Saturday 6 October 2007

हर जगह वही भूल (5)y

05-हर जगह वही भूल

इंडियन एअरलाइंस की यंत्रचालित सीढियों में फंसकर ज्योति जेठानी नामक आठ-वर्षीय बालिका की जान चली गई और प्रशासन मुंह लटकाने के सिवाय कुछ नहीं कर सका। दुखियारी मां का आक्रोश सुनने के लिए रुकने तक की संवेदनशीलता किसी के पास नहीं बची थी। फिर उस मां को आठ लाख रुपए का मुआवजा दिया गया और सारे लटके मुंह फिर से अपनी पुरानी जानी-पहचानी बेदिली के साथ ऊँचे उठने के काबिल हो गए। हम और आप जो इस देश के प्रशासन के लिए टैक्स भरते हैं और कई अन्य तरीकों से देश की उन्नति के लिए ईमानदारी से जुटे रहते हैं, क्या यह सवाल पूछ सकते हैं कि हमारी जेब का आठ लाख रुपया गीता जेठानी कोदेकर सर ऊँचा करने का हक प्रशासन को कैसे मिल गया? क्या यह टैक्स के रूप में दिए गए हमारे पैसे का हमारी ईमानदारी का दुरुपयोग नहीं है?

पिछले पचास वर्षों में प्रशासन को सुयोग्य बनाए रखने का एजंडा किसी पार्टी या किसी सरकार का नहीं रहा। एक नौकरशाही व्यवस्था हमने ब्रिटिश राज से विरासत के रूप में पाई। उसे आने वाली हर नई सरकार ने वैसे ही चलते रहने को कहा, सिर्फ दो बातों को भूलकर। पहली बात थी कि वह नौकरशाही व्यवस्था ब्रिटिश राज के फलसफे के लिए उपयुक्त थी क्या वह हमारे स्वतंत्र देश की स्वतंत्र नीतियों के लिए भी उपयुक्त थी? इस सवाल पर गौर नहीं किया गया। सरकार यह मानकर चलती रही कि नौकरशाही के व्यवस्थापन में बदलाव की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी बात कि कोई प्रशासन, कोई नौकरशाही, कोई भी मशीन नियमित देखभाल, नियमित साफ-सफाई और नियमित अपग्रेडेशन के अभाव में अपनी उपयोगिता खो बैठती है। इस पूरे वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण शब्द है 'नियमित'। अच्छा गायक बनने के लिए आपको नियमित रियाज करना पड़ता है, वैसे ही अच्छा प्रशासन पाने के लिए आपको उसकी साफ-सफाई भी नियमित रूप से करनी पड़ती है। सरकारी प्रशासन में वह नियमितता तो है ही नहीं- यह खयाल भी नहीं है कि इस सफाई की जरूरत है।

आज प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मानकर चलते हैं कि उनके साथ काम करने वाले निचली श्रेणी के कर्मचारियों के समूह को अपनी अंदरूनी ताकत है जिसके बल पर वे अपने को खुद ही सुधार लेंगे। वरिष्ठ अधिकारी यही मानते हैं, जानते नहीं क्योंकि मान लेने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। जानना हो तो जानने और समझने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। और यदि यह जानकारी हो गई कि उस समूह के पास वह अंदरूनी ताकत नहीं है, तो समूह को सुधारने की और उसे ताकत देने की-या यों कहिए कि उसे सुयोग्य बनाने की जिम्मेदारी भी सर पर आ जाती है। इतनी चखचख में कौन पड़े? उससे अच्छा है मान लेना कि निचले लोग अपने आप खुद को सुधार लेंगे।

प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मान लेते हैं तो अति वरिष्ठ अधिकारी क्या करते हैं? वे भी मान लेते हैं कि उनके छोटे अधिकारी या तो बिल्कुल गलती नहीं करते या अपने आपको सुधर लेते हैं। फिर सरकार भी मान लेती है कि नौकरशाही अपने आपको सुधार लेती है। जनता भी मान लेती है कि सरकार अपने आपको सुधार लेती है। इस प्रकार देखा गया जाए तो उस चक्राकर श्रृंखला की कड़ी में हर जगह वही भूल की जा रही है - क्या कर्मचारी, क्या प्रशासन, क्या सरकार और क्या जनता।

नागरिक उड्डयन मंत्री ने मान लिया कि उनके मंत्रालय को सुधारने की आवश्यकता है या नहीं, यह जानना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। मंत्रालय के अफसरों ने मान लिया कि विमानपत्तन प्राधिकरण की कमियों या अच्छाइयों के बारे में पूछने कि जिम्मेदारी या जरूरत उनकी नहीं। विमानपत्तन प्राधिकरण के दिल्ली स्थित वरिष्ठ अधिकारी ने मान लिया कि डयूटी पर तैनात अधिकारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की जिम्मेदारी उसकी नहीं। और डयूटी लगे अधिकारी ने कहा कि कर्मचारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। कर्मचारियों ने भी मान लिया कि सुयोग्न होने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। ऐसे जान गंवाई ज्योति जेठानी ने। खुशी खोई जेठानी परिवार ने। आठ लाख रुपये गंवाए देश के खजाने यानी कि हमने और आपने। और लटकाए सरों को फिर से ऊँचा, उद्धत और गैर-जिम्मेदार रखने का फख्र पाया उन कर्मचारियों ने, विमानपत्तन अधिकारियों ने, नौकरशाही के वरिष्ठ अधिकारियों ने, मंत्रीजी ने, सरकार ने और सरकार को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी से बेखयाल जनता ने।

अब नया वर्ष हमारे सामने है। प्रशासन को सुयोग्य बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने के लिए नियमित प्रयासों की जरूरत होती है। क्या हम और हमारी सरकार और नौकरशाही सुयोग्य प्रशासन को अपना एजंडा बना सकते हैं? या हमें और कई दुर्घटनाओं, कई जिंदगियों और कई लाख रुपए का मुआवजा देने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?

जनसत्ता ३० दिसमबर १९९९

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