Saturday 31 October 2009

लाल किले पर कालिख 14 y

लाल किले पर कालिख
१४, अक्टूबर २०००
.........लीना मेहेंदळे

मेरी पोस्टिंग दिल्ली हुई तो घर के लोग बड़े उत्साहित हुए। घुमक्कड़ी के लिए एक और 'हक' की जगह मिल गई। हमारे संज्ञान हो चुके बच्चे छुट्टियों के लिए आए और हमें लाल किले के बारे में कुछ सुनाने लगे। इशारा था कि लाल किले चलना है।

आजकल की युवा पीढ़ी से अब मैं डरने लगी हूँ। खासकर अपने घर की प्रश्नकारी निगाहों से और सवालों से। वे सरकारी बेखयाली और नासमझी को जगह-जगह देखते हैं और पूछते हैं कि सरकार में इतने ऊंचे पद पर पहुंचकर आप लोग इतने हतप्रभ कैसे हो जाते हैं कि इसे रोक नहीं सकते! अभी कल-परसों तक जब हम 'थोड़े जूनियर ऑफीसर' कहलाते थे तब हम भी अपने सीनियर अफसरों के बारे में तमतमाकर यही पूछते थे। चाहे ऑफिस में, चाहे घर की चर्चाओं में। तब ये नन्हें-मुन्ने लगते थे जो चुपचाप हमारी बातें सुनते थे, बोलते कुछ नहीं थे। लेकिन अब उनकी उमर बढ़ी, कद हमसे ऊंचा निकल गया तो उनकी निगाह और स्वर में वही प्रश्न हैं कि अब आप क्या कर पा रही हैं।

मैं किसी भी युवा को देखती हूं और उसे सरकारी लापरवाही या नासमझी के विरूद्ध आक्रोश या आवेश से भरा पाती हूं, तो उसके बगैर पूछे ही मुझे पता चल जाता है कि वह मुझसे क्या-क्या सवाल करना चाहता है और अंत में किस सवाल पर अवश्यंभावी रूप से आएगा। खैरियत इसी में है कि दिल्ली में मुझे युवाओं का सामना उतना नहीं करना पड़ता जितना पिछले पदों पर रहते हुए करना पड़ता था।



बहरहाल, बात थी लाल किले की। लाल किले के इतिहास के बारे में मोटे तौर से जानना हो तो सबसे अच्छा उपाय है कि वहां शाम को चलने वाला लाइट एंड साउंड कार्यक्रम देखें। सो हम लोग चले गए देखने। दिल्ली की बिजली-समस्या उस दिन भी उतनी ही बरकरार थी जैसी और दिनों में होती है। अतएव हम कुर्सियों पर बैठे मोती महल और स्वच्छ खुले आकाश को देख रहे थे। गोधूलि प्रकाश अभी तक छाया हुआ था। अचानक झक सफेद मोती महल के पीछे धुएं के बड़े-बड़े काले अंबार लग गए। वह दृश्य वाकई आवाक कर देने वाला था। काला धुआं निकलता रहा, हम लोग रेलवे और पुरातत्व दोनों ही सरकारी विभागों को कोसते रहे।

पता चला कि मोती महल तो काफी ऊंचाई पर है। लेकिन उसके पिछवाड़े नीची सतह पर रेलवे यार्ड है, जहां कोयले और डीजल के इंजनों की शंटिंग की जगह ठीक मोती महल के नीचे ही है और ऐसा दृश्य तो प्रत्येक दिन या दिन में कई बार देखा जा सकता है। जो मोती महल तीन-चार सौ वर्ष पहले कभी बना, देश की सुंदर कलात्मक उपलब्धि का नमूना बनकर आज भी खड़ा है और कभी जहां शाहजहां का दरबार और स्वर्ण मयूर सिंहासन लगता था, उसे आज घने काले धुएं के अंबार अपनी लपेट में ले रहे हैं। बच्चों ने केवल इतना पूछा-क्या कभी कोई बड़ा सरकारी अफसर अपनी अफसरी बिना बखाने, एक आम आदमी की हैसियत से यहां आता है। और इस नजारे को अपनी आंखों से देखता है? और देखता है तो आगे क्या करता है? (क्या केवल लेख लिखकर रह जाता है!) क्या पुरातत्व विभाग के अधिकरी कभी आते हैं? और अफसर की नजर से (बच्चों का मतलब जिम्मेदाराना निगाहों से था) इस कार्यक्रम का 'इंस्पेक्शन' करते हैं?

जैसे-तैसे कार्यक्रम आरंभ हुआ। आधा हम लोग देख पाए कि बिजली फिर चली गई। अबकी बार उसने आधे घंटे तक कोई संकेत नहीं दिया। सो हम लोग उठकर चले आए। अब लाल किले में चारों ओर अंधेरा था और


लोग अनुमान से ही दूर की आकृतियों को सहारा बनाकर चल रहे थे। जब लंबे-चौड़े मैदानों को पार करके उस भाग में आए जहां लाल किले की प्राचीरों से गुजरते हुए मुख्य द्वार पर आना था तो भौंचक करने वाली एक और बात हमारे सामने थी। प्राचीर में अंधेरा नहीं, बल्कि रोशनी थी। दूर से लगा कि हम जैसे लोगों की सुविधा के लिए किसी ने समझदारी दिखाकर यह व्यवस्था की है। लेकिन पास आए तो पता चला कि वह रोशनी किसी सरकारी समझदारी के कारण नहीं थी। प्राचीर के अंदर छोटी मोटी दुकानों में फैंसी साजसज्जा के छोटे-मोटे आइटम, कुछ चमकीले पत्थर, कार्ड, उपहार सामग्री आदि बिक रही थी। बिजली चली जाने से उन्होंने जगह-जगह छोटे-छोटे जनरेटर लगाए थे या पेट्रोमैक्स जलाए थे। उनका काला कड़वा धुआं पूरे रास्ते में छाया हुआ था। हमें तो वहां से निकलने में पांच मिनट लगने थे लेकिन उन दीवारों को और उन दुकानदारों को जाने कितने वर्ष से यह कालिख सहनी पड़ रही है। क्या हमारी इतनी सम्मानित धरोहर, जहां से हर स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराया जाता हो, इस कदर उपेक्षा की पात्र हो सकती है कि वहां हर रात डीजल के धुएं के बाद घुमड़ते रहें और सरकारी अफसर पूरे बेखबर, बेखयाल अपनी ही झोंक में अपने दफ्तरों में एयर कंडीशनरों में बैठे रहें?

हमारी युवा पीढ़ी वैज्ञानिक भी है। मुझसे पूछा, क्यों नहीं सोलर चार्ज होने वाली या सामान्य बिजली से चलने वाली इमर्जेंसी लाइटें यहां लगवाई जातीं? क्या इतनी छोटी-सी बात के लिए सरकार को इंतजार करना पड़ता है कि कोई इस बात को 'सरकार की निगाह में लाए'!

मेरा उनसे डरने का सबब दिल्ली आकर भी खत्म नहीं हो रहा है।
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