॥ ६२॥ वाघोबा टोली का नया
मुकाम ॥ ६२॥
थोडी सी ऊँचाई पर जाकर बापजी
और लाल्या ने आँखें दौड़ाई। नीचे उनकी नई झोंपडियाँ थीं, नई बस्ती।
यहाँ से धानबस्ती पास ही है।
बापजी ने चुने आदमियों को इकठ्ठा किया।
हमारी मुख्य बस्ती, सू, पिलू
सब पीछे रहेंगे। दूर......डूब डूब दिशा में.... एक दिन के रास्ते पर।
बाकी हम यहाँ।
मरण के खेल में हमारा यह
पहला पडाव है।
यहाँ रहेंगे केवल आक्रमण
करने वाले.....हम लोग।
धानबस्ती पर हमला
करेंगे...वापस यहाँ आकर रुकेंगे।
यदि वह आयेंगे हमारी बस्ती
पर हमला करने, तो उन्हें हम यहाँ रोक लेंगे। बीच रास्ते पर ही।
लाल्या चकित होकर उसे सुन
रहा था।
उससे नही रहा गया। वह
चिल्लाया - जय बापजी।
बापजी ने मंद हँसते हुए उसकी
ओर देखा।
देख बापजी...... अपनी यह पकड़
देख।
इन भैंसों को किस सरलता से
तू पाल रहा है।
तू केवल इशारा करता है, एक
उंगली हिला कर।
और ये कूद रहे हैं।
मरण का गहरा डोह सामने
है.......और इन्हें नही दीखता।
टोली में रहने वाले ये
मनुष्य और झुंड में रहने वाले वे भैंसे एक ही से हैं।
लाल्या के पीछे सबने नारा
लगाया- जय वाघोबा च्
बापजी चौंककर अपने विचारों
से बाहर निकला। कहने लगा-
तुम्हारे भी दो गुट बनेंगे।
एक गुट जाएगा धानबस्ती पर आक्रमण करने। दूसरा जाएगा शिकार करने।
जब आक्रमण करने वाले हमारे
आदमी उन्हें मारकर वापस लौटेंगे तो उन्हें चाहिये होगी शिकार, और अलाव।
वह देगा यह दूसरा गुट।
और हाँ। कुछ सू यहाँ रहेंगी।
जुगने के लिये।
मरण सामने होगा-- लेकिन आज
जुगोगे तुम।
अब समय आ गया, अपनी वाघोबा
बस्ती के लिये मरने का......।
धानबस्ती के हर मानुस को
मारे बिना और हर सू से जुगे बिना.......
वाघोबा बस्ती पर वापस नही
जाना है।
अब धानबस्ती के लिये मरण....!
मरण.....! सब चिल्लाये।
बापजी थक गया। वह चकराने
लगा।
भरमा गया। उसका शरीर अब तप
रहा था। अपने जखमी पैर को खींचते हुए वह झोंपड़ी के अंदर आ गया। बाहर कल मरने वाले
आदमी नाच रहे थे।
कान में उनका कोलाहल गूँज
रहा था- मरण....मरण.....मरण!
उसने आँखें मूँद लीं।
अचानक उसकी छाती में कुछ
हिला।
धडपडाते हुए वह बाहर आया।
बाईं ओर से जाने वाली चढाई
को देखता रहा।
अपनी गुफा यहाँ से कितनी पास
है। वह बुदबुदाया।
एक थरथरी छा गई शरीर पर।
अपनी गुफा?
उसने थूका।
अब वह फेंगाडया की गुफा।
मैं गया तो पहचानेगा?
लेगा वापस अपने गुट में?
लेगा?
शरीर फिर थरथरा गया।
लेकिन पैर उठने का नाम नही
ले रहे। मानों पथरा गए।
कान पर टकरा रहा है एक ओर से
कोलाहल।
मरण....मरण।
वह ठिठक गया।
पैर पूरा काला हो रहा है
बापजी। चार डग भी तू ठीक से नही चल पा रहा। उस गुट में तू कैसे जियेगा शिकार कैसे
करेगा? कौन तुझे बिठाकर शिकार देगा?
यह खेल अब रुकने वाला नही।
अब तू चाहे तब भी नही। फिर आज जो ये भैंसे तेरे हाथ में हैं, उन्हें मत छोडो
बापजी। मत भरमाओ।
वह फिर से झोंपड़ी में घुस
गया। औंधा लेट गया।
वेदना की ग्लानि में पड़ा
रहा।
-----------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment