Tuesday, 6 December 2016

॥ ६४॥ फेंगाडया नाच उठा ॥ ६४॥

॥ ६४॥ फेंगाडया नाच उठा ॥ ६४॥

फेंगाडया उठा। लंबे डग भरता हुआ जंगल की ओर जाने लगा। अकेला ही।
उंचाडी और पंगुल्या देखते रहे। लंबूटांगी खिलखिलाकर हँसने लगी।
आएगा वापस। उसे अकेला रहना, अकेले बातें करना अच्छा लगता है।
पंगुल्या ने गर्दन हिलाई- मुझे भी।
लंबूटांगी ने कहा- जा फिर, तू भी जा।
उंचाडी हंसी।
जाते जाते फेंगाडया ने सब सुना। वह थूका। आगे चलता गया।
सामने पेड था। वैसा ही झिलमिल नाचते हुए पत्तों वाला।
वह आनंदित हो गया। वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ की सरसराहट सुनता रहा।
सूरज डूबने में अब थोड़ी सी देर।
उसने आँखें मूँद लीं। खोलीं।
पत्ते झिलमिलाए।
उसने आकाश की ओर हाथ फेंके।
देवा.... यह कौन सी राह है?
एक नया मोड़ है यह।
लेकिन सच्चा या झूठा? बता सकता है तू?
मेरी छाती भर आई है। आँखों में पानी।
साँस पर गहरा बोझ। हाथ पैर थके हुए।
देवा...... फेंगाडया के लिए भी यह सब भारी है।
बहुत भारी.....। उठाने में थक रहा हूँ मैं।
कुछ समझ नही आ रहा है।
लुकडया कहता है यह सब मकड़ी के जाले जैसा है।
  
लेकिन मकड़ी की जाल होता है अपनी शिकार पकड़ने के लिये।
तुम्हारा जाल मुझे बुलाता है... क्या मुझे मारने के लिये?
नही......।
मैं तो एक साधारण मानुस हूँ।
आँखें जो दिखाए, देखता हूँ।
छाती में उमड़ने वाली आवाज सुनता हूँ।
तुम हो छाती में आवाज जगाने वाला पेड़।
तुम्हें सब कुछ मालूम।
मैंने कूद लगाई है तुम्हारी घों घों बहती नदी में।
लेकिन यह मोड़ नया है। मेरी समझ से बाहर है।
अब तू ही दिखा किधर चलना है।
वह अचानक रो पड़ा....देर तक। फिर शांत हुआ।
अब सारा कुछ चाँदनी जैसा साफ दीख रहा है। आगे का सारा रास्ता।
पत्तों में सरसराहट हुई। फेंगाडया सुनने लगा।
बापजी च्च्। तू कहता था, छाती की आवाज को सुनना ही मानुसपन है। वही है देवता की आवाज।
सच कहता था।
तुझसे मिलूँगा मैं। बताऊँगा यह सब।
जो मैंने अपनी छाती की आवाज से सुना है।
अब तक तू बोलता था और मैं सुनता था।
अब मैं बताऊँगा और तू सुनेगा।
फेंगाडया हरषा गया।
बापजी सुनेगा। आनंदित होगा। मुझे भींच लेगा बाहों में और कहेगा--
फेंगाडया, बस तू ही अकेला है...यह आवाज सुनने वाला।
फेंगाडया की छाती आनंद से भर गई।
आनंद छलक कर बाहर आने लगा।
वह चिल्लाया-- होच् होच्
उन्माद से नाचने लगा। नाचने लगा।
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