Saturday, 31 October 2009

अर्थव्यवस्था का नमक प्लस 13 y

(यह नया जोड के रखा है काम आयेगा।)
 दररोज आयोडीनचे प्रमाण १५0 मायक्रोग्रॅम आवश्यक मानले आहे. गर्भार होऊ घातलेल्या, गर्भ राहिलेल्या आणि स्तनपान देणार्‍या महिलांना दोन जीवांच्या असल्यामुळे जवळजवळ दुपटीपर्यंत आयोडीन हवं असतं. आयोडीनप्रमाणेच जीवनाला आवश्यक असणारी बाकीची पोषणद्रव्येही अधिक प्रमाणात आवश्यक असतात. स्त्री वयात आल्यापासूनच तिला पोषणमूल्ये अधिक मिळतील याकडे लक्ष दिले पाहिजे. आपल्या पुढच्या पिढय़ा सशक्त, सुदृढ, चपळ आणि हुशार व्हाव्यात असं वाटत असेल तर मुलींना पूर्वीपासूनच सकस आहार दिला पाहिजे. मुलांनाही दिला पाहिजेच.
जगभरात अनेक संशोधकांनी विविध पाहण्या केल्या. सर्वांनाच मानवी शरीरातील आयोडीनचं प्रमाण कमी असल्याचं आढळतं. अशी शरीरे विविध रोग, आजार, व्याधी आणि विकार यांना फोफावायला आमंत्रण देणारी ठिकाणं आहेत, असंच म्हटलं पाहिजे. जागतिक आरोग्य संघटनेच्या अहवालानुसार जगातल्या १२९ देशांत २00 कोटी लोकांना आयोडीनच्या कमतरतेची समस्या भेडसावत आहे.
समुद्री अन्न समुद्रापासून लांब राहणार्‍या समूहांना मिळणं तितकेसं शक्य नाही. त्यांनी पाणथळ दलदलीच्या भागातलं अन्न खाल्लं तर ते उपकारक ठरेल. गेल्या शतकापर्यंत देशाच्या अंतर्गत भागात राहणार्‍या लोकांमध्ये आयोडीनचा अभाव तितकासा आढळला नाही. कारण त्यांना निर्मळ झर्‍यांच्या, ओढे-नाल्यांच्या, विहीर, तलाव, नद्यांच्या पाण्यातूनही पुरेसं आयोडीन मिळू शकतं. मग पाण्याच्या स्रोतांचं, साठय़ांचं प्रदूषण व्हायला लागलं. शेतीमध्ये, उद्योगामध्ये तीव्र स्वरूपाची रसायनं वापरायला सुरुवात झाली. पाण्यातील, अन्नातील आयोडीनचं प्रमाण कमी झालं. त्याशिवाय आयोडीन शरीरात सामावून घेणार्‍या रसायनांचं प्रमाण वाढलं. त्यामुळे शरीरात गेले तरी आयोडीन समाविष्ट होत नाही आणि शरीर तंदुरुस्त राहत नाही, अशी परिस्थिती आली.
रासायनिकदृष्ट्या आयोडिनाच्याच गटात बसणार्‍या ब्रोमीन, क्लोरीन, फ्लोरीन या मूलद्रव्यांची आपल्या आहारात, वातावरणात वाढ झाली.
आधुनिक फास्ट फूड संस्कृतीत वावरणार्‍या व्यक्तींमध्ये आयोडीनचं प्रमाण झपाट्यानं कमी होण्यामागं अन्नातून, पाण्यातून येणार्‍या ब्रोमीन आणि क्लोरीनची भूमिका मोठी आहे. नळावाटे शुद्ध पाणी घरात पोचवणं हे आधुनिक नागरिकशास्त्रात पालिका-नगरपालिका यांचं कर्तव्य आहे. पाणी शुद्ध करण्यासाठी काही ठिकाणी थेट क्लोरीन वापरतात, काही ठिकाणी ब्लिचिंग पावडर, काही ठिकाणी पॉलीअँल्युमिनाइज्ड क्लोराईड. काहीही वापरा नळाच्या पाण्यावाटे क्लोरीन तुमच्या घरात, स्वयंपाकात आणि पोटात प्रवेश करणारच. क्लोरीनचा हा प्रवेश नाकारण्यासाठी एक साधा उपाय आहे. नळावाटे ‘शुद्ध’ करून आलेलं पाणी भरून ठेवून दोन दिवसानंतर ‘शिळं’ झालं की वापरायचं म्हणजे तोपर्यंत त्यातील अतिरिक्त क्लोरीन उडून जाईल. आपण शरीराला उपकारक ‘शिळं’ पाणी फेकून देतो आणि नळावाटे आलेलं क्लोरीनचा घमघमाट असलेलं पाणी वापरायला घेतो. मग शरीरातलं आयोडीन कमी होणारच. अनेक बाजूंनी आपणच शरीरातल्या आयोडीनला हाकलायला त्याच्यापेक्षा भारी ऑक्सिडीकारक या ना त्या मार्गानं भरल्यावर आयोडीनची कमतरता नाही झाली तर नवल. याला म्हणतात आपणच आपल्या पायावर कुर्‍हाड मारून घेणं.
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अर्थव्यवस्था का नमक

२, अक्टूबर २०००
.........लीना मेहेंदळे

पिछले पचास वर्ष से सिर धुन-धुनकर रोया जा रहा था कि सरकार में लाइसेंस-कोटा-परमिट राज है जबकि इसे मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाना चाहिए ताकि उद्यमियों के लिए उत्पादन क्षमता के नए आयाम खुलें। लेकिन हर उद्यमी अपने-अपने उत्पाद और अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार आंशिक नियंत्रण की बात करता था। यानी वे नियंत्रण हटने चाहिए जिनका हटना उसके लिए फायदेमंद हो और वे रहने चाहिए जो उसे स्पर्धा से बचाते हों। अर्थात यह भी एक तरह से आरक्षणवादी सिद्धांत है। सामाजिक आरक्षण को लेकर हजार चर्चाएं और आंदोलन होते रहे, जबकि आर्थिक या आद्योगिक आरक्षण का खेल हमेशा पर्दे के पीछे खेला जात रहा। बहरहाल, विदेशियों की नजर हमारे देश में मिल सकने वाले बाजार पर पड़ी और पूरे विश्र्व में अचानक यह आलोक क्षण मात्र में फैल गया कि आयात प्रतिबंध हटने चाहिए। हमारी अर्थव्यवस्था खुले तो यों भक से खुले कि ब्रह्मांड के दूसरे छोर तक कहीं कोई दीवारें, दरवाजे या रुकावटें न हों। जो भी अपनी पेदावार यहां लाकर बेचना चाहता है, बेचे। जो भी यहां टोल-नाकों पर बैठकर उगाही करना चाहता हो, करे। अब हम खुल गए हैं।

लेकिन हम खुले हैं तो किसके लिए? उनके लिए जो उत्पादक हैं। उनके लिए नहीं, जो उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता पर तमाम बंधन लगाए जा सकते हैं और लगाए जाएंगे क्योंकि तभी तो उत्पादक निश्च्िंात रहेंगे कि उनके माल की खपत होगी। उपभोक्ता पर बंधन लगाने के दो तरीके होंगे : स्वच्छ और प्रच्छन्न। स्वच्छ का अर्थ यहां सफाई से नहीं है। स्वच्छ यानी जो डंके की चोट पर बताए जाएंगे। प्रच्छन्न वे जिन्हें किसी बहाने से लगाया जाएगा। एक बहाना इसमें बहुत काम आएगा और वह है सरकार की अनुपलब्धियों का, जो कि पिछले पचास वर्षों से चली आ रही हैं और
आगे भी चलेंगी। इसके माध्यम से बहाने मिलते रहेंगे।

उदाहरण खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। नमक का उदाहरण समाने है। जिस देश पर अपनी संपत्त्िा लुटाने के लिए समुद्र तीन दिशाओं से पलकें बिछाए बैठा है वहां छोटे-छोटे हजारों नमक-भंडार हों तो कोई आश्चर्य नहीं। यहां कई-कई पीढ़ियां सदियों से नमक बनाने के व्यवसाय में जुटी हों और सारी जनता को अत्यंत सस्ती दर पर नमक मुहैया होता रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रकृति ने तो सौगात देने में इतनी उदारता बरती कि समुद्र के अलावा हमारे कई पहाड़ों से भी नमक प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन नमक खाने वाला कौन है? करीब बीस प्रतिशत अतिधनवान से लेकर अस्सी प्रतिशत गरीब और अतिगरीब तक सभी। उन बीस प्रतिशत को नमक की महंगाई से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिन अस्सी प्रतिशत को पड़ता है उन्हें क्षुद्र उपभोक्ता कहा जा सकता है। उन्होंने अभी तक 'अधिक सफेद नमक' खाने की धन्यता को नहीं जान है।

उधर हजारों छोटे नमक उत्पादक व्यवसायियों की तुलना में उन महिमामय उत्पादकों का पलड़ा भारी है तो बनाएंगे तो नमक ही, लेकिन पर्याप्त साज-सज्जा के साथ, और उस नमक से प्राकृतिक आयोडिन हटाकर। उसमें दुबारा बड़े तामझाम और निहित कर्मकांड (यहां-प्रोसेसिंग के अर्थ में) संपन्न कराकर आयोडीन वापस डाला जाएगा और उपभोक्ता से कहा जाएगा-लो, इसे खाओ। नहीं खाते? अरे भाई, कहां हो मेरी सरकार? इस पर कुछ प्रतिबंध लगाओ। क्या प्रच्छन्न तरीके चाहिए? तो उन बीमारियों के आंकड़े फाइल में दर्ज करो जो आयोडीन की कमी से होते हैं । लेकिन फैसले का हक उपभोक्ता को न दो। उत्पादक के लिए खुली अर्थव्यवस्था है, उसे अपने आयोडीन-नमक कारखाने की क्षमता बढ़ानी है तो वह बढ़ाएगा। लेकिन यदि उपभोक्ता कहे कि वह आयोडीन-नमक मैं नहीं खाता, मुझे वही पुराना सस्ता, प्राकृतिक (और समुद्र-जल से बना हो तो आयोडीन की पर्याप्त मात्रा को प्राकृतिक रूप से संजोने वाला) नमक चाहिए, तो भई सरकार इसे इतनी खुली छूट, खुली आजादी तो न दो कि वह हमारा उत्पाद खाने की
बजाय उन छोटे समुद्रतटीय सस्ते नमक उत्पादकों का उत्पाद खरीदें।

बंधन लगाने के बहानों के लिए भी दूर तक दौड़ लगाने की जरूरत नहीं है। कह दो कि हमारे स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग कार्यक्षम नहीं थे, वे जनता को आयोडीनयुक्त नमक की आवश्यकता से अतगत कराने में कामयाब नहीं थे, न होंगे। जब जनता ज्ञानी हो, तब फैसला उस पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन घोर अज्ञान में घिरी जनता को लेकर दो कठिनाइयां हैं। पहली यह कि उसे आयोडीनयुक्त नमक की आवश्यकता का ज्ञान नहीं है ओर दूसरी यह कि समुद्री नमक में प्राकृतिक रूप से आयोडीन मौजूद होता है, यह ज्ञान उससे छिपाने की भी आवश्यकता है। सो, खुली अर्थव्यवस्था उत्पादकों के लिए सारे दरवाजे खोलती चली जाएगी। उपभोक्ता के लिए दरवाजे बंद हो सकते हैं।
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