॥ १००॥ पंगुल्या कहलवाता है जय पंगुल्या ॥ १००॥
झोंपडी में कोई नही था।
बाहर कोलाहल मचा हुआ।
बुढिया ने हाथ के खपरैल को देखा।
खपरैल में रटरटाया धान। वह थरथराई-- बाई का मंत्र तो नही है इसमें?
सूखे पत्तों पर पैरों की खस खस सुनाई दी। उसने सिर उठाकर देखा-- सामने पंगुल्या था। एक अजीब गुस्से और उन्माद में।
बुढिया रोने लगी।
पंगुल्या थूका।
जानवर कहीं की। आ गई यहाँ?
वह और उंची आवाज में रोने लगी।
खा ले.... वह धान खा ले।
बुढिया लपालप खपरैल चाटने लगी।
पंगुल्या उकडूँ बैइ गया।
अब कहेगी बाई से कि पंगुल्या को मार डालो?
बुढिया पथराई सी देखती रही। उसकी गर्दन लटलट काँप रही थी।
जानवर....... तुझे खाया जाना ही ठीक था। सोटया थोड़ा देर से पहुँचता तो अच्छा था। पंगुल्या फिर खिलखिलाया।
फिर तेरी हड्डियाँ भी आ जातीं मेरे पास।
बुढिया थरथराती बैठी रही।
पंगुल्या उठा।
यहाँ रहना है? मरना नही है?
बुढिया ने गर्दन हिलाई।
तो फिर ठीक तरह से रहना।
मेरा ध्यान रहेगा। जानवरपना किया और इसको मार डालो, उसको मार डालो कहती फिरी तो एक
ही झटके में तुझे मार डालूँगा।
पंगुल्या की फटकार सुनी और
बुढिया ने फिर रोने का सुर पकड़ा।
पंगुल्या उसी उन्माद से आगे
आया। बुढिया की जांघ दबाते हुए बोला-
अच्छा स्वाद देगी- यदि ठीक
से भूंजी जाये।
बुढिया पथरा गई।
उसके झुर्रियाँ पडे चेहरे को
देखता हुआ पंगुल्या बोला-
मुझे मार डालने वाली थी,
मुझे।
पंगुल्या थरथरा उठा।
बोल..........बोल.........
जय पंगुल्या।
वह चीखा।
बुढिया धडपडाती उठी। पूरी
जान से चिल्ला उठी।
जय पंगुल्या।
पंगुल्या हंसा। मुडा और
घिसटते हुए निकल गया।
बुढिया धप्प से बैठ गई।
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