया जाता है। आज हम काश्मीर को अपने से अलग एक आऊट ऑफ बाउंड स्थान क्यों स्वीकार करें? किसी को क्या हक है कि वह काश्मीरको हमसे अलग करने का ख्वाब देखे? या आतंकवाद फैलाकर हमारे अस्तित्व को ही खतरा बन जाये?
   संविधान की धारा ३७० को समाप्त कर देने का समय पहुँचा है, अब और देर ठीक नहीं।
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पता  - १८, बापू धाम, सेंट मार्टिन मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली ११००२१



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