Wednesday, 31 December 2008

पचास साल बाद हिन्दी (7)y

07-पचास साल बाद हिन्दी
जनसत्ता ३ फरवरी २०००
देश को स्वतंत्र हुए पचास वर्ष से अधिक और संविधान लागू हुए पचास वर्ष हो गए हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया, लेकिन उसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयास नहीं के बराबर हुए। जो हुए भी, वे करीब-करीब विफल हो गए। अब हमारे देश की आबादी सौ करोड़ है। और चीन की आबादी १२० करोड़ । यानी चीन और भारत की मिलाकर आबादी २२० करोड़ है जबकि विश्र्व के बारी सारे देशों की मिली-जुली आबादी ८० करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र संघ में जो छह भाषाएं मान्यता प्राप्त हैं वे हैं : चीनी, अरबी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रूसी और स्पानी। यानी विश्र्व की आबादी का छठा हिस्सा होते हुए भी हमारे देश की भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाओं में नहीं है।

इसका मूल कारण यह है कि जब भी हम विश्र्व के अन्य देशों के साथ कोई बात करना चाहते हैं तो मान कर चलते हैं कि यह काम हमें अंग्रेजी भाषा में ही करना है। पिछले पचास वर्षों में हमने एक बार भी नहीं माना कि विश्र्व के अन्य देशों के साथ हम राजकीय और शासकीय व्यवहार हिंदी में चला सकते हैं। हम प्रतीक के रूप में भी अपने देश की भाषा विश्र्व और खासकर विभिन्न वैश्र्िवक शासकीय संगठनों के सामने नहीं लाते। यहां तक कि हमारी रिपोर्टों के मुखपृष्ठ पर भी हमारे देश का नाम राष्ट्रभाषा में नहीं लिखा होता।

संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे वैश्र्िवक संगठनों में भारत सरकार की और गैरसरकारी संगठनों की जो रिपोर्टें जाती हैं, उन्हें देखने का अवसर मुझे मिलता रहता है। सारी रिपोर्टें विद्वतापूर्ण अंग्रेजी में बनाई जाती हैं। यह भी तो किया जा सकता है कि हम अपनी रिपोर्ट हिंदी में बनाकर संयुक्त राष्ट्र को दें और फिर उनके नियमों का पालन करते हुए उसका अंग्रेजी अनुवाद उन्हें मुहैया कराएं। हालांकि इससे थोड़ा खर्च अवश्य बढ़ेगा, लेकिन हिंदी भाषा के अस्तित्व की जानकारी और एहसास करने के लिए यह खर्च भी उचित होगा। आज तो हम उनहें अपनी भाषा का एहसास कराने में भी झिझक रहे हैं। क्या हम शर्मिंदा हैं कि हमारा राष्ट्रभाषा अंग्रेजी न होकर हिंदी है?

मुझे पता है कि संविधान हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने, के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि अंग्रेजी का उपयोग पंद्रह साल तक थोड़ी सुविधा के लिए देश के अंतर्गत प्रशासन में स्वीकृत होगा। बाद में यह प्रावधान सदा के लिए बना दिया गया। आज सरकर में हिंदी का पक्षधर कोई नहीं है। विदेशों के साथ तो केवल अंग्रेजी का ही उपयोग किया जाता है। हर मूल टिप्पणी अंग्रेजी में होती है। हिंदी अनुवाद बाद में कभी उपलब्ध कराए जाते हैं। ऐसी अनूदित हिंदी टिप्पणियों को बाद में पढ़ा जाता है या नहीं, इसमें भी संदेह है। अंग्रेजी या
विश्र्व की अन्य कोई भी भाषा सीखने में हमें गर्व महसूस होना चाहिए क्योंकि इससे हम अपनी योग्यता बढ़ाते हैं। लेकिन अपनी भाषा को ताक पर रख कर यदि हम चलते हैं तो इससे आत्म-उन्नति या देश की उन्नति नहीं हो सकती।

हमारे यहां एक राजभाषा संबंधी आयोग भी है लेकिन आज तक यह पता नहीं चल पया कि विश्र्व के सम्मुख विभिन्न शासकीय प्रयासों के दौरान हिंदी के अस्तित्व का भान कराने या संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए आयोग ने या भारत सरकार ने क्या किया है। देश की जनता भी यह पूछना भूल गई। शायद यह कहा जा सकता है कि देश की १०० करोड़ आबादी में से सारे के सारे १०० करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है। करीब ५० करोड़ लोग अन्य भारतीय भाषाएं बोलते हैं। जैसे बंगाली, मराठी, पंजाबी, तमिल, कन्नड इत्यादि। लेकिन इस संबंध में दो बातें कही जा सकती हैं। एक यह कि अन्य भारतीय भाषाएं बोलने वाले भारतीय नागरिकों की राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही है। खासकर जब हम विश्र्व के अय देशों के समक्ष अपनी भाषाओं की बात करते हैं तो सारी ही भारतीय भाषाओं की एकात्मकता का लाभ उठा सकते हैं। हिंदी बढ़ी तो उसके साथ-साथ विश्स स्तर पर अन्य भारतीय भाषाएं भी जानकारी में आएंगी और उनका सम्मान भी बढेगा। कम से कम सरकारी स्तर पर तो यह प्रयास अवश्य होना चाहिए।
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हिन्दी में शपथ (1) y

01-हिन्दी में शपथ
जनसत्ता - १९ अक्टूबर १९९९
दिनांक तेरह अक्तूबर, समय सुबह के साढ़े दस। सभी की आंखें दूरदर्शन पर लगी हुई थीं जिस पर तेरहवीं लोकसभा की मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण समारोह का प्रसारण होना था। तेरहवीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव चंद रोज पहले ही संपन्न हुआ था और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल चुका था। गठबंधन के अंदर भारतीय जनता पार्टी निर्विवाद रूप से लोकसभा के सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आई थी। इसी कारण किसी के मन में कोई शंका नहीं थी। सब जान रहे थे कि शायद शपथ ग्रहण समारोह की अधिकतर शपथें हिंदी में ही ली जाएंगी। सबसे पहले शपथ लेने वाले स्वयं प्रधानमंत्री थे। उन्हें यह गौरव प्राप्त है कि कई वर्ष पहले जब वे संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री की हैसियत से भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब उन्होंने हिंदी में भाषण देकर इस देश की राष्ट्रभाषा को विश्र्व के सामने पहुंचा दिया था। आशा के अनुरूप ही प्रधानमंत्री और उनके अनेकानेक सहयोगियों ने हिंदी में शपथ लेना पसंद किया।

लेकिन शपथ को सुनते हुए जो हिंदी भाषा कानों में पड़ी वह खटकने वाली थी। शपथ के दूसरे वाक्य में यह कहना था कि मंत्री पद की जिम्मेदारी निभाते हुए जो गोपनीय बातें मंत्री महोदय की जानकारी में लाई जाएंगी उन्हें वे गोपनीय ही रखेंगे और किसी भी अन्य व्यक्ति के सम्मुख तभी प्रकट करेंगे यदि वह अन्य व्यक्ति कार्यालय स्तर पर उस विषय को समझने और निभाने के लिए जिम्मेदार हो। मैं जानती हूं कि ऊपर लिखा गया वाक्य बहुत लंबा है। शपथ ग्रहण की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए इसे छोटा होना चाहिए। लेकिन इतना लंबा वाक्य मैंने इसलिए लिखा कि पाठकों को पता चले कि मुद्दा क्या है। क्या इस लंबे वाक्य को छोटा करना संभव है? जी हां, है और वह इस प्रकार लिखा जा सकता हैः 'मैं शपथ लेता हूं कि मंत्री पद निभाते हुए मेरे सामने जो गोपनीय जानकारी लाई जाएगी उसको मैं किसी व्यक्ति के सम्मुख तब तक प्रकट नहीं करूंगा जब तक वह जानकारी उस व्यक्ति के कार्यालय से संबंधित और आवश्यक न हो।'

लेकिन शपथ विधि के दौरान जो हिंदी वाक्य सुनने को मिला उसकी संरचना बड़ी ही उलझी हुई थी। उसका कारण यह है कि शपथ का मसौदा पहले अंग्रेजी में तैयार किया गया था और बाद में उसी अंग्रेजी मसौदे से शब्द-दर-शब्द अनुवाद करते हुए हिंदी मसौदा तैयार किया गया। अतः जो हिंदी वाक्य प्रयुक्त हुआ उसके शब्द थे- 'मंत्री पद का निर्वाह करते हुए मेरे सामने जो गोपनीय जानकारी लाई जाएगी उसे मैं 'तब के सिवाय जबकि' अन्य व्यक्ति कार्यालीय स्तर पर इस जानकारी से संबंधित न हो, किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करूंगा।'

'तब के सिवाय जबकि' यह तकियाकलाम बार-बार हिंदी शपथ में सुना जा रहा था और मैं खीझ रही थी। क्या ही अच्छा होता यदि शपथ का मसौदा पहले हिंदी में बनाया जाता। फिर हमें ऐसे तोड़-मरोड़ कर तैयार किए वाक्य भी सुनने नहीं पड़ते जिनमें वाक्य बनाने के हिंदी व्याकरण के सारे नियमों को ताक पर रखा हुआ था। आप पूछिए क्यों हमारी सरकार पहले अंग्रेजी में मसौदे तैयार करती है? क्या हम पहले हिंदी मसौदा तैयार नहीं कर सकते? इसका उत्तर यह है कि सरकारी नियम के अनुसार शपथ जैसे गंभीर विषयों के मसौदे और न्याय या कानून में प्रयुक्त होने वाले मसौदे पहले अंग्रेजी में ही बनाए जाते हैं। फिर उनका हिंदी में अनुवाद किया जाता है। फिर किसी सरकारी अफसर को यह लिखकर देना पड़ता है कि मसौदे का अंग्रेजी रूप ही असल व सही रूप है और यह कि हिंदी मसौदा उसका अनुवाद है। आगे यह भी लिखकर देना पड़ता है कि यदि अंग्रेजी और हिंदी रूपों में कोई विरोधाभास हो तो अंग्रेजी रूप ही सही माना जाएगा।

देश की स्वतंत्रता के दिन से आज ५० वर्ष से भी ज्यादा वक्त तक राष्ट्रभाषा कहलाने के बाद भी हमारी हिंदी को प्रामाणिकता की जांच अंग्रेजी ही करती है।
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Saturday, 6 October 2007

हर जगह वही भूल (5)y

05-हर जगह वही भूल

इंडियन एअरलाइंस की यंत्रचालित सीढियों में फंसकर ज्योति जेठानी नामक आठ-वर्षीय बालिका की जान चली गई और प्रशासन मुंह लटकाने के सिवाय कुछ नहीं कर सका। दुखियारी मां का आक्रोश सुनने के लिए रुकने तक की संवेदनशीलता किसी के पास नहीं बची थी। फिर उस मां को आठ लाख रुपए का मुआवजा दिया गया और सारे लटके मुंह फिर से अपनी पुरानी जानी-पहचानी बेदिली के साथ ऊँचे उठने के काबिल हो गए। हम और आप जो इस देश के प्रशासन के लिए टैक्स भरते हैं और कई अन्य तरीकों से देश की उन्नति के लिए ईमानदारी से जुटे रहते हैं, क्या यह सवाल पूछ सकते हैं कि हमारी जेब का आठ लाख रुपया गीता जेठानी कोदेकर सर ऊँचा करने का हक प्रशासन को कैसे मिल गया? क्या यह टैक्स के रूप में दिए गए हमारे पैसे का हमारी ईमानदारी का दुरुपयोग नहीं है?

पिछले पचास वर्षों में प्रशासन को सुयोग्य बनाए रखने का एजंडा किसी पार्टी या किसी सरकार का नहीं रहा। एक नौकरशाही व्यवस्था हमने ब्रिटिश राज से विरासत के रूप में पाई। उसे आने वाली हर नई सरकार ने वैसे ही चलते रहने को कहा, सिर्फ दो बातों को भूलकर। पहली बात थी कि वह नौकरशाही व्यवस्था ब्रिटिश राज के फलसफे के लिए उपयुक्त थी क्या वह हमारे स्वतंत्र देश की स्वतंत्र नीतियों के लिए भी उपयुक्त थी? इस सवाल पर गौर नहीं किया गया। सरकार यह मानकर चलती रही कि नौकरशाही के व्यवस्थापन में बदलाव की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी बात कि कोई प्रशासन, कोई नौकरशाही, कोई भी मशीन नियमित देखभाल, नियमित साफ-सफाई और नियमित अपग्रेडेशन के अभाव में अपनी उपयोगिता खो बैठती है। इस पूरे वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण शब्द है 'नियमित'। अच्छा गायक बनने के लिए आपको नियमित रियाज करना पड़ता है, वैसे ही अच्छा प्रशासन पाने के लिए आपको उसकी साफ-सफाई भी नियमित रूप से करनी पड़ती है। सरकारी प्रशासन में वह नियमितता तो है ही नहीं- यह खयाल भी नहीं है कि इस सफाई की जरूरत है।

आज प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मानकर चलते हैं कि उनके साथ काम करने वाले निचली श्रेणी के कर्मचारियों के समूह को अपनी अंदरूनी ताकत है जिसके बल पर वे अपने को खुद ही सुधार लेंगे। वरिष्ठ अधिकारी यही मानते हैं, जानते नहीं क्योंकि मान लेने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। जानना हो तो जानने और समझने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। और यदि यह जानकारी हो गई कि उस समूह के पास वह अंदरूनी ताकत नहीं है, तो समूह को सुधारने की और उसे ताकत देने की-या यों कहिए कि उसे सुयोग्य बनाने की जिम्मेदारी भी सर पर आ जाती है। इतनी चखचख में कौन पड़े? उससे अच्छा है मान लेना कि निचले लोग अपने आप खुद को सुधार लेंगे।

प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मान लेते हैं तो अति वरिष्ठ अधिकारी क्या करते हैं? वे भी मान लेते हैं कि उनके छोटे अधिकारी या तो बिल्कुल गलती नहीं करते या अपने आपको सुधर लेते हैं। फिर सरकार भी मान लेती है कि नौकरशाही अपने आपको सुधार लेती है। जनता भी मान लेती है कि सरकार अपने आपको सुधार लेती है। इस प्रकार देखा गया जाए तो उस चक्राकर श्रृंखला की कड़ी में हर जगह वही भूल की जा रही है - क्या कर्मचारी, क्या प्रशासन, क्या सरकार और क्या जनता।

नागरिक उड्डयन मंत्री ने मान लिया कि उनके मंत्रालय को सुधारने की आवश्यकता है या नहीं, यह जानना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। मंत्रालय के अफसरों ने मान लिया कि विमानपत्तन प्राधिकरण की कमियों या अच्छाइयों के बारे में पूछने कि जिम्मेदारी या जरूरत उनकी नहीं। विमानपत्तन प्राधिकरण के दिल्ली स्थित वरिष्ठ अधिकारी ने मान लिया कि डयूटी पर तैनात अधिकारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की जिम्मेदारी उसकी नहीं। और डयूटी लगे अधिकारी ने कहा कि कर्मचारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। कर्मचारियों ने भी मान लिया कि सुयोग्न होने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। ऐसे जान गंवाई ज्योति जेठानी ने। खुशी खोई जेठानी परिवार ने। आठ लाख रुपये गंवाए देश के खजाने यानी कि हमने और आपने। और लटकाए सरों को फिर से ऊँचा, उद्धत और गैर-जिम्मेदार रखने का फख्र पाया उन कर्मचारियों ने, विमानपत्तन अधिकारियों ने, नौकरशाही के वरिष्ठ अधिकारियों ने, मंत्रीजी ने, सरकार ने और सरकार को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी से बेखयाल जनता ने।

अब नया वर्ष हमारे सामने है। प्रशासन को सुयोग्य बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने के लिए नियमित प्रयासों की जरूरत होती है। क्या हम और हमारी सरकार और नौकरशाही सुयोग्य प्रशासन को अपना एजंडा बना सकते हैं? या हमें और कई दुर्घटनाओं, कई जिंदगियों और कई लाख रुपए का मुआवजा देने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?

जनसत्ता ३० दिसमबर १९९९

सुयोग्य प्रशासन की पहचान (6)y

06-सुयोग्य प्रशासन की पहचान

हवाई अड्डे के एस्केलेटर में ज्योत्सना जेठानी की दुखद मृत्यु के कुछ ही दिन बाद मुझे हवाई जहाज से यात्रा करने का अवसर मिला। देखा कि सेक्यूरिटी चेक-इन वाले गेट पर लंबी लाइन थी। हरेक यात्री को लंबी जांच-पड़ताल के बाद ही अंदर छोड़ा जा रहा था और इस कार्यक्रम में यात्रियों और कर्मचारियों को भी बहुत समय लग रहा था। और फिर विमान अपहरण के बाद से तो यह प्रक्रिया और भी समय खाने वाली हो गई। लगा जैसे सबने यह तय कर लिया हो कि अधिक से अधिक समय लगाकर कड़ी से कड़ी जांच करना ही सुयोग्य प्रशासन की निशानी है। लेकिन मैं सोचती हूं कि सुयोग्य प्रशासन में सुलभता और समय की बचत बहुत महत्वपूर्ण है। सत्रहवीं सदी में शिवाजी महाराज के गुरु रामदास ने सुयोग्य प्रशासन की पहचान बताते हुए लिखा थाः 'जनांचा प्रवाहो चालला' (यानी जन-प्रवाह सुचारु रूप से चल रहा हो), 'म्हणिजे कार्यभाग झाला' (तब समझना कि तुम्हारा प्रशासन ठीक चल रहा है), 'जन ठाई ठाई तुंबला' (जन-प्रवाह को जगह-जगह रुकावटें हों) 'म्हणिजे खोटे' ( तो जानना कि तुम्हारे प्रशासन में कुछ खोट है) ।

ज्योत्सना की मौत और फिर तत्काल काठमांडो से आने वाले विमान के अपहरण में प्रशासन की जो कमी साफ झलकती है वह है सामंजस्य या कोऑर्डिनेशन का अभाव। एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर में किसी अन्य प्रवासी के बैग का फीता फंस गया था तब देखने वालों में से किसी भी कर्मचारी ने अगर इस घटना की रिपोर्टिंग को अपनी जिम्मेदारी माना होता तो शायद दुर्घटना नहीं होती। लेकिन प्रशासन का काम निहायत टुकड़े-टुकड़े बंटा हुआ है। इसलिए एक विभाग का कर्मचारी दूसरे किसी विभाग को सुझाव देने की गुस्ताखी नहीं कर सकता। अव्वल तो कोई उसकी बात सुनेगा नहीं और इतने वर्षों में उसने खुद जो 'छोड़ो, मुझे क्या' वाला रुख अपनाया है, उसे भी निकट भविष्य में नहीं बदला जा सकता।

जहां तक 'उसी विभाग' के कर्मचारियों का प्रश्न है, वे उकताए रहते हैं, क्योंकि 'अधिक समय लगाकर कड़ाई से किए जाने वाले इंस्पेक्शन ' से आगे कुछ नहीं होता है, यह बात वे जानते हैं। सभी सोचते हैं कि रोज-रोज व्यर्थ समय गंवाया जाता है है इसलिए कुछ ही दिनों में फिर इंस्पेक्शन ढीला पड़ जाता रहा है। इंस्पेक्शन और मुस्तैदी को बनाए रखना हो तो उसका रुटीन भी कुछ इस प्रकार सरल और सुगम हो कि उसे कम समय में पूरा किया जा सके। लेकिन प्रशासन में समय की बचत और सुगमता के बावजूद अच्छे नतीजे चाहिए हों तो इसके लिए नए तरीके ढूंढने पड़ते हैं, और कर्मचारियों को उन तरीकों का प्रशिक्षण देना पड़ता है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है - स्थिर प्रक्रिया नहीं। लेकिन इसकी बजाय देखा गया है कि कोई दुर्घटना हो तो फिर से आदेश निकाले जाते हैं कि नियमों का पालन कड़ाई से हो। इतना आदेश निकालकर वरिष्ठ अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। पुराने नियमों को, जो समय की बर्बादी वाले हैं, कोई नहीं बदलता और न सामंजस्य को बढ़ाने वाली कार्रवाई कोई शुरू करता है। फिर प्रशासन अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाता है। कोई दूसरी दुर्धटना होने तक।

जब कंधार ये यात्रीगण हवाई जहाज से वापस आने को रवाना हो चुके थे तो जी-टीवी पर उनके रिश्तेदारों से बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा था कि अब जब एक भारी कीमत चुकाकर देश ने आतंकवादियों से बंधकों को रिहा करवा लिया है, तो इससे आगे देश के नागरिकों का क्या कर्त्तव्य है। बेचारे रिश्तेदारों को इसका कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। और पता नहीं प्रश्न पूछने वालों के मन में भी क्या उत्तर था, क्या सवाल था, क्योंकि उनका उत्तर भी खुलकर सामने नहीं आयो।

लेकिन मेरे दिमाग में इसका उत्तर आया कि देश के नागरिक सरकार से पूछें कि सुयोग्य प्रशासन लाने के लिए वह क्या कर रही है। बार-बार पूछें। नियमित रूप से पूछें। और लीपापोती वाले उत्तरों को स्वीकार न करें। लोकतंत्र में सुयोग्य प्रशासन का आग्रह रखने की जिम्मेदारी भी लोगों की ही है।
जनसत्ता ०८.०१.२०००



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Saturday, 29 September 2007

२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१ Y

२१. कलाकार की कदर   - जन. ४ मई २००१ 
कलाकार की कदर
कुछ बरस हुए, मैंने तबले की एक जोडी इस जिद के साथ खरीदी थी कि तबला सीखूंगी। तीन-चार साल में एक बार कभी सनक उभर आती है, तो नए उत्साह से मैं कुछ सीखती हूं। फिर सब ठप पड जाता है। लेकिन इस दोर में रा ध्यान एक विशिष्ट जाति के कलाकारों की तरफ गया। यह जाति है संगीत-वाद्य बनानेवाले या उन्हें सुधारनेवाले कलाकारों की। पुणे में एक सज्जन श्री औटी तबला पर स्याही लगाने का , तबले की वादियॉ कसने का और जरूरी हुआ तो चमडा लगाने का भी काम करतो आए हैं। वे नए तबले भी बनाते हैं। साल भर काम चलता हैं। इसमें महिलाए जादा लगी हैं, सो पन्द्रह से बीस महिलाओं को रोजी-रोटी मिलती हैं। लेकिन औटीजी बताते हैं – “तबला बनाना या उसकी मरम्मत करना अपने आप में एक कला हैं, जिसे सीखने के लिए काफी श्रम औप लगन चाहिए। मेरे दोनो बेटे पढ-लिख कर बैंक अफसर हो गए। वे इस कला को सीखना नही चाहते। मेरे काम में दखल नही देते, लेकिन में बूढा हो चला, कभी न कभी तो रुक जाऊंगा”। मैनें पूछा, आप किसी दूसरे को या काम करने वाली उन्हीमहिलाओं को क्यो नही सिखाते? उनका उत्तर था- कोई अपना समय खर्च करके इसे क्यो सीखना चाहेंगा? क्या इस काम में कोई पैसा या सन्मान हैं? मैनें कहा कि ‘पैसा तो जरुर होगा, तभी तो आपकी तीन पीढियों ने इस कला से उपजीविका चलाई।’ लेकिन मेरा यह उत्तर पर्याप्त नही है, यह मैं भी समझ रही थी।
मुम्बई में दादर स्टेशन के बाहर फुटपाथ पर बरसों से श्री गिंडे बॉंसुरी बेचा करते थे। उनकी बनाई बॉसुरी बडी सुरीली हुआ करती थी। पुणे के एक प्रसिद्ध लेखक और शौकिया बॉसुरीवादक अनिल अवचट को किसी ने वहॉ से कुछ बॉसुरीयॉ खरीदवाईं । अवचटजी ने उनसे पूछा, जाना। फिर एक लम्बा लेख लिखकर उन्हें प्रसिद्ध बना दिया। लेकिन आज भी मुम्बई महानगरपालिका के अतिक्रमण-रोको विभाग के कर्मचारी कोर्ट स्टे के कारण बॉसुरी की फुटपाथी दुकान हटा नही पाए और कोर्ट ऑर्डर के बावजूद गिंडेजी दुकान के लिए कोई टपरी नही दे रहे हैं।लेख को कारण इस दिकान की पहचान बनी तो मुम्बई की एक कला – संस्था चतुरंग ने कलाकारों के कार्यक्रम में उनका भी सन्मान किया। लेकिन ऐसे उदाहरण अत्यंत कम पाए जाते हैं जब वाद्य बनानेवाले को सन्मानित किया जाए।आज गिंडे जीवित नही हैं, लेकिन उनके बेटे ने वह काम सॅभाल लिया है। गिंडे बताते थे कि कैसे उन्हें खरीदकर लाए बॉस अपने घर में ही रखने पडते हैं और कैसे महानगरपालिका के लोग उनके घर का व्यापारिक कारण से उफयोग बताकर गाहो-बगाहे बॉस जब्त कर लेते हैं। इसी तरह नासिक में शहनाई बनानेवाले एक कलाकार हैं जो उस्ताद बिस्मिला खान के लिए शहनाइयॉ बनाते हैं और उन्हे गर्व है कि उनका लडका भी उनसे यह कला सीख कर माहिर हो गया है।
आजकल के सभी बॉसुरीवादक प्रायः दो बॉसुरियों का प्रयोग करते हैं। एक बार बात चली तो किसीने मुझसे कारण पूछा। मेरी जानकारी इतनी ही है कि सामान्यातः बॉसुरी पर दो ही सप्तक बज सकते हैं जब कि अच्छे वादन के लिए कम-से-कम ढाई सप्तक का विस्तार चाहिए। प्रथम श्रेणी के गायक तीन स्प्तक तक का सूर गा लेते हैं। इसी कारण दो बॉसुरिय़ॉ रखनी पडती हैं जिनमें एख का निचला स्वर दूसरी के ऊंचे स्वर से मेल खाता हो। लेकिन स्वर्गीय पन्नालाल घोष एक ही बॉसुरी बजाते थे। इस बॉसुरी में ढाई या तीन सप्तक के सुर निकल सकें, इसके लिए उसकी लम्बाई बढी पडती हैं। उती लम्बाई पर उंगलियों से नियन्त्रण कर पाना बहुत कठीण हैं। पन्नालाल घोष ने यह कठीन कार्य कर दिखाया। उन्होंने अपनी बॉसुरीयों की लम्बाई धीरे धीरे बढाई और उस पर अभ्यास करते गए। एक बार पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के साथ जुगलबन्दी करने और उनकी आवाज की हद को बॉसुरी में पकड पाने के लिए उन्होंने तीस इंच लम्बी बॉसुरी बनवाई थी और उसे बजाकर पंडितजी से वाहवाही लूटी थी। यह जानकारी मिली पुणे आकाशवाणी के सेवानिवृत्त डायरेक्टर गजेन्द्रगडकर के संस्मरण से। संस्मरण में लिखा है कि स्वयं पन्नालाल घोष बॉसुरी बनाने वाले उन सज्जन का बहुत सन्मान करते थे, लेकिन आकाशवाणी, संगीत कला अकादमी, भारत सरकार आदि ने कभी ऐसे व्यक्तियों का सन्मान किया हो, याद नही आता।
मिरज एक जमाने में अपनी संगीत परम्परा के लिए बडा प्रसिद्ध था। उस्ताद अब्दुल करीम खॉ औऱ लता मंगेशकर भी कभी वही रहे हैं। वहॉ एक परिवार में उच्च कोटि के तानपुरे, सितार, सरोद इत्यादि बनाए जे हैं। में वहॉ कलेक्टर थी तो उनका गोदाम देखने का मौका मिला। छोटे-बडे सैकडो जंगली सीताफल (पीले कद्दू ) सुखाकर वहॉ रखे हुए थे। उन्हीं को बीच से चीर कर उनसे जोडी के तानपुरे बनते हैं। कद्दू के खोल पर पॉलिश करना, उसे लकडी के साथ जोडना, जोड छिपाने के लिए नक्काशी करना, सुर मिलाना आदि तमाम कलाकारी उसी दिन देखने को मिली। चलते-चलते उस परिवार के मुखिया ने अपा दिख भी खेती करने लगे। अब खेतों की बाड पर जंगली सीताफल की बेलें नही लगाई जाती। जंगली सीताफलों का स्टॉक बडी मुश्किल से मिलता है। वह प्रजाति भी नष्ट हो रही है। फिर सितार – तानपुरे कैसे बजेंगे? मैडम, कदर केवल मेरी ही नही, उन जंगली बेलों की भी होनी चाहिए।
(जनसत्ता : 4 मई, 2001)





मेरी प्रांतसाहबी

मेरी प्रांतसाहबी
आई ए एस में आने के बाद 1 वर्षकी जिला ट्रेनिंग और अगले 2 वर्ष उसी पुणे जिले के हवेली सब डिविजन में सब डिविजनल ऑफिसर की पोस्टिंग में मैंने क्या देखा और क्या सीखा, उसका यह कच्चा-चिठ्ठा .... जो नया ज्ञानोदय के .... अंक में प्रकाशित हो चुका है।

ओर अब इसी नाम से मेरा तीसरा लेख संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।
मेरी प्रांतसाहबी
१० अगस्त १९७६ की तिथी थी जिस दिन मैंने हवेली असिस्टंट क्लेक्टर का पद संभाला। इससे पहले दो वर्षों का कार्यकाल प्रशिक्षण का था। वे दो वर्ष और अगले दो वर्ष- भारतीय प्रशासनिक सेवा की बसे कनिष्ठ श्रेणी के वर्ष होते हैं और जिम्मेदार अफसर बनने के अच्छे स्कूल का काम भी करते हैं। इस पोस्ट का नाम भी जबरदस्त है- असिस्टंट कलेक्टर या सब डिविजनल ऑफिसर। कहीं सब डिविजनल मॅजिस्ट्रेट भी। लेकिन महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में 'प्रांतसाहेब' अधिक परिचित संबोधन है। एकेक जिले में तीन या चार असिस्टंट कलेक्टर होते हैं। उनका काम और अधिकार कक्षा कलेक्टर के काम से काफी अलग, काफी सीमित क्षेत्रों में लेकिन वाकई में जमीनी सतह के होते हैं।
आगे लिंक पर पढें

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kept on janta_ki.... Also

Tuesday, 25 September 2007

कमलेश्वर- प्रस्तावना --बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख


जनता की राय

बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख

     'दुनिया मेरे आगे' जनसत्ता का लोकप्रिय कॉलम है ! यह स्वतंत्र विचारों का कॉलम है ! मेरे ख्याल में इसे लिखने की कोई शर्त नहीं होती ! बस, लिखने वाले को अपने विचार ठीक से रखने का शऊर होना चाहिए
     लीना मेहेंदले का नाम इस कॉलम के जरिये ही मैंने पहली बार जाना ! शयद उन्होंने और भी अखबारों में लिखा हो, पर इस कॉलम में जिस तरह उन्होंने लिखा, वह मेरे लिए पठनीय रहा है ! राष्ट्रिय मुद्दों के अलावा भी लीना मेहेंदले ने ऐसी बहसें खडी करने की कोशिश की कि आश्चर्य होता कि समाज और जीवन की छोटी-सी घटना को किस तरह वे एक राष्ट्रिय मुद्दा बना देती हैं !
     लीना मेहेंदले के ये आलेख हिन्दी पत्रकारिता के उत्कृष्ट नमूने हैं ! घटना पर पैनी नजर, सटीक विवेचन और न्यायपूर्ण पक्ष ! कानून का पक्ष, जनता का पक्ष और सरकार का पक्ष भी, यदि वह जनविरोधी न हो ! समाज के व्यापक सरोकारों वाला कोई भी विचार लीना मेहेंदले की गहरी समझ का स्पर्श पाकर उद्दीप्त हो उठता है ! मैंने अभी हाल ही में उनके लिखे तीस-पैंतीस आलेख पढे ! कुछ आलेख तो मैं जनसत्ता में पढ ही चुका था फिर भी उन्हें दुबारा पढते हुए उनके लेखन की गहराई में जाने की कोशिश की !
     लीना मेहेंदले किसी दूर की कौडी का इंतजार नहीं करतीं ! वे लिखने के विषय अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से चुनती हैं ! घटनाएँ रोज आती हैं -- अखबारों की सुर्खियों के रूप में ! बलात्कार, हत्या, लूटपाट और आगजनी ! ये रोज की घटनाएँ हैं, पर कभी-कभी इससे अलग और विशिष्ट भी घटित हो जाता है, तो लगता है कि जीवन अभी इससे भी आगे है ! क्या समाज की टुच्ची घटनाओं में सिर खपाना जरूरी है? यदि जरूरी है तो लीना उस पर पूरे अधिकार के साथ लिखती हैं ! जैसे कि वे सती शब्द को गलत अर्थो में समझने वाली महिलाओं के खिलाफ लिखती हैं -- 'उठो जागो !' जब वे 'सती' शब्द की व्याख्या कर रही होती हैं तो उसके पास पौराणिक आख्यानों की सत्यता होती है ! उसके माध्यम से वे सती के भावार्थ को गलत तरीके से इस्तेमाल करने वाले और सरकार की नीयत को कठघरे में खडा करती हैं !
      इसी तरह लीना मेहेंदले ने हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक विडंबनाओं की भी बखिया उधेडी है ! 'हिन्दी में शपथ', 'बच्चों को बख्शिए', 'हर जगह वही भूल', 'दिल्ली में युधिष्ठिर', 'भीड के आदमी का हक', 'नमक का दारोगा', 'लालकिले की कालिख', और 'अपने-अपने शैतान' आदि आलेखों में उन्होंने उन मुद्दों को बहस तलब बनाने का साहस किया है, जिस पर कम ही पत्रकार और लेखक विचार करने की जहमत उठाते हैंनिश्चित ही राज्य शासन का कार्य अपनी राज्य व्यवस्था को दुरूस्त रखना है, पर इसमें नागरिकों की भागीदारी को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है? लेखिका इस बात की तरफ पाठकों या इस देश के जागरूक नागरिकों का ध्यान बार-बार आकर्षित करती हैं, साथ ही मुर्दा और निकम्मी सरकार, इसके भ्रष्ट और नाकारा मंत्रियों तथा कर्मचारियों के दुराचरण की जमकर आलोचना भी करती हैं !
     लीना मेहेंदले के विचारों में गहरी समझ का जादू है इससे पाठक बच नहीं सकता! नारीवादी चेतना का इनमें एक स्वाभाविक स्फुरण है, मगर इस मामले में उनका ज्ञान अधूरेपन से ग्रस्त नहीं है ! वे महिला स्वातंत्र, महिला जागरूकता और महिला अस्मिता की पक्की हिमायती हैं, मगर व्यापक मानवीय संदर्भों और उद्देश्यों के साथ ! महिला सशक्तीकरण के पक्ष में उन्होंने काफी लिखा है ! 'गुजरात भत्ते की दावेदार कैसे बनें?', 'इक्कीसवीं सदी की औरत', और 'अंजना मिश्र कांड में उडीसा के पूर्व महाधिवक्ता को तीन साल की कैद' आदि आलेख नारी की अस्मिता पर गहरे विमर्श के लिए तीखी दस्तकें हैं, जिनको अनसुना करना आसान नहीं है ! पत्रकारिता का मूलधर्म है उन लोगों को आगाह करना, जो शासन और सत्ता के नशे में हमेशा मस्त और बेखौफ रहते हैं ! उन अशिक्षित और अनजान लोगों को शिक्षित करना, जिनकी निरीहता का लाभ उठाकर इस व्यवस्था की खाल संवेदनहीन और मोटी होती जा रही है ! मुझे ये आलेख उस नश्तर की तरह लगते हैं, जो वैचारिक रूप से शून्य होते रहे समाज, साहित्य और राजनीति को नई चेतना प्रदान करते हैं ! मैं आशान्वित हूँ कि पत्रकारिता की नई पीढी को इनसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा !
मुझे बेहद खुशी है कि ये आलेख पुस्तकाकार में अपने विस्तार के लिए जगह बनाने जा रहे हैं ! इनके विचारों को व्यापक समर्थन मिलेगा, इसकी मुझे पूरी उम्मीद है !
अपार शुभकामनाओं के साथ !
कमलेश्वर
२०-०८-२००४
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