॥ ७०॥ फेंगाडया देखता है धान की गीली मिट्टी ॥ ७०॥
कोमल की झोंपड़ी भर गई थी जंगल के मँहमँहाते सफेद फूलों से। एक एक फूल कोमल ने अपने हाथ से रचा था। फूलों को ढेर में केमल लेटी थी। केश खुले हुए। छाती में वेगवान धडकन।
सुगन्ध की लहर उसके नथुनोंमें समा गई। वह थरथराई। पास में फेंगाडया चित लेटा हुआ। गहरी नींद में। मंद गति से साँस लेता।
कोमल हँसी। धानबस्ती में उनका पहला जुगना।
अपार सुखसे वह मुडी। शरीर से चिपके फूल ऊपर आ गए।
जाँघों में फूल, छाती में
फूल। वह फिर थरथराई।
फेंगाडया को फिर से देखने
लगी। उसके और चीते के बीच डटा हुआ फेंगाडया। मजबूत बाँहों से उसे उठा लेना,
फेंगाडयाके कंधे में गडते हुए उसके थान। उस दिन ग्लानी में भी वह कैसी थरथराई थी।
उसका हाथ छाती पर पडा तो
फेंगाडया जाग गया। तडाक् से उठ गया। पलभर बौखलाया। फिर उसे समझ आया कि वह
धानबस्ती में है, कोमल की झोंपडी में।
बाहर भोर हो रही थी। उसने
कोमल का चेहरा हाथ में ले लिया। सोई नहीं?
अं हं। तुम्हें सोच रही थी।
तुम्हारा साथ, तुम्हारा जुगना।
उसके शरीर पर चिपके एकेक फूल
को चुनते हुए फेंगाडया फुसफुसाया--
मेरा जुगना ही क्यों? क्या
पहले कभी जुगी नही किसी के साथ?
उसका चेहरा हाथ में लेकर
कोमल बोली--
एक बार लकुटया से जुगकर आई
तो बाई ने मुझसे पूछा था--
तू पहलीवाली सू है या बदल
गई?
मैंने पूछा जुगने के बाद
क्या सू बदल जाती है?
बाई हँसी, बोली-- समझेगी कभी
तू भी। हर आदमी के साथ नही। किसी एक ही आदमी के साथ, एक ही बार जुगकर। कभी मिलेगा
तुझे ऐसा आदमी तब समझेगी तू।
वह जुगना औरों के साथ जुगने
जैसा नही होगा। औरों के साथ जुगना मानों कातल पर धान फेंकना।
कातल थरथराता नही, धान को
अपने अंदर समाता नही।
खरा जुगना होता है पावस में
धान की मृदुल मिट्टी पर धान फेंकने जैसा। मिट्टी में लहरें उठती हैं। गीली चिकनी
लहरें, धान उसमें समा जाता है। वैसा होता है वह जुगना-- बाकी जुगने से अलग।
तब नही समझ पाई थी कि बाई
क्या कहती है। तुम्हारे साथ आज का जुगना वैसा था।
ये जुगना अलग था। आंधी की
तरह नहीं। पावस की फुहारों जैसा-- धीमा धीमा, धान की मिट्टी में समानेवाला।
फेंगाडया की आँखें फैल गईं।
आज दोपहर कोमल ने उसे धान की
जगह दिखाई थी। वहाँ मिट्टी अलग थी।
मृदुल...... कोमल के केशों
की तरह।
उसने कहा था-- वर्षा भी होती
है अलग अलग तरह की।
एक गरमी की वर्षा- आंधी के
साथ आती है, वेग से। और चली जाती है उसी वेग से। जमीन को केवल ऊपर से गीला करती
है। बस। दूसरी वर्षा आती है हल्के हल्के। देर तक। एक लय से नाचती हुई- जमीन के
अंदर चली जाती है।
जमीन से उठती है मिट्टी की
गंध। और मिट्टी में बनते हैं आकार- उठते हुए गिरते हुए। नदी की लहरों की तरह
मिट्टी में भी लहरें बनती हैं। उन परतों में पानी छिपता जाता है- और नीचे, और
नीचे।
पूरी मिट्टी नीचे तक गीली
होकर कीचड हो जाती है।
उनपर धान फेंको तो मिट्टी की
परतों में धंसता जाता है- नीचे तक।
मिट्टी में समा जाता है।
मिट्टी की उष्मा लेकर
अंकुरित होने लगता है।
वह वर्षा अलग होती है।
धान की वर्षा।
आंधी की वर्षा से अलग।
धीमी धीमी, नाचती हुई।
मिट्टी को मृदुल बनाती हुई।
ताकि धान उसमें समा सके।
तू भी देखेगा फेंगाडया वह
वर्षा।
अचानक कोमल को पास खींचते
हुए फेंगाडया बोला--
अब समझा बाई ने जो कहा था--
वह धान को अपने अंदर समा लेनेवाली मिट्टी-- गीली चिकनी लहरोंवाली-- वह तू है।
फेंगाडया ने उसे दृढ आलिंगन
में ले लिया। उसकी बाँहों में समाती हुई कोमल की सांस अटकने लगी।
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