Tuesday, 6 December 2016

॥६७॥ पंगुल्या और फेंगाडया की बातें ॥ ६७॥

॥६७॥ पंगुल्या और फेंगाडया की बातें ॥ ६७॥

पंगुल्या लुकडया के पास पालथी मारकर बैठा था। सामने फेंगाडया। उसके बगल में उंचाडी। लंबूटांगी दूर अलाव पर सूअर भून रही थी।
तू इसे उठाकर क्यों लाया।
फेंगाडया खीझ गया-- ले आया।
लेकिन क्यों? पंगुल्या उसका पीछा नही छोड रहा था।
फेंगाडया थूका। मेरा साथी है वह.......बस।
पंगुल्या ने लुकडया की जाँध पर थोड़ा दबाते हुए हाथ फेरा।

एक सीधी लकीर। फिर कुछ उंचाई.....गुठली जैसी। फिर एक लकीर।
उंचाई पर हाथ दबाते ही लुकडया की एक धीमी कराह निकली।
पंगुल्या उठा। जल्दी जल्दी अपनी हड्डियों की पोटली खोलकर उसने जाँघ की एक हड्डी निकाली।
एक लकीर......। यहाँ से वहाँ तक अखंडित लकीर......। बीच में कोई उंचाई, कोई गुठली नही थी।
फेंगाडया चकित होकर उसे देख रहा था।
वह उठकर पंगुल्या के पास पहुँचा। हड्डी अपने हाथ में ले ली।
यह हड्डी?
जाँघ की है। पंगुल्या ने कहा।
पोटली के पास जाकर वह फिर दो टूटी हड्डियाँ- ले आया।
ये दोनों....। एक ही जाँघ की हैं.....लेकिन दोनों टूटी हुई।
पंगुल्या ने वे टुकड़े भी फेंगाडया के हाथ में दिए।
किसकी हड्डियाँ? फेंगाडया ने पोटली को अंगुली दिखाते हुए पथराई आँखों से पूछा।
नरबली टोली के मानुस बलियों की। कुछ गाडे हुए आदमियों की। यह टूटी हड्डियाँ भी ऐसे ही किसी आदमी की थीं जो जाँघ टूटकर घायल हो कर गया गया था।
फेंगाडया का शरीर तन गया।
लुकडया की नई हड्डी नही निकलेगी?
फेंगाडया ने पूछा।
उसकी आँखों के अंगार से पंगुल्या कांप गया।
ये हड्डियाँ कहती हैं- नही। इन सारी हड्डियों में एक भी नई हड्डी नही निकली है।
ये हड्डियाँ या तो अटूटी हैं या फिर टूट कर दो टुकडे रही हैं।
फेंगाडया उठकर फेरे लगाने लगा। गुफा के अंदर हवा बोझिल हो गई।
फेंगाडया पूछने लगा- पेड़ की डाल तोडो तो तो नई डाल आती है। मेरी जांघ के मांस को रीछ ने नोंच खाया था तो उस पर नया माँस आ गया था। फिर हड्डी टूटने के बाद नई हड्डी क्यों नही निकलेगी? निकलना पडेगा नई हड्डी को। ठीक होना पड़ेगा लुकडया की जाँघ को। चलना पडेगा उसे।
फेंगाडया ने आवेश से कहा।
वह जरूर चलेगा। समझे? उसने पंगुल्या से कहा और थक कर नीचे बैठ गया।
लुकडया हंसा- जोर से।
सारे चौंक गये।
कोमल गई। और हम सब राह देख रहे हैं कि वह आएगी।
धान बस्ती पर जाने की राह देख रहे हैं।
लेकिन नही लेंगे वे हमें धानबस्ती में। आखिर क्यों लेंगे वे मुझे? या इस पंगुल्या को?
अरे, थूकेंगे वे तुम्हारी बात पर।
फेंगाडया ने गर्दन हिलाई।
कोमल मनाने वाली है उनको। मुझे पता है। देखा है मैंने उसकी आँखों में।
फेंगाडया ने चीखकर कहा।
लुकडया चुप रहा।
लेकिन कहाँ आई अब तक? लंबूटांगी ने पूछा।
दूर है धानबस्ती। दो चढाइयाँ, दो मोड़, फिर एक उतराई। उंचाडी बोली-- कोमन ने ही बताया था मुझे- वह जरूर आएगी।
पंगुल्या अपनी ही तंद्रा में था। उसने मानों कुछ भी नही सुना। उसका हाथ फिर रहा था लुकडया की जाँघ पर। ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर। गुठली, गुठली- मानों एक गांठ- हड्डी की गांठ। जैसे वह लताओं की गांठ बांधता है।
यह हड्डी जुड़ेगी। वह चिल्लाया।



फेंगाडया उसकी ओर दौड़ा। कंधे से पकड़कर उसे झकझोर दिया।
सच?
पंगुल्या का चेहरा मानों किसी प्रकाश में चमक रहा था।
उसने छाती पर हाथ रखकर कहा- हाँ, मुझे यहाँ कुछ दीखता है। एक उजाला।
उस उजाले में मैं देख सकता हूँ।
टूटी हुई हड्डी जुड़ेगी फेंगाडया।
नई हड्डी नही निकलेगी। लेकिन टूटी हुई हड्डी जुड़ेगी।
कैसे? क्या दीखता है तुझे?
पंगुल्या के हाथ अब भी अपनी छाती पर थे-
यहाँ दीखता है मुझे। छाती में मानों एक झरना फूटता है। और फिर झरने के उजाले में मुझे जो दीखता है वह गलत नही होता।
फेंगाडया, मैंने कहा कि आज तक कभी मुझे टूट कर जुड़ी हुई हड्डी नही मिली । सच कहा था मैंने। पर बता क्यों नही मिली?
बता फेंगाडया, बता? क्यों नहीं मुझे मिली ऐसी हड्डी?
मैं बताता हूँ।
इसलिये कि आज तक कभी किसी ने घायल आदमी को नही उठाया। उसे गुफा का आश्रय नही दिया। पूरे एक ऋतु तक उसे शिकार लाकर नही खिलाई।
फेंगाडया। यह तूने किया है। आज पहली बार किसी ने ऐसा किया है।
पेड़ पर डाल फिर से जुड़ जाती है। ठीक कहता है तू।
इस लुकडया की हड्डी को, फेंगाडया के रूप में एक पेड मिला है।
अब यह पेड भी भरेगा।
उसकी डाल जुडेगी।
लुकडया की हड्डी जुडेगी।
एक आवेश में पंगुल्या उठा।
लुकडया उठेगा। अपने पैरों से चलेगा। यह आवाज जो मेरे अंदर के झरने से फूटती है ना लुकडया, वह कभी झूठ नही होती।
देखते रहना तुम।
फेंगाडया उठा। एक लहर दौड़ गई उसके शरीर में।
होच्होच्होच्
वह लुकडया के चारों ओर नाचने लगा।
उंचाडी, लंबूटांगी भी उठे। लुकडया के चारों गोल बनाते हुए नाचने लगे।
पंगुल्या भी धिस्टता हुआ उनके बीच नाचने लगा।
लुकडया भरमाया सा देखता रहा।
कभी पंगुल्या को, कभी फेंगाडया को।
गुफा के बाहर दूर पैरों की आहट हुई। फेंगाडया के सजग कानों ने लपक लिया।
उसने हाथ उठाकर सबको रुकने का इशारा किया।
बाहर आकर दूर दिशा में देखता हुआ चिल्लाया -- कोमल आ गई।
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॥ ६६॥ कोमल अकेली लौटती है धानबस्ती पर ॥ ६६॥

॥ ६६॥ कोमल अकेली लौटती है धानबस्ती पर ॥ ६६॥

दूर से एक आकृति आती हुई दिखी पायडया को। कोमल?
धडपडाते हुए पायडया उठा।
बाई को पुकार कर बाहर ले आया।
पायडया और बाई एक पलभर सब कुछ भूल गये।
बाकी सू, बाकी आदमी भी सब कुछ भूल गये।
सारे थिरकने लगे।
कुछ लोग दौड़कर कोमल तक पहुँचे। पायडया ने उसे अंक में भर लिया।
उसकी बाँहों से निकलते हुए कोमल ने पूछा-- मेरा पिलू?
चांदवी दौड गई थी पिलू को लाने।
उसने आगे बढकर पिलू को कोमल के हाथों में दिया।
कोमल की आँखों में आंसू और होठों पर मुस्कान। उसने पिलू को थान से लगा लिया।
सोटया आगे आया।
यह नाचने का अवसर नही है। नरबली वाले कभी भी आ सकते हैं।
लोग चौंक गये। दूर जाकर अपनी लाठियों को पत्थर पर घिसकर तेज करने लगे।
तीन चार सू अलाव पर धान पकाने लगीं।
रटरटरट...........धान उबलने लगा।
सूरज दो बित्ते उपर आ गया था।
कोमल ने देखा। दूर नदी की बहती धार घों घों का शोर मचा रही थी।
बाई आगे आई। कोमल को अंक में भरकर बोली-- अगली बाई मेरी। कैसे ऐन समय पर लौट आई।

आज यहाँ आ पहुँचा है भय......... थयथय नाचनेवाले मरण का भय।
कोमल कुछ समझ नही पाई। पूछा-- क्या कहती हो बाई?
पायडया आगे आया। काँपते स्वर से सब बताया। कोमल सिहर गई।
आदमी मार डालेंगे आदमी को? यों ही?
बाई हँसी।
वो आते हैं मारने को तो आने दो। हम भी उन्हें मारेंगे।
लेकिन इसका अन्त क्या होगा?
केवल मरण! बचेंगी केवल सू, कुछ पिलू।
बाई ने गर्दन हिलाई।
आज तक कभी ऐसा सुना नही।
मरण सुना है। आदमी, सू मर गये फटाफट। तपकर, हगते हुए, उलटियाँ करते हुए।
औढया देव के सामने एक भैंसा बलि चढाया



  
और लोगों का तपकर मरना रुक गया।
कभी जानवर भी मारकर आदमी को ले गये।
लेकिन यों आदमी ही मारे आदमी को...।
उसने एक लम्बी साँस छोड़ी।
औढया देव की इच्छा। लेकिन जो अंधड आ पहुँचा है वह वापस तो नही जायगा। उसे शरीर पर झेलना ही होगा।
पायडया ने गर्दन हिलाई।
हमारे पास भी आदमी कम नही हैं। सोटया, लकुटया.....और भी कई। हम क्यों भय करें?
बाई ने फिर से सिर हिलाया।
अब देखना यही है कि किसके पास कितने आदमी हैं।
जिस टोली के आदमी अधिक होंगे वही जीतेगी। अब केवल यही भय है-- यदि हमारे कम हुए तो?
कोमल का तनाव कम हुआ। उसने बाई से पूछा--
मैं कहाँ थी? कैसे बची?
कहाँ रही?
पूछा नही तुमने!
बाई ने ठिठक कर उसकी ओर देखा।
उसकी आँखें चमक रही थीं। बाई को थरथरी आ गई।
कोई आदमी?
पायडया ने पैर सिमट लिये। कान सजग करके वह भी सुनने लगा।
कोमल ने सारी बातें बताई।
तीनों देर तक स्तब्ध रहे।
दूर खुली जगह पर उनके आदमी लाठी भाँज रहे थे।
गर्जना कर रहे थे। फुत्कार भर रहे थे।
उस आवाज के सिवा बाकी सारी शांति।
पायडया ने गर्दन हिलाई।
फेंगाडया, हाँ।
पंगुल्या, लुकडया, उंचाड़ी, लंबूटांगी.....नहीं।
कोमल ने आँखें झुका लीं।
डबडबाए आँसू टपकने लगे।
बाई देख रही थी। उसकी छाती धड़कने लगी।
पायडया फिर से समझाते हुए बोला--
यहाँ सामना है मरण का। अच्छे भले हाथ पैरों वाले आदमियों के मरण का।
आजतक बस्ती में कभी घायल आदमियों को नही पोसा गया।
यह कल की जनमी कोमल कहती है--
फेंगाडया के लिए उन्हें भी बुलाओ। वह लुकडया, वे दोनों सू.......।
धान कौन देगा उन्हें?
मैं.......या बाई.....या यह कोमल?
पायडया थूक दिया।
अब बाई आगे आई। कोमल को अपनी ओर खींच लिया।
फिर से कहो.....मुझे फिर सुनाओ सब कुछ।
वह फेंगाडया.....। अपने अकेले की हिम्मत पर ले आया घायल लुकडया को ?
रखा उसे गुफा में?
रखा लंबूटांगी को भी उसके पास बिठाकर?



अकेले ही करता रहा तीन तीन आदमियों के लिये शिकार?
कोमल ने हाँ भरी।
बाई कुछ सोचती रही। उसने आगे आकर कोमल का पिलू अपने हाथों में ले लिया। जा तू....ले आना.....सबको।
कोमल चकित सी उसे देखती रही।
सच कह रही है तू बाई?
हाँ, जा... चांदवी को साथ में ले जाना।
और सोटया के दो आदमियों को भी।
कोमल बाई से लिपट गई। उसे चूम लिया।
फिर चौकड़ी भरती हुई निकल पड़ी।
पायडया खड़ा हो गया। बाई के कंधे पर हाथ रखकर उसे अपनी तरफ मोड़ा।
बाई की आँखें पथरीली।
पायडया सिहर गया। कांधे पर से हाथ हटा लिए। बाई हंसी।
नरबली टोली के लोग जब आक्रमण करेंगे, हमारे आदमी मारेंगे, जब एक एक मानुस काम का होगा।
आज आने दो उन्हें। बस्ती के लिये आज का दिन नियमों का नही है..... जीवित रहने का है।
केवल बचे रहने का है।
वह फेंगाडया अकेला..... तीन आदमियों के बराबर है।
पंगुल्या, लुकडया....उन्हें वही पोसेगा।
हम क्यों मना करें?
पायडया की आंखें अब भी संशय में गंदलाई।
सू, पिलू आते हें बस्ती पर तब ठीक है।
लेकिन नए आदमी बस्ती में आते हैं तो सब कुछ ठीक नही होता।
बस्ती के आदमी तन जाते हैं। उन्हें संशय से देखते हैं।
बाई ने फिर लम्बी साँस छोड़ी।
कल ही मोड़ की ढलान तक नरबली चुके हैं-- आज विचार केवल उसी बात का।
बस्ती यदि बच पाई तो अगला विचार आगे करेंगे।
वह मुड़ी। चली गई। पायडया एक बार फिर सिहर गया।
यह सावली....। यह भी पुरानी बाई जैसी ही है।
पथरीली आँखों वाली।
उस बाई के कारण बापजी बस्ती में आकर भी लौट गया।
अब फेंगाडया के साथ यह क्या करेगी?
पायडया थूक दिया। दूर आँखें दौड़ाई तो देखा--
कोमल, चांदवी के साथ तीन और लोग फेंगाडया को लिवाने जा रहे थे।
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॥ ६५॥ अचकचाना धानबस्ती का ॥ ६५॥

॥ ६५॥ अचकचाना धानबस्ती का ॥ ६५॥

पायडया माथे पर हाथ रखकर बैठा था। बगल में थरथराती बाई खड़ी थी।
लकुटया और कुछ आदमी इतनी भोर होने के बाद लौटे थे।
आँखें खींची हुई........भरमाये जानवर की तरह। मानों शैतान देख आई हों।
वे आएंगे।
हाँ बाई..... वे आए.....वापस गए....।
लेकिन कल वापस आएंगे। कई आएंगे। कल नही छोडेंगे किसी को।
बड़े बड़े आदमी हैं वों..... तीखे तीखें दाँतों वाले.....।
लाल लाल आँखों वाले......शैतान।
कहा-- हम वापस आएंगे- तैयार रहना।
वे आदमी नही। मरण हैं मरण.......।
लकुटया ने बोलने वाले को एक धौंस लगाई। चुप। वह चिल्लाया। शैतान नही हैं वे।
आदमी ही हैं। लेकिन वापस आएंगे। ये सच है।
  
एकआँखी रोने लगी।
फिर मुझे जुगेंगे सारे।
चांदवी को, बाई को भी जुगेंगे।
वह चिल्लाई।
हरेक को अलाव में भूनकर खाएंगे।
सारी सू रोने लगीं। छाती पीट कर आक्रोश करने लगीं।
बाई की थरथरी अचानक शांत हो गई। यह क्षण है बोलने का, टोली को एकजुट रखने का।
नही तो सारा कुछ छीन जाएगा।
ठहरो। वह चिल्लाई। सब स्तब्ध हो गये। आँखें मूँद कर वह बैठी रही। कुछ देर तक.....।
सारे आतुर।
बाई हँसी। मुँदी आँखों से कहने लगी। औंढया देव बोल रहा है मुझसे। कह रहा है-- आने दो।
तुम इतने सारे आदमी और सू हो।
औढया के हाथ मानों तुम्हारे हाथ।
पेड़ के तने जैसे मजबूत।
तुम क्यों डरते हो?
तुम भी खेलो उन्हीं का खेल।
मारो....आने वाले हरेक को मारो।
मरण.... नरबली टोली के हरेक को मरण।
उंची आवाज में पायडया चिल्लाया-
मरण......अरे, अब तुम उन्हें मारो।
क्या तुम खरहे हो, या पक्षी? डरकर भाग जाने वाले?
नही, नही। तुम भी भैंसे हो।
धँस जाओ उनके अंदर। मार डालो।
नाम लेकर औंढया देव का।
लकुटया और सोटया संभल गये।
मरण। नरबली टोली को मरण। लकुटया चिल्लाया।
सारा समूह उन्माद में चिल्लाया- मरण।
प्रतिध्वनि पहाड़ों से टकराकर लौटी- मरण।
पायडया को वह गूँज अच्छी लगी। उसकी थरथरी रुक गई।
बाई हँसी। पथराई आँखों से कहने लगी- हरेक सू तो मरण लेकर ही जनमती है।
आदमी भी मरता था। आजतक मरता था, जानवरों के आक्रमण से। घायल होकर।
लेकिन आज यह अलग तरह का मरण। आदमी का आदमी से मरण। वह भी आखिर मरण ही हुआ।
फिर अलग क्या है? नया क्या है?
धानबस्ती आज माँगती है मानुस का मरण। नरबली टोली के हर मानुस का मरण।
हाँ,हाँ.... सब चिल्लाये।
उन्मादित सा पायडया दौड पडा। उसके पीछे सारे दौडे। सबसे पीछे बाई।
औढया देव के पेड़ के पास वह रूका।
बाई अब उसके पास खड़ी थी।
एक गोल बनाकर सब चारों ओर खडे हो गये।
यह सोटया अब तुम्हारे मरण के खेल का प्रमुख होगा। बाई ने घोषणा की।
सोटया आगे आया। उन्माद से चीखा- सैतान को.....नरबली टोली के हरेक को मरण।
मरण! मरण! मरण!!!


सूरज उग आया। भीड़ छँटने लगी।
सोटया और लकुटया गिने चुने आदमी और सूओं से बातें करने लगे।
पायडया थककर पेड़ से टिककर बैठ गया।
सामने मानों कोई नई, अनजानी बस्ती थी....। एक नया सूरज, एक नई नदी।
अस्वस्थ सी उसकी आँखें चढाई के मोड़ पर जा टिकीं।
मोड पर स्तब्धता....शांति।
मानों कुछ हुआ ही नही था।
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॥ ६४॥ फेंगाडया नाच उठा ॥ ६४॥

॥ ६४॥ फेंगाडया नाच उठा ॥ ६४॥

फेंगाडया उठा। लंबे डग भरता हुआ जंगल की ओर जाने लगा। अकेला ही।
उंचाडी और पंगुल्या देखते रहे। लंबूटांगी खिलखिलाकर हँसने लगी।
आएगा वापस। उसे अकेला रहना, अकेले बातें करना अच्छा लगता है।
पंगुल्या ने गर्दन हिलाई- मुझे भी।
लंबूटांगी ने कहा- जा फिर, तू भी जा।
उंचाडी हंसी।
जाते जाते फेंगाडया ने सब सुना। वह थूका। आगे चलता गया।
सामने पेड था। वैसा ही झिलमिल नाचते हुए पत्तों वाला।
वह आनंदित हो गया। वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ की सरसराहट सुनता रहा।
सूरज डूबने में अब थोड़ी सी देर।
उसने आँखें मूँद लीं। खोलीं।
पत्ते झिलमिलाए।
उसने आकाश की ओर हाथ फेंके।
देवा.... यह कौन सी राह है?
एक नया मोड़ है यह।
लेकिन सच्चा या झूठा? बता सकता है तू?
मेरी छाती भर आई है। आँखों में पानी।
साँस पर गहरा बोझ। हाथ पैर थके हुए।
देवा...... फेंगाडया के लिए भी यह सब भारी है।
बहुत भारी.....। उठाने में थक रहा हूँ मैं।
कुछ समझ नही आ रहा है।
लुकडया कहता है यह सब मकड़ी के जाले जैसा है।
  
लेकिन मकड़ी की जाल होता है अपनी शिकार पकड़ने के लिये।
तुम्हारा जाल मुझे बुलाता है... क्या मुझे मारने के लिये?
नही......।
मैं तो एक साधारण मानुस हूँ।
आँखें जो दिखाए, देखता हूँ।
छाती में उमड़ने वाली आवाज सुनता हूँ।
तुम हो छाती में आवाज जगाने वाला पेड़।
तुम्हें सब कुछ मालूम।
मैंने कूद लगाई है तुम्हारी घों घों बहती नदी में।
लेकिन यह मोड़ नया है। मेरी समझ से बाहर है।
अब तू ही दिखा किधर चलना है।
वह अचानक रो पड़ा....देर तक। फिर शांत हुआ।
अब सारा कुछ चाँदनी जैसा साफ दीख रहा है। आगे का सारा रास्ता।
पत्तों में सरसराहट हुई। फेंगाडया सुनने लगा।
बापजी च्च्। तू कहता था, छाती की आवाज को सुनना ही मानुसपन है। वही है देवता की आवाज।
सच कहता था।
तुझसे मिलूँगा मैं। बताऊँगा यह सब।
जो मैंने अपनी छाती की आवाज से सुना है।
अब तक तू बोलता था और मैं सुनता था।
अब मैं बताऊँगा और तू सुनेगा।
फेंगाडया हरषा गया।
बापजी सुनेगा। आनंदित होगा। मुझे भींच लेगा बाहों में और कहेगा--
फेंगाडया, बस तू ही अकेला है...यह आवाज सुनने वाला।
फेंगाडया की छाती आनंद से भर गई।
आनंद छलक कर बाहर आने लगा।
वह चिल्लाया-- होच् होच्
उन्माद से नाचने लगा। नाचने लगा।
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॥ ६३॥ लाल्या की अचानक टक्कर ॥ ६३॥

॥ ६३॥ लाल्या की अचानक टक्कर ॥ ६३॥

बाँए मोड से ऊपर चढाई में हलचल हुई। सोटया, लकुटया और बाकी आदमी तैयार थे।
देह में सिहरन।
आपस में आवाजें, कोलाहल।
लाल्या के साथ चुने हुए पांच आदमी थे। वह आगे आया।
ऊपर लकुटया और सोटया ने पैंतरा लिया।

नीचें की टोली क्षणभर ठिठकी।
लाल्या ने गर्जना की। वेग से चाल करते हुए आगे आया।
सामने आठ दस व्यक्ति अपनी लाठियाँ लिये तैयार थे।
लाल्या अचानक थम गया।
दो गुटों के बीच दो पुरुष अंतर।
भारी पड़ने वाला था। उसके पांच साथी पूरे पड़ने वाले नही थे।
पीछे मुडो। वह चिल्लाया।
सोटया, लकुटया पथराए देख रहे थे।
लाल्या और उसके आदमी वेग से मुड़कर ओझल हो गये।
लकुटया, सोटया थरथराए देखते रहे।
प्रतीक्षा करते रहे।
अब आएंगे। तब लौटेंगे....।
सूरज डूबने को आया तब भी वे वहीं रुके थे।
आँखें निढाल, तपी हुई।
लाल्या कब का अपनी नई बस्ती पर पहुँच चुका था। एक सू से जुगते हुए मन ही मन हँस रहा था।
राह देखो.....। वह पुटपुटाया। यह खेल मैं खेलूँगा। रातभर राह देखो। थरथराते रहो।
सू को धकेलकर उसने परे कर दिया। अपने नए खेल के बारे में सोचने लगा।
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॥ ६२॥ वाघोबा टोली का नया मुकाम ॥ ६२॥

॥ ६२॥ वाघोबा टोली का नया मुकाम ॥ ६२॥

थोडी सी ऊँचाई पर जाकर बापजी और लाल्या ने आँखें दौड़ाई। नीचे उनकी नई झोंपडियाँ थीं, नई बस्ती।
यहाँ से धानबस्ती पास ही है। बापजी ने चुने आदमियों को इकठ्ठा किया।
हमारी मुख्य बस्ती, सू, पिलू सब पीछे रहेंगे। दूर......डूब डूब दिशा में.... एक दिन के रास्ते पर।
बाकी हम यहाँ।
मरण के खेल में हमारा यह पहला पडाव है।
यहाँ रहेंगे केवल आक्रमण करने वाले.....हम लोग।
धानबस्ती पर हमला करेंगे...वापस यहाँ आकर रुकेंगे।
यदि वह आयेंगे हमारी बस्ती पर हमला करने, तो उन्हें हम यहाँ रोक लेंगे। बीच रास्ते पर ही।
लाल्या चकित होकर उसे सुन रहा था।
उससे नही रहा गया। वह चिल्लाया - जय बापजी।
बापजी ने मंद हँसते हुए उसकी ओर देखा।
देख बापजी...... अपनी यह पकड़ देख।
इन भैंसों को किस सरलता से तू पाल रहा है।
तू केवल इशारा करता है, एक उंगली हिला कर।
और ये कूद रहे हैं।
मरण का गहरा डोह सामने है.......और इन्हें नही दीखता।
टोली में रहने वाले ये मनुष्य और झुंड में रहने वाले वे भैंसे एक ही से हैं।
लाल्या के पीछे सबने नारा लगाया- जय वाघोबा च्
बापजी चौंककर अपने विचारों से बाहर निकला। कहने लगा-
तुम्हारे भी दो गुट बनेंगे। एक गुट जाएगा धानबस्ती पर आक्रमण करने। दूसरा जाएगा शिकार करने।
जब आक्रमण करने वाले हमारे आदमी उन्हें मारकर वापस लौटेंगे तो उन्हें चाहिये होगी शिकार, और अलाव।
वह देगा यह दूसरा गुट।
और हाँ। कुछ सू यहाँ रहेंगी। जुगने के लिये।
मरण सामने होगा-- लेकिन आज जुगोगे तुम।
अब समय आ गया, अपनी वाघोबा बस्ती के लिये मरने का......।
धानबस्ती के हर मानुस को मारे बिना और हर सू से जुगे बिना.......
वाघोबा बस्ती पर वापस नही जाना है।
अब धानबस्ती के लिये मरण....!
मरण.....! सब चिल्लाये।
बापजी थक गया। वह चकराने लगा।
भरमा गया। उसका शरीर अब तप रहा था। अपने जखमी पैर को खींचते हुए वह झोंपड़ी के अंदर आ गया। बाहर कल मरने वाले आदमी नाच रहे थे।
कान में उनका कोलाहल गूँज रहा था- मरण....मरण.....मरण!
उसने आँखें मूँद लीं।
अचानक उसकी छाती में कुछ हिला।
धडपडाते हुए वह बाहर आया।
बाईं ओर से जाने वाली चढाई को देखता रहा।
अपनी गुफा यहाँ से कितनी पास है। वह बुदबुदाया।
एक थरथरी छा गई शरीर पर।
अपनी गुफा?
उसने थूका।
अब वह फेंगाडया की गुफा।
मैं गया तो पहचानेगा?
लेगा वापस अपने गुट में?
लेगा?
शरीर फिर थरथरा गया।
लेकिन पैर उठने का नाम नही ले रहे। मानों पथरा गए।
कान पर टकरा रहा है एक ओर से कोलाहल।
मरण....मरण।
वह ठिठक गया।
पैर पूरा काला हो रहा है बापजी। चार डग भी तू ठीक से नही चल पा रहा। उस गुट में तू कैसे जियेगा शिकार कैसे करेगा? कौन तुझे बिठाकर शिकार देगा?
यह खेल अब रुकने वाला नही। अब तू चाहे तब भी नही। फिर आज जो ये भैंसे तेरे हाथ में हैं, उन्हें मत छोडो बापजी। मत भरमाओ।
वह फिर से झोंपड़ी में घुस गया। औंधा लेट गया।
वेदना की ग्लानि में पड़ा रहा।
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॥ ६१॥ फेंगाडया के झुण्ड में उंचाड़ी और पंगुल्या ॥ ६१॥

॥ ६१॥ फेंगाडया के झुण्ड में उंचाड़ी और पंगुल्या ॥ ६१॥

सूरज माथे पर था। पेड के नीचे सारे आ गए थे-- फेंगाडया, कोमल, लम्बूटांगी और एक बाँस पर बंधा हुआ लुकडया।
फेंगाडया ने कान दिए- कोई आ रहा था।
वह झट से उठा- दूर तक आँख गडाई। हाथ से सबको चुप रहने को कहा।
सारे सावधान हो एग।
पैरों की आवाज पास आई।
पंगुल्या को कंधे पर लादे हुए उंचाडी चढाई चढ रही थी।
वह अपनी ही गति से चली जा रही थी कि पंगुल्या ने उसके कंधे पर हाथ गड़ाए। वह रुकी। सांसे फूली हुई।
पंगुल्या के पीठ पर सिहरन दौड़ गई।
फेंगाडया ने देखा- वह ढीला पड़ गया।
जानवर नही था। न ही मानुसबलि टोली के लोग थे।
झुण्ड की रीत के अनुसार उसने हाथ उपर उठा दिए।
उंचाडी भी ढीली पड़ गई। झुण्ड के आदमी। वह बुदबुदाई। लाल्या की टोली के नही।
उसने भी हाथ उठाया। पंगुल्या थरथरा रहा था। लेकिन उंचाडी आगे आई।
पंगुल्या को उतार कर हांफती खड़ी रही।
पंगुल्या ने आंखे स्थिर कीं। टोली के बिना रहने वाले आदमी। उसका डर कम हुआ। अलाव में भुन रहे सूअर की एक हड्डी फेंगाडया ने आगे बढाई। उंचाडी ने उसमें से कई कौर खाए। फिर पंगुल्या को दे दी।
कोमल उठी। उंचाडी को बांहों में भर लिया। उंचाडी ने पूछा-
दूधभरी?
हां।
पिलू कहाँ है?
बस्ती पर। कोमल धीमे स्वर में बोली।
उंचाडी तडाक्‌ से उठ गई। शंका से देखने लगी।
फेंगाडया हंसा। उंचाडी को एक धपका मार कर फिर जोर से हंसा।
बस्ती का नाम सुनकर डरती है। मैं भी डरता था। इसीलिए अकेला रहता था।
यह मेरा झुण्ड है- मैं लम्बूटांगी और लुकडया।
ये कोमल बस्ती वाली है...... धानबस्ती की.....।
उदेती में इनकी बस्ती है।
पंगुल्या ने सांस रोकी- कहाँ जा रहे हो?
धानबस्ती पर। कोमल ने कहा। और तुम?
हम भी... उदेती में। वह बुदबुदाया।
फेंगाडया कौतुहल से उसकी सूखी जाँघ पर हाथ फेरा।
तू बच गया? अकेला?....... झुण्ड में?
नही।
फिर?
टोली में।
फेंगाडया थूका- मानुसबलीवाली।
वातावरण फिर से गलाघोंटु हो गया। कोई कुछ कहे ना।
उंचाडी रोने लगी। कोमल आगे आई।
क्यों री?
मैं भी अकेली थी। साथ में पिलू थ- झिंग्या।
मैं धानबस्ती को जा रही थी। वाघोबा टोली वालों ने पकड लिया। अकेले मुझे। झिंग्या जंगल में रह गया। शायद मर गया होगा।
फिर आंखे पोंछ कर बोली--
मुझे पकड कर अकेली को जुगे सारे। नोचकर घाव कर दिए। वाघोबा बस्ती पर ले गए। बलि देने वाले थे।
वहाँ यह पंगुल्या था। उसे भी मारने वाले थे। हम दोनों भाग आए।
फिर सारे चुप।
लुकडया जोर से हंसा।
क्यों रे? फेंगाडया ने नाक फुलाकर उसे पूछा।
उदेती की धानबस्ती..... वाह.... लंगड़े, पंगु, घायल.... सारे चले उधर।
पंगुल्या ने तेज आँखों से देखा- लुकडया बंधा पडा था। वह घिसटते हुए आगे आया-
तू.... घायल?
हाँ।
कहाँ?
जांघ में।
पंगुल्या ने हल्का हाथ उसकी जांघ पर फेरा। हड्डी टटोली। ऊपर से नीचे। एक सीधी रेखा...... रेखा........ रेखा.....



फिर एक उंची गुठली..... वहाँ टीस। फिर रेखा।
पंगुल्या ने फिर से गुठली पर हाथ रखा।
फेंगाडया तडाक्‌ से उठा। लुकडया के वाल पकडकर बोला-
जांघ में हाथ लगाने पर पहले चिल्लाता था तू।
आज केवल हूं करता है? दुखता नही है?
लुकडया ने सोचा।
हाँ, तब बहुत दुखता था। बेसुध होने लगता था मैं। आज उतना दुखता नही है।सच कहता है तू। वह फेंगाडया को देखकर बोला।
कोमल ने देखा- सूरज उतरने लगा था। वह उठी।
चलो...... जल्दी जल्दी। सूरज डूबने से पहले पहुँचना पडेगा।
उंचाडी के कंधे पर पंगुल्या बैठा। लुकडया बंधा बांस फेंगाडया और लम्बूटांगी ने अपने कंधों पर ले लिया। कोमल ने भुने हुए सूअर का मांस उठा लिया।
सारे तेजी से चलने लगे।
पंगुल्या थरथराया-
आज से नया सूर्य..... नया चंद्रमा। वह धीरे से बोला।
उसने उंचाडी को सहलाया।
वह खिलखिलाई। दौड़ती हुई फेंगाडया के पीछे चल दी।
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