Tuesday, 17 July 2007

उठो जागो (3)y

03-उठो जागो
जनसत्ता, १९ दिसंबर १९९९
अब वक्त आ गया है देश की पचास करोड़ औरतों और पचास करोड़ मर्दों को यह बताने का कि उठो, जागो और सोचो कि सती शब्द के पीछे तुमने कितनी गलत धारणाएं पाल रखी हैं। क्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?

सती शब्द सामने आया शिवप्रिया और शिव-पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के नाम से। जरा देखें कि सती की कथा क्या है। कथा यों है कि जब समाज में अभी तय नहीं हुआ था कि किस देवता को कितना उच्च सम्मान दिया जाएगा तब यही सब तय करने दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया। किसी ईर्ष्यावश यह पहलेसे ही तय था कि भगवान शंकर को यज्ञ में न तो निमंत्रित किया जाएगा। सती को भी निमंत्रण नहीं मिला। लेकिन उसने सोचा, पिता के यज्ञ के निमंत्रण की प्रतीक्षा क्यों करूँ? और भगवान शंकर के मना करने पर भी यज्ञस्थल चली गई। वहां देखा कि शिव को समाज के सामने अनुल्लेखित-अचिर्चित रखने की और सम्मान से वंचित रखने की सारी योजना बन चुकी है। जब सती ने इस व्यवस्था पर विरोध प्रकट किया तो उसका अपमान किया गया। इस पर सती ने उस यज्ञ को कोसा, उसमें भाग लेने वाले देवताओं को कोसा और समाज को भी कोसा कि कैसा है यह यज्ञ और यह समाज जो एक लायक व्यक्ति की योग्यता को नहीं पहचान पाता और उस लायक व्यक्ति का जो हक बनता है उसी हक को नाकबूल किया जाता है।

सती ने धिक्कारा अपने पिता को, उन देवताओं को और उस समाज को। लेकिन जब तक खुद शिव अपना हक न जताएं, लोग क्यों उनका हक मानने लगे? और शिव तो परम संतुष्ट पुरुष। वे अपना हक आएंगे ही नहीं। तब सती ने अपने योगबल से अग्नि उत्पन्न की और लोगों को यह शाप देते हुए प्राणार्पण किया कि लोगों, उचित व्यक्ति को उचित सम्मान न देने का दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मेरे पति को यहां आना पड़ेगा और अपना हक प्रस्थापित करना पड़ेगा।

ऐसी थी सती जिसने उचित सम्मान की लड़ाई लड़ी। न सिर्फ समाज को, बल्कि अपने पति को भी चुनौती दी कि समाज में उचित व्यक्ति को उचित मान प्राप्त होने की प्रणाली लानी पड़ेगी। उचित हक के लिए लड़ने वाली ऐसी पहली स्त्री की देखिए हमने क्या दुर्गत बना डाली। सती के नाम से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि उचित व्यक्ति को उचित हक मिले। इसके बजाय हमने क्या किया? एक तो समाज की ऐसी स्थिति बना डाली कि पति के निधन के बाद औरत को समाज में कोई स्थान ही न मिले, सम्मान की बात तो अलग। फिर उसे विवश किया जाए आत्महत्या के लिए और कहां जाए कि देखो वह पति के शव के साथ जल मरी इसलिए वह 'सती' हो गई। लेकिन सती तो अपने पिता की और तत्कालीन समाज की मूढ़ता को कोसते हुए अपने हक के लिए और अपनी आन के लिए अपने पति के जीवित होते हुए अपने ही योगबल से उत्पन्न अग्नि में जली। कहां वह आक्रामक, लड़ाकू वीरभाव और कहां यह समाज से डर कर जिंदा जलने की मजबूरी के सामने शीश झुकाना।

ऐसी कोई भी घटना जहां पति के निधन की विभीषिका से त्रस्त होकर औरत को जल जाना पड़े, बगैर लड़ाई लड़े, बगैर अपना हक मांगे, बगैर समाज को चुनौती दिए, एक मूक हताशा के साथ समाज के सामने झुकना पड़े, उस घटना को 'सती' कहने के लिए मैं राजी नहीं। और न ही सावित्री का नाम उस घटना से जुड़ सकता है, क्योकि सावित्री तो सती से भी अधिक जुझारू, अधिक तेजस्विनी और स्वयं यमराज को जीतने वाली है। पूरे संसार की किसी कथा, किसी इतिहास में इस मृत्युंजयी की दूसरी मिसाल ही नहीं है।

सती और सावित्री से हम यही प्रेरणा ले सकते हैं कि अपने हक की लड़ाई लड़नी है और आवश्यक हुआ तो यमराज से भी जीतकर अपना सर ऊँचा रखना है।
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