एक
श्रद्धांजलि (जनता की राय )
सब कुछ ठीक चल
रहे टीवी के समाचारों में अचानक स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा और फ्लाइट लेफ्टिनेंट
के .नचिकेत का समाचार आया तो सारा देश सन्न रह गया । यह एक ज्वल्नत वास्तविक है
सीमा की जिसकी हमें पिछले कई वर्षों से कोई खबर नहीं थी ,कोई याद नही थी ।पर सरहद
पर वह भी एक जीवन है जिसे पता
नहीं कब मृत्यु
आकर लपक ले -बिना किसी वजह के, बिना किसी आवश्यक के। सैनिक जीवन की वह वास्तविकता
जब अचानक अजय आहूजा के अंतिम संस्कार के दृश्यों के रूप में सामने आई तो याद आया
कि किस कदर हमनें इतने दिनों ,इतनें वर्ष यह वास्तविकता नजरअंदाज करके रखी थी ।
मुझे अचानक
याद आती है मराठी के कविश्रेष्ठ कुसुमाग्रज की कवितासैनिक की पंक्तिया -जो अजय आहूजा ,मेजर सर्वानन,मेजर राजेश ,और
उन सैनिकों के लिए हैं जो अचानक बमसे अलग हो गये-यह याद दिलाते हुए कि यह भी इस
देश की एक वास्तविकताहै। उन्हे श्रद्धांजलि देने के लिए सैनिक कविता का हिन्दी
अनुवाद प्रस्तुतहै-
सैनिक
जो हमको दिखता है ,
नाटकों का समर धुरन्धर,
धँस जाए
शत्रु खेमे में
सहास्य
मुख,भवपाश तोडकर।
ताव मुँछ
पर देकर कहता,
जन्मा कोई
पूत माईका?
सौ शत्रु की चटनी करता
फिर नेपथ्य देखकर हँसता।
किन्तू रेल में कभी दीखते
बदरंग ,खाकी ड्रेस पहनकर
फटे दोने में दही बडे खाने वाले,
दोहा ,अभंग ,बिरहा कोई गानेवाले ।
ऐसा सैनिक जब मिलता है
जम्हाई लेकर ड्युटी का दुखडा रोता है,
भली नोकरी क्लर्की की
ड्युटी केवल कुर्सी की।
तनखा ,ओ .टी .महीने की,
गिनती नही कोई छुट्टी की।
सैनिक पेशा कष्टभरा है।
डिस्पिलन का बोझ बडा है
पत्नी बच्चे बरसों दूर ,
कहते गला भर्रा जाता है।
ऐसा वीर रूप देखकर ,
मध्यवर्गी श्रद्धा अपनी
जो नाटक से सीखी हुई थी,
व्यथित होकर पुछने लगी,
क्या सैनिक ऐसे भी होते?
सच मानों तो सानिक ऐसे ही होते है
परन्तु जो बम नही जानते-
नाटक के सैनिक का मरना,
नाटक ,केवल तालियों के लिए
वीरश्री से भरे शब्द जो
वाहवाही के लिए जुटाए
पटाक्षेप के हो जाने पर
वापस घऱ में खाए,सोए।
किन्तु रेल का जो सैनिक है ,
हाथ भले ही दहिबडे का दोना हो,
भले बात मे कठीन ड्युटी का रोना हो,
घर आँगन को सोच नैन में पानी हो,
जब अपना यह नुनतेल का
मुलूक छोडकर जाता है
तोप, टैंक ,तम्बू की दुनिया का
रहिवासी होता है।
तब ना रहती कोई जम्हाई,
कोई दुखडा
दूर देश के आप्तजनों का
कोई बिरहा
बदरंग कवच रेल में जो था,
गिर जाता है,
मुर्तिमंत पुरुषार्थ युद्ध में
भिङ जाता है।
रेल का वही सैनिक ,तोपें दाग रहा है।
आसपास की बमबारी में जाग रहा है
खन्हक के पीछे जो छुपा हुआ है,
उसके लिए रोटी का टुकडा बचा रखा है।
शरीर छलनी होवे फिर भी
अशरण बाँहें ताने ऊपर
इस धरती पर गिरनेवाली
नभ की छत को तोल रहा है।
(प्रभात खबर ,जून 1999)
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