Tuesday 6 December 2016

॥ ६८॥ फेंगाडया का झुण्ड धानबस्ती में ॥ ६८॥

॥ ६८॥ फेंगाडया का झुण्ड धानबस्ती में ॥ ६८॥
उंचाडी और लम्बूटांगी एक दूसरे को पकड़कर थरथरा रही थी। पंगुल्या अस्वस्थ था।
बाई, पायडया शांत।
चारों ओर धानबस्ती के आदमी, सू, पिलू की भीड़।

अचानक एकआंखी उठी। उसका पेट अब आगे निकल रहा था। अंदर पिलू था।
वह पंगुल्या के पास आई और चीखते हुए उसका गला पकड़ लिया।
मारो, मारो इसे.....। यह वाघोबा बस्ती से है।
फेंगाडया तन गया।
सोटया उठा। अपनी लाठी को तोलने लगा।
मरण। एकआंखी ने आक्रोश किया- पंगुल्या को मरण।
उंचाडी थरथरा रही थी। पंगुल्या ने आंखें भींच लीं।
आखिर उसे यही मिलना था- मरण।
उसने आँखें खोलीं और बाई को देखा।
बाई ठण्डी आंखों से उसे देख रही थी।
यह तो होना ही था- वह पुटपुटाई।
एकआंखी फिर चिल्लाई- इसे मरण।
वह पच्च से थूकी- पंगुल्या के चेहरे पर।
सारे उन्माद में भर गए। कई सूएँ आगे आईं।
पंगुल्या पर थूकी।
गीला थूक उसकी छाती और गले पर रेंगने लगा।
लुकडया अलग पडा था। उसकी आंखों से भय छलकता हुआ।
फेंगाडया ने चारों ओर देखा।
क्या नही है आदमी की आँखें?
इतनी विषभरी? इतनी झूठी?
उसने कोमल को देखा। वह थरथरा रही थी। उसकी आंखों में भी भय था।
सामने बड़ा जानवर आ जाए, सांप आ जाए, तो आंखों में भय छा जाता है। फेंगाडया ने वह छाया देखी थी। वह अलग थी।
यह भय की छाया अलग थी।
आदमी को आदमी का भय।
उसने पंगुल्या को देखा।
उसकी आंखें स्थिर थी। देह थरथरा रही थी लेकिन आंखें शांत।
उसे पता था कि क्या अटल है। उसके बस में कुछ नही था।
पायडया घुटनों में सिर देकर यह देखना टाल रहा था।
बाई की आंखें भी बेसुध। वे केवल देख रही थीं।
एकआंखी फिर से उन्माद में भर गई। फिर चिल्लाई- मरण.....इसे मरण।
और इसे हर आदनी जुगेगा-- उसने उंचाडी को केश से पकडकर खींचते हुए कहा।
फेंगाडया थरथराया।
सब झूठ था। सब मरण के लिए था।
कोमल ने अपना पिलू कसकर भींच लिया। हुमक हुमक कर रोने लगी। उठकर बाई से लिपट गई।
बाई तन गई।
सोटया ने इशारा किया।
चार आदमी लाठी लेकर आगे आए। फेंगाडया की आंखें चौंधियाईं।
उस रात उसने क्या देखा था? क्या था वह?
वह बस्ती..... वह अलाव..... वह बतियाना।
और आज यह क्या देख रहा है?
वह सच था या यह?
लुकडया की भयभीत आँखों।
कोमल इस तरह..... थरथराती हुई।
उंचाडी, वहाँ औंधी पडी हुई।
पंगुल्या..... चुप्प।
देवाच् फेंगाडया ने मन ही मन आक्रोश किया।
मुझे ताकद दे।
मेरा आना ऐसा होगा इस टोली में? थू.....।
मरण? आने दो मेरे लिए।
लेकिन मैं इन्हें रोकूँगा।
यह सच नही है।
इसके लिए टोली नही बनी है।
आदमी आदमी को मारे इसके लिए टोली नही है। बापजी..... टोली इसलिए नही है।
फेंगाडया बिजली की तरह फुंकारा।
पंगुल्या को अपने पीछे खींचकर उसने चीते के झपटने की तरह पैंतरा लिया। सोटया थमक गया। उसकी आँखे लाल हो गईं।
वह चकरा गया।
सामने यह आदमी..... कभी न देखा हुआ।
लेकिन ताड की तरह उँचा और भैंसे सा मजबूत।
उसकी देह शांत।
आंखें गहरी...... नदी के डोह जैसी।
निश्चय उसकी सांसों से टपकता हुआ। उसके पैरों बीच दीख रहा है  पंगुल्या.... थरथराता हुआ...... पीछे औंधी पडी हुई उंचाडी.... वह भी काँपती हुई।
कोमल ने आंखे खोलीं।
सामने वही फेंगाडया।
वही पैंतरा.... जैसा उसने पहले दिन देखा था।
उस पर हमला करने के लिए आगे आए चीते को ललकारने वाला।
चीते को वापस मोड देने वाला।
फेंगाडया च् ....
एक आवेग से चीख कर उसने अपना पिलू बाई की हाथों में दबा दिया और भागकर फेंगाडया के आगे खड़ी हो गई।
नही सोटया..... नही।
उसी आवेग से वह एकआंखी से जा भिड़ी।
पेट में पिलू है तेरे.....। नया....।
सुन मेरी बात। एक नक्षत्र, एक पिलू।
औंढया देव की कृपा से नक्षत्र उतरा है तेरे पेट में- एक जीवन लेकर। और तू मरण माँगती है?
अरी, तू पिलू मांग..... मांग कि उसका रोना सुन सके। उसके लिए जी सके।
उसके लिए दूधभरे थान मांग।
तू बाई बने यह मांग।
तू इनके लिए मरण मांगती है?
पायडया ने सिर उंचा किया। उसकी नजर नदी की तरह तरल हो गई। उसे साफ दीखा। उनींदापन निकल गया। उसने देखा..... कोमल को, फेंगाडया को।
उसकी छाती में प्रकाश कौंध गया।
वह उठा। उसने सोटया को रोक लिया। उसे मजबूती से अपनी जगह बिठा दिया।
एकआंखी के पास जाकर उसे हिलाते हुए बोला।
तू.... इस उदेती में नए आने वाले पिलू की सू है। तू कहेगी वैसा ही होगा।
लेकिन पहले सुन कोमल क्या कहती है। फेंगाडया क्या कहता है।



यह पंगुल्या, उंचाडी, लुकडया......।
ये अपनी बस्ती में आए पंछी हैं।
दूर से आए हैं। उन्हें धान दे, पानी दे.....।
नक्षत्रों की वर्षा दे।
वह छोड़ उन्हें मरण देती है तू?
औंढया देव थूकेगा तुझ पर.... इस बस्ती पर......।
सारे बह जाएंगे उस थूक के रेले में। बिजली गिरकर सब जल जाएंगे उसके क्रोध से। एकआंखी शांत हो गई। सभी स्थिर होकर पायडया को सुनने लगे।
फेंगाडया ढीला हो गया।
सोटया की लाल आँखें नीची हो गईं।
एकआँखी कांपती हुई कोमल की बांहों में आ गई।
पंगुल्या ने आंखे खोलीं। वह हंसा।
उंचाडी उठी। पंगुल्या के सिर को सहलाती हुई उससे लिपट गई।
आदमी हिले। अलाव जलाने में जुट गए।
छोटे छोटे झुण्डों में बैठकर बतियाने लगे।
बाई हंसी- पहला संकट दूर हुआ।
उसने पिलू को जमीन पर रख दिया।
फेंगाडया के सामने आकर उसे भरपूर आँखों से देखा।
वह फिर हंसी....। यह होगा अगला वृक्ष..... छांव देने वाला।
उसने फेंगाडया को बांहों में लिया।
फेंगाडया थरथराया। उसके उष्ण स्पर्श से ढीला होकर सुख में भरने लगा।
बाई ने फेंगाडया को चूम लिया और हट गई। कोमल के पास आकर उसे भी चूम लिया। फिर धीर पैरों से अपनी झोंपडी की ओर चल दी।
पिलू रोया।
फेंगाडया सुध में आया।
जमीन पर पिलू हाथ-पैर फेंककर रो रहा था।
उसने धीरे से पिलू को उठा लिया।
पहली बार वह इतने छोटे पिलू को देख रहा था।
वह पिलू को डुलाने लगा।
रोना बंद कर पिलू ने आंखे मिचमिचाईं और उसे देखा।
फेंगाडया की छाती में कुछ बजने लगा।
दौडकर वह पिलू को लुकडया के पास ले आया- देख.... तू भी कभी इत्ता सा था..... इस पिलू जितना।
मैं भी..... लम्बूटांगी भी.....।
किसी ने दूध पिलाया हमें।
किसी ने खाने को दिया।
तब हम इतने बड़े हुए। पेड जैसे।
यह पिलू..... इसे भी बडा होना है।
हाँ इसे भी बड़ा करना है।
उसे कोई बापजी नही चाहिए? हाँ चाहिए।
फेंगाडया ने लम्बी सांस खींची।
उसकी छाती में बहुत कुछ भर आया था।
वह कुछ कहना चाहता था।



पता नही क्या?
कहने के लिए कुछ सूझता नही था।
पिलू फिर रोने लगा। फेंगाडया उसे डुलाने लगा।
कोमल ने आकर पिलू ले लिया।
पीछे पीछे पायडया आया।
फेंगाडया की ओर देखकर हंसा।
गहरी आंखों से हंसा।
मानों कह रहा हो- मैं सब समझ गया।
फेंगाडया उन आँखों की हँसी को झेल नही पाया। उठकर अकेला ही नदी की ओर चल दिया।
------------------------------------------------------------

No comments: