Tuesday, 6 December 2016

॥ ७४॥ फेंगाडया और बाई ॥ ७४॥

॥ ७४॥ फेंगाडया और बाई ॥ ७४॥

फेंगाडया अकेला ही झोंपड़ी से बाहर आया। कोमल पिलू को लेकर सो चुकी थी। बाहर चारों ओर गहन शांति। नदी की कलकल उस शांति को और गहराती हुई।
फेंगाडया नदी की ओर चला।
औंढया देव के पेड़ के पास बाई अकेली बैठी थी।
वह पास आकर रुक गया।
बाई ने देखा। भरपूर तगड़ा, फेंगाडया।
उसने बुलाया- आओ।
फेंगाडया बाई के पास बैठ गया।
तुमने मुझे बुलाया- क्यों?
तुम्हारी बातें सुनने को। बता अपने बारे में।
बाई की आँखें हंस रही थीं।
क्यों? फेंगाडया ने फिर पूछा।
कोमल का आदमी है तू? अगली बाई का आदमी। तेरा भी उतना ही मान है जितना कोमल का।
फेंगाडया ने सिर हिलाया लेकिन चुप ही रहा।

यह लुकडया- तेरे साथ है? बाई ने पूछा
हाँ।
तू यहाँ आया है कोमल के लिए?
फेंगाडया हंसा- हाँ।
केवल कोमल के लिए?
नहीं, लुकडया को जिलाये रखने के लिए।
तू ऐसा क्यों करता है?
फेंगाडया ने गहराई से बाई की आँखों में देखा। आश्र्वासक उष्मा से भरी गहरी आँखें।
उनमें अलाव जैसी सुखकारक आग थी।
फेंगाडया हंसा। बाई के कंधे पकड़ कर उसे हिलाते हुए बोला-
तुझे भी यही चाहिए। है ना?
सच सच बोलना।
मैं जो कर रहा हूँ, तू भी यही चाहती है।
इस तरह घायल लुकडया को पोसना।
वह अच्छा हो जाय, उसकी हड्डी जुड़ जाय। तू भी चाहती है।
यह जो तुम दो टोलियों के बीच मरण का खेल चल रहा है, केवल उसी के लिये तुमने मुझे यहाँ नही स्वीकारा है।
वह एक कारण तो है।
मुझमें शक्ति है। तुम्हारे चार आदमियों की शक्ति मुझ अकेले में है।
लेकिन क्या यही एक कारण है मुझे यहाँ रखने का?
बाई ने उसके हाथ अपने कंधे से अलग किये। उसके दोनों गालों को स्पर्श करते हुए बोली--
तू केवल कोमल के लिये नही आया है न?
तो मैंने भी केवल मरण के खेल में बस्ती की शक्ति बढाने के लिये तुम्हें नही लिया है।
बाई के ममता भरे स्पर्श से फेंगाडया हरषाया।
बाई हंसते हुए कहने लगी-
तू भी आदमी है। लेकिन इन बाकी आदमियों की तरह नही।
तू पेड़ की तरह है। आधार देने वाला। देवा की आवाज अपनी छाती में सुनने वाला।
यह आदमियों की बस्ती है। कोई भैंसे या सूअरों का झुण्ड नही।
केवल पिलू जनते रहने से क्या होता है? यहाँ उष्मा चाहिये, ममता चाहिये। एक दूसरे को आधार देने की
बात चाहिये।
फेंगाडया का चेहरा खिल उठा। उसका सारा तनाव दूर हो गया।
वह उठ कर नाचने लगा। थयथय थयथय।
फिर रुक गया। बाई के पास बैठते हुए बोला-- यही देखी थी मैंने--
यही बस्ती।
अलाव, नाच, धान, पिलू! रोज रोज देखता था यही बस्ती।
बाई के शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। गंभीर होकर बोली
लेकिन कल होगा यहाँ मरण का खेल। नरबली टोली वाले भरमा गये हैं। लेकिन इसका क्या उपाय?
फेंगाडया का शरीर फिर से तन गया। वह चिल्लाया--
हॉ, सच है। अभी देर है।
मेरी देखी बस्ती पाने में अभी देर है।
बीच में है यह मरण की आंधी। मैं लडूँगा इस आंधी से।
देवा, मुझे शक्ति देना। शक्ति देना।
बाई उठी। उसे दुलराते हुए उसका एक चुम्बन लिया और चली गई।
फेंगाडया अपने शरीर की थरथरी लिये खड़ा रहा। दूर नदी बहती रही, बहती रही।
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