Tuesday, 6 December 2016

॥ ७४॥ फेंगाडया और बाई ॥ ७४॥

॥ ७४॥ फेंगाडया और बाई ॥ ७४॥

फेंगाडया अकेला ही झोंपड़ी से बाहर आया। कोमल पिलू को लेकर सो चुकी थी। बाहर चारों ओर गहन शांति। नदी की कलकल उस शांति को और गहराती हुई।
फेंगाडया नदी की ओर चला।
औंढया देव के पेड़ के पास बाई अकेली बैठी थी।
वह पास आकर रुक गया।
बाई ने देखा। भरपूर तगड़ा, फेंगाडया।
उसने बुलाया- आओ।
फेंगाडया बाई के पास बैठ गया।
तुमने मुझे बुलाया- क्यों?
तुम्हारी बातें सुनने को। बता अपने बारे में।
बाई की आँखें हंस रही थीं।
क्यों? फेंगाडया ने फिर पूछा।
कोमल का आदमी है तू? अगली बाई का आदमी। तेरा भी उतना ही मान है जितना कोमल का।
फेंगाडया ने सिर हिलाया लेकिन चुप ही रहा।

यह लुकडया- तेरे साथ है? बाई ने पूछा
हाँ।
तू यहाँ आया है कोमल के लिए?
फेंगाडया हंसा- हाँ।
केवल कोमल के लिए?
नहीं, लुकडया को जिलाये रखने के लिए।
तू ऐसा क्यों करता है?
फेंगाडया ने गहराई से बाई की आँखों में देखा। आश्र्वासक उष्मा से भरी गहरी आँखें।
उनमें अलाव जैसी सुखकारक आग थी।
फेंगाडया हंसा। बाई के कंधे पकड़ कर उसे हिलाते हुए बोला-
तुझे भी यही चाहिए। है ना?
सच सच बोलना।
मैं जो कर रहा हूँ, तू भी यही चाहती है।
इस तरह घायल लुकडया को पोसना।
वह अच्छा हो जाय, उसकी हड्डी जुड़ जाय। तू भी चाहती है।
यह जो तुम दो टोलियों के बीच मरण का खेल चल रहा है, केवल उसी के लिये तुमने मुझे यहाँ नही स्वीकारा है।
वह एक कारण तो है।
मुझमें शक्ति है। तुम्हारे चार आदमियों की शक्ति मुझ अकेले में है।
लेकिन क्या यही एक कारण है मुझे यहाँ रखने का?
बाई ने उसके हाथ अपने कंधे से अलग किये। उसके दोनों गालों को स्पर्श करते हुए बोली--
तू केवल कोमल के लिये नही आया है न?
तो मैंने भी केवल मरण के खेल में बस्ती की शक्ति बढाने के लिये तुम्हें नही लिया है।
बाई के ममता भरे स्पर्श से फेंगाडया हरषाया।
बाई हंसते हुए कहने लगी-
तू भी आदमी है। लेकिन इन बाकी आदमियों की तरह नही।
तू पेड़ की तरह है। आधार देने वाला। देवा की आवाज अपनी छाती में सुनने वाला।
यह आदमियों की बस्ती है। कोई भैंसे या सूअरों का झुण्ड नही।
केवल पिलू जनते रहने से क्या होता है? यहाँ उष्मा चाहिये, ममता चाहिये। एक दूसरे को आधार देने की
बात चाहिये।
फेंगाडया का चेहरा खिल उठा। उसका सारा तनाव दूर हो गया।
वह उठ कर नाचने लगा। थयथय थयथय।
फिर रुक गया। बाई के पास बैठते हुए बोला-- यही देखी थी मैंने--
यही बस्ती।
अलाव, नाच, धान, पिलू! रोज रोज देखता था यही बस्ती।
बाई के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। गंभीर होकर बोली
लेकिन कल होगा यहाँ मरण का खेल। नरबली टोली वाले भरमा गये हैं। लेकिन इसका क्या उपाय?
फेंगाडया का शरीर फिर से तन गया। वह चिल्लाया--
हॉ, सच है। अभी देर है।
मेरी देखी बस्ती पाने में अभी देर है।
बीच में है यह मरण की आंधी। मैं लडूँगा इस आंधी से।
देवा, मुझे शक्ति देना। शक्ति देना।
बाई उठी। उसे दुलराते हुए उसका एक चुम्बन लिया और चली गई।
फेंगाडया अपने शरीर की थरथरी लिये खड़ा रहा। दूर नदी बहती रही, बहती रही।
------------------------------------------------------------------------





॥ ७३॥ बाई और कोमल की बातचीत ॥ ७३॥

॥ ७३॥ बाई और कोमल की बातचीत ॥ ७३॥

बाई और कोमल- दो ही।
बाई थकी हुई। बैठ गई। आंखें बुझी हुईं।
कोमल आगे आई।
क्या हुआ बाई?
बहुत चिन्ता होती है.... बहुत।
मैं थक गई। मैं तो मर जाउँगी।
तू है अगली बाई।
कोमल सुनती रही। बाई बोली--
मैंने बहुत जीवन देखा है।
जानवर, धूप, भूख, नदी का उफान।
एक के बाद एक आदमी का हग हग कर मरना। बहुत कुछ।
आदमी और सू जमनेंगे तो यह सब भी होता ही रहेगा।
लेकिन अब? अब आदमी ही आदमी को मारेंगे।
यह पहले नही था। यह बहुत भयानक है। भयानक....
क्यों आदमी ही आदमी को मारे?
जानवर मारते हैं भूख मिटाने को।
आदमी की कौनसी भूख मिटेगी इससे?
सू से जुगना हो, आदमी जुग सकता है।
धान खाना चाहे, खा सकता है।
शिकार करना चाहे कर सकता है।
आदमी को मारने की कौनसी भूख?
एक ही भूख है यह, एक ही।
बाई मानों अपने आप को समझा रही थी।
दूसरे से ऊँचा दीखने की। उसे नीचा करने की।
एक आदमी की औरों से ऊँचा होने की भूख।
यही भूख रही है आदमियों में।
पायडया भी चिढ जाता था जब जब मैं जुगने के लिए किसी और को बुलाती थी।
धान की भूख अलग है। थोडा कम हो या पूरा, भूख मिटी तो आदमी शांत हो जाता है।
लेकिन ऊँचा दीखने की भूख वैसी नही।
इससे निकलती है औरों को मारने की भाषा, सू को पकडकर जुगने की लालसा।
कोमल की आँख से आँसू बहने लगे। बाई उसे हिलाकर बोली--
रो मत। तुझे यह सब संभालना है, बाईपना निभाते हुए।
अब बाईपना तेरे पास। मेरे दिन निकल गए।
इस मरण के खेल को बढने न देना।
अगर ऐसी आदमी को मार डालने की रीत बनती गई तो बाईपने का अन्त हो जाएगा। किसी सू का बाईपना नही रहेगा।
आदमी आज सीधे हैं। उनके पास कुछ नही है शिकार के सिवा।
आज सू के हाथ में सब कुछ है--
पिलू देना, धान उगाना, सब कुछ सू के हाथ में है।
इसीसे बाईपना सू के हाथ में है।
लेकिन जब आदमी मारने का खेल चलेगा तो सू क्या करेगी?
सू के पास ताकद नही है।



ताकद है आदमी के पास। वह कहेगा-- बस्ती मैंने बचाई, मैं ही मुखिया।
वही छीन लेगा बाईपना।
कोमल ने सिर हिलाया-- फेंगाडया वैसा नही है।
वह नही है, ठीक। लेकिम अगर वह मर गया.. फिर?
लकुटया, सोटया, पंगुल्या, ये तो फेंगाडया नही हैं।
सोटया उठ गया था उस दिन लाठी लेकर मारने को।
कोमल थरथराई।
आज बाईपना सू के पास है इसीलिए है यह धानपूजा-- रक्तगंधाई सू की पूजा।
इसीलिए हमारी टोली नाचती है, हँसती हे, बढती है।
लेकिन एक बार आदमी आ जाए बाई की जगह, फिर उसे दूर नही किया जा सकेगा।
वैसा हुआ तो बस्ती का मरण निश्च्िात है।
आदमी का मरण है।
उँचा होने जैसा क्या है आदमी के पास
पिलू को जनम दे नही सकता।
ताकद के सिवा क्या है उसके पास
जिसके पास अधिक ताकद वही मुखिया। जिसके पास और भी अधिक वह उससे आगे मुखिया।
ये सब आँधी लानेवाले हैं।
मैं देख रही हूँ आँधी। वह और कर भी क्या सकती है पेड उखाडने के सिवा।
आँधी को ही आना है तो फिर क्या अर्थ बचा बीज में, उसकी कोंपल में, और धान में?
क्या अर्थ बचा सू की रक्त नहाई जाँघों का, पिलू जनते हुए सही गई वेदना का, आप मरकर पिलू जननेवाली सूओं का? उन पिलूओं का? दूधभरे थानों का?
बाई हताशा से बैठ गई।
कोमल छोटी पिलू सी हो गई। उससे लिपट गई।
दूर डूबते सूरज को दोनों देखती रहीं। उधर से आनेवाली आँधी.....
रों रों घूमती हवा, और औंढया देव के पेड का गदगदाना।
--------------------------------------------------------------

॥ ७२॥ चांदवी की रात आती है ॥ ७२॥

॥ ७२॥ चांदवी की रात आती है ॥ ७२॥

पूरे चंद्रमा की रात।
धानबस्ती का पूरा झुण्ड उकडूँ बैठा हुआ।
सामने औंढया देव का पेड। उसका चौडा तना।
जमीन से ऊपर आई जडें।
पवन थमा हुआ। केवल नदी का हलका स्वर।
पायडया उठा। मंतराया हुआ धान उसने चारों ओर फेंका।
आओच् आओच् औंढया.....। वह चिल्लाया।
फिर बाई के पास बैठ गया।
सारे स्तब्ध थे। पायडया भी।
चांदवी अकेली.... दूर खडी थरथरा रही थी।
फेंगाडया की आंखें उस पर टिकीं। वह किसी तरह हंस दी। फिर सिहर गई। अनायास उसका हाथ जाँघ पर गया।
वह रक्तगंधाई थी। आज पहली बार।
कोमल पिलू लेकर आगे आई। उसने हाथ से चांदवी को खींचा।
फेंगाडया आश्चर्य में था।
रक्तगंधाई सूओं को पहले देख चुका था। लेकिन जो पहली बार रक्तगंधाई हो ऐसी यह सू थी।
कोमल चांदवी को आगे ले आई। बाई ने उसे गले से लिपटाया। कोमलता से उसके गाल चूम लिए।
चांदवी औंढया के पेड के नीचे जा रुकी। पायडया ने मंतराया धान उस पर फेंका।
सारी स्तब्धता फेंगाडया के लिए असह्य हो चली।
सारी बस्ती चुपचाप।
एक अनामिक प्रकाश चांदवी के चारों ओर।
कोमल आगे आई। अपना पिलू उसने चांदवी के थान से लगा दिया।
चांदवी थरथराई।
पिलू रोने लगा।
बाई उठी। बोली-- और एक सू आज रक्तगंधाई है। औंढया की कृपा रही तो यही भी पिलू देगी। सू पिलू। बस्ती बढाने वाली सू पिलू। वह आगे दूसरे सू पिलू देगी।
औंढया देव अपनी बस्ती पर इसी तरह प्रकाश बरसाता रहेगा।
सबने गर्दन हिलाई।
चांदवी ने अनायास फेंगाडया की ओर देखा।
कोमल की आंखों ने चांदवी की आंखें देख लीं। वह हंसी। उसने फेंगाडया को इशारे से बुला लिया।
वह आगे आया। पास बैठी लंबूटांगी पत्थर बन गई।
चांदवी का हाथ कोमल ने फेंगाडया के हाथ में दिया।
लंबूटांगी थूकी।
सारे हंसे।
फेंगाडया की छाती में कुछ बजने लगा। उसने चांदवी को खींच लिया।
झोंपडी में.... उस झोंपडी में। कोमल पुटपुटाई।
झोंपडी? फेंगाडया ने पूछा।
हां।
क्यों?
वह झोंपडी इसी दिन के लिए है। किसी सू के पहले आदमी के लिए।
कोमल ने उसे ढकेला। असमंजस में फेंगाडया झोंपडी की ओर चला। पीछे पीछे चांदवी।
अलाव पर खप्परों में भर भर कर धान रटरटाता रहा।
-----------------------------------------------------------



॥ ७१॥ लकुटया डट जाता है फेंगाडया के विरोध में ॥ ७१॥

॥ ७१॥ लकुटया डट जाता है फेंगाडया के विरोध में ॥ ७१॥

उंचाई वाले मोड़ पर पहरे के लिये लकुटया और सोटया थे। और भी कुछ लोग इधर उधर बिखरे थे।
लकुटया थूका। वह फेंगाडया -- कल का आया हुआ।
आज आगे है। क्यों? बाई कहती है इसलिये? कोमल कहती है इसलिये?
सोटया हंसा।
क्यों हंसता है? लकुटया ने पूछा।
वे सब आये बस्ती पर। तब मैंने उनका मरण चाहा था। तब तू पीछे रह गया था।
आज देख.......तू ही देख।
सोटया ने इशारा किया।
लकुटया ने उतराई से नीचे देखा-
दूर..... नीचे दो छोटे धब्बे थे। फेंगाडया और कोमल। एक साथ। क्रोध से लकुटया काँपने लगा। अंगार सा बोला- मैं मार डालूँगा।
किसे?
फेंगाडया को। उस पंगुल्या को भी। फिर जुगूँगा उस उंचाड़ी के साथ।
सोटया आगे आया। चूप। आवाज संभाल अपनी।
लकुटया क्षणभर चुप हो गया। फिर फुसफुसाकर बोला-
आएगा?
कहा?
मेरे साथ। आज रात को।
कहाँ?
रात में फेंगाडया मरेगा।
पायडया ने भी ऐसे ही मारा था भैंसाडया को। बड़ा मत्त हो गया था। पुरानी बाई ने आज्ञा की पायडया को। मार दिया उसे।
आज ये बाई ही भरमा गई है।
पंगुल्या को, उस घायल लुकडया को धान दे रही है। फेंगाडया के कहने पर दे रही है। कोमल के कहने पर दे रही है। थू....।
इधर नरबली टोली का आक्रमण धानबस्ती पर! और बाई ऐसे जखमी पंगु लोगो को पोस रही है।
नही।
धानबस्ती बचानी है तो फेंगाडया को मरना पड़ेगा। मरना ही पड़ेगा।
लकुटया फिर चीखा।
सोटया कांप गया। उसने पूछा- कैसे?
रात को चलना। उसके सर पर पत्थर मार कर फोड़ देंगे।
केवल पायडया समझ सकेगा। और बाई। बाकी किसी को कुछ पता नही चलेगा।
सोटया ने गर्दन हिलाई।
लुकडया, पंगुल्या, लंबूटांगी, फेंगाडया.....
सब मरने चाहिये। लकुटया अपनी लाठी तौलते हुए बोला।
मैं पुकार लूँगा तुझे।
सोटया ने गर्दन हिलाई और उसके पीछे चलने लगा।
--------------------------------------------------------------------------

॥ ७०॥ फेंगाडया देखता है धान की गीली मिट्टी ॥ ७०॥

॥ ७०॥ फेंगाडया देखता है धान की गीली मिट्टी ॥ ७०॥

कोमल की झोंपड़ी भर गई थी जंगल के मँहमँहाते सफेद फूलों से। एक एक फूल कोमल ने अपने हाथ से रचा था। फूलों को ढेर में केमल लेटी थी। केश खुले हुए। छाती में वेगवान धडकन।
सुगन्ध की लहर उसके नथुनोंमें समा गई। वह थरथराई। पास में फेंगाडया चित लेटा हुआ। गहरी नींद में। मंद गति से साँस लेता।
कोमल हँसी। धानबस्ती में उनका पहला जुगना।
अपार सुखसे वह मुडी। शरीर से चिपके फूल ऊपर आ गए।

जाँघों में फूल, छाती में फूल। वह फिर थरथराई।
फेंगाडया को फिर से देखने लगी। उसके और चीते के बीच डटा हुआ फेंगाडया। मजबूत बाँहों से उसे उठा लेना, फेंगाडयाके कंधे में गडते हुए उसके थान। उस दिन ग्लानी में भी वह कैसी  थरथराई थी।
उसका हाथ छाती पर पडा तो फेंगाडया जाग गया। तडाक्‌ से उठ गया। पलभर बौखलाया। फिर उसे समझ आया कि वह धानबस्ती में है, कोमल की झोंपडी में।
बाहर भोर हो रही थी। उसने कोमल का चेहरा हाथ में ले लिया। सोई नहीं?
अं हं। तुम्हें सोच रही थी। तुम्हारा साथ, तुम्हारा जुगना।
उसके शरीर पर चिपके एकेक फूल को चुनते हुए फेंगाडया फुसफुसाया--
मेरा जुगना ही क्यों? क्या पहले कभी जुगी नही किसी के साथ?
उसका चेहरा हाथ में लेकर कोमल बोली--
एक बार लकुटया से जुगकर आई तो बाई ने मुझसे पूछा था--
तू पहलीवाली सू है या बदल गई?
मैंने पूछा जुगने के बाद क्या सू बदल जाती है?
बाई हँसी, बोली-- समझेगी कभी तू भी। हर आदमी के साथ नही। किसी एक ही आदमी के साथ, एक ही बार जुगकर। कभी मिलेगा तुझे ऐसा आदमी तब समझेगी तू।
वह जुगना औरों के साथ जुगने जैसा नही होगा। औरों के साथ जुगना मानों कातल पर धान फेंकना।
कातल थरथराता नही, धान को अपने अंदर समाता नही।
खरा जुगना होता है पावस में धान की मृदुल मिट्टी पर धान फेंकने जैसा। मिट्टी में लहरें उठती हैं। गीली चिकनी लहरें, धान उसमें समा जाता है। वैसा होता है वह जुगना-- बाकी जुगने से अलग।
तब नही समझ पाई थी कि बाई क्या कहती है। तुम्हारे साथ आज का जुगना वैसा था।
ये जुगना अलग था। आंधी की तरह नहीं। पावस की फुहारों जैसा-- धीमा धीमा, धान की मिट्टी में समानेवाला।
फेंगाडया की आँखें फैल गईं।
आज दोपहर कोमल ने उसे धान की जगह दिखाई थी। वहाँ मिट्टी अलग थी।
मृदुल...... कोमल के केशों की तरह।
उसने कहा था-- वर्षा भी होती है अलग अलग तरह की।
एक गरमी की वर्षा- आंधी के साथ आती है, वेग से। और चली जाती है उसी वेग से। जमीन को केवल ऊपर से गीला करती है। बस। दूसरी वर्षा आती है हल्के हल्के। देर तक। एक लय से नाचती हुई- जमीन के अंदर चली जाती है।
जमीन से उठती है मिट्टी की गंध। और मिट्टी में बनते हैं आकार- उठते हुए गिरते हुए। नदी की लहरों की तरह मिट्टी में भी लहरें बनती हैं। उन परतों में पानी छिपता जाता है- और नीचे, और नीचे।
पूरी मिट्टी नीचे तक गीली होकर कीचड हो जाती है।
उनपर धान फेंको तो मिट्टी की परतों में धंसता जाता है- नीचे तक।
मिट्टी में समा जाता है।
मिट्टी की उष्मा लेकर अंकुरित होने लगता है।
वह वर्षा अलग होती है।
धान की वर्षा।
आंधी की वर्षा से अलग।
धीमी धीमी, नाचती हुई।
मिट्टी को मृदुल बनाती हुई।
ताकि धान उसमें समा सके।
तू भी देखेगा फेंगाडया वह वर्षा।
अचानक कोमल को पास खींचते हुए फेंगाडया बोला--
अब समझा बाई ने जो कहा था-- वह धान को अपने अंदर समा लेनेवाली मिट्टी-- गीली चिकनी लहरोंवाली-- वह तू है।


फेंगाडया ने उसे दृढ आलिंगन में ले लिया। उसकी बाँहों में समाती हुई कोमल की सांस अटकने लगी।
----------------------------------------------------------------------


॥ ६९॥ बापजी और भडकाता है वाघोबा टोली को ॥ ६९॥

॥ ६९॥ बापजी और भडकाता है वाघोबा टोली को ॥ ६९॥

बहुत बहुत सावधान रहना पडेगा अब। बापजी ने अपना दुखता पैर सीधा करते हुए बैठक की जगह से ही समझाया।
आज उंचाडी और पंगुल्या पहुँच गए होंगे धानबस्ती पर। वह गुरगुराया।
थूच् .....। मरण आने दो उन्हें। लाल्या चिल्लाया।
बापजी फिर गुर्राया। इतनी सीधी बात नही है।
वह पंगुल्या अपनी मंतराई हुई हड्डियाँ भी साथ ले गया है।
सबके सिर डोले।
वे सारे मंत्र बाई को मिलेंगे। उसकी ताकद बढेगी।
फिर सबके सिर डोले। चेहरों पर चिन्ता छा गई।
एक सू उठी। हूँच्हूँच्हूँच्हूँच्- ......। वह उलटी सीधी डोलने लगी।
जय वाघोबा। लाल्या चिल्लाया। इस सू के शरीर में वाघोबा आ गया है।
बापजी आगे बढा। उस सू के सामने भुँई पर लोटते हुए बोला-
वाघोबा, तेरा रक्षण करने की ताकद हमें दे।
सू...... वाघोबा हंसा।
क्यों हंसता है?
हरेक झोंपड़ी में एक दो हड्डियाँ होंगी। उन्हें ढूँढो। एकत्रित करो।
करेंगे, वाघोबा।
आज.... अभी।
हाँ।
उस पर रक्तगंधाई सू का रक्त छिड़को। हमारी, यहाँ की सू का। उसकी बली दो। उसके मृतात्मा की ताकद उन हड्डियों को दो।
देंगे, वाघोबा।
वे हड्डियाँ सामने रखो। रोज उन पर फूल चढाओ।
बली के दिन बली का रक्त चढाओ।
हाँ, वाघोबा।
फिर पंगुल्या की हड्डियाँ कुछ नही कर सकेंगी। फिर उदेती टोली का मरण।
वह नाचती रही।
बीच ही में रुक गई।
भूख.... वाघोबा को भूख।
वह बेसुध सी पड़ गई।
जाओ.... बली लाओ....रक्तगंधाई सू लाओ।

बुढिया आगे आई।
नही, नही बापजी। रक्तगंधाई सू की बली मत चढाओ।
वह पिलू देती है। वह मरती भी है। लेकिन पिलू देकर मरती है।
पुरानी रीत है ये। सभी टोलियों की। रक्तगंधाई सू का रक्त बहुत मंतराया होता है। उसकी बली नही बनाते।
वह सू ही बनाती है टोली के कल की बस्ती। उसे मत मिटाओ। टोली को मत मिटाओ।
देखो यह शैतान। लाल्या फुंकारा।
उस बाई की भेजी हुई यह शैतान।
सू को सू की साथ।
कहती है- पुरानी रीत। थूच्च्
आज से सारे नियम नए- मैं बनाऊँगा।
जो मैं कहूँगा- वही नियम।
यह बुढिया बाई बनना चाहती है। बाई।
इतने दिन आदमियों की लाई शिकार खाती रही।
अब आगे आई है। रीत सिखाने के लिए। थूच्
सबने थूच् किया। बुढिया कांपती हुई दूर जाकर बैठ गई।
कौन सू आगे आती है? कौन सू? बापजी ने पुकारा। टोली के लिए कौन बली होगी?
चारों ओर स्तब्धता छा गई।
सूओं सूनो। आज यह वाघोबा टोली तुमसे तुम्हारा रक्त मांगती है।
टोली के लिए।
आज जो सू आगे आएगी, जो बली होगी, वह मरेगी नही कभी भी।
वही जीवित रहेगी टोली में।
उदेती की बाई का मरण हमारी टोली की सू के बली से होगा।
हमारे पिलू बचेंगे, बढेंगे, और टोली को आगे बढाएंगे।
उसकी कहानी सब कहेंगे। कहेंगे-
यह सू उस आडे समय में सामने आई- कहा- मैं बली जाती हूँ टोली के लिए।
हमारे पिलू के पिलू होंगे। वे यह कहानी सुनेंगे।
फिर वे भी अपने पिलूओं को यही कहानी सुनाएंगे।
मैं बापजी..... यह लाल्या..... जब मरेंगे तो मर जाएंगे।
लेकिन वह सू, मरकर भी जीती रहेगी।
जब तक सूरज है, चंद्रमा है, वाघोबा है।
तबतक आदमी बात करेंगे इस सू की।
कोलाहल हुआ।
दो चार सूओं ने एक छोटी सू को घेर लिया था।
यह....
इसने कहा- मैं बली जाऊंगी....।
ये ये झिपरी.....
यह झिपरी, जय। सारे चिल्लाये।
बापजी का चेहरा उग्र। आंखे विषभरी।
देवाच् ....., यह सुकुमार सू.....। अभी पिलू ही है।
आज उसे घेर लिया है..... जैसे भेडिए घेरते हैं।
वह भी अब उठेगी। देखते रहना बापजी।
गर्दन तान कर हंसेगी। सोचेगी--



बापजी सच कहता है। ये आदमी सच कहते हैं।
उसके मुँह में थूक आ गया।
लाल्या कहे वह नियम..... खरा नही है वो।
जीने के लिए..... अंदर के स्वर के साथ झगडता है ये नियम।
यह सू..... जो पिलू थी कल तक.... उसे लगता है, वह टोली के लिए मर रही है।
सोचती है वह कितनी उंची हो गई है सबसे।
जो सारी सूएं नही कर पाईं..... आज वो सब छोटी हो गईं और मैं ऊंची।
क्योंकि वह टोली के लिए मर रही है।
टोली के लिए मरनेवाली सू उंची।
नाच आरंभ हुआ। बापजी चौंक गया। वह छोटी सू उसके पांवों में माथा टेक रही थी।
बापजी ने अपने को संभाला। चिल्लाया- जय वाघोबा।
लपटें उफनने लगीं। लाल्या हरषा गया।
सबने बली की सू को घेर लिया।
वह उन्माद में आ गई। आडी तिरछी नाचने लगी। अलाव की ओर जाने लगी। आंच के पास आते ही पीछे हटी।
लाल्या तडाक्‌ से उठा- जय झिपरी।
सारे चिल्लाये- जय झिपरी।
लाल्या आगे बढा। सू हिरनी की तरह कांपी।
उसकी गर्दन हिली- नही, नही।
छोटी सी सू....नवेला चेहरा.... छाती में छोटे से उभार। अभी कुछ दिन पहले ही रक्तगंधाई थी।
लाल्या की लाठी आगे आई।
सू के पीछे लपटें उठ रही थीं।
लाल्या ने लाठी से ढकेला।
वह अलाव में गिरी। ज्वालाओं ने उसे अपने में लपेट लिया।
फिर उन्माद छा गया- जय झिपरी।
जय बाघोबा।
नाच नाच कर थक गए।
कोलाहल हुआ- मुझे, मुझे।
भुनी हुई सू के मांस के टुकडे लाल्या ने अपने हाथों से बांटे।
टुकड़े को मुँह में लेते ही बापजी सिहर उठा। उसके सामने जंगल डोलने लगा।
टीसता पांव घसीटते हुए, टुकडे को मुँह में रखे बापजी दूर हट गया।
पेड के नीचे बैठा। मांस थूक दिया।
अकेला ही सारा पागलपन देखता रहा।
जय वाघोबाच्। गर्जनाओं ने उसे घेर लिया।
----------------------------------------------





॥ ६८॥ फेंगाडया का झुण्ड धानबस्ती में ॥ ६८॥

॥ ६८॥ फेंगाडया का झुण्ड धानबस्ती में ॥ ६८॥
उंचाडी और लम्बूटांगी एक दूसरे को पकड़कर थरथरा रही थी। पंगुल्या अस्वस्थ था।
बाई, पायडया शांत।
चारों ओर धानबस्ती के आदमी, सू, पिलू की भीड़।

अचानक एकआंखी उठी। उसका पेट अब आगे निकल रहा था। अंदर पिलू था।
वह पंगुल्या के पास आई और चीखते हुए उसका गला पकड़ लिया।
मारो, मारो इसे.....। यह वाघोबा बस्ती से है।
फेंगाडया तन गया।
सोटया उठा। अपनी लाठी को तोलने लगा।
मरण। एकआंखी ने आक्रोश किया- पंगुल्या को मरण।
उंचाडी थरथरा रही थी। पंगुल्या ने आंखें भींच लीं।
आखिर उसे यही मिलना था- मरण।
उसने आँखें खोलीं और बाई को देखा।
बाई ठण्डी आंखों से उसे देख रही थी।
यह तो होना ही था- वह पुटपुटाई।
एकआंखी फिर चिल्लाई- इसे मरण।
वह पच्च से थूकी- पंगुल्या के चेहरे पर।
सारे उन्माद में भर गए। कई सूएँ आगे आईं।
पंगुल्या पर थूकी।
गीला थूक उसकी छाती और गले पर रेंगने लगा।
लुकडया अलग पडा था। उसकी आंखों से भय छलकता हुआ।
फेंगाडया ने चारों ओर देखा।
क्या नही है आदमी की आँखें?
इतनी विषभरी? इतनी झूठी?
उसने कोमल को देखा। वह थरथरा रही थी। उसकी आंखों में भी भय था।
सामने बड़ा जानवर आ जाए, सांप आ जाए, तो आंखों में भय छा जाता है। फेंगाडया ने वह छाया देखी थी। वह अलग थी।
यह भय की छाया अलग थी।
आदमी को आदमी का भय।
उसने पंगुल्या को देखा।
उसकी आंखें स्थिर थी। देह थरथरा रही थी लेकिन आंखें शांत।
उसे पता था कि क्या अटल है। उसके बस में कुछ नही था।
पायडया घुटनों में सिर देकर यह देखना टाल रहा था।
बाई की आंखें भी बेसुध। वे केवल देख रही थीं।
एकआंखी फिर से उन्माद में भर गई। फिर चिल्लाई- मरण.....इसे मरण।
और इसे हर आदनी जुगेगा-- उसने उंचाडी को केश से पकडकर खींचते हुए कहा।
फेंगाडया थरथराया।
सब झूठ था। सब मरण के लिए था।
कोमल ने अपना पिलू कसकर भींच लिया। हुमक हुमक कर रोने लगी। उठकर बाई से लिपट गई।
बाई तन गई।
सोटया ने इशारा किया।
चार आदमी लाठी लेकर आगे आए। फेंगाडया की आंखें चौंधियाईं।
उस रात उसने क्या देखा था? क्या था वह?
वह बस्ती..... वह अलाव..... वह बतियाना।
और आज यह क्या देख रहा है?
वह सच था या यह?
लुकडया की भयभीत आँखों।
कोमल इस तरह..... थरथराती हुई।
उंचाडी, वहाँ औंधी पडी हुई।
पंगुल्या..... चुप्प।
देवाच् फेंगाडया ने मन ही मन आक्रोश किया।
मुझे ताकद दे।
मेरा आना ऐसा होगा इस टोली में? थू.....।
मरण? आने दो मेरे लिए।
लेकिन मैं इन्हें रोकूँगा।
यह सच नही है।
इसके लिए टोली नही बनी है।
आदमी आदमी को मारे इसके लिए टोली नही है। बापजी..... टोली इसलिए नही है।
फेंगाडया बिजली की तरह फुंकारा।
पंगुल्या को अपने पीछे खींचकर उसने चीते के झपटने की तरह पैंतरा लिया। सोटया थमक गया। उसकी आँखे लाल हो गईं।
वह चकरा गया।
सामने यह आदमी..... कभी न देखा हुआ।
लेकिन ताड की तरह उँचा और भैंसे सा मजबूत।
उसकी देह शांत।
आंखें गहरी...... नदी के डोह जैसी।
निश्चय उसकी सांसों से टपकता हुआ। उसके पैरों बीच दीख रहा है  पंगुल्या.... थरथराता हुआ...... पीछे औंधी पडी हुई उंचाडी.... वह भी काँपती हुई।
कोमल ने आंखे खोलीं।
सामने वही फेंगाडया।
वही पैंतरा.... जैसा उसने पहले दिन देखा था।
उस पर हमला करने के लिए आगे आए चीते को ललकारने वाला।
चीते को वापस मोड देने वाला।
फेंगाडया च् ....
एक आवेग से चीख कर उसने अपना पिलू बाई की हाथों में दबा दिया और भागकर फेंगाडया के आगे खड़ी हो गई।
नही सोटया..... नही।
उसी आवेग से वह एकआंखी से जा भिड़ी।
पेट में पिलू है तेरे.....। नया....।
सुन मेरी बात। एक नक्षत्र, एक पिलू।
औंढया देव की कृपा से नक्षत्र उतरा है तेरे पेट में- एक जीवन लेकर। और तू मरण माँगती है?
अरी, तू पिलू मांग..... मांग कि उसका रोना सुन सके। उसके लिए जी सके।
उसके लिए दूधभरे थान मांग।
तू बाई बने यह मांग।
तू इनके लिए मरण मांगती है?
पायडया ने सिर उंचा किया। उसकी नजर नदी की तरह तरल हो गई। उसे साफ दीखा। उनींदापन निकल गया। उसने देखा..... कोमल को, फेंगाडया को।
उसकी छाती में प्रकाश कौंध गया।
वह उठा। उसने सोटया को रोक लिया। उसे मजबूती से अपनी जगह बिठा दिया।
एकआंखी के पास जाकर उसे हिलाते हुए बोला।
तू.... इस उदेती में नए आने वाले पिलू की सू है। तू कहेगी वैसा ही होगा।
लेकिन पहले सुन कोमल क्या कहती है। फेंगाडया क्या कहता है।



यह पंगुल्या, उंचाडी, लुकडया......।
ये अपनी बस्ती में आए पंछी हैं।
दूर से आए हैं। उन्हें धान दे, पानी दे.....।
नक्षत्रों की वर्षा दे।
वह छोड़ उन्हें मरण देती है तू?
औंढया देव थूकेगा तुझ पर.... इस बस्ती पर......।
सारे बह जाएंगे उस थूक के रेले में। बिजली गिरकर सब जल जाएंगे उसके क्रोध से। एकआंखी शांत हो गई। सभी स्थिर होकर पायडया को सुनने लगे।
फेंगाडया ढीला हो गया।
सोटया की लाल आँखें नीची हो गईं।
एकआँखी कांपती हुई कोमल की बांहों में आ गई।
पंगुल्या ने आंखे खोलीं। वह हंसा।
उंचाडी उठी। पंगुल्या के सिर को सहलाती हुई उससे लिपट गई।
आदमी हिले। अलाव जलाने में जुट गए।
छोटे छोटे झुण्डों में बैठकर बतियाने लगे।
बाई हंसी- पहला संकट दूर हुआ।
उसने पिलू को जमीन पर रख दिया।
फेंगाडया के सामने आकर उसे भरपूर आँखों से देखा।
वह फिर हंसी....। यह होगा अगला वृक्ष..... छांव देने वाला।
उसने फेंगाडया को बांहों में लिया।
फेंगाडया थरथराया। उसके उष्ण स्पर्श से ढीला होकर सुख में भरने लगा।
बाई ने फेंगाडया को चूम लिया और हट गई। कोमल के पास आकर उसे भी चूम लिया। फिर धीर पैरों से अपनी झोंपडी की ओर चल दी।
पिलू रोया।
फेंगाडया सुध में आया।
जमीन पर पिलू हाथ-पैर फेंककर रो रहा था।
उसने धीरे से पिलू को उठा लिया।
पहली बार वह इतने छोटे पिलू को देख रहा था।
वह पिलू को डुलाने लगा।
रोना बंद कर पिलू ने आंखे मिचमिचाईं और उसे देखा।
फेंगाडया की छाती में कुछ बजने लगा।
दौडकर वह पिलू को लुकडया के पास ले आया- देख.... तू भी कभी इत्ता सा था..... इस पिलू जितना।
मैं भी..... लम्बूटांगी भी.....।
किसी ने दूध पिलाया हमें।
किसी ने खाने को दिया।
तब हम इतने बड़े हुए। पेड जैसे।
यह पिलू..... इसे भी बडा होना है।
हाँ इसे भी बड़ा करना है।
उसे कोई बापजी नही चाहिए? हाँ चाहिए।
फेंगाडया ने लम्बी सांस खींची।
उसकी छाती में बहुत कुछ भर आया था।
वह कुछ कहना चाहता था।



पता नही क्या?
कहने के लिए कुछ सूझता नही था।
पिलू फिर रोने लगा। फेंगाडया उसे डुलाने लगा।
कोमल ने आकर पिलू ले लिया।
पीछे पीछे पायडया आया।
फेंगाडया की ओर देखकर हंसा।
गहरी आंखों से हंसा।
मानों कह रहा हो- मैं सब समझ गया।
फेंगाडया उन आँखों की हँसी को झेल नही पाया। उठकर अकेला ही नदी की ओर चल दिया।
------------------------------------------------------------