Saturday 31 October 2009

अपने-अपने शैतान 16 y

अपने-अपने शैतान
जनसत्ता, २ दिसम्बर २०००
..........लीना मेहेंदले
मानव समाज कई धर्मों में बंटा हुआ है और हर धर्म के अपने-अपने भगवान हैं। किसी के राम हैं, किसी के रहीम, किसी के ईसा हैं तो किसी के और कोई। जब हम भगवान की कल्पना करते हैं तो एक ऐसी तस्वीर दिमाग में उतरती है जो सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञानी है, दयालु है, न्यायप्रिय है, अच्छों की मदद करने और बुरों को सजा देने के लिए तत्पर है, कृपालु है, संकटमोचन है इत्यादि। अर्थात्‌ वह उन सारे गुणों से युक्त है जो आदमी का और समाज का संबल बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हम मानते हैं कि उन्हीं गुणों की बदौलत संसार चल रहा है, हम फल-फूल रहे हैं और आगे भी फूलने-फलने वाले हैं। इसके साथ ही हर धर्म में शैतान भी रहा है जिसने अच्छे व्यक्तियों को सताया है, बुराई और बुरे लोगों को बढ़ावा दिया है, समाज को ध्वंस करने का प्रयत्न किया है, उसे त्राहि-त्राहि की पुकार के लिए मजबूर किया है और आखिरकार उसके दमन के लिए भगवान को खुद मैदान में उतरना पड़ा है। कोई भी सूझबूझ वाला और समाज की भलाई चाहनेवाला मनुष्य शैतान के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता।

चूंकि समाज धर्मों में बंटा हुआ है इसलिए एक धर्म के लोग यदि दूसरे धर्म के भगवान को मान्यता नहीं देते या उस पर अपना ईमान नहीं लाते तो सामाजिक सद्भावना के लिये यह अच्छी बात तो नहीं, पर कुछ-कुछ समझ में आने लायक है। यदि मेरा राम मुझे वह सब कुछ दे रहा है जो एक भगवान को एक अच्छे मनुष्य को देना चाहिए, तो मैं किसी दूसरे धर्म के भगवान की बाबत, खास कर उससे कुछ मांगने की बाबत क्यों सोचूं?

सही है। इससे अगला प्रश्न है कि क्या यह आवश्यक है कि मैं दूसरे धर्मवाले से इसलिए लड़ाई करूं कि वह मेरे भगवान को अपना भगवान नहीं मानता? ऐसी लड़ाइयों को जिहाद और न जाने क्या-क्या अच्छे-खासे नाम दिए गए हैं। ये लड़ाईयां यह कह कर लड़ी गईं कि तुम भी मेरे भगवान को मानो तो वे तुम्हारे दुख-दर्द को दूर करेंगे।



इसलिए यह तो समझ में आता है कि क्यों एक धर्म के भगवान के विरूद्ध दूसरे धर्म के लोग लड़ते हैं। लेकिन शैतान की बात अलग है। उसके साथ लड़ाई तो उसी के धर्मवालों ने लड़ी है, उसी धर्म के भगवान ने लड़ी है। आप हिंदू हों या मुसलमान या ईसाई, यदि आप सच्चे इंसान हैं तो आप शैतान से हर हालत में लड़ेंगे, चाहे वह ईसाइयों का शैतान हो या हिंदुओं का। एक हिंदू भले ही ईसाई या मुसलमानों के भगवान के विरूद्ध लड़ ले, लेकिन उनके शैतान का पक्ष वह कभी नहीं ले सकता। शैतान या शैतानियत का पक्ष लेना अपने इंसानी अस्तित्व को नकारने जैसा ही होगा। अर्थात्‌ हम एक दूसरे के भगवान के विरोधी तो हो सकते हैं, लेकिन दूसरों के शैतान के पक्षधर कभी नहीं हो सकते। शैतान सारे धर्मभेदों से परे, बस शैतान ही होता है। यही मेरी सोच-विचार और तर्क प्रणाली थी, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व इसे धक्का लगा और उस दुखद तर्क को मैं आज तक नहीं समझ पाई।

अंडरवर्ल्ड जिस तरह से समाज का कांटा बनकर चुभ रहा है, मवादवाले घाव की तरह समाज के तन-मन को सड़ा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। अंडरवर्ल्ड के कई डॉन आए और गए, लेकिन हर कोई समाज के लिए खतरा ही था। यदि दो टक्कर के डॉन आ जाते हैं तो एक जरा-सी संभावना है कि वे दोनों एक दूसरे पर गोलियां चलाकर आपस में ही एक दूसरे को खत्म कर देंगे, लेकिन दूसरा बच जाता है तो वह दुगुने जोश के साथ समाज का शोषण और प्रताड़ना आरंभ कर देता है। इसलिए अंडरवर्ल्ड में एक की जगह दो डॉन आ जाएं तो जनता की कठिनाईयां दुगुने ही नहीं, बल्कि कई गुने बढेंगी। मैं अपने इस तर्क से पूरी तरह आश्र्वस्त थी और सोचती थी कि इससे अलग कोई दूसरा तर्क हो ही नहीं सकता।

इसके बावजूद जब कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरदार दाऊद इब्राहिम के गिरोह से लडकर उसके दो छुटभैये बाहर निकले और उन्होंने अपने-अपने गिरोह बनाये तो मुंबई की सज्जन जनता भले ही काँप गई हो, लेकिन कुछ लोगों ने गर्व जताकर कहा कि चलो, उनका यदि दाऊद है तो हमारा भी अश्र्िवन नाईक है या छोटा राजन है या अरुण गवली है। यानी हमारी 'उनसे' रेस किस बात पर है? इस पर कि हम भी 'उनसे बड़े' शैतान पैदा कर सकते हैं? और उनसे बड़े 'शैतान' पाल सकते हैं?



मुझे भुलाए नहीं भूलता कि रिश्र्वत खाकर जिसने दाऊद के लिए कस्टम क्लियरेंस करवाया और मुंबई में आरडीएक्स जाने दिया वह कस्टम अधिकारी कोई राणा था, हिन्दू था, जो आज भी मुंबई की जेल में बंद है और उस पर आज तक हम मुकदमा पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन जो हजारों जानें बम फटने से गईं उस अपराध में वह भी शामिल है। क्या उस पर हम कभी 'उनका' या 'अपना' लेबल लगा सकते हैं?

'अपने' शैतान के लिए गर्व और सम्मान महसूस करनेवाली आत्मघाती सोच की बात इसलिए याद आई कि उस सम्मान के प्रतीक के रूप में जिसे 'नगरसेविका' के पद के लिए टिकट देकर जितवाया गया था वह नीता नाईक किसी अजनबी हत्यारे की गोलियों की शिकार बन गई है। क्या वह अजनबी कोई 'अपना', 'सगा ', 'चहेता ' शैतान ही नही है जिसने यह किया? उधर छोटा राजन भी बैंकाक से भागने में सफल हुआ क्योंकि किसी ने उसे अपना माना है, भले ही मुंबई पुलिस उन्हें अपनी न लगती हो।
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