Thursday, 22 October 2009

छोरी साइकिल चलावै छे 25 y

छोरी साइकिल चलावै छे
---लीना मेहेंदले

स्त्री मुक्ति, स्त्री विकास, स्त्री सबलीकरण इत्यादि शब्दों का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने संदर्भ के अनुसार लगा लेता है । मेरे लिये इसका सीधा- सादा अर्थ है कि स्त्री को घुमक्कड़ी का पूरा अधिकार और सुविधा होनी चाहिये - घूमो, जहाँ, जब चाहो ।

अधिकार के लिये घर-परिवार में कहीं कोई मनाही नही थी । लेकिन सुविधा के लिये माता-पिता को, समाज को प्रो-अक्टिव होना पड़ता है । सो मेरे पाता-पिता थे । उत्तरी बिहार जैसे पिछड़ा माने जानेवाले प्रांत के दरभंगा शहर में सन्‌ साठ के दशक में मेरे पिताजी ने बड़ी जिद से मेरे लिये लेडीज साइकिल खरीदी, खुद मैदानों में ले जाकर मुझे सिखाई और बढ़ावा देते रहे स्कूल में साइकिल से जाने के लिए । घुमक्कड़ी का बीज तभी पड़ा ।

यह वो जमाना था जब हमारे गर्ल्स स्कूल में सभी लड़कियों को स्कूल लाने- लेजाने के लिये बस थी । उसकी भारी फीस चुका पानेवाली लड़कियाँ ही वहाँ पढ़ सकती थीं क्यों कि लड़कियों का पैदल चलना खतरों भरा माना जाता था । बस अक्सर बंद हो जाती और स्कूल में छुट्टी घोषित हो जाती जिसकी सूचना एक बेचारा स्कूल- सिपाही घर घर जाकर दे आता । उस खटारा बस को चलाने के लिये 'हैंडिल मारना' पड़ता था । इस शब्द के माने भी आज की तारीख में शायद ही कोई समझेगा ।

बहरहाल, साइकिल से स्कूल जाते हुए मुझे अक्सर 'छोरी साइकिल चलावै छे' सुनना पड़ता । (जिनके दिमाग में बिहार की कोई अन्य छवि हो उनके लिए यह भी कह दूँ कि यह अक्सर प्रशंसा भरा होता था) लेकिन क्षणैक भर ही । अगले पल मैं कहीं दूर होती - आश्चर्य से मुँह बाये खड़े उस दर्शक के अगले रिमार्क की पहँच से कहीं दूर । फिर चाहे वह प्रशंसा भरा हो चाहे निंदात्मक, उसे जानने के मोह से भी मैं परे हो जाती । वह दूरी और वह गति ही स्वतंत्रता की असली पहचान बनती थी । बाद में घूमने के इतने मौके मिले कि भ्रमणशीलता और स्वतंत्रता का नाता मेरे मन में पक्का हो गया । दोनों के लिये गतिशील वाहन का स्वामित्व आवश्यक है ।

नौकरी के लिये पुणे आई और स्कूटर खरीदा तो किसी ने पुणेरी महिलाओं के ऐतिहासिक साहस की कथाएँ भी सुनाई । पुणे में मोटर साइकिल चलानेवाली पहली महिला श्रीमति इंदू नातू (१९५३) थीं, फिर इरावती कर्वे ('युगान्त' की चर्चित लेखिका) और फिर प्रभा नेने जिन्होंने उस दशक में पुणे - नागपुर स्पर्धा पुरूषों के मुकाबले में जीती थी । फिर लैम्ब्रेटा स्कूटर का दौर आया । इन महिलाओं के साहस का फल है कि आज पुणे शहर में दोपहिया वाहन चलानेवाली महिलाओं की संख्या पुरूषों के बराबर है, चाहे साइकिल पर हो चाहे स्कूटर पर । महिलाएँ रात में भी अकेली, पैदल या वाहन पर सवार होकर निर्भयता से घूम सकती हैं । भ्रमण की यह सुविधा इतनी भरपूर शायद ही अन्य किसी शहर में हो ।

जब मारुति कार पहली बार बाजार में आई तो उसे चलाना इतना सरल और सुविधाजनक था (खासकर अम्बेसेडर की तुलना में) कि महिलाओं ने इसे तत्काल अपनाया । किसी भी शहर के आर टी ओ के आँकड़े इस बात की गवाही देंगे कि जब उनके शहर में मारूति आई तो महिला लाइसेन्सधारियों की संख्या अचानक बढ़ गई । लेकिन ये बढ़ोतरी केवल संपन्न वर्गों से हुई - मध्यम वर्ग की महिलाएँ इसे अफोर्ड नहीं कर सकती थीं । उन्हें चाहिए थी स्कूटर- दो पहियों वाली, जो गति तो दे पर जेब पर भारी भी न पड़े । लेकिन महिलाओं के स्कूटर चलाने का चलन जितना पुणे में बना उतना अन्य शहरों में नही । स्कूटर चलाना थोड़ा कठिन तो अवश्य है । अस्सी के दशक तक जितने स्कूटर बाजार में आये उनमें ब्रेक के लिए दाहिना पैर लगाना पड़ता है जिससे दहिने मुड़ने में थोड़ी दिक्कत है । कई पुरूषों ने भी मुझसे यह कहा है और महिलाओं को तो छोटे कद और स्कूटर के भारी होने की दिक्कत होनी ही थी । इस अड़चन की परवाह न करना जैसा पुणे की महिलाओं को आया वैसा अन्य शहरों में इतने बड़े पैमाने पर नही आया ।

उन दिनों कार्यवश मैं कभी भी दिल्ली आती थी तो यह अखरता था कि यहाँ औरतें स्कूटर नहीं चलाती थीं । चला भी नही सकती थीं क्यों कि दिल्ली की भीड़ में स्कूटर की मॅन्यूवरिंग असंभव न सही, कठिन तो अवश्य थी । वह उनके उत्साह पर रोक तो लगा ही देती होगी । (हालाँकि इक्का-दुक्का स्कूटरधारी महिलाएँ मैंने तब भी देखी हैं)

मैं अक्सर सोचती थी कि दिल्ली में भी औरतें स्कूटर चलाने लगें तो कितना अच्छा होगा - क्यों कि इससे ट्रैफिक का 'कंपोजिशन' ही बदल जाता है । सड़कों पर अधिक औरतें दीखती रहें यह भी महिला विरोधी अपराध कम करने का एक कारगर उपाय है । लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है ? सबलीकरण का वह दौर जो पुणे में पचास वर्ष पूर्व आ चुका था, अभी तक दिल्ली नहीं पहुँच पाया था।

फिर आँटोमॅटिक गियर वाली 'कायनेटिक होंडा' मार्केट में आई और पुणे में ही मैनें देखा कि कितनी तेजी से महिलाओं ने अपनी पुरानी स्कूटर बदलकर नई कायनेटिक खरीदी । इसकी खूबियाँ थीं कि ब्रेक पैर की बजाय हाथ से लगाया जाता है, सीट की उँचाई कम है, गियर अपने आप बदलता है । खासतौर पर महिला चालकों की स्कूटर कहा जा सकता है इसे । मैने हस्तीमल फिरोदिया जी को बधाई दी -- कि औरतों के स्वावलंबी बनने की प्रक्रिया में एक बढ़िया आयाम उनकी कायनेटिक ने जोड़ा है । यह सन्‌ नब्बे की बात है ।

कायनेटिक ने पुणे से दिल्ली तक की दूरी दस वर्षों में तय की । पिछले एक वर्ष से देख रही हूँ कि दिल्ली में कायनेटिक चलाती हुई महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है । यह हुई ना बात। अब अधिक महिलाएँ कायनेटिक चलाएंगी - सड़कों पर उनका आवागमन, उनकी उपस्थिति बढ़ेगी । कभी रात में परिस्थितिवश किसी महिला को पैदल चलना पड़ा (जो मुझे कभी कभी पड़ता है) तो उसे आशा रहेगी कि कोई स्कूटरचालक महिला उसे लिफ्ट दे सकती है । कालांतर में रात में भी पैदल चलने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ेगी तो अकेले पैदल चलना नही अखरेगा । महिला सबलीकरण की सुविधा जुटाने वाली कायनेटिक होंडा जिंदाबाद।
कायनेटिक, तुम दरभंगा कब पहुँचोगी ?
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प्रकाशित प्र.ख. ३१ अक्टूबर २००२
15जनवरी 2003 -- PCRA द्वारा ऑइल-बचाओ पखवाडे के उपलक्ष्य में दिल्ली में आयोजित दुपहिया वाहन-चालक महिलाओंकी रैली के अवसर पर व वितरित लेख.

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