तबादलों का अर्थतंत्र
जनसत्ता ६ दिसंबर २०००
.........लीना मेहेंदळे
सरकारी नौकरी में लगे हर व्यक्ति को पहले दिन से ही पता रहता है कि उसका कभी भी तबादला हो सकता है। एक दफतर से दूसरे दफतर, एक शहर से दूसरे शहर और देश के एक कोने से दूसरे कोने में। 'एक देश ' और 'एक देश की सरकार' - ये दोनों अवधारणाएं अंग्रेजी राज के साथ आईं। उस राज में जो कोई सरकारी नौकर लग जाता, उसके निहित स्वार्थ की बात सरकार को कभी भी परेशान कर सकती थी, अतः ऐसी संभावना टालने के लिए तबादले जरूरी माने जाते थे। आज भी जरूरी माने जाते हैं। इसी से गांव के पटवारी से लेकर कलेक्टर तक और दफतर के बाबू से लेकर सेक्रेटरी तक सबके तबादले होते रहते हैं। जब मैं सरकारी नौकरी में आई तो एक ओर अपने आपको तबादलों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया तो दूसरी ओर अपने अधीनस्थों के तबादलों के सिलसिलों को भी समझना आरंभ किया। तबादला होने पर सबसे बड़ी समस्या आती है बच्चों की पढ़ाई की। अब तो अच्छे शहरों के अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलना असंभव-सा होता जा रहा है, खासकर वर्ष के बीच में। इसलिए सरकार को भी नियम बनाना पड़ा कि तबादले प्रायः उन्हीं दिनों किए जाएं जब स्कूलों में परीक्षाएं समाप्त हो चुकी हों।
एक बार मेरे कार्यालय में सरकारी शिक्षकों के तबादले की टिप्पणी बन रही थी कि मुझे दौरे पर एक गांव जाना पड़ा। इस गांव का शिक्षा के मामले में काफी अच्छा रेकार्ड था और सरपंच बड़े ही सुलझे हुए बुजुर्ग थे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहना आरंभ किया कि शिक्षक बच्चों को केवल अपनी क्लास की पढ़ाई से ही नहीं, बल्कि अपने आचरण से भी पढ़ाता है। शिक्षक के साथ विद्यार्थी का भावनात्मक रिश्ता जुडना आवश्यक होता है। लेकिन हमारे अधिकारी क्या करते हैं? दो-चार वर्ष हुए नहीं कि शिक्षक का तबादला कर दिया, वह भी इसलिए कि किसी विधायक ने, किसी पंचायत अध्यक्ष ने, किसी सरपंच ने शिकायत कर दी। फिर कैसे वह शिक्षक बच्चों के लिए प्रेरणा बन सकता है, कैसे इन नन्हें पौधों को सजा-संवार सकता है?
उनकी बातों से सीख लेकर मैंने तो तबादलों के संदर्भ में अच्छी नीतियाँ बनाकर उनकी जानकारी सबको देनी शुरू कर दी।
तबादलों की बाबत कई कहानियां सुनने को मिलती हैं कि किसने कितनी रकम देकर आदेश पाया है या रद्द करवाया है। पिछले पचीस वर्षों में इसके तरीके और भी परिष्कृत हुए हैं। अब तो कई कार्यालयों में पहले आदेश, फिर रद्द -- इतना कष्ट नहीं उठाया जाता, जिस-जिस को जहाँ तबादला चाहिए उसकी बोली लगती है। जिसे कहीं से हटाना है उसे भी न हटाए जाने के लिए बोली लगाने का मौका दिया जाता है।
तबादलों का सीधा संबंध सुव्यवस्था और सुचारु प्रशासन से भी है । हाल में ही मुझे उत्तर प्रदेश के एक जिले में जाना पड़ा। शिकायत थी कि किसी स्त्री पर बलात्कार हुआ और पुलिस रपट नहीं लिख रही थी, न आगे कुछ कर रही थी। हमने जांच के दौरान पुलिस अधीक्षक से पूछा तो पता चला कि वे बस चार महीने पहले वहां आए थे और इससे पहले जहां अधीक्षक थे वहां से भी उनका तबादला आठ महीनों में हो गया था। वर्तमान जिले में पिछले दो वर्षों में आनेवाले वे तीसरे अधीक्षक थे। ऐसी हालत में यदि कोई ईमानदार अफसर भी हुआ तो वह कैसे सुव्यवस्था को बनाए रखेगा? उसे नए इलाके को जानने-समझने में जितने दिन लगते हैं उससे पहले ही उसका तबादला हो जाता है।
पुणे जैसे बड़े और विकसित शहर के नए म्युनिसिपल आयुक्त आए और उन्होंने गैर-कानूनी इमारतों को गिराना शुरू कर दिया। जनता खुश हुई। लेकिन सरकार ने अचानक उनका तबादला कर दिया। अब की जनता क्रोधित हुई तो चुप नहीं बैठी। जुलूस निकले, सभाएं हुईं। अंत में लोगों ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की और कोर्ट ने भी स्टे दे दिया। यह अलग किस्सा है कि बाद में घटनाओं ने कुछ अन्य मोड़ ले लिया और हाईकोर्ट ने केस खारिज कर दिया। कोर्ट में जो याचिका दाखिल हुई उसमें केवल यही बातें थीं कि कैसे वे अच्छे अफसर थे और सरकार उन पर कैसा अन्याय कर रही थी। मुझे लगा कि यहाँ जनता चूक गई। मुद्दा यह उठाया जाना चाहिए था कि क्या पुणे की भरपूर म्युनिसिपल टैक्स देनेवाली जनता को अच्छे प्रशासन का हक नहीं है? और यदि हां तो कोई बताए कि दस-पंद्रह दिनों में अधिकारी बदलते रहें तो जनता को अच्छा प्रशासन कहां से मिलेगा?
एक महत्वपूर्ण आर्थिक पहलू और भी है जो मुझे आरंभिक दिनों में नहीं पता था। जब किसी सरकारी अधिकारी का तबादला होता है तो उसके नए कार्यालय को उसकी इच्छा के अनुरूप सजाया जाता है। अधिकारी जितना वरिष्ठ होगा, सजावट का खर्चा भी उसी अनुपात में जायज माना जाता है। और अब तो यह सजावट एक स्टेटस सिंबल भी बन गई है। यदि कोई अफसर अपने पहले के अफसर द्वारा कराई गई सजावट को नहीं बदलता तो माना जाता है कि उसमें कोई दम नहीं। और फिर यह खर्चा क्या केवल अधिकारियों के तबादलों में ही होता है? जी नहीं, मंत्रियों के खाते भी जब बदले जाते हैं, नए मंत्री आते हैं तो उनके भी घरों और दफतरों में सब कुछ बदल कर नया लगवाया जाता है।
कैसा रहे यदि इन खर्चोंका ब्योरा हर वर्ष माँगा जाय?
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Saturday, 31 October 2009
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