Tuesday, 6 December 2016

॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

॥ ९६॥ धानबस्ती पर विजय का नाच ॥ ९६॥

दौड़कर आता हुआ, थका हुआ फेंगाडया अलाव के पास कर चित्त लेट गया।
बाई ने उसे देखा। पास जाकर उसका सिर गोद में ले लिया।
पायडया, पंगुल्या, उंचाड़ी, चांदवी, सारे जमा हो गये।
कोमल आगे आई। खप्पर का धान उसके मुँह से लगा दिया।
पंगुल्या उत्सुकता से थरथराता हुआ आगे आया-- उसने पूछा-
हथियार चल गया। है ना? वो सारे भाग गए? बोलो, भाग गए ना?
फेंगाडया ने आँखे खोली। सामने पंगुल्या को देखकर वह हर्ष से चिल्ला उठा-
होच्होच्ओच्ओच्
उसका आनंद पंगुल्या को छू गया। अपने लंगडे पैर को संभालते हुए वह नाचने लगा।
सभी नाच में साथ देने लगे।
फेंगाडया ने थोड़ा धान और खाया।
अब उसकी साँसे संभल गई।
वह चिल्लाया- आज इस पंगुल्या ने पूरी बस्ती को बचाया है। उसका वह नया हथियार- हड्डी से बना हुआ-
पत्थर फेंककर मारने वाला। वे भाग गए। मर गए। हम जीत गए।
सच? बाई ने थरथरा कर पूछा।
हाँ, हाँ, बिल्कुल सच।
सोटया थका हुआ था। फिर भी उसने दौड़कर पंगुल्या को गलबांही डाल दी।
पायडया आगे आया। उसने भी पंगुल्या को गलबांही दी।
बाई हंसने लगी।
अलाव की ऊष्मा लेकर फेंगाडया भी उठा।
अलाव के चारों ओर गोल बनाकर सारे नाचने लगे।
नाचते नाचते उंचाडी ने आवेग से पंगुल्या को अपनी ओर खींच लिया। अलाव के पास ही दोनों जुगने लगे।
एकआँखी नाचते नाचते थक गई। जाकर बाई के पास बैठ गई। एक कराह उसके मुँह से निकली।
कमर दुखती है? बाई ने उसे सहलाते हुए पूछा।
एकआँखी ने हाँ में सर हिलाया। बाई उसकी कमर पर हाथ फेरती रही। दबाती रही।
 बारिश की एक जोरदार झड़ी आई और थम गई।
एकआँखी उठकर नदी की तरफ जाने लगी तो बाई ने उसे रोक लिया।
अब दूर नही जाना है। नदी तक नही।
यहीं पास में। इस झोंपडी में......। जाओ।
चांदवी आगे बढी। बाई के पास आकर रुक गई।
बाई ने निश्चय से फिर कहा-- अब से पिलू होने के बाद सू को धान मिलता रहेगा। उठकर खड़ा होने की ताकद आने तक।
दो दिनों के बाद धान बंद कर देने की रीत आज से बदलेगी।
चांदवी बाई से लिपट गई।
उसने पूछा- अब हम जीत गए?
बाई ने सिर हिलाया।
हार गई नरबली वालों की टोली। अब वहाँ कौन बचा होगा?
आज चांदवी बाई की आंखों से आंखें मिलाकर प्रश्न पूछ रही थी।
बाई की आँखें अचानक चमक उठीं। ठीक ही पकड़ा इस छोटी सू ने। उस टोली में बचे होंगे केवल सूएँ और बच्चे।
बाई बुदबुदाई-- सब आदमी मर गए। या भाग गए।
पंगुल्या अचानक हंसने लगा मानों भरमा गया हो।
बाई ने पूछा-- क्या रे?
उस बस्ती की वह बुढिया याद आ रही है। मरेगी अब भूख से।
भूख से?
क्या वहाँ धान है? बाई ने पूछा।
नही।
केवल शिकार से मिटती है भूख? बाई ने फिर पूछा।
हाँ।
सारे स्तब्ध थे। कुछ नया होनेवाला था।
बाई आवेग से सोटया की ओर मुड़ी।
तुम्हें जाना है- अभी।
उन सारी सूओं को, पिलुओं को ले आना है।
फेंगाडया असमझ देखता रहा। उन्हें लाना है?
बाई ने पूछा- कौन शिकार करेगा उनके लिए?
मर जाएंगी उनमें से कई।
इतने पिलू, इतनी सूएँ।
बाई का स्वर भर्रा गया।
आदमी ने आदमी को मारने का खेल रचा।
सूओं ने नहीं खेला था मारने का खेल। फिर उन्हें मरण क्यों?
उन्हें लाना होगा। उंचाडी को ले जाओ। वह जानती है रास्ता।
उस बस्ती पर पहुँचो। चांदवी के साथ ले जाओ।
वह सबको समझा सकती है।
बताओ उन्हें कि धानबस्ती पर अलाव है। उष्मा है। और धान है। मरण से बचने का रास्ता है।
पायडया गदगदा उठा--
सही है बाई। सही है। यही है बाई की समझ।
इसीलिए वह बाई है। पायडया चिल्लाया।
सारे सहमत थे।
अलाव के चारों ओर नाच में एक नया रंग चढ गया।
----------------------------------------------------------




No comments: