Tuesday 6 December 2016

॥ ६५॥ अचकचाना धानबस्ती का ॥ ६५॥

॥ ६५॥ अचकचाना धानबस्ती का ॥ ६५॥

पायडया माथे पर हाथ रखकर बैठा था। बगल में थरथराती बाई खड़ी थी।
लकुटया और कुछ आदमी इतनी भोर होने के बाद लौटे थे।
आँखें खींची हुई........भरमाये जानवर की तरह। मानों शैतान देख आई हों।
वे आएंगे।
हाँ बाई..... वे आए.....वापस गए....।
लेकिन कल वापस आएंगे। कई आएंगे। कल नही छोडेंगे किसी को।
बड़े बड़े आदमी हैं वों..... तीखे तीखें दाँतों वाले.....।
लाल लाल आँखों वाले......शैतान।
कहा-- हम वापस आएंगे- तैयार रहना।
वे आदमी नही। मरण हैं मरण.......।
लकुटया ने बोलने वाले को एक धौंस लगाई। चुप। वह चिल्लाया। शैतान नही हैं वे।
आदमी ही हैं। लेकिन वापस आएंगे। ये सच है।
  
एकआँखी रोने लगी।
फिर मुझे जुगेंगे सारे।
चांदवी को, बाई को भी जुगेंगे।
वह चिल्लाई।
हरेक को अलाव में भूनकर खाएंगे।
सारी सू रोने लगीं। छाती पीट कर आक्रोश करने लगीं।
बाई की थरथरी अचानक शांत हो गई। यह क्षण है बोलने का, टोली को एकजुट रखने का।
नही तो सारा कुछ छीन जाएगा।
ठहरो। वह चिल्लाई। सब स्तब्ध हो गये। आँखें मूँद कर वह बैठी रही। कुछ देर तक.....।
सारे आतुर।
बाई हँसी। मुँदी आँखों से कहने लगी। औंढया देव बोल रहा है मुझसे। कह रहा है-- आने दो।
तुम इतने सारे आदमी और सू हो।
औढया के हाथ मानों तुम्हारे हाथ।
पेड़ के तने जैसे मजबूत।
तुम क्यों डरते हो?
तुम भी खेलो उन्हीं का खेल।
मारो....आने वाले हरेक को मारो।
मरण.... नरबली टोली के हरेक को मरण।
उंची आवाज में पायडया चिल्लाया-
मरण......अरे, अब तुम उन्हें मारो।
क्या तुम खरहे हो, या पक्षी? डरकर भाग जाने वाले?
नही, नही। तुम भी भैंसे हो।
धँस जाओ उनके अंदर। मार डालो।
नाम लेकर औंढया देव का।
लकुटया और सोटया संभल गये।
मरण। नरबली टोली को मरण। लकुटया चिल्लाया।
सारा समूह उन्माद में चिल्लाया- मरण।
प्रतिध्वनि पहाड़ों से टकराकर लौटी- मरण।
पायडया को वह गूँज अच्छी लगी। उसकी थरथरी रुक गई।
बाई हँसी। पथराई आँखों से कहने लगी- हरेक सू तो मरण लेकर ही जनमती है।
आदमी भी मरता था। आजतक मरता था, जानवरों के आक्रमण से। घायल होकर।
लेकिन आज यह अलग तरह का मरण। आदमी का आदमी से मरण। वह भी आखिर मरण ही हुआ।
फिर अलग क्या है? नया क्या है?
धानबस्ती आज माँगती है मानुस का मरण। नरबली टोली के हर मानुस का मरण।
हाँ,हाँ.... सब चिल्लाये।
उन्मादित सा पायडया दौड पडा। उसके पीछे सारे दौडे। सबसे पीछे बाई।
औढया देव के पेड़ के पास वह रूका।
बाई अब उसके पास खड़ी थी।
एक गोल बनाकर सब चारों ओर खडे हो गये।
यह सोटया अब तुम्हारे मरण के खेल का प्रमुख होगा। बाई ने घोषणा की।
सोटया आगे आया। उन्माद से चीखा- सैतान को.....नरबली टोली के हरेक को मरण।
मरण! मरण! मरण!!!


सूरज उग आया। भीड़ छँटने लगी।
सोटया और लकुटया गिने चुने आदमी और सूओं से बातें करने लगे।
पायडया थककर पेड़ से टिककर बैठ गया।
सामने मानों कोई नई, अनजानी बस्ती थी....। एक नया सूरज, एक नई नदी।
अस्वस्थ सी उसकी आँखें चढाई के मोड़ पर जा टिकीं।
मोड पर स्तब्धता....शांति।
मानों कुछ हुआ ही नही था।
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