Tuesday, 6 December 2016

॥ १००॥ पंगुल्या कहलवाता है जय पंगुल्या ॥ १००॥

॥ १००॥ पंगुल्या कहलवाता है जय पंगुल्या ॥ १००॥

झोंपडी में कोई नही था।
बाहर कोलाहल मचा हुआ।
बुढिया ने हाथ के खपरैल को देखा।
खपरैल में रटरटाया धान। वह थरथराई-- बाई का मंत्र तो नही है इसमें?
सूखे पत्तों पर पैरों की खस खस सुनाई दी। उसने सिर उठाकर देखा-- सामने पंगुल्या था। एक अजीब गुस्से और उन्माद में।
बुढिया रोने लगी।
पंगुल्या थूका।
जानवर कहीं की। आ गई यहाँ?
वह और उंची आवाज में रोने लगी।
खा ले.... वह धान खा ले।
बुढिया लपालप खपरैल चाटने लगी।
पंगुल्या उकडूँ बैइ गया।
अब कहेगी बाई से कि पंगुल्या को मार डालो?
बुढिया पथराई सी देखती रही। उसकी गर्दन लटलट काँप रही थी।
जानवर....... तुझे खाया जाना ही ठीक था। सोटया थोड़ा देर से पहुँचता तो अच्छा था। पंगुल्या फिर खिलखिलाया।
फिर तेरी हड्डियाँ भी आ जातीं मेरे पास।

बुढिया थरथराती बैठी रही।
पंगुल्या उठा।
यहाँ रहना है? मरना नही है?
बुढिया ने गर्दन हिलाई।
तो फिर ठीक तरह से रहना। मेरा ध्यान रहेगा। जानवरपना किया और इसको मार डालो, उसको मार डालो कहती फिरी तो एक ही झटके में तुझे मार डालूँगा।
पंगुल्या की फटकार सुनी और बुढिया ने फिर रोने का सुर पकड़ा।
पंगुल्या उसी उन्माद से आगे आया। बुढिया की जांघ दबाते हुए बोला-
अच्छा स्वाद देगी- यदि ठीक से भूंजी जाये।
बुढिया पथरा गई।
उसके झुर्रियाँ पडे चेहरे को देखता हुआ पंगुल्या बोला-
मुझे मार डालने वाली थी, मुझे।
पंगुल्या थरथरा उठा।
बोल..........बोल......... जय पंगुल्या।
वह चीखा।
बुढिया धडपडाती उठी। पूरी जान से चिल्ला उठी।
जय पंगुल्या।
पंगुल्या हंसा। मुडा और घिसटते हुए निकल गया।
बुढिया धप्प से बैठ गई।
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॥ ९९॥ धानबस्ती पर एक गंभीर शाम ॥ ९९॥

॥ ९९॥ धानबस्ती पर एक गंभीर शाम ॥ ९९॥

सायंकाल।
शांत।
कई दिनों बाद ऐसी शांति पसरी थी धानबस्ती में। बाई पुटपुटाई-- धान भी अच्छा उगेगा इस बार।
पायडया ने गर्दन हिलाकर हाँ भरी।
मोड़ पर कुछ हलचल नही दिखी तो बाई ने कहा-- आदमी अभी नही लौटे।
पायडया ने फिर हाँ भरी।
धानबस्ती पर आजकल आदमी कम थे। सू और पिलू की संख्या अधिक थी।
आनेवाली हर सू, हर पिलू धानबस्ती को चाहिए।
अपने बहुत आदमी मरे।
ये सू आएंगी, नये पिलू जनेंगी तभी तो अपने आदमी बढेंगे।
आदमी कोई मिट्टी से थोड़े ही उपजता है धान की तरह?
कि डालो जमीन में बीज और उग आएं आदमी।
पायडया जोर से हंसने लगी।
बाई भी हंसने लगी। फिर बोली- इसीलिये मैंने सोटया को भेजा है कि उन सूओं को लाने।
पायडया ने गर्दन हिलाई। बोला- हाँ ठीक ही है। बस्ती बढाने में आदमी का क्या काम? यह तो सू ही कर सकती है।
बाई हंसी। तभी एक सू पिलू को ले आई। पिलू चीख चीख कर रो रहा था।
बाई ने देखा। गुस्सा होकर बोली- एकआंखी का पिलू है। भूख से रो रहा है। जाओ, ले जाकर उसके थान से लगा दो। वह मूरख सो रही होगी।
  
एक झोंपडी से फेंगाडया, कोमल और कोमल का पिलू बाहर आए।
फेंगाडया ने चढाई के मोड़ को देखकर पूछा- आए वे वापस?
बाई ने गर्दन हिलाई- अभी नही।
फेंगाडया कोमल के साथ आगे बढ गया।
जगह जगह अलाव जलने लगे।
उस पर खप्परों में धान पकाया जाने लगा।
आज की शाम अलाव तापने की..... धान की कहानी सुनाने की....... । बाई ने एक लम्बी साँस छोड़ी।
पायडया ने भी गर्दन हिलाई। आँखों में आई नमी पोंछते हुए बोला-
औंढया देव ने ही भेजा फेंगाडया को, पंगुल्या को। ये पंगुल्या। पंगु पैर वाला। एक पैर घिसट कर चलने वाला। इसे भी ले लिया हमने बस्ती में। इसीसे.....
बाई गंभीर हो गई। बोली--
सुन रखो पायडया।
जो बस्ती सबको अपने में समाएगी, सबको आश्रय देगी, वही बस्ती टिकेगी। वही जिएगी।
आने वाले में से कौन होगा फेंगाडया? कौन पंगुल्या? ये पहले से कोई कैसे कह सकता है? जब वैसा समय आएगा तभी उनकी परख होगी।
आने वाले में कोई बापजी भी हो सकता है। पायडया ने धीरे से कहा।
बाई बोली- यह सही है। लेकिन जो भी बापजी होगा, उसे यहाँ से भागना पडेगा। यहाँ केवल फेंगाडया ही जड़े जमा समता है।
पायडया हंसा। बोला- आता हूँ। देखूँ, सोटया कौन कौन सू ले आता है।
वह जल्दी जल्दी उठकर चढाई चढने लगा।
बाई उसे एकटक देखती रही।
कौन जाने आने वाली सूओं भी कोई निकले बाई की तरह। जो एक नई धानबस्ती को देख सके।
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॥ ९८॥ धानबस्ती वाले वाघोबा बस्ती पर ॥ ९८॥

॥ ९८॥ धानबस्ती वाले वाघोबा बस्ती पर ॥ ९८॥

बुढिया ग्लानि में पडी थी- भूख से निढाल होकर।
वर्षा की झड़ी रुक गई।
वह वैसी ही पड़ी रही। कीचड़ में।
शाम होने को आई।
कुछ खुसफुसाया।
बुढिया ने आँखें खोलीं। चार पांच पिलू पास आये। सू पिलू और आदमी पिलू। भूखे।

हाथ में किसी पेड़ की टहनियाँ। कचाकच पत्त्िायाँ चबाते और थूकते, शोर मचाते वे खडे रहे उसके पास।
गुरगुराहट हुई। पीछे से एक जान लेवा गर्जना। एक जानवर निकल कर आगे आया। रुका।
पिलूओं ने शोर मचा दिया।
जानवर पीछे हटा। सूँघते हुए निकल गया। बाई ओर से लाठियाँ लिये चार पांच सू दौड़ी आई।
वर्षा रुक गई। एक चिल्लाई।
तो?
अलाव जला लो। वह आगे आकर बोली।
बुढिया के पास बैठ गई। उसके हाथ पैरों को दबाती हुई बोली- इसके माँस पर दो दिन निकल जायेंगे।
बुढिया रों रों रोने लगी।
सारी सू खिद खिद हँसने लगीं। तैयारी करने लगी।
लकड़ियाँ लाईं।
बली की जगह पर फिर से अलाव जलाया।
पिलूओं के चेहरे चमकने लगे।
एक सू ने बुढिया के हाथ पैर बांधे।
बुढिया थरथरा रही थी।
दूसरी सू उसके पास आई। उस पर थूकी। बापजी ने उसकाया तब नाची थी बुढिया। पाषाण्या मर गया। लाल्या का जय लाल्या हुआ तब भी नाची थी।
अब लाल्या और बाकी आदमी गए।
उधर जाकर मर गए या बाघों ने खा लिए?
या उस शैतान बाई ने मंत्र फेंक कर सबको मार डाला?
अब तू भी मर यहाँ।
अलाव धुआँ धुआँ हो रहा था। एक सू उसके पास गई। लकड़ी गीली थी।
फूच् फूच्......। आग चेताने के लिये सारी सू उस औंधी होकर फूंक मारने लगीं।
अचानक सारे पिलू चिल्ला उठे। वे मुड़ी। सामने कुछ आदमी, कुछ सू।
वे थरथराईं। कोई भी चेहरा परिचित नही था।
सोटया आगे बढा। बुढिया को बंधा देखकर बोला-
यह क्या? इस बुढिया को जलाएंगे? उंचाडी आगे आई। सोटया के आदमियों ने लाठियाँ संभाली। चादवी स्तब्ध थी।
उंचाडी थरथराते हुए बोली-
इसका मांस भून कर खाने वाली थीं ये सारी सू।
वाघोबा टोली की सारी सू डर गई। एक चिल्लाकर भागने लगी लेकिन सोटया के आदमी ने दो ही छलांगों में उसे घेर लिया और खींचकर वापस ले आया।
वह चीखती रही। सोटया ने आगे बढकर उसे एक थप्पड़ मारा।
सारी सू चुप हो गई।
सोटया ने बुढिया के हाथ पाँव खोले। वह थरथराती उसके पांवों पर लोटने लगी। एक आदमी आगे आया। उसने धानभरा चमडे का खोल अलाव के पास रख दिया।
उंचाडी ने खोल से धान के साथ दो मिट्टी के खप्पर भी निकाले। उन्हें आग पर रखकर उस पर
धान भूजने लगी।
दो और खप्पर लेकर सोटया ने एक आदमी को पानी लाने भेज दिया।
धान भूंजकर सौंधी महक देने लगा तब चांदवी ने उसमें पानी भी डाल दिया।
वाघोबा टोली की सू चुपचाप देखती रहीं।
पिलू भी देखते रहे।
यह भी नरबली देने वाली टोली।



चांदवी शांत भाव से उन्हें देखती रही।
रट रट रट धान पकता रहा।
चांदवी ने एक एक सू को खप्पर में रखकर धान दिया। सब खाते गए।
अंत में बुढिया को भी धान दिया।
समय बीतता गया।
भूख अब शांत चुक हो चुकी थी।
चांदवी ने सारी सू, सारे पिलूओं को बुलाया।
हम सब तुम्हें बुलाने आए हैं-- धानबस्ती पर चलने के लिये।
धानबस्ती.....। उसने सबको समझाया क्या होती है धानबस्ती।
सारी सूओं में खलबली मच गई।
थोड़ी देर में थककर सारी सू सो गई। चांदवी और उंचाडी भी उन्हीं के साथ सो लीं।
सोटया और उसके कुछ आदमी जागते रहे।
सोटया उकडूँ बैठा था।
औंढया देवा। कितना कुछ नया दिखा रहे हो तुम। पहले वह फेंगाडया और उसका बचाया हुआ लुकडया। फिर ये सारे भूखे सू और पिलू जिन्हें केवल बाई की आँखें ही देख पाईं।
लगता है एक नई कहानी का आरंभ हो रहा है।
दो बस्तियों को मिलाने वाली कहानी का।
होंठ सिकोड़ कर धीमे धीमे सोटया धुन बजाने लगा।
धुन......। जो वही सीख सका था  पायडया से।
नरबली टोली पर पहली बार कोई धुन बजा रहा था।
उस धुन पर उतर रही थी कोई कहानी।
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॥ ९७॥ बापजी और फेंगाडया की भेंट ॥ ९७॥


॥ ९७॥ बापजी और फेंगाडया की भेंट ॥ ९७॥

सोटया, दो आदमी, उंचाडी और चांदवी आगे बढ़ गए। पिछले मोड़ पर फेंगाडया और पंगुल्या रुक गए। लौटने में देर न करना। फेंगाडया ने चिल्लाकर उनसे कहा। वे आँखों से ओझल हुए तो फेंगाडया खिन्नता से
बैठ गया।
एक पत्थर उठाकर दूर फेंका।
पंगुल्या ने उसकी हालत देखी तो आगे आया।
फेंगाडया के पास बैठ कर उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
वहाँ से निचला मोड़ स्पष्ट दीख रहा था।
पीछे घाटी में पवन घों घों करता हुआ ऊपर चढ रहा था।
नीचे के मोड़ पर प्रेत पडे थे और उनपर गीध मंडरा रहे थे।
 दोनों चुप थे।
बापजी के कारण हुआ ये सब कुछ। पंगुल्या ने थूक कर कहा।
फेंगाडया ने चमक कर पंगुल्या को देखा। उसका सारा शरीर तन गया। पंगुल्या ने पहली बार यह नाम लिया था।
उसने उठकर पंगुल्या को दोनों कंधों से झकझोर दिया।
बापजी के कारण?
हाँ। बापजी के कारण।
बूढा, लम्बा, सफेद बालों का? फेंगाडया ने पूछा।
हाँ।
टोली में कभी न जाना........ बाई की टोली भयानक है....... बाई के पास मंत्र है....... कहने वाला?
पंगुल्या की आँखों में भय की स्पष्ट छाप।
हाँ, हाँ, वही। पंगुल्या चीखा।
फेंगाडया वापस बैठ गया। सिर हिलाते हुए पूछा- ये सारे......इतने प्रेत...... मरण का सारा खेल.....सब उसके कारण हुआ?
पंगुल्या फिर सिर हिलाकर पुटपुटाया- हाँ।
वह फेंगाडया को बताने लगा।
उसे नरबली के लिए लाया था-- लाल्या के आदमियों ने। लेकिन बच गया।
वह हँसा इसलिए बच गया।
फिर उसने टोली ही अपनी तरफ मोड ली।
सबको भय दिखाया-- मरने का।
लगाई सारी आग..... यह सब होने के लिए। पंगुल्या थरथरा रहा था।
फेंगाडया की बाँह मजबूती से थामकर बोला-- उसने लाल्या को उकसाया। मुझे भी मार डालने वाला था।
मैं, पाषाण्या उसका झूठ भाँप गए थे। इसी से। पाषाण्या भी मर गया होगा...... उसके हाथों।
मैं उंचाडी के साथ भाग लिया। इसीलिए बच गया।
नही तो मार दिया जाता उस टोली में।
या लढना पडता उस टोली की ओर से।
फेंगाडया के शरीर में एक थरथरी दौड़ गई।
उसने हौले से अपनी बाँह पंगुल्या की पकड़ से छुडा ली।
उकडूँ बैठकर उसने आकाश की ओर देखा।
देवाच् यह पंगुल्या यदि उस नरबली टोली में होता?
वह हथियार उन्हें मिला होता।
फिर यह प्रेतों का ढेर हमारा होता। मैं भी होता इसमें।



पंगुल्या की आँखें फैल गईं।
फेंगाडया ने शांत होकर उसे देखा।
वह भी होगा यहाँ? बापजी?
पंगुल्या ने सिर हिलाया- हो भी सकता हे।
नीचे झाडियों में कुछ खुसफुस हुई। दो तीन गीध भी फड़फड़ाते हुए उड़े और वापस बैठ गए।
फेंगाडया उठा। अकेला ही लम्बे डग भरता हुआ मोड के पार जंगल में घुस गया।
पंगुल्या घिसटता हुआ पीछे छूट गया।
एक बूढा पेड़ के तने से टिक कर बैठा था।
फेंगाडया पहली झलक में उसे पहचान न सका। लाठी तौलते हुए सावधानी से आगे बढ़ा। बापजी ने प्रयास से आंखों पर आती ग्लानि को दूर करके देखा।
सामने फेंगाडया।
फेंगाडयाच् वह चिल्लाया।
फेंगाडया भी थरथरा उठा। आनन्द से उसने हांक लगाई।
वह दौड़ गया। बापजी को उठा लिया। गोल गोल घुमाकर वापस नीचे बिठा दिया।
बापजी ने कांपते हाथों से उसे स्पर्श किया। वह कुछ कहें, उससे पहले फेंगाडया ने उसे हिलाते हुए कहा-
तू जो मानूसपने की बात कहता था बापजी-- उसे मैंने आगे बढाया है।
आगे बढाया है।
मैंने घायल लुकडया को मरने के लिए छोड़ नही दिया।
उसे उठाकर गुफा में ले गया।
उसे शिकार दी।
उसे धानबस्ती पर ले गया। उसे खाने के लिए धान मिला। उसके घाव ठीक हुए।
उसकी टूटी हुई हड्डी जुड़ गई।
बापजी की आँखें फिर से गँदला गईं। उसे मूर्च्छा होने लगी।
उसे फिर हिलाकर फेंगाडया ने कहा--
इस बस्ती को भी मैंने बचा लिया। मैंने और पंगुल्या ने।
इस बस्ती में धान है, अलाव हैं, उष्मा है। और अब घायल के लिए आधार भी है।
अब कोई लुकडया घाव के कारण नही मरेगा।
सू और पिलू शिकार के बिना भूखे नही रहेंगे।
उनके पेट के लिए भी धान है।
मैंने बचाई ये बस्ती बापजी, मैंने।
बापजी का सिर हिला। उसकी मानों वाचा ही बंद हो गई।
बापजी, तूने नरबली बस्ती को तोड़ दिया। मैंने धानबस्ती को बचा लिया।
लेकिन बापजी, तू सही नही था।
फेंगाडया रुका। शब्द टटोलने लगा।
फिर बोला-- मैं तुम्हें ले चलूँगा।
बस्ती पर ले चलूंगा। फिर तुम देखना।
देखना तुम कि बस्ती कैसे बनती है। कैसे टिकती है।
बापजी कराहा। आधी बातें उसकी समझ से बाहर हो रही थीं।
उसकी देह तप रही थी। एक अलाव की तरह। दो-तीन दिनों से मूत्र भी रुक गया था।
वह पुटपुटाया-- मैंने ही उकसाया।
इन जानवरों को मैंने ही भडकाया।
मैंने ही आरंभ किया मरण का यह खेल।



लेकिन क्यों? फेंगाडया ने पूछा।
बस्ती में, टोली में आदमी जानवर बन जाता है।
उसका मानूसपना खत्म होने लगता है।
फेंगाडया हंसा।
भरमा गया है तू बापजी। भरमा गया है।
बापजी की साँस तेज चल रही थी। अचानक वह मंद पड़ गई।
मूर्च्छा से वह लुढक गया।
फेंगाडया ने जमीन पर बैठकर उसका सिर गोद में ले लिया। बापजी धीरे धीरे सावधान हुआ।
देवाच् वह कराहा।
वह धानबस्ती वैसी ही बची रही।
वह अस्पष्ट बुदबुदाया।
फेंगाडया के रोंगटे खड़े हो गए।
बापजी मर रहा है। वह पुटपुटाया।
पंगुल्या पास आ चुका था। फेंगाडया की बगल में बैठते हुए खिदकने लगा-- विचित्र स्वर में चिल्लाया--
बापजी, तू मरेगा।
मैं जिऊँगा बापजी, और तू मरेगा।
तुझसे धानबस्ती देखी नही जा रही थी। कहता था बाई के पास मंत्र हैं।
यह सब तुमने कहा था। कहा था कि बाई शैतान है। वह झूठ था बापजी। धानबस्ती वैसी नही है।
फेंगाडया तुझे धानबस्ती में ले आया।
वहाँ की बाई ने, वहाँ के धान ने मुझे जिलाया।
वहाँ जाकर मैं सुख की नींद सोया।
बिना भय के सोया।
फेंगाडया जीता है बापजी, तू नही जीता।
तुम्हारे मानुसपने को वही आगे ले गया। इसीलिए वह जीत गया।
फेंगाडया की आँखें शांत हो चलीं। जो वह नही कह पा रहा था- पंगुल्या ने उसके लिए शब्द जुटाए थे।
पंगुल्या का तनाव निकल गया। बापजी, तू मुझसे कहता था, मेरे आड़े न आना। मैं नही आया बापजी। तुझे और किसी की गरज ही नही थी। तू खुद अपने आड़े आ गया। मर अब।
फेंगाडया की नसे फिर एक बार तन गईं।
एक विचित्र तनाव, और स्तब्धता तीनों की बीच गहराने लगी।
फेंगाडया ने आँखें मूंद लीं। फिर खोलीं। उसकी थरथरी कुछ कम हुई।
बापजी ने आँखें खोलीं।
सुन फेंगाडया- मेरी बात ठीक से सुन। वह बुदबुदाया। उसने एक लम्बी सांस खींचकर छोड़ी। फिर एक और.....!
सुन फेंगाडया।
बापजी की गर्दन फिर थरथराई। फेंगाडया की गोद में सिर हिलता रहा।
उसके होंठ विलग हुए।
टोली में, बस्ती में देव की आवाज खो जाती है। सुन लो मेरी बात।
यह टोली बडी होती चलेगी। फिर नियम बदलेंगे।
नरबली टोली की तरह.........। बहुत नियम बढेंगे।
ये आदमी, तब जानवर बनेंगे।
फिर एक बार जय वाघोबा, जय औंढया पुकारते हुए मरण का खेल खेलेंगे।
फिर एक बार। और फिर एक बार।
आदमी को अब रक्त का स्वाद लग चुका है।


याद रखना।
ये अभी भूल जाएंगे कुछ समय तक।
लेकिन फिर कोई नया बापजी आएगा।
वो फिर इन्हें भरमाएगा। उन्हें भैंसे बनाएगा। बिना विचारों वाले भैंसे।
मानूसपने को न जानने वाले भैंसे।
नया उकसाना। नए भैंसे।
लेकिन पुराना मरण, पुराने गीध।
यही खेल चलेगा।
समय की आहट यही कहती है।
बापजी ने आखरी साँस ली।
फेंगाडया ने उसकी छाती से कान लगाया।
वहाँ कोई धड़धड़, कोई आवाज नही थी।
फेंगाडया शांति से उठा।
बापजी का शरीर पीले पत्ते की भाँति जमीन पर लुढक गया।
पंगुल्या धडपडाते हुए उठा। दोनों दूर हुए।
फेंगाडया ने एक बार बापजी को देखा। उसे लगा। इसे गाड़ दूँ।
वह थूक दिया।
यह कैसा बापजी? वह आक्रोश कर उठा--
यह बापजी तो शैतान बन चुका था।
मेरा बापजी अलग था पंगुल्या।
अलग था।
ताड्ताड चलते हुए फेंगाडया मोड की ओर बढ चला। पंगुल्या उसके पीछे घिसटने लगा।
किसी तरह उसने फेंगाडया को पकड़ा-- उसे रोककर खड़ा हो गया।
फेंगाडया के गले से गुर्राहट निकली।
पंगुल्या ने आकाश की ओर उंगली उठाकर संकेत किया।
वहाँ गीध मँडरा रहे थे। बाट जोह रहे थे।
फेंगाडया एक क्षण वहीं रुका रहा। फिर पीछे मुडा।
बापजी के शरीर को खींचते हुए ले चला।
पास ही एक छिछला गड्ढा था। उसमें डाल दिया।
लाठी से मिट्टी उकेरी और बापजी के उपर डाल दी।
सामने एक बड़ा पत्थर था। जान लगाकर फेंगाडया ने उसे ढकेला और बापजी के ऊपर सरका दिया।
पसीने से थबथबाते हुए वह पत्थर पर जा बैठा। पंगुल्या फटी फटी आँखों से उसे देखता रहा।
फिर फेंगाडया ने एक लम्बी छलांग लगाई और लम्बे डम भरता हुआ बस्ती की ओर चल दिया। पंगुल्या उसके पीछे पीछे। उपर गीध मँडराते रहे।
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॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

दौड़कर आता हुआ, थका हुआ फेंगाडया अलाव के पास कर चित्त लेट गया।
बाई ने उसे देखा। पास जाकर उसका सिर गोद में ले लिया।
पायडया, पंगुल्या, उंचाड़ी, चांदवी, सारे जमा हो गये।
कोमल आगे आई। खप्पर का धान उसके मुँह से लगा दिया।
पंगुल्या उत्सुकता से थरथराता हुआ आगे आया-- उसने पूछा-
हथियार चल गया। है ना? वो सारे भाग गए? बोलो, भाग गए ना?
फेंगाडया ने आँखे खोली। सामने पंगुल्या को देखकर वह हर्ष से चिल्ला उठा-
होच्होच्ओच्ओच्
उसका आनंद पंगुल्या को छू गया। अपने लंगडे पैर को संभालते हुए वह नाचने लगा।
सभी नाच में साथ देने लगे।
फेंगाडया ने थोड़ा धान और खाया।
अब उसकी साँसे संभल गई।
वह चिल्लाया- आज इस पंगुल्या ने पूरी बस्ती को बचाया है। उसका वह नया हथियार- हड्डी से बना हुआ-
पत्थर फेंककर मारने वाला। वे भाग गए। मर गए। हम जीत गए।
सच? बाई ने थरथरा कर पूछा।
हाँ, हाँ, बिल्कुल सच।
सोटया थका हुआ था। फिर भी उसने दौड़कर पंगुल्या को गलबांही डाल दी।
पायडया आगे आया। उसने भी पंगुल्या को गलबांही दी।
बाई हंसने लगी।
अलाव की ऊष्मा लेकर फेंगाडया भी उठा।
अलाव के चारों ओर गोल बनाकर सारे नाचने लगे।
नाचते नाचते उंचाडी ने आवेग से पंगुल्या को अपनी ओर खींच लिया। अलाव के पास ही दोनों जुगने लगे।
एकआँखी नाचते नाचते थक गई। जाकर बाई के पास बैठ गई। एक कराह उसके मुँह से निकली।
कमर दुखती है? बाई ने उसे सहलाते हुए पूछा।
एकआँखी ने हाँ में सर हिलाया। बाई उसकी कमर पर हाथ फेरती रही। दबाती रही।
 बारिश की एक जोरदार झड़ी आई और थम गई।
एकआँखी उठकर नदी की तरफ जाने लगी तो बाई ने उसे रोक लिया।
अब दूर नही जाना है। नदी तक नही।
यहीं पास में। इस झोंपडी में......। जाओ।
चांदवी आगे बढी। बाई के पास आकर रुक गई।
बाई ने निश्चय से फिर कहा-- अब से पिलू होने के बाद सू को धान मिलता रहेगा। उठकर खड़ा होने की ताकद आने तक।
दो दिनों के बाद धान बंद कर देने की रीत आज से बदलेगी।
चांदवी बाई से लिपट गई।
उसने पूछा- अब हम जीत गए?
बाई ने सिर हिलाया।
हार गई नरबली वालों की टोली। अब वहाँ कौन बचा होगा?
आज चांदवी बाई की आंखों से आंखें मिलाकर प्रश्न पूछ रही थी।
बाई की आँखें अचानक चमक उठीं। ठीक ही पकड़ा इस छोटी सू ने। उस टोली में बचे होंगे केवल सूएँ और बच्चे।
बाई बुदबुदाई-- सब आदमी मर गए। या भाग गए।
पंगुल्या अचानक हंसने लगा मानों भरमा गया हो।
बाई ने पूछा-- क्या रे?
उस बस्ती की वह बुढिया याद आ रही है। मरेगी अब भूख से।
भूख से?
क्या वहाँ धान है? बाई ने पूछा।
नही।
केवल शिकार से मिटती है भूख? बाई ने फिर पूछा।
हाँ।
सारे स्तब्ध थे। कुछ नया होनेवाला था।
बाई आवेग से सोटया की ओर मुड़ी।
तुम्हें जाना है- अभी।
उन सारी सूओं को, पिलुओं को ले आना है।
फेंगाडया असमझ देखता रहा। उन्हें लाना है?
बाई ने पूछा- कौन शिकार करेगा उनके लिए?
मर जाएंगी उनमें से कई।
इतने पिलू, इतनी सूएँ।
बाई का स्वर भर्रा गया।
आदमी ने आदमी को मारने का खेल रचा।
सूओं ने नहीं खेला था मारने का खेल। फिर उन्हें मरण क्यों?
उन्हें लाना होगा। उंचाडी को ले जाओ। वह जानती है रास्ता।
उस बस्ती पर पहुँचो। चांदवी के साथ ले जाओ।
वह सबको समझा सकती है।
बताओ उन्हें कि धानबस्ती पर अलाव है। उष्मा है। और धान है। मरण से बचने का रास्ता है।
पायडया गदगदा उठा--
सही है बाई। सही है। यही है बाई की समझ।
इसीलिए वह बाई है। पायडया चिल्लाया।
सारे सहमत थे।
अलाव के चारों ओर नाच में एक नया रंग चढ गया।
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॥ ९५॥ बापजी मोड की चढाई पर ॥ ९५॥

॥ ९५॥ बापजी मोड की चढाई पर ॥ ९५॥

बापजी ने दो जनों को उन्माद में भर कर भागते हुए देखा। दोनों जखमी थे।
पत्थर....बापजी। उस शैतान बाई ने पत्थरों को पंछी बनाकर हम पर छोडा है। भाग चलो तुम भी।
वे चिल्लाये। जंगल की तरफ भाग निकले।
बापजी उत्साह में भरकर उपना दुखता पैर घसीट कर चढाई चढने लगा।
पहला मोड आया। वहाँ लाल्या मरा पड़ा था।
बापजी ने उसे हर ओर से छूकर देख लिया।
  
बापजी एक क्रूर हंसी हंसा।
जय लाल्या चाहता था ना तू? वह चिल्लाया- तो ले सुन ले.... जय लाल्या। पूरी शक्ति से बापजी चिल्लाया।
वह थूका और वहीं बैठा रहा लाल्या के पास।
उसका शरीर तपने लगा। सूर्यदेव की तरह।
लगता है बायें पैर का काला रक्त सब ओर फैल रहा है।
थककर वह औंधा लेट गया।
अब सो जा बापजी....। वह बुदबुदाया।
सूरज ऊपर आ जाये, तब तक तुम्हें अगले मोड पर पहुँचना है बापजी।
अभी सो जाना। लेकिन मर मत जाना।
टोली नामक की चीज को ही तुमने उखाड़ कर नष्ट कर दिया है। जैसे कोई पेड़ उखाड़ कर फेंके।
जाकर देखो। वह उजाड़ी हुई धानबस्ती देखो। तभी मरना। पहले नहीं।
बापजी लेटे लेटे औंधा हो गया।
बारिश को पीठ पर लेता हुआ।
ग्लानी और थकान में पुटपुटाया- देवा, मैं सही हूँ या गलत?
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॥ ९४॥ आखिरी लड़ाई ॥ ९४॥

॥ ९४॥ आखिरी लड़ाई ॥ ९४॥

आखिरी हमला जल्दी ही होने वाला है। फेंगाडया बुदबुदाया। उसने नीचे देख। दहिनी ओर- गहरी घाटी फैली थी। बारिश और धुध से दिन में भी सब कुछ धुंधलाया था।
बस्ती तक नही दीख रही थी। कोमल, पंगुल्या दीखना तो दूर।
बाईं ओर मोड से उतराई में जाने वाला रास्ता। नीचे एक सिकुड़ी सी पगडंडी। एक बार एक ही आदमी ऊपर आ सकता है।
पगडंडी पर लाल्या के आदमी का पहरा।
उनकी हलचल का भान हो रहा था।
फेंगाडया ने अपने आदमियों को पेडों के पीछे छुपाया हुआ था। हरेक के हाथ में वह नया हथियार- पंगुल्या
का दिया हुआ।
फेंगाडया ने हाथ में पकड़ी हड्डी को देखा। अर्धचंद्र के आकार की हड्डी चमचमा रही थी। भैंसे के छाती की हड्डी। उसने अपने पास जमा किये पत्थरों के ढेर को हाथ से छुआ।
उन्हें आगे आने देना। एकदम पास। तब मारना। तभी मिलेगा यश। उसने कल सबको समझाया था--
बिल्कुल भी घबराना नही है। ठीक समय आने से पहले एक भी पत्थर नही चलेगा। मेरे हाथ को देखना और मेरी हाँक को सुनना। तब तक चाहे जो भी हो, हरेक हाथ रोक कर रहेगा।
लेकिन एक बार मेरी हाँक सुनी, कि फिर कोई नहीं रुकेगा। साँस तक नही लेगा। एक के बाद एक पत्थर बरसाते रखना है जबतक एक ढेर के सारे पत्थर खतम न हो जायें। फिर मेरी दूसरी गर्जना तक हाथ रोकना है। फिर तीसरी।
वैसे हम और ढेर भी तैयार रखेंगे।
लेकिन मुझे नही लगता कि उनकी जरूरत पडेगी।
याद रखना कि नीचे बाई, सारी सू, सारी बस्ती हमारी राह देख रही हैं।
सारी सूचनाएँ उसने दी थीं। अब घड़ी आई थी उनके पालन की।
फेंगाडया थोड़ा सा खुले में था।
बाकी सारे छिपे थे पेड़ों के पीछे। न दीखते हुए।
वह थोड़ा और आगे आया।
फिर वापस अपने पत्थरों के ढेर के पास।
लाल्या के गुट ने उसकी हलचल को देख ही लिया।
अकेला?
लाल्या ने ध्यान देकर देखा।
हाँ, अकेला ही तो।

लाल्या खुशी से पागल हो गया।
अब चलेंगे। वह चिल्लाया- जय वाघोबा। दिशाएँ गर्जाते हुए उसके आदमी लाठियाँ लेकर चढने लगे।
नीचे के मोड से कूदते फांदते, लम्बे डग भरते, लाठियाँ भाँजते।
फेंगाडया अब अपने ढेर के पास सजग खड़ा था। सारी नसें तनी हुईं।
अंतिम बार उसने दहिनी ओर धुंध के नीचे छिपी घाटी को देखा। वहाँ कोमल, कई पिलू, पूरी बस्ती, असहाय सी दीख रही थीं।
देवा। मेरी छाती में यह आवाज तूने ही दी। लुकडया को उठा लाने के लिये तूने ही कहा।
धानबस्ती तक तू ही ले आया।
यह हथियार भी तूने ही दिया।
अब यश भी तू ही देना।
पूरी शक्ति से वह गर्जना करने वाला था। लेकिन रुक गया।
अभी और आगे आने दो। उनके सारे आदमी ऊपर तक आ जाने दो। उसने अपने आपको डाँट लगाई।
भरमाओ मत फेंगाडया। बिन सोचे विचारे हडबडी मत दिखाओ।
सामने कुछ ही अंतर पर आकर लाल्या थमक गया। कोई आगे क्यों नही आता।
थोड़ी सी शंका उसे हुई। लेकिन उसके आदमी अब अपने उन्माद में काफी आगे आ गये थे।
जय वाघोबा की गर्जना चारों ओर गूँज गई।
कल रात बापजी के पास पहरा देने वाला वह आदमी कूद गया। सबसे आगे। उसे अब कुछ भी नहीं दीख
रहा था। हाथ उंचा उठाकर उसे रुकने के लिये कहने वाला लाल्या भी नही।
उसे दीख रहा था बापजी का दिखाया हुआ अकेलापन। टोली के न रहने पर आने वाला अकेलापन।
पगलाया सा वह आगे बढता रहा उसके पीछे बाकी अनेक।
लाल्या भी अब आगे आ गया। उसकी शंका अभी थमी नही थी।
फेंगाडया से कुछ ही कदमों पर वे पहुँच गये।
आब तक फेंगाडया बिना हलचल किये स्तब्ध था। अगला क्षण उसका था।
फेंगाडया ने हाथ की हड्डी को खींचा और निशाना लगाते हुए सप्प से छोड़ दिया। साथ ही उसने गर्जना की होच्होच्होच् .....
पेड़ों के पीछे से सटासट पत्थर बरसने लगे। चीखें उठने लगीं। सामने से आने वाले आदमी पत्थरों की मार से अकुला गए। गिरने पड़ने लगे।
एक पत्थर लाल्या की आँख में लगा।
चक्कर खाकर वह नीचे गिरा। ग्लानि से बेसुध हो गया।
उसके आदमी भयचकित स्तब्ध खडे रहे।
पीछे संकरा रास्ता।
सामने से बारिश और धुंध।
उसमें ने दीखने वालों से हाथों से सटासट बरसते पत्थर।
लाल्या के आदमी मुड़े और उसे रौंदते हुए पीछे भागने लगे।
पत्थर रुक गये।
संकरे मोड़ तक पहुँचे आदमियों के पाँव भी रुक गये।
लाल्या किसी तरह उठकर उनके पा पहुँचा। उतरने से पहले एक बार पीछे मुड कर देखा।
फेंगाडया और उसके चार साथी सामने मैदान में आकर नाच रहे थे।
उसके देखते ही वे रुक गये। पीछे हटने लगे।
लाल्या मोड़ से आगे अपने आदमियों में आ मिला।
फेंगाडया ने इशारा किया। उसके आदमी अपने अपने ढेर के पास चले गये। राह देखने लगे।
पत्थर कहाँ से आये? लाल्या के एक आदमी ने पूछा।



बापजी के पास पहरा देने वाला आदमी थरथराते हुए बोला-
शैतान! बापजी कहता ही था--
वह बाई। उसे मंत्र। उसे वश में हैं शैतान के मंत्र।
उसी ने पत्थरों में जीव भर दिया। उन्हें उड़ते पक्षी बना दिया। वे आकर हम पर बरसने लगे।
लाल्या आगे आया। गाल पर बहते रक्त को पोंछते हुए बोला-
अरे भयभीतों। उनके केवल चार आदमी हैं।
मैंने अपनी आँखों से देखा है। केवल चार। पत्थरों के बीच से निकल चलो और मार डालो उन्हें।
फिर जय हमारी ही होगी। चलो।
जय वाघोबाच्
वह मुडा। लम्बी कुलांचे भरता फिर से ऊपर चढने लगा।
केवल चार आदमी उसके पीछे आये।
बाकी काँपते हुए दूर ही रूके रहे।
लाल्या फिर भी आगे ही बढा जा रहा था।
अब कुछ और लोग भी साथ हो लिये।
फेंगाडया ने लाल्या को एकदम आगे तक आने दिया।
दो छलांगों के अंतर पर।
लाल्या के पीछे उसके आदमी भी।
फेंगाडया ने सन्न से पत्थर फेंकते हुए गर्जना की-
होच्होच्च्
चारों दिशाओं से फिर से पत्थर बरसे।
रक्त में लथपथ कपाल। जखमी अंग। कितने नीचे गिरे। कुछ उठे। भागे।
लाल्या भी गिरता पडता भागता रहा। नीचे जाकर मोड पर ओझल हो गया।
एक घायल पडा था। उसने कहा-
अपने सभी आदमी भाग गये। अकेले अकेले।
लाल्या ने लाठी उठाई और तड़ाक्‌ से चला दी। एक ही वार में वह आदमी मर गया।
जानवर। लाल्या उस पर थूका।
ग्लानी से पेड़ के नीचे लेट गया।
कपाल पर हुई जखम से रक्त की धार बह चली।
लाल्या को वहाँ ऐसे पड़ा देख बचे आदमियों का धीरज टूट गया।
वे दौड़ते हुए उतराई से नीचे भागने लगे।
बहुत समय बीता।
अब स्तब्धता ही बस रही थी।
केवल कडकती बिजलियाँ, बारिश, सन्‌ सन्‌ हवा।
फेंगाडया को विश्र्वास नही हो रहा था।
कोई भी क्यों नही आ रहा?
सच या झूठ? की सारे भाग गये?
पेड़ों के पीछे छिपे साथी बाहर आये।
चेहरे हर्षित। गये। भाग गये।
फेंगाडया ने गर्दन हिलाई। कुछ पत्थर उठाकर हाथ में ले लिये।
वह उतराई पर नीचे जाने लगा।
एक को अपने से आगे रखकर।
सोटया को इशारे से बुलाकर उसने पहरे पर बिठाया।



फेंगाडया और उसका साथी तेजी से उतरने लगे।
झाडियों में पत्थर मारते हुए। सावधान होकर।
मोड़ आ गया। कोई भी सामने नही आया।
फेंगाडया अचानक थमक गया।
बारिश और धुंध में उनकी आँखों ने पेड़ के नीचे पडे लाल्या को देखा।
यही था दोनों आक्रमाणों में सबसे आगे। यही होगा उनका मुखिया। चीते की तरह दबे पैरों से फेंगाडया धीरे धीरे आगे बढा।
लाल्या ग्लानी में था। मंद श्र्वास और वेदना का कराहना। बस इतनी सी हलचल।
फेंगाडया आगे बढा।
जमीन पर पड़ी लाल्या की लाठी को उठा लिया। झटके से लाठी घुमाकर लाल्या के सिर पर दे मारी।
फटाक्‌ से खोपडी टूट गई। अंदर से माँस निकल कर बाहर झूलने लगा। फेंगाडया ने लाठी फेंक दी। कष्ट से थका शरीर किसी तरह खींचते हुए चढकर उपर आया।
एक बडे कातल पर धप्प से बैठ गया।
सोटया और दूसरा आदमी दौड़कर आये।
भाग गये? सोटया ने पूछा।
हाँ। वह हाँफते हुए बोला।
फिर पीठ के बल जमीन पर लोट गया।
बारिश के थपेड़े झेलता हुआ।
चेहरे पर भी बारिश। ठण्डी।
दहिनी हाथ मे हड्डी।
पकड़ अब भी ढीली नही हुई थी।
हड्डी की नोक हथेली में गडने लगी।
फेंगाडया का ध्यान उस पर गया।
हड्डी को बार बार चूमते हुए वह रोने लगा।
पंगुल्या। वह चिल्लाया।
पास बैठे आदमी ने सिर हिलाया। थोड़ी देर के बाद दोनों उठे।
एक बार फिर से नीचे के मोड़ तक हो आए।
पूरा दिन सावधानी से सारे बैठे रहे।
रात छाने लगी। फेंगाडया उठा।
अभी कुछ दिन और कड़ा पहरा रखना पडेगा।
अपने तीन साथियों को पहरे के लिये छोड़कर फेंगाडया, सोटया और बाकी सारे बस्ती की ओर उतरने लगे।
सभी थके हुए थे। लेकिन पाँव तेजी से उठ रहे थे।
बस्ती में जलने वाले अलाव और मिट्टी की खपरियों में रटरटाता धान उन्हें आमंत्रण दे रहे थे।
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