Sunday, 1 January 2017

पढाई का बोझ - राष्ट्रीय सहारा - 22जुलाई ,2001

     पढाई का बोझ
      सरकारी आँकडों के अनुसार देश में करीब करोड ,जनसंख्या स्कूल जाते हैं ,जिनमे से करीब बारह करोड बच्चे स्कूल जाते है और अन्य दस करोड नही जाते  । स्कूल न जाने वाले बच्चो की समस्या अपने आप मे बडी समस्या है ,क्योंकी यही बच्चे बेरोजगारी ,बाल -मजदूरी ,उपेक्षा ,नशा आदि के शिकार बनते है।
        लेकिन स्कूल जा सकने वाले बच्चों की भी क्या गती -दुर्गती है । मुझे याद है कि हम तो कई वर्षो तक स्कूल मे एक स्लेट -पेसिंल ले जाते थे ,और एकाध पुस्तक । लेकिन आज स्कुल का एक लक्षण बन गया है -अविश्वास ।इसलिए आज सभी बच्चों को लिखने को मजबुर करते है ताकि बच्चा लिखकर कबुल कर सके हमने पढा ,शिक्षक कह सके बमने पढाया । अभिभावोंको  को, प्रिंसिपलों को और स्कूली  इन्स्पेक्टरों को पढाई तभी समने आती है जब वह बच्चे की मोटी कॉपियों मे प्रत्यक्ष -प्रकट रूप से विराजमान हो, सेलेट पर पढी और मिटाई हुई न हो।
    उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इन दिनों में शिक्षा भी एक बिकने -बिकवाने की और पैसा बटोरने का माध्यम बन गई है । अभिभावकों में एक अजीब-सा उत्साह होता है कि अपना बच्चा प्रेस्टिजस स्कूल मे और अंग्रेजी माध्यम वाले  स्कूल में पढे ,ट्युशन और काम्पिटीशनों की तैयारियों वाली कक्षाएँ अलग से करे ...इत्यादि ।यानी जैसे व्यापारी शुरुआत मे अपनी लागत लगता है और फिर पैसे कमाता है ,वैसे ही यह भी लागत है जो बच्चे पर लगाई गई है ,ताकि पैसे कमाने वाली नौकरी कमाने वाली ढुँढने में आसानी हो।
      ट्युशन ,कोचिंग  क्लास ,स्कूल इत्यादि  के बाद बच्चे के पास स्वाध्याय का ,मनन का ,पढी हूई बातों को गुनने का समय ही बाकी नहीं बचता ।पढे हुए विषयों का जींदगी से नाता जोडने के लिए यह भी आवश्यक है कि कुछ जिन्दगी को भी देखा जाय ।लेकिन बच्चे के समय पर भी पढाई का बोझ लदा हुआ है -वह जिन्दगी की पढाई  नहीं कर पाताहै।
    कलकत्ते का एक बडा प्रतिष्ठित स्कूल है जिसमें एक उच्चपदस्थ सज्जन ने अपने बेटे का दाखिला करवाया । भारी भरकम फीस,अंग्रेजीपन का मौहल और स्कूल का यह नियम कि हर विषय में अस्सी प्रतिशत से अधिक अंक मिलने चाहिए ।जो छात्र दो बार कमजोर पडे ,वह स्कूल से दाखिला निकलवाकर दुसरे  स्कूल चला जाए । एक दिन यह सज्जन रो पडे । पता चले की लडके ने आत्महत्या करने की बात की है क्योंकी एक विषय में उसे कम अंक मिले है, शायद कभी दुसरी असफलता भी उसे  न मिल जाए । पढाई के बोझ के कारण सातवीं का वह बच्चा आपने बचपन की सहजता  और प्राकृतिक विकास से वंचित हो गया । हर वर्ष परिणाम के मौसम में पढा जा सकता है कि कितने बच्चों ने आत्महत्या की कोशिश की ।सारे स्कूल दो भागों में बँट से गये हैं -काफी पैसा खर्च करवाने वाले अच्छे स्कूल और झोपड झुग्गियों वालों के लिए गंदे  स्कूल ।गंदा  स्कूल शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि कोई मध्य वर्गीय परिवार अपने बच्चों को इन स्कुलों में नहीं डालना चाहता ।इसकी स्पष्ट वजहें हैं -वहाँ न साफ -सफाई ,न ढंग की सुविधाएँ ,न लायब्रेरी ,न खेल का मैदान होता है और न ही उत्साही शिक्षक।

   इन सारे कारणों से मध्य वर्ग अभिभावक बच्चे के लिए अच्छा स्कूल ढुँढता है और उसकी भारी कीमत चुकाता है । स्कूल वालों की भी दिक्कतें है। अपनी क्षमता से अधीक बच्चे तो वे ले नहीं सकते ।फिर आपनी क्षमता के अनुरूप अधिक से अधिक पैसा क्यों न कमाये  इसीलिए फीस के साथ इमारत फंड ,खेलकुद फंड और अन्य  कई प्रकार के बगैर रसीदी डिपॉजिट लिये जाते है जो वापस नहीं किये जाते । कई स्कूलों  मे तो एक-एक सीट के अलग-अलग भाव लगते है और वह कमाई कोई एक-दो वयक्ती बटोर कर ले जातेहै। ऐसे व्यक्ति ही आगे चलकर शिक्षण -सम्राट् कहलाते है ।  यानी आपका सम्राट् होना  आपकी विद्वत्ता पर नहीं ,बल्कि पैसे बटोरने की कुशलता के आधार पर तय होता है । और फिर इस पढाई से आगे क्या मिलता है ।इसका उत्तर आसानी से मिलना मुश्किल है। बारह -प्रन्द्रह वर्ष स्कुली शिक्षा प्रणाली में झोंक देने के बाद बच्चे को पता चलता है कि वह अभी भी अपनी रोजी रोटी कमाने लायक नहीं हुआ है -आगे अभी कुछ और   पढना है। बोझ को
अब भी ढोना है। 
                                                                ( राष्ट्रीय सहारा - 22जुलाई ,2001)
   (जनता की राय)         
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