Tuesday, 6 December 2016

॥ ७३॥ बाई और कोमल की बातचीत ॥ ७३॥

॥ ७३॥ बाई और कोमल की बातचीत ॥ ७३॥

बाई और कोमल- दो ही।
बाई थकी हुई। बैठ गई। आंखें बुझी हुईं।
कोमल आगे आई।
क्या हुआ बाई?
बहुत चिन्ता होती है.... बहुत।
मैं थक गई। मैं तो मर जाउँगी।
तू है अगली बाई।
कोमल सुनती रही। बाई बोली--
मैंने बहुत जीवन देखा है।
जानवर, धूप, भूख, नदी का उफान।
एक के बाद एक आदमी का हग हग कर मरना। बहुत कुछ।
आदमी और सू जमनेंगे तो यह सब भी होता ही रहेगा।
लेकिन अब? अब आदमी ही आदमी को मारेंगे।
यह पहले नही था। यह बहुत भयानक है। भयानक....
क्यों आदमी ही आदमी को मारे?
जानवर मारते हैं भूख मिटाने को।
आदमी की कौनसी भूख मिटेगी इससे?
सू से जुगना हो, आदमी जुग सकता है।
धान खाना चाहे, खा सकता है।
शिकार करना चाहे कर सकता है।
आदमी को मारने की कौनसी भूख?
एक ही भूख है यह, एक ही।
बाई मानों अपने आप को समझा रही थी।
दूसरे से ऊँचा दीखने की। उसे नीचा करने की।
एक आदमी की औरों से ऊँचा होने की भूख।
यही भूख रही है आदमियों में।
पायडया भी चिढ जाता था जब जब मैं जुगने के लिए किसी और को बुलाती थी।
धान की भूख अलग है। थोडा कम हो या पूरा, भूख मिटी तो आदमी शांत हो जाता है।
लेकिन ऊँचा दीखने की भूख वैसी नही।
इससे निकलती है औरों को मारने की भाषा, सू को पकडकर जुगने की लालसा।
कोमल की आँख से आँसू बहने लगे। बाई उसे हिलाकर बोली--
रो मत। तुझे यह सब संभालना है, बाईपना निभाते हुए।
अब बाईपना तेरे पास। मेरे दिन निकल गए।
इस मरण के खेल को बढने न देना।
अगर ऐसी आदमी को मार डालने की रीत बनती गई तो बाईपने का अन्त हो जाएगा। किसी सू का बाईपना नही रहेगा।
आदमी आज सीधे हैं। उनके पास कुछ नही है शिकार के सिवा।
आज सू के हाथ में सब कुछ है--
पिलू देना, धान उगाना, सब कुछ सू के हाथ में है।
इसीसे बाईपना सू के हाथ में है।
लेकिन जब आदमी मारने का खेल चलेगा तो सू क्या करेगी?
सू के पास ताकद नही है।



ताकद है आदमी के पास। वह कहेगा-- बस्ती मैंने बचाई, मैं ही मुखिया।
वही छीन लेगा बाईपना।
कोमल ने सिर हिलाया-- फेंगाडया वैसा नही है।
वह नही है, ठीक। लेकिम अगर वह मर गया.. फिर?
लकुटया, सोटया, पंगुल्या, ये तो फेंगाडया नही हैं।
सोटया उठ गया था उस दिन लाठी लेकर मारने को।
कोमल थरथराई।
आज बाईपना सू के पास है इसीलिए है यह धानपूजा-- रक्तगंधाई सू की पूजा।
इसीलिए हमारी टोली नाचती है, हँसती हे, बढती है।
लेकिन एक बार आदमी आ जाए बाई की जगह, फिर उसे दूर नही किया जा सकेगा।
वैसा हुआ तो बस्ती का मरण निश्च्िात है।
आदमी का मरण है।
उँचा होने जैसा क्या है आदमी के पास
पिलू को जनम दे नही सकता।
ताकद के सिवा क्या है उसके पास
जिसके पास अधिक ताकद वही मुखिया। जिसके पास और भी अधिक वह उससे आगे मुखिया।
ये सब आँधी लानेवाले हैं।
मैं देख रही हूँ आँधी। वह और कर भी क्या सकती है पेड उखाडने के सिवा।
आँधी को ही आना है तो फिर क्या अर्थ बचा बीज में, उसकी कोंपल में, और धान में?
क्या अर्थ बचा सू की रक्त नहाई जाँघों का, पिलू जनते हुए सही गई वेदना का, आप मरकर पिलू जननेवाली सूओं का? उन पिलूओं का? दूधभरे थानों का?
बाई हताशा से बैठ गई।
कोमल छोटी पिलू सी हो गई। उससे लिपट गई।
दूर डूबते सूरज को दोनों देखती रहीं। उधर से आनेवाली आँधी.....
रों रों घूमती हवा, और औंढया देव के पेड का गदगदाना।
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