॥ ६१॥ फेंगाडया के झुण्ड में
उंचाड़ी और पंगुल्या ॥ ६१॥
सूरज माथे पर था। पेड के
नीचे सारे आ गए थे-- फेंगाडया, कोमल, लम्बूटांगी और एक बाँस पर बंधा हुआ लुकडया।
फेंगाडया ने कान दिए- कोई आ
रहा था।
वह झट से उठा- दूर तक आँख
गडाई। हाथ से सबको चुप रहने को कहा।
सारे सावधान हो एग।
पैरों की आवाज पास आई।
पंगुल्या को कंधे पर लादे
हुए उंचाडी चढाई चढ रही थी।
वह अपनी ही गति से चली जा
रही थी कि पंगुल्या ने उसके कंधे पर हाथ गड़ाए। वह रुकी। सांसे फूली हुई।
पंगुल्या के पीठ पर सिहरन
दौड़ गई।
फेंगाडया ने देखा- वह ढीला
पड़ गया।
जानवर नही था। न ही मानुसबलि
टोली के लोग थे।
झुण्ड की रीत के अनुसार उसने
हाथ उपर उठा दिए।
उंचाडी भी ढीली पड़ गई। झुण्ड
के आदमी। वह बुदबुदाई। लाल्या की टोली के नही।
उसने भी हाथ उठाया। पंगुल्या
थरथरा रहा था। लेकिन उंचाडी आगे आई।
पंगुल्या को उतार कर हांफती
खड़ी रही।
पंगुल्या ने आंखे स्थिर कीं।
टोली के बिना रहने वाले आदमी। उसका डर कम हुआ। अलाव में भुन रहे सूअर की एक हड्डी
फेंगाडया ने आगे बढाई। उंचाडी ने उसमें से कई कौर खाए। फिर पंगुल्या को दे दी।
कोमल उठी। उंचाडी को बांहों
में भर लिया। उंचाडी ने पूछा-
दूधभरी?
हां।
पिलू कहाँ है?
बस्ती पर। कोमल धीमे स्वर
में बोली।
उंचाडी तडाक् से उठ गई।
शंका से देखने लगी।
फेंगाडया हंसा। उंचाडी को एक
धपका मार कर फिर जोर से हंसा।
बस्ती का नाम सुनकर डरती है।
मैं भी डरता था। इसीलिए अकेला रहता था।
यह मेरा झुण्ड है- मैं
लम्बूटांगी और लुकडया।
ये कोमल बस्ती वाली है......
धानबस्ती की.....।
उदेती में इनकी बस्ती है।
पंगुल्या ने सांस रोकी- कहाँ
जा रहे हो?
धानबस्ती पर। कोमल ने कहा।
और तुम?
हम भी... उदेती में। वह
बुदबुदाया।
फेंगाडया कौतुहल से उसकी
सूखी जाँघ पर हाथ फेरा।
तू बच गया? अकेला?.......
झुण्ड में?
नही।
फिर?
टोली में।
फेंगाडया थूका-
मानुसबलीवाली।
वातावरण फिर से गलाघोंटु हो
गया। कोई कुछ कहे ना।
उंचाडी रोने लगी। कोमल आगे
आई।
क्यों री?
मैं भी अकेली थी। साथ में
पिलू थ- झिंग्या।
मैं धानबस्ती को जा रही थी।
वाघोबा टोली वालों ने पकड लिया। अकेले मुझे। झिंग्या जंगल में रह गया। शायद मर गया
होगा।
फिर आंखे पोंछ कर बोली--
मुझे पकड कर अकेली को जुगे
सारे। नोचकर घाव कर दिए। वाघोबा बस्ती पर ले गए। बलि देने वाले थे।
वहाँ यह पंगुल्या था। उसे भी
मारने वाले थे। हम दोनों भाग आए।
फिर सारे चुप।
लुकडया जोर से हंसा।
क्यों रे? फेंगाडया ने नाक
फुलाकर उसे पूछा।
उदेती की धानबस्ती.....
वाह.... लंगड़े, पंगु, घायल.... सारे चले उधर।
पंगुल्या ने तेज आँखों से
देखा- लुकडया बंधा पडा था। वह घिसटते हुए आगे आया-
तू.... घायल?
हाँ।
कहाँ?
जांघ में।
पंगुल्या ने हल्का हाथ उसकी
जांघ पर फेरा। हड्डी टटोली। ऊपर से नीचे। एक सीधी रेखा...... रेखा........
रेखा.....
फिर एक उंची गुठली..... वहाँ
टीस। फिर रेखा।
पंगुल्या ने फिर से गुठली पर
हाथ रखा।
फेंगाडया तडाक् से उठा।
लुकडया के वाल पकडकर बोला-
जांघ में हाथ लगाने पर पहले
चिल्लाता था तू।
आज केवल हूं करता है? दुखता
नही है?
लुकडया ने सोचा।
हाँ, तब बहुत दुखता था।
बेसुध होने लगता था मैं। आज उतना दुखता नही है।सच कहता है तू। वह फेंगाडया को
देखकर बोला।
कोमल ने देखा- सूरज उतरने
लगा था। वह उठी।
चलो...... जल्दी जल्दी। सूरज
डूबने से पहले पहुँचना पडेगा।
उंचाडी के कंधे पर पंगुल्या
बैठा। लुकडया बंधा बांस फेंगाडया और लम्बूटांगी ने अपने कंधों पर ले लिया। कोमल ने
भुने हुए सूअर का मांस उठा लिया।
सारे तेजी से चलने लगे।
पंगुल्या थरथराया-
आज से नया सूर्य..... नया
चंद्रमा। वह धीरे से बोला।
उसने उंचाडी को सहलाया।
वह खिलखिलाई। दौड़ती हुई
फेंगाडया के पीछे चल दी।
-----------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment