कानूनन अन्याय
२६, दिसंबर २०००,
............लीना मेहेंदळे
कल्पना करिए, कोई एक जघन्य अपराधी है जिसने तीन बार बलात्कार किए हैं। दो बार गुनाह साबित न होने से छूट चुका है, लेकिन तीसरी बार सजा भुगत चुका है, चौथी बार उसने फिर बलात्कार किया और केस अदालत में पेश हुआ। बयान देने की बात आई। वह स्त्री बयान के लिए पेश हुई जिसके साथ बलात्कार हुआ था। आरोपी भी पेश हुआ।
दोनों के प्रति कानून का क्या रवैया होगा? या पहले यह पूछें कि समाज के किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का रवैया क्या होगा? जिसे समाज में ऐसे अपराधों के प्रति चिंता है और जो इस विषय में गंभीरता से कुछ सोचता है और चाहता है कि समाज में अपराध कम हों, समाज का निर्वाह अधिक सुगम हो, उस व्यक्ति का रवैया क्या होगा? यानी हमने तीन तरह के वर्गीकरण किए। एक ओर तमाम संवेदनशील व्यक्ति, दूसरी और तमाम चिंतनशील व्यक्ति और तीसरी ओर कानून और कानूनी व्यक्ति-जैसे, वकील और जज। हमें तीनों के सोच में क्या अंतर नजर आएगा?
यह जानने के लिए देखें कि बयानी ओर जिरह के दौरान क्या होता है।
शायद इस देश के तमाम संवेदनशील और तमाम चिंतनशील लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि बलात्कार का कोई भी केस जब होता है तो आरोपी पुरूष और उसके वकील बलात्कृत स्त्री के पूर्व चरित्र को संशय का पात्र साबित करें, इसकी उन्हें पूरी छूट होती है। कानून इसकी इजाजत देता है। यह छूट इंडियन एविडेंस एक्ट सेक्शन १५५ (४) के तहत मिली हुई है। इसका पूरा फायदा उठाते हुए वकील स्त्री से अत्यंत लांदनास्पद और अपमानजनक सवाल पूछ सकते हैं, पूछते हैं और वाकई में स्त्र्िायों को रूला कर छोड़ते हैं। इससे उनका ध्यान वर्तमान केस की तरफ से बंट जाता है। वे जल्दी से जल्दी इस अपमानजनक वातावरण से छूट कर भागना चाहती हैं और न्यायाधीश भी उनके वर्तमान बयान को संशय की दृष्टि से देखने लगते हैं।
दूसरी ओर, आरोपी के पिछले तीन बलात्कार के अपराधों से संबंधित केस के कागजात आपका (यानी सरकारी) वकील कोर्ट में दाखिल करना चाहे तो क्या होगा? उसी इंडियान एविडेंस एक्ट के सेक्शन ५४ के तहल वकील को बताया जाएगा कि आरोपी के पूर्व चरित्र का मुद्दा वर्तमान किस में नहीं उठाया जा सकता। आरोपी को यह संरक्षण मिला हुआ है। उसका पूर्व चरित्र चाहे कितना ही जघन्य या घृणित क्यों न हो, आप न्यायाधीश को उसके प्रति 'पूर्वहग्रस्त' नहीं कर सकते क्योंकि न्यायधीश सिर्फ वर्तमान अपराध की जांच कर रहे हैं।
देख लीजिए कानून की विडंबना कि आरोपी पुरूष को हर तरह का संरक्षण है, लेकिन बलात्कृत स्त्री के चरित्र की धज्ज्िायां उड़ाने की पूरी छूट है। कोई भी संवेदनशील स्त्री या पुरूष, कोई भी चिंतनशील स्त्री या पुरूष यह बताए कि न्याय की दौड़ में क्या स्त्री को पहले से ही पीछे नहीं छोड़ दिया गया है। क्या इसे आप समदृष्टि वाला न्याय मानते हैं? बलात्कार की शिकार कोई स्त्री बताए कि ऐसे कानून से न्याय पाने की संभावना क्या पहले से ही नहीं चुक गई है? कोई पुरूष बताए कि जब स्त्र्िायों पर बलात्कार की घटनाएं घटती हैं और आरोपी छूट जाते हैं तो क्या उनकी अपनी बहन-बेटियों, मां और पत्नियों के खतरे नहीं बढ़ जाते? फिर इस कानूनी अन्याय को दूर करने का प्रयास हम क्यों नहीं करते? क्या यह जरूरी नहीं है कि हम सब मिल कर आवाज उठाएं कि इंडियन एविडेंस एक्ट की धारा १५५ (४) को रद्द किया जाए और धारा ५४ में यह सुधार किया जाए कि यदि केस बलात्कार के आरोप से संबंधित है तो आरोपी के पूर्व-चरित्र की जांच भी इस दायरे में लागू होगी। आज स्थिति यह है कि लगभग ८०,००० बलात्कार के मामले विभिन्न कोर्टों में लंबित पड़े हैं। इनमें हर साल दस हजार मामलों का इजाफा हो रहा है। हर बलात्कार-पीड़ित लड़की को चुभते हुए प्रश्नों से गुजरना पड़ता है।
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Saturday, 31 October 2009
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