Wednesday, 23 November 2016

॥ ६०॥ बापजी और पाषाण्या ॥ ६०॥

॥ ६०॥ बापजी और पाषाण्या ॥ ६०॥

बापजी थक गया।
शरीर तप रहा था। एक पैर घिसटते हुए बड़े कष्ट से वह झरने के पास पहुँचा।
ठण्डी धारा में उसने पैर डुबोया।
एक तीव्र वेदना.... सिर से पांव तक।
सारा धीरज समेटकर उसने लाल, पीला पीब हाथों से निचोड़ कर निकाल दिया।
देवाच्। वेदना में वह चिल्लाया- मरने दे मुझे।
फिर संभला।
थोड़े दिन और बापजी। फिर मरना। अभी वह धान-टोली नष्ट करनी है तुझे।
हाँफती सांसों को उसने स्थिर किया।
पीछे से आहट हुई। उसने मुड़कर देखा।
पाषाण्या मंथर गति से चलता हुआ पास आकर बैठ गया।
जय पाषाण्या। बापजी ने कहा।
ये केवल बातें हैं। अब मैं जय नही हूँ। अब जय तू है.... जय लाल्या है।
हाँ। बापजी बुदबुदाया।
मैं मरा नही अभी। फिर भी....।
बापजी ने उसका कंधा थपथपाया।
तू लाल्या की तरह मेरे पीछे क्यों नही आया?
चूक गया तू। लाल्या आगे बढकर मेरे साथ आ गया।
अब लाल्या ही मुखिया......।
पाषाण्या ने सिर हिलाया।
पंगुल्या पर वार किया तुम लोगों ने।
हाँ।
क्या वह काँटे सा गड़ रहा था?
बापजी ने सिर हिलाया। आज टोली संकट में है। उदेती टोली वाले आ रहे हैं। इस समय हमारे सारे लोग पेड की तरह, भैंसे की तरह मजबूत होने चाहिए। लडने को, मरने को।
तभी कल का सूरज दिखेगा।

पंगुल्या किस काम का?
इसलिए उसे मार डालोगे तुम? कल बुढिया को मारोगे। फिर मुझे।
अंच्
अं क्या? पाषाण्या चिल्लाया।
आज एक आदमी की बात नही है। बापजी समझाने के स्वर में बोला। टोली को बचाने की बात है।
आदमी का मरण आ जाय लेकिन टोली का जीवन बचाना होगा।
टोली के लिए। टोली के लिए ही आदमी हैं, सू हैं, पिलू हैं।
पाषाण्या चुप रहा।
उदेती की टोली...... या अपनी टोली।
एक ही बचेगी। तो अपनी बचानी पड़ेगी।
बस.... यही बात है।
पाषाण्या जोर से हंसा। बापजी चौंक गया।
झूठ.... सब झूठ।
लाल्या.... और उसके साथियों ने टोली देखी है।
हाँ उतना सच होगा। वह टोली है। पाषाण्या बुदबुदाया।
लेकिन वह बाई.... वे मंत्र.... वे जुगने वाले रीछ.... शैतान... सब झूठ।
सब झूठ तेरा बनाया हुआ। तू डरा रहा है....।
झूठा डर दिखा रहा है। पाषाण्या चिल्लाया।
बापजी का शरीर तन गया। यह पाषाण्या आड़े आ ही गया।
पाषाण्या अब उन्मादित हो गया था। चिल्लाकर कहता चला गया-- सब कुछ ठीक था यहाँ.... तुम्हारे आने से पहले.... हमारी टोली, हमारे नियम.... हमारा जीवन।
तू आया टोली में, बापजी।
यह खेल खेलने लगा। तूने लाल्या को उकसाया। वह बड़ा हो गया।
दूसरे आदमी जानवर बन गए... जानवर।
तू....तूने ये किया।
बापजी हंसा। पाषाण्या के पास खिसक आया।
मजबूत बाँह के फंदे ने पाषाण्या की गर्दन को जकड़ लिया।
पाषाण्या की आँखें सफेद पड गई.... चेहरा भयभीत। उसका मुँह खुल गया।
फंदा मजबूत था...। उसने प्रतिकार करना चाहा। लेकिन फंदा बापजी का था।
पल, दो पल..... अनेक पल।
पाषाण्या ढीला पडता गया। मुँह से फेन आ गया।
साँस थम गई।
फंदा ढीला हुआ।
लकड़ी की तरह पाषाण्या गिर पडा।
बापजी की छाती धडधडाई।
देवा..... मैं यह खेल खेलने लगा।
और मेरे ही हाथ से एक आदमी मरवाया तूने।
वह बुदबुदाया--
मैंने.... मैंने मारा उसे?
नही। वह मेरे आड़े आया... और मर गया। बस।
बापजी तन गया। बस्ती की ओर चल दिया। लंगडाते हुए।
बस्ती के पास पहुँचकर चिल्लाया-



वे आए थे। वे आए थे। भाग गए। मेरे सामने ही पाषाण्या को मार कर भाग गए।
छाती पीटते हुए वह बैठ गया।
बस्ती पर शोर मच गया। आदमी दौड आए।
पाषाण्या को एक लाठी में लादकर बस्ती पर लाया गया। बापजी ने उसी कहानी को बार बार कहा।
छातियाँ पीटी गईं। चहुं ओर आक्रोश......।
लाल्या अपनी लाठी पेलता हुआ आया-
अब सारे प्रश्न समाप्त।
हम रुके थे। आजतक....। अब नही। अब वाघोबा टोली चुप नही बैठेगी। बहुत सह लिया धानबस्ती के जानवरों को। अब वाघोबा टोली उन्हें नही छोडेगी। अब या तो हम मरेंगे.... या उन्हे मारेंगे।
जय वाघोबा......।
उन्माद छा गया। सब चिल्लाये- जय वाघोबा।
बापजी की आंखे चमकी। वह उठा।
पाषाण्या को यहीं गाडेंगे-- दूर नही।
बापजी संथ स्वर में कहने लगा। सबने गर्दन हिलाई।
इस पेड़ के नीचे गाडेंगे। टोली की रीत जैसा खड़े या लिटाकर नही। बैठाकर।
धानबस्ती से लाया गया हर बली उसे दिखाएंगे।
वह यहाँ बैठकर रोज हमसे मांगता रहेगा- टोली के लिए हमारा मरण। वह हम देंगे।
मैं दूँगा....। बापजी चिल्लाया।
सारे उन्माद में भर गए।
पाषाण्या को पेड़ के नीचे लिटाया था।
बैठाओ उसे....। बापजी ने कहा।
उसे पैर पसारे, पेड के तने से टिकाए गढ्डे में गाड़ा गया।
बापजी आगे आया। उसके सामने की मिट्टी अपने मुँह पर मलते हुए बोला.....
पाषाण्या, मैं मरूँगा.... या मारूँगा। लेकिन उदेती टोली को नष्ट करके ही रहूँगा।
वह वापस मुड़ा। उसके पीछे लम्बी कतार लग गई। लाल्या.... आदमी..... सू.... पिलू सब।
सबसे अन्त में बुढिया आई। मिट्टी को अपने मुँह पर मलते हुए बोली-- जय वाघोबा।
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॥ ५९॥ फेंगाडया खाली हाथ लौटता है ॥ ५९॥

॥ ५९॥ फेंगाडया खाली हाथ लौटता है ॥ ५९॥

आज का दिन बुरा है। फेंगाडया बुदबुदाया।
गुफा अभी दूर है। रात घिर चुकी है।
दो दिन, दो रात.... बडी शिकार कोई नही मिली।
सर्रच् से पत्त्िायाँ खडकीं। एक भैंसा था।
फेंगाडया की बांहों में फुरफुरी। भूख तिलमिलाई। लेकिन क्षणभर, फिर वह संभला।
यह शिकार अकेले के करने की नही।
भैंसों का झुण्ड निकल गया। एक के बाद एक। वह देखता रहा।
बड़ा झुण्ड था। सारे पिलू बीच में।
फिर एक बार तन कर वह चलने लगा।
भूख.... लंबूटांगी, लुकडया.... सभी भूख से व्याकुल।
आज भी फेंगाडया दो तीन खरहे ला पाया था।
राह कटी। गुफा अब सामने थी।
गुफा में अलाव। लंबूटांगी और कोमल। उसे देखकर खडी रही। लेकिन खाली हाथ देखकर फिर बैठ गई।
आज भी कुछ नही।
लंबूटांगी ने अलाव में एक कबूतर भुनकर खा लिया। फिर दूसरा डाला।
लुकडया ने गर्दन उठाई। कराह कर बोला-
अब क्या सोचता है? पहले मुझे उठा लाया।            फिर इस कोमल को।
अब मैं भूख से मरूँगा। तभी मर जाता तो........।
फेंगाडया ने एक थप्पड मारकर उसे चुप किया। अलाव से कबूतर निकाल कर उसके मुँह में ठूँस दिया।
  
आज उसने ग्रास थूका नही। चबाकर गपागप निगल गया। फेंगाडया को देखकर बोला- और।
फेंगाडया ने दूसरा ठूँसा.... फिर तीसरा......चौथा।
कबूतर खतम हो गए।
लुकडया खिदिक खिदिक हंसा। बोला- और।
कोमल आगे आई। फेंगाडया के हाथ ने उसे रोक दिया।
एक खरहा भी उसके आगे कर दिया।
लुकडया रोने लगा।
लंबूटांगी आगे आई। उसने फेंगाडया को पकड कर हिला दिया।
फेंगाडया चुप हो गया। फिर लुकडया के पास बैठकर लंबूटांगी उसे सहलाने लगी।
फेंगाडया ने आंखें बंद की। पांव पसार कर बैठ गया।
गहरी सांस खींचकर उसने थूक निगला। भूख से पेट गुरगुराने लगा था।
कोमल का हाथ उसके माथे पर। उसका स्पर्श....। उसके दूधभरे थान।
कोमल उस पर झुक कर उसका माथा चूम रही थी।
फेंगाडया ने जीभ बाहर निकाली। दो बूँद दूध चाट लिया।
फेंगाडया रोमांचित हो उठा। कोमल हँसी। फेंदाडया का माथा अपने थानों पर दबा लिया।
आँखें खोल कर वह पलटा। औंधा हो गया। जानवर की तरह चिल्लाया।
सारी थकान.... निराशा...... भूख.... क्रोध..... उस आक्रोश में था।
कोमल ने उसके केशों पर हाथ फेरा। उसे शांत होने दिया। फिर उसे पलट दिया।
उसका चेहरा दोनों हाथों मे ले लिया।
फेंगाडया ने उसकी आंखों में देखा। गहरी...स्वच्छ शांत आंखें।
उसकी छाती में कुछ हिला। यह सू चाहिए। मुझे यही सू चाहिए। सदा के लिए।
कोमल ने उसका चेहरा पढा। वह हंसी। हाथों से उसका माथा सहलाती बोली-- मेरी एक बात सुनो।
अंच्
चलो उदेती की बस्ती में। वहीं रहने के लिए।
कोमल का निश्चय भरा चेहरा।
मैं कल जाऊँगी। मेरा पिलू है, बाई है। लकुटया, पायडया, चांदवी, सोटया.....। मेरी धानबस्ती है।
फेंगाडया ने सिर हिलाया। नही, तू नही जाना।
मैं जाऊँगी। कोमल उसके गले से लिपट गई। और तू भी चलेगा। वह पुटपुटाई।
लुकडया, लंबूटांगी, तू....। वह हंसी।
सभी चलेंगे।
फेंगाडया ने आश्चर्य से देखा।
सब चलेंगे? लिया जाएगा हमें धानबस्ती में?
हाँ।
यह जखमी लुकडया भी- जिसे मैं उठा लाया हूँ?
यदि लुकडया उठाकर लाया हुआ है, तो मैं भी उठाकर लाई हुई हूँ।
मैं जा सकती हूँ, तो लुकडया भी जा सकता है। लंबूटांगी भी। तू भी। मैं कहूँगी।
देर तक चुप्पी लगी रही। फेंगाडया सोचता रहा।
बाई?
वह बहुत अच्छी है। मैं उसे बताऊँगी।
लेकिन मैं? मेरा यह बरतना? जखमी साथी मैं उठा लाऊँगा-- मरने के लिए पीछे नही छोडूँगा। यह भी चलेगा?
अं...हं....। आज नही। लेकिन धीरे धीरे चलेगा। मैं देखूँगी। अगली बाई तो मैं ही हूँ। कोमल निश्चय से बोली।
यह बरताव ही ठीक है। सबको जीवन जीना है तो यही होगा। पुराने नियम को बदलना पडेगा।



और तू?..... तूने जो किया है फेंगाडया...... अकेले ने? वह और कोई नही करता। नही कर सकता। यदि जखमी को पोसने का नियम करना हो, तो अकेला आदमी नही कर सकता। केवल बस्ती पर ही यह हो सकता है।
फेंगाडया कुछ नही बोला।
तू लुकडया को उठा लाया। ठीक है लेकिन यदि तुझे ही सांप ने काट लिया, और तू मर गया?
यह लुकडया जी रहा है इतने दिन। टूटी टांग लेकर भी मरा नही है अब तक।
लेकिन कल तू ही मर गया तो?
यह भी मरेगा। पर तू चाहता है यह जिए।
नही, इसका जीना तेरे अकेले पर नही होना चाहिए।
तू मर जाए, फिर भी इसे जीना चाहिए।
इसीलिए इसे बस्ती चाहिए।
तभी उसे उठा लाना खरा है। नही तो क्यों उसे उठा लाना?
फेंगाडया का चेहरा आनंदित हो गया। कौतुक से कोमल का चेहरा देखता रहा।
उठकर कोमल को हिलाते हुए बोला- सच। सच कहती है तू।
एक बार ले आया घायल लुकडया को; तो आगे की बात भी अटल है। मेरा...... हम सबका टोली में जाना।
मुझे अच्छा नही लगेगा। मैं अकेला रह सकता हूँ।
फिर भी इस तरह टोली के साथ अपने को बांध लेना अटल है।
उसने कोमल के गाल पर हाथ रखा।
आज मुझे अकेला भैंसा दीखा था।
उसे अकेला कैसे मारता?
लेकिन अगर टोली के साथ होता तो मार लेता। फिर एक क्यों? चार घायल लुकडया की भूख मिटा देता।
कोमल ने उसे थपकाया- तू चलना।
फेंगाडया की छाती में धडधड हो आई।
देवाच् क्या करूँ?
यह अटल है।
बापजी कहता था- बस्ती अच्छी नही है। जिनकी बाँहे पिचपिची हैं, जो अकेले लड नही सकते, उनके लिए है बस्ती।
मैं नही। मैं अकेला अपने में पूरा हूँ।
लेकिन यह लुकडया? यह कोमल?
यदि कई लुकडे मैं उठा लाऊँ तो?
नही बापजी, यह विचार तूने नही किया।
तू कभी किसी मरते आदमी को उठाकर नही लाया।
बस्ती चाहिए।
यदि घायल लुकडया को उठा लाना मानुसपना है, तो इस मानुसपने को चलाए रखने के लिए फेंगाडया को बस्ती चाहिए।
एक गहरी शांती से उसने कहा- चलेंगे।
कोमल हंसी। उसकी छाती भर आई।
बहुत अच्छी है धानबस्ती।
वहाँ धान उगता है। बहुत....। ऐसे मुठ्ठी में भर भर फेंकते हैं। फिर उसमें बालियाँ आती हैं, दाने भरते हैं, पकते हैं। फिर ठण्डी ऋतु आते आते उसे काटते हैं।
सू तो एक ही पिलू जनती है। लेकिन धान की बाली में कई कई धान पिलू निकलते हैं। कई।
हम सबके लिए।
खप्पर में पानी रखकर उसमें धान डालते हैं। पानी बजता है तब धान भी रटरटाता है।
उसे पीते हैं। भूख रुक जाती है। मीठा लगता है।



हम सब वहाँ एक साथ रहेंगे।
मैं, तू, मेरा पिलू, लुकडया, लम्बूटांगी।
पायडया धुन बजाता है, होठों से। तू सुनना।
फिर हम नाचेंगे।
पूरे चंद्रमा की रात होगी।
मेरी झोंपडी... तेरी झोंपडी।
धानबस्ती पर आधार है। पावस, गर्मी, ठण्डी सभी ऋतुओं में।
हम वहाँ रहेंगे।
मेरे कई पिलू होंगे। लंबूटांगी के होंगे।
बस्ती बढेगी।
औंढया देव की किरपा।
उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे।
फेंगाडया ने उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया। हाँ री, हाँ, हाँ।
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॥ ५८॥ पंगुल्या और उंचाडी धानबस्ती की ओर ॥ ५८॥

॥ ५८॥ पंगुल्या और उंचाडी धानबस्ती की ओर ॥ ५८॥

दो दिन, दो रातें निकल गईं।
पंगुल्या ने उंगलियों पर गिना।
हम कल निकल चलेंगे। उसने उंचाडी से कहा। उंचाडी उस छोटी सी गुफा में रात के उजाले के लिए लकड़ी सजा रही थी।
लो। पंगुल्या ने पत्तों में छिपा कर रखे दो चकमक पत्थर निकाल कर उसकी ओर बढा दिए।
उंचाडी ने अपार श्रद्धा से उसकी ओर देखा।
बड़ा डीलडौल नही..... खुरदुरी छोटी दाढी, बाल कम, कमर से ऊपर का शरीर लकडी के बड़े टुकडे जैसा, हाथ विचित्र ताकत से भरे हुए, एक पैर कमजोर, आँखें भिरभिराती.....।
अच्छा हुआ तू चकमक पत्थर साथ लाया। उंचाडी ने पत्थरों को लकडी से ऊपर रगडते हुए कहा।
आग की लपटें निकलने लगीं।
पंगुल्या ने एक मरा हुआ खरगोश उसकी ओर फेंका। उंचाडी ने उसे आग में धकेला।
आग की लपटें। गुफा में उजाला।
पंगुल्याने हड्डियों की पोटली निकाली।
ये....ये..... हड्डियाँ। उंचाडी ने डरकर पूछा।
मंतराई हैं?
पंगुल्या ने गर्दन हिलाई। उत्साह से हड्डियाँ फैला दीं।
ये भैंसे की हड्डी, ये कबूतर की, ये आदमी के सिर की, ये हाथ की, ये जाँघ की.....।
तूने कब देखी? उंचाडी ने घबराकर पूछा
रोज...... बली देते हुए। पंगुल्या हंसा।
क्यो हंसे?
कुछ नही, ऐसे ही......। वह हँसता रहा। भरमा गया।
उंचाडी थरथरा गई। पंगुल्या का यह भरमाना है या कुछ और?
मैंने एक पेड भी देखा। पंगुल्या ने भर्रा कर कहा।
उगते सूरज में उस पेड़ को रोज देखा।
उसकी छाया, छाया की रेखा...... रोज देखी।
वह पावस ऋतु में अलग, ठण्डी में अलग, गर्मी में अलग जगह पर आती है। पंगुल्या ने उत्साह से कहा।
उंचाडी का चेहरा निर्विकार।
पंगुल्या चुप हो गया।
अब खरहा भुन गया था। उंचाडी ने आग में से निकालकर उसकी ओर फेंका। उसने वापस दे दिया।


वह हंसा...... । यह तूने मारा था...... तेरा है।
 और तू?
मेरे लिए भूखा रहना नई बात नही है। वह कडुआहट में भरकर बोला। उंचाडी गपागप खाने लगी। फिर रुक गई।
ये ले बचा हुआ...... तेरे लिए।
पंगुल्या ने तमक कर उसे देखा।
उंचाडी के दांतों में मांस अटका था। वह थूकी। खा ले। तू साथमें चकमक पत्थर ले आया इसलिए ले ले। नही तो आज कच्चा ही खाना पडता।
पंगुल्या ने हाथ आगे बढाया। उंचाडी ने बचा खरगोश उसके हाथ में डाल दिया।
क्या उदेती की बस्ती सच में है? उंचाडी ने पूछा।
हाँ।
तूने देखी है?
नही..... पंगुल्या हड्डी चबाते हुए बोला। बापजी ने देखी है।
वह बस्ती..... वहाँ के लोग, तुझे बली दे देंगे। उंचाडी फुसफुसाई।
मैं नही चलती।
मैं यहीं ठीक हूँ।
तू जा।
पंगुल्या का चेहरा तन गया।
तू अकेली। यहाँ?
लाल्या छोडेगा? पकड़ कर ले जाएगा।
तेरे साथ भी वही होगा। उंचाडी ने कहा।
नही। पंगुल्या के स्वर में निश्चय था। उंचाडी ने सोचा-- आज इसका स्वर बदला हुआ है। वे तुझे रास्ते में ही घेर लेंगे।
मुझे रास्ता मालूम है- पंगुल्या ने कहा।
तू भी यहीं रह। उंचाडी बोली।
तू और मैं दोनों। बस्ती क्यों चाहिए?
उंचाडी ने उसकी सूखी जांघ पर अपना मस्तक गडा दिया।
पंगुल्या ने नीचे देखा।
उंचाडी पहले औंधी, फिर सीधी लेट गई।
उसने उंचाडी के थान सहलाए।
जुगो मुझे। उंचाडी ने भारी स्वर में कहा।
पंगुल्या ने सिर हिलाया।
यह पांव? ऐसा सूखा पांव लेकर बस्ती के बिना मैं कैसे जिउँगा?
मैं अकेला जंगल में जी नही सकता। मैं मर जाऊँगा।
उंचाडी ने हताशा से गर्दन हिलाई।
तू भी चल मेरे साथ......। वहाँ बस्ती है। पंगुल्या ने फिर कहा। वहाँ बाई है, धान है।
और उसका मंत्र? उससे जुगने वाला शैतान?
उससे बतियाने वाले मृतात्मा? उंचाडी ने पूछा।
पंगुल्या जोर से हँसा।
हंसता है तू? क्यों?
वह मंत्र झूठ है। साफ झूठ।
कैसे?
बापजी ने झूठ बोला था।
क्यों?



मैं नही जानता। लेकिन मंत्र की बात झूठ कहता है।
फिर?
वहाँ धान है। धान है माने शिकार कम है। शिकार कम हो तो.......
आदमी के बल की गरज कम है।
वहाँ, यह सूखा पैर भी चलेगा।
केवल वहीं चलेगा।
धान के पास।
सू भी वही टिकेंगी।
पिलू भी वहीं बढेंगी।
भूख भी वहीं मिटेगी। पंगुल्या पुटपुटाया।
उसे वही प्रकाश फिर दिखा। छाती में एक झरना बहने लगा। झरने से प्रकाश फूटने लगा।
मैं जाऊँगा। तू भी चल। तेरे और मेरे लिए अच्छी सुबह वहीं होगी। यहाँ केवल मरण।
उंचाडी ने गर्दन झटकाकर ऊपर देखा। उसके बाल चेहरे पर बिखर गए थे। बालों के बीच से पंगुल्या की चमकती आँखें देखीं। खिला हुआ चेहरा देखा।
यह चेहरा अलग है। वह बुदबुदाई।
आतुर होकर उसने दोनों हाथों में वह चेहरा ले लिया। उसे अपने ऊपर खींच लिया।
उसके केशों में पंगुल्या की साँसें फिरने लगीं। वह बोला-- वहाँ हम दोनों एक दूसरे के लिए रहेंगे। बिना खोए, बिना मरे।
अपनी ताकदवर बाँहों में उसे लपेटते हुए पंगुल्या अपार आवेग में आ गया।
उन बाँहों में जकडकर उंचाडी खिलखिलाती रही।
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॥ ५७॥ फेंगाडया की अच्छी-बुरी सोच ॥ ५७॥

॥ ५७॥ फेंगाडया की अच्छी-बुरी सोच ॥ ५७॥

फेंगाडया दौड़ता चला जा रहा था।
अब रुक गया।
बहुत दूर आ चुका था उन आदमियों के झुण्ड से।
हाँफते हुए बैठ गया।
सारी बातें फिर से दीखने लगीं।
वह टोली तेज तेज चालवाली थी। और सावधान भी।... मानों सामने कोई शिकार हो। लेकिन वहाँ जानवर तो कोई नही था।
फिर वह तेज चाल? वह सावधानता?
उदेती की दिशा में। क्या धानबस्ती की ओर?
वह पीछे के पत्थर से टेक गया।
सिहर उठा।
यह हलचल। यह भी मनुष्य की हलचल।
दूसरे मनुष्य को मारने के लिए। बली देने के लिए।
बली?
किसे चढाते हैं? क्या देव को?
उसने मनुष्य को सांस दी। जीवन दिया- मनुष्य को.... सू को।
तो मनुष्य देव को क्या दे?
बली का नियम? मरण?
क्या यह उसे अच्छा लगेगा?
पेड के पत्ते मुझे सरसराहट सुनाते हैं।
मैं उसी की डाल तोडूँ? उसी के नीचे रखूँ और कहूँ - ले ये बली?
फेंगाडया चकरा गया।
आज शिकार नही। भूख.... बढ रही है।
गुफा में आदमी राह देख रहे हैं।
और तू यहाँ बैठा है सोच लेकर?
बली जाने वालों का दुख लेकर?
अपने को भूखा रखकर?
फेंगाडया, तू एक बात कर सकता है।
यहाँ से गुफा को मत जाना।
यह कर सकता है तू।
फिर से अकेला हो सकता है तू।
अपनी भूख भर शिकार कभी भी मिल सकती है।
उसे लगा- भाग जाऊँ यहाँ से.... दूर।
वह थरथरा गया।
यह जो सोच रहा है, क्या ये सही है?
उसे एक रात की याद आई जब पत्त्िायों की सरसराहटसे उसे हरषाया था।

भाग जाने का अर्थ होगा-- उस सरसराहट से अलग हो जाना।
फेंगाडया ऐसा नही करेगा।
देव ने उसे सरसराहट से होनेवाले आनंद की लहर दिखाई है। उसे छोड नही सकता।
एक हुंकार भर कर वह उठा।
उसे लुकडया का विचार आया। लम्बूटांगी का आया। गहरी आंखों वाली कोमल का आया।
देवाच् तू ही है पत्त्िायों की सरसराहट।
तू ही है मेरी आवाज।
तूने फेंगाडया को उठाया और पेड की डाली से चिपकाया।
अब फेंगाडया की भूख तेरी है।
वह उठा और दौङता हुआ गुफा की ओर चल दिया।
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॥ ५६॥ धानबस्ती पर चर्चा लाल्या की टोली की ॥ ५६॥


॥ ५६॥ धानबस्ती पर चर्चा लाल्या की टोली की ॥ ५६॥

बडा अलाव। चारों ओर गोल बनाकर बैठी धानबस्ती।
बाई, पायडया..... लकुटया...।
सामने एकआंखी। रोकर थककर अब शांत हुई थी।
लेकिन क्यों? बाई ने पूछा।
एकआंखी ने फिर सिर हिलाया।
कहा है-- सारी सूओं को जुगेंगे। सारे आदमी मार देंगे।
भय की लहर दौड गई।
यह सच है तो फिर हमारी भी तैयारी होनी चाहिए। लकुटया ने कहा।
कैसी तैयारी?
उन्हें मारने की।
मारने की?
हां।
बाई ने सिर हिलाया।
वह भरमाए होंगे। बिना कारण कोई किसी को मारने की बात क्यों करेगा?
सब अपनी अपनी बात कहने लगे। कोलाहल छा गया।
एकआंखी फिर रोने लगी।
मेरा क्या? देखो थान पर ये घाव, यह रक्त।
लकुटया उठा। थूका। कहा-- उनके लिए मरण।
मरण। सब चिल्लाए।
बाई ने फिर सिर हिलाया।
मरण? नही, नही। वह बुदबुदाई।
फिर कोलाहल बढा। देर तक। फुसफुसाहट।
अलाव बुझ गया।
बाई घुटनों पर जोर देती हुई उठी और झोंपडी को चली दी।
पायडया पीछे पीछे आया। वह कांप रहा था- क्रोध से।
ये मरण माँग रहे हैं-- मरण। वह तिरस्कार से थूका।
लेकिन यह टोली कौन है? क्यों?
कुछ समझ नही आता।
बाई का सिर फिर हिला।
मरण? क्या उनका अकेले का ही होगा?
यह तो अपना भी मरण होगा।
आजतक शिकार करते आए जानवरों की। लेकिन अब आदमी की, सू की शिकार?
भय की सिहरन उसके शरीर पर दौड गई।
उसने पायडया से कहा-
पायडया, हम दोनों बूढे हुए। थक गए। अब दिन भी दूसरी तरह के आएंगे। आंधी में टूटकर उडने वाले पत्तों की तरह टोलियों को उडा ले जाएंगे।
आंधी घिर रही है। ये नए पेङ.... हम नही समझेंगे इन्हें।
जमीन में जडें पकडना भूलकर ये नए पेड मरण क्यों मांग रहे हैं?
पायडया हताश झोंपडी में पैर पसार कर बैठ गया।
आज पहली बार ऐसा हुआ था कि बाई कोई निर्णय लिए बिना उठ गई थी।



बाई के पास जाकर वह उसके कंधे, पीठ सहलाने लगा।
बाई इस नई घटना को समझती पडी रही।
बाहर कोलाहल चलता रहा।
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54-55॥ ५४॥ फेंगाडया देखता है रंगीन आकृति ॥ ५४॥॥ ५५॥ लाल्या पहुँचता है धानबस्ती तक ॥ ५५॥

54-55

॥ ५४॥ फेंगाडया देखता है रंगीन आकृति ॥ ५४॥

फेंगाडया नदी के किनारे खड़ा था।
नदी में कूद कर तैरता हुआ बीच तक पहुँच गया। अपने चहेते कातल पर बैठ गया।
बादल अभी अभी एक झडी लगाकर जा चुके थे।
चारों ओर हरियाली। हवा में नमी.... जंगली फूलों की सुगंध।
साथी मरा तब भी यहीं आया था फेंगाडया।
पत्थर पर लेटते हुए उसने आकाश की ओर देखा।
बादल बिखरे हुए।
भुरभुराती वर्षा का छिड़काव।
बीच में ही धूप की एकाध किरण। उससे आँख बचाते हुए फेंगाडया ने उलटी दिश में देखा।
उसकी साँस टँगी सी रह गई।
वहाँ पूरे आकाश पर फैली थी एक रंगभरी आकृति। आधे गोल के आकार में।
क्या है यह?
फेंगाडया हडबडाकर उठ बैठा।
यह कोई बेल है? कोई लता?
या बाँस? या बिजली?
किसी बस्ती की निशानी?
क्या यह उदेती पर आकाश में रहने वाली किसी बस्ती की निशानी है?
या फिर धानबस्ती की?
या कोमल की ऑख?
कोमल की बात पर उसकी छाती में कुछ गदगदाने लगा।
कोमल का स्पर्श याद आया।
उससे जुगना याद आया।
एक सिहरन उसके शरीर में दौड़ गई।
वह धानबस्ती की है। उसका एक पिलू भी है।
तुझे वह चाहिए। ठीक। लेकिन फिर पिलू को क्या? उसे दूधभरे थान कहाँ मिलेंगे?
तू उठा लाया इसलिए वह बची। लेकिन अब उसे जाने देगा तो उसका पिलू बचेगा।
वह वापस नही आएगी।
इस गुफा में, अलाव के पास बैठकर नही हँसेगी।
तू उसे खो देगा।
पहले बापजी को खोया। फिर साथी। अब कोमल।
बचा लुकडया..... कल वह भी मर गया तो?
तू और लम्बूटाँगी दो ही बचे।
फेंगाडया गदगदाया।
यह हो रहा है लुकडया को लाने के कारण। यह किसीमें इतना उलझ जाना।
मानूसपना इतना कठिन होता है? इतना दुखाने वाला?
फेंगाडया उठा। एकटक आकृति को देखने लगा।
आकृति के रंग फीके हुए और वह आकाश में घुल गई।
सूरज बादलों के पीछे जा चुका था।
क्या यह बादलों की किसी बस्ती की निशानी है?
देर तक प्रतीक्षा करने पर भी कमान नही निकली।



फेंगाडया वापस तैरकर किनारे पर आ गया। जंगल में घुस गया। चढाई चढने लगा। पठार पर आकर थमक गया।
दूर उदेती की तरफ पहाड़ी के बीच में एक कटाव, एक खाली जगह दीख रही थी।
उसी के पीछे होगी धानबस्ती।
कोमल ने कहा था- वहाँ चलेंगे।
चलना है?
उसने थूका
मार डालेंगे। बापजी ने क्या कहा था?
अचानक आती आवाज उसके कानों ने सोख ली। फेंगाडया झट से पेड़ पर चढ़ गया। पत्तों में छिपकर देखने लगा।
डूब डूब की ओर से वे  आए।
कई आदमी। हाथ में लाठियाँ।
फेंगाडया काँप गया।
मानुसबली टोली के आदमी? इतनी दूर?
झुण्ड आया और उसी वेग से धाडधाड चलते हुए दहिनी ओर निकल गया। एक मोड पर ओझल हो गया।
क्या ये धानबस्ती पर जा रहे हैं?
तेजी से फेंगाडया उतरा और गुफा की दिशा में भाग चला। दूर...!
साँस चढ गई, तो थक कर रुक गया।
आज शिकार भी नही। वह बुदबुदाया।
भूख से, पराजय से उसकी छाती भर आई। वह चिल्लाया ओ च् हो च् हो च् च्
उकडूँ बैठा गदगदाता रहा।
फिर उठ कर दुबारा जंगल नापने लगा।
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॥ ५५॥ लाल्या पहुँचता है धानबस्ती तक ॥ ५५॥

लाल्या हाँफते हुए रुक गया। पीछे आने वाले भी ठहर गए।
उदेती दिशा में बहुत दूर आ गए थे। सूरज डूबने में अभी देर थी।
एक चढाई सामने थी। घने जंगल के मोड़ को पार कर वे आगे आ चुके थे।
फिर से लयबद्ध पैर उठने लगे। नजरें चारों ओर भिरभिरा रही थीं। हाथों में लाठी।
पंगुल्या और उंचाडी को ढूँढना था।
अचानक लाल्या थमक गया। सामने एक धष्टपुष्ट भैंसा चर रहा था।
आज एक अच्छी शिकार तो मिली।
झटपट मूक इशारे हुए। आदमी चारों दिशाओं में फैल गए। हलके पैरों से।
लाल्या पीछे मुड़ा। बाँई ओर से लम्बा चक्कर लगाते हुए भैंसे की पिछाड़ी में पहुँचा।
भैंसा फुरफुराया। खुरों से जमीन उकेरने लगा। संशय से देखने लगा।           
लाल्या ने पिछाड़ी से छलांग लगाई और एक ही झटके में भैंसे की पीठ पर चढ बैठा। बांहों की मजबूत पकड से भैंसे की गर्दन दबोच ली। उसी समय सामने से चार पांच आदमी सामने लाठी लिए आए।
लाठियाँ तडातड भैंसे के माथे पर पड़ने लगीं। लाल्या अचूकता से अपने को बचाकर कूद गया। भैंसे का सिर फूट गया। वेदना से वह चिंघाडता रहा। लाठियाँ बरसती रहीं।
मरण का आक्रोश आखिरी बार भैंसे के गले से निकला।
फिर जंगल में सर्वत्र स्तब्धता छा गई।
भैंसा औंधा पड़ा था। मर चुका था।
लाल्या ने थूक निगली। जीत की लम्बी गर्जना की।
फिर एक बार स्तब्धता।

लयबद्ध काम एक बार फिर आरंभ हुआ। भैंसे के पैर लाठी पर बांधकर कुछ लोग तैयार हुए।
शिकार अच्छी मिली... लेकिन उंचाडी और पंगुल्या? एकजन बुदबुदाया।
लाल्या ने एक बार सबको देखा। फिर बोला-- आगे।
आधे आदमी भैंसे के पास रुके, बाकी आगे चले।
दहिनी ओर नदी थी। उंचाई से आती हुई।
लाल्या और उसके साथी चढाई चढने लगे।
पहाड़ी की उंचाई पर छोटा सपाट पठार था। वहाँ से नीचे दोनों तरफ का दृश्य देखा जा सकता था।
लाल्या ने साँस रोकी। सामने अपार दृश्य था।
नीचे नदी अपने रौद्र रूप में बह रही थी। वह कहीं से बहती हुई सीधी पहाड़ की तलछटी में घुस आई थी। किसी भैंसे की तरह। वहाँ एक शांत में डोह में समा गई थी। डोह के दहिनी ओर नदी की दूसरी धार बाहर निकलकर अदृश्य तक जा रही थी।
पीछे की तरफ था वाघोबा वस्ती का चलन। उधर से ही आए थे लाल्या और उसके साथी। लाल्या ने हाथ से इशारा किया। डोह से बांई ओर उंची सीधी चढाई। मानों पहाड खडा हो गया था नदी को मोडने के लिए।
लाल्या की आँख उठी ऊँचाई पर अदृश्य होती एक पगडंडी की तरफ।
फिर एक बार लयबद्ध पदचाप। हाँफती साँस....... उच्छ्वास।
साथ में नदी का निनाद।
अब वे मोड़ पर आ गए थे। नीचे नदी।
ऊपर पर्वत की दिवारें सीधी उठी हुई। मानों नदी का प्रवाह घुमाने के उद्देश्य से ही।
उदेती.....। लाल्या बुदबुदाया। उसके रोंगटे खड़े हो गए। नसें तन गईं। वह ऊँचाई की ओर दौडने लगा।
इस पहाड़ से घूमकर नदी देखनी चाहिए। उसने कहा। वहाँ उदेती दिशा में है धान टोली। उसे देखना होगा। आज ही........।
पहले मोड तक आकर वह रूक गया। पहाड़ की कगार से नीचे झांका। नीचे गहरा डोह था। अब नदी की दोनों धाराएँ स्पष्ट दीख रही थीं। पानी बाँई ओर से आकर डोह में कूद रहा था। वहाँ से दहिनी ओर फूट कर नदी की धारा चली जा रही थी।
अगली चढाई अब भी बाकी थी।
आगे.......। लाल्या चिल्लाया। हाँफते हुए चढने लगा। उसके हाथ की मुठ्ठियाँ तन गई थीं।
एक और मोड़ आया। उसके ऊपर सीधी उंची चढाई थी। आगे दर्रा। वहाँ पर्वतों की बीच से झांकता हुआ आकाश।
सारे रुक गए।
कहीं से आहट आई। झट सारे इधर उधर छिप गए।
कोई आ रहा था। जानवर?
पैरों की आहट हुई....... आदमी की आहट।
लाल्या एक पेड़ के पीछे था। निस्तब्ध.....।
नजरें भिरभिराती हुईं।
एक सू सामने आई।
लाल्या सावधान हुआ।
धानबस्ती की सू?
एकआंखी जंगल में लकड़ी चुनने आई थी। सहजता से एक लकडी उठाने झुकी कि लाल्या ने उसे दबोच लिया। उसके मुँह पर हाथ..। एकआंखी का दम घुटने लगा।
मुँह दबाए लाल्या उसे खींचकर एक ओर ले गया।
हाथ हटाया।
फैली आँखों से एकआंखी देखती रह गई।
सामने लाल्या.. बाकी आदमी।



कौन? वह बुदबुदाई।
तू उदेती टोली की? धानबस्ती की?
एकआंखी ने हाँ भरी।
सब थर्रा गए। बहुत दूर आ गए थे।
लाल्या ने हाथ उठाकर एक को इशारा किया
वह आगे आया। एकआंखी पर टूट पडा।
एकआंखी की समझ से बाहर।
फिर दूसरा जुगा....फिर तीसरा....।
लाल्या ने हाथ उठाया-- रोको।
एकआंखी के केश पकड कर उसे उठाया। उसके कूल्हे पर धौल जमाकर बोला-- जा, जाकर बता दे सबको, कि हम फिर आएंगे।
उदेती की हर सू को जुगेंगे और हर आदमी को मार डालेंगे।
कह दे बाई को, कि उदेती के दिन पूरे हुए।
थू। वह थूका।
एकआंखी भाग चली बस्ती की ओर।
लाल्या धीरे से आगे आया।
दबे पांव उसके पीछे पीछे जाने लगा।
एक अनजानी राह जा रही थी दर्रे से उस पार।
धानबस्ती का कोई आदमी न दिखाए तो यह राह ढूँढना कठिन था।
दर्रा लांघकर लाल्या दूसरी तरफ आया।
पीछे पीछे उसके आदमी- सभी दबे पांव।
सामने खुला आकाश था। नीचे नदी। इधर से ही आ रही थी डोह में समाने के लिए। नदी की बांई ओर पठार था। उंचाई से पठारकी झोंपड़ियाँ साफ दीख रही थीं।
जहाँ लाल्या खड़ा था वहाँ से सीधे नीचे बस्ती तक पगडंडी पहुँची थी।
एकआँखी उसी पगडंडी पर दौड़ती जा रही थी। धीरे धीरे उसका आकार छोटा होते होते एक धब्बा बन गया। फिर वह भी ओझल हो गया।
झोंपडी से नीचे हरी मखमल बिछी हुई थी।
दूसरे घासों जैसी नही थी ये मखमल।
सभी थर्रा गए।
यह सब सच है। उदेती की धानबस्ती...... सचमुच है।
तो बापजी सच कहता था- उसकी कही बाकी बातें भी सच होंगी।
सूरज डूबने चला।
लाल्या अपने विचारों से बाहर आया। तेजी से वापस जाने को मुडा।
भागते, हाँफते सारे वापस जाने लगे।
रात बढती चली। गिरते पडते, पत्थरों से टकराते वे उनसे मिले जो भैंसे के पास रुके थे।
फुसफुसाहट, बढने लगी।
सच है......हाँ, हाँ..... मैंने देखा है।
अंधेरे में भैंसा उठाकर सारे फिर चलने लगे डूब डूब दिशा में।
रात का अंधियारा गहरा चुका था।
लाल्या फिर विचारों में डूब गया। उसकी छाती धडधडाने लगी।
बापजी सच ही था।
लाठी पर उसकी पकड कस गई।



उंचाडी? एक ने पूछा तो लाल्या को ध्यान आया।
उंचाडी को ढूँढने निकले थे हमलोग और खाली हाथ वापस जा रहे हैं।
जानवर खाएँ उसे। वह चिल्लाया। अब प्रश्न उंचाडी या पंगुल्या का नही है।
अपने मरने का है।
मरण का वह जानवर, वह धानबस्ती की सू सबने आँखों से देखी है।
अब उस टोली को मार डाले बिना दूसरा रास्ता नही है।
भैंसा भारी था। वापसी की गति धीमी हो रही थी।
रात बीतने को आई।
अब उतराई आ गई थी जो वाघोबा बस्ती के पठार तक जाती थी।
पैर अब धमक कर चलने लगे।
बस्ती आई।
भोर का उजाला चारों ओर बिखर गया।
सू, पिलू, बापजी, सारे खडे थे।
बापजी....., जय वाघोबा। लाल्या चिल्लाया।
मैंने धानबस्ती देखी।
उदेती में। वो है। सचमुच है।
वहाँ भयानक बाई है। उसका शैतान, उससे जुगने वाला आदमी है। मंत्र भी हैं।
बापजी ने चमक कर लाल्या को देखा। विजय भरी एक हंसी बापजी के चेहरे पर दौड़ गई।
अलाव पर भैंसा भूना गया। दोपहर हुई। खाना हुआ।
झोंपडी झोंपडी में फुसफुसाहट होने लगी।
बापजी ने चुप्पी लगा ली।
सायंकाल का समय...... अंधेरा घिरने लगा।
बापजी झोंपड़ी से बाहर आया।
उकडूँ बैठ गया। सिर में विचार घूमने लगे।
खेल तो तूने शुरू कर दिया बापजी..... एक नया खेल।
यहाँ के पिलू जो लाठियाँ लेकर झूठमूठ मार काट का खेल खेलते हैं- वैसा नही। यह सचमुच का खेल।
इसकी मारकाट भी सच्ची होगी। मरण भी सच्चा होगा।
उसने सिर हिलाया। वहीं पर लेट गया। शरीर में हिंव भर रहा था। सारा शरीर ठंड से थरथराने लगा। अंगूठे की सूजन बढ चली थी। धीरे धीरे बापजी का शरीर तपने लगा। ग्लानि उसे भरमाने लगी।
अकेला...... अकेला बापजी।
आँखों देखने लगीं।
सू...... कई सूएँ। लेकिन सावली? वह अपने जैसी एक ही थी।
फेंगाडया। साथी......।
शिकार...... भैंसा.....वराह.......।
बांस की तिकटी पर टँगे बंदर की आँखें।
वह छोटा पिलू..... जो उस दिन अलाव में बली के लिए भूना गया।
उसके माँस का टुकड़ा..... उसका स्वाद।
ग्लानि में भी बापजी मितलाने लगा।
थू.... वह थूका। उसकी देह बुखार में तिलमिलाती रही।
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॥ ५३॥ पंगुल्या और उंचाडी ॥ ५३॥


॥ ५३॥ पंगुल्या और उंचाडी ॥ ५३॥

पंगुल्या की मूर्च्छा टूटने तक सुबह हो चुकी थी।
उसने आँखें खोली। मस्तक में वेदना की एक लहर दौड़ गई। कराह कर उसने फिर आँखें बन्द कर लीं।
कुछ देर में फिर आँखें खोलकर चारों ओर देखा। कोई नही था। पंगुल्या ने एक गहरी साँस भरी। घिसटते हुए वह झोंपड़ी तक आया। अंदर झांककर देखा।
उंचाड़ी पड़ी हुई थी। जाँघें खून से लथपथ.... नोचे जाने के घाव शरीर पर।
पंगुल्या ने साँस रोकी। आज यह अकेली है। और मैं भी अकेला।
सारे आदमी गए हैं शिकार लाने।
बापजी, बुढ़िया और सूएँ गए होंगे नदी की ओर।
जान बचानी है तो भागना पड़ेगा।
लाल्या का कोई भरोसा नही । फिर वार कर सकता है।
पंगुल्या कडुआहट से हँसा। आगे बढ़कर उसने उंचाडी को छुआ।
उंचाडी ने आँखों को कसकर बंद कर लिया। एक और आदमी।
पंगुल्या ने उसे झकझोरा। कष्ट से कराहकर उंचाडी ने आँखें खोलीं।
मैं पंगुल्या....।
उंचाडी ने देखा- यह आदमी, कल लाठी खाने वाला।
तू किस टोली की है?
मैं अकेली हूँ। टोली नही है। उसने क्षीण स्वर में कहा।
उदेती की टोली कहाँ है पता है?
धानबस्ती? उस तरफ है। उंचाडी ने हाथ से इशारा किया।
मैं जानता हूँ कहाँ है। पंगुल्या ने अधीरता से कहा। मैं जानता हूँ।
तू जानता है?
हाँ।
कहाँ है? क्या सच में है? उंचाडी ने अविश्र्वास से पूछा।
हाँ। पंगुल्या बुदबुदाया।
वहाँ भी........ ऐसा ही होगा। उंचाडी ने हताश स्वर में कहा और गर्दन फेर ली।
चलकर देखते हैं। पंगुल्या ने कहा- इससे और बुरा क्या होगा?
उंचाडी ने सिर हिलाया। पंगुल्या थोड़ा और आगे सरका।
तू बीच बीच में मुझे कंधे पर उठाकर चलना। मैं रास्ता बताऊँगा।
उंचाडी अविश्र्वास से हंसी।
गलत नही कहता मैं। पंगुल्या पूरे प्राण से उसे समझा रहा था। चल उठ....।
उंचाडी ने पैर मोड कर पेट के पास खींचे। सारे शरीर में वेदना दौड़ गई। उसने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
आज नहीं......
पंगुल्या हताश हो गया।
नचंदी की रात आने में केवल पांच रातें बाकी हैं। ये केवल मैं जानता हूँ। केवल मैं.....।
उसके पहले चल निकल। वरना तेरी बली चढाएंगे इस नचंदी की रात को।
बली?
हाँ बली? हर नचंदी की रात को बाहर के एक आदमी या सू की बली देते हैं वाघोबा को। उसे अलाव में भूनकर खाते हैं।
उंचाडी पूरे शरीर में थरथरा उठी।
उठ..... आज....अभी। पंगुल्या ने उसका हाथ कसकर पकड़ते हुए सहारा दिया।



उंचाडी की छाती कंपकंपा रही थी।
आज..... अभी। पंगुल्या ने उंची आवाज में कहा। बहुत दूर नही.... थोड़ी ही दूर... एक गुफा है। मुझे पता है। वहाँ छिपे रहेंगे।
उंचाडी धीरे धीरे उठ बैठी। जांघों में फिर से टीस उठी।
लेकिन धैर्य से उसने कहा- ठीक है।
तो चलो अब। पंगुल्या ने फिर से कहा।
उत्साह में भरकर उसने बेलों की रस्सी में हड्डियाँ बांधी। उन्हें कंधे पर डाल लिया।
उंचाडी ने पूछा- ये क्या है?
पंगुल्या ने कहा- हड्डियाँ हैं मेरी।
उंचाडी ने उसे घूर कर देखा-
आदमी की हड्डियाँ।
वह फिर से कांपी।
किनकी है?
जिनकी बली दी गई उनकी। चल अब। नही तो तेरी हड्डियाँ इस पोटली में आ जाएंगी। पंगुल्या ने उसे आधार देकर उठाया। वह खड़ी हुई।
चल...... मुझे कंधे पर लेकर......। पंगुल्या ने उसे फिर से जमीन पर बैठाया।
वह उकडूं बैठ गई। पंगुल्या ने पीछे से उसके गले में बाँहें डाल दीं।
एक लम्बी साँस लेकर वह मंथरगति से उठी।
पंगुल्या की बताई हुई दिशा में चलने लगी।
शरीर दुख रहा था। लेकिन अब उसमें बल भी आ गया था।
धीरे धीरे उसकी चाल सहज होने लगी। उसमें गति आने लगी।
पंगुल्या आनंदित हो उठा। उसका हाथ उंचाडी के गाल थपथपाते हुए उसके थानों पर टिका।
उंचाडी कराही। उसने हाथ झटक दिया।
एक मोड आया। फिर एक चढाई आई।
अब चढो। इस चढाई से थोडी दूर दूसरा मोड है दहिनी तरफ। उसे पार करना है।
सूरज ऊपर आ गया...... चलता रहा..... और डूब गया।
उंचाडी चलती रही।
वाघोबा बस्ती कब की आँखों से ओझल हो चुकी थी।
इधर.....पंगुल्या से हाथ से इशारा किया।
अब जंगल घना हो गया था।
अंदर...... पंगुल्या बुदबुदाया।
कंटीली जंगली बेलों के अंदर उंचाडी घुस गई। सामने एक छोटा सा झरना बह रहा था।
यहाँ रुकते हैं। पंगुल्या ने कहा।
उंचाडी ने उसे जमीन पर पटक दिया। हाँफते हुए झुककर झरने के पानी में मुँह लगा दिया। लपालप पानी पीकर वहीं कीचड़ में औंधी पडी रही।
पंगुल्या ने आँखें मींच कर एक लम्बी साँस खींची। आकाश की ओर देखकर बोला- आज की रात एक नई रात होगी। चंद्र नया होगा- आकाश भी नया होगा।
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॥ ५२॥ अकेला झिंग्या ॥ ५२॥

॥ ५२॥ अकेला झिंग्या ॥ ५२॥

झिंग्या ग्लानी से, थकान से गिर पड़ा।
पेट में भूख।
पेड में खस खस की आवाज आई। झिंग्या ने आंखें खोलीं।
सामने एक तेंदुआ।
तेंदुए ने दांत बिचकाए।
खींस निपोरी।
झिंग्या ने चीखने का प्रयास किया। उसका छोटा शरीर काँपने लगा।
उठकर वह भागा। लेकिन चार डग चलकर फिर गिर गया।
तेंदुए ने एक विचित्र आवाज निकाली।
झाड़ी से दो और तेंदुए निकल कर बाहर आये।
तीनों आक्रामक स्थिति में।
झिंग्या ग्लानी में पड़ा रहा।
एक तेंदुआ उसकी गर्दन पर टूट पडा।
गर्दन की नली फोड़ दी।
क्षीण आवाज में झिंग्या चीखा।
दूसरे तेंदुए ने उसे पलट दिया और पेट को चबाने लगा।
तीसरा चेहरे को।
आपस में थोड़ा गुरगुराना। एक दूसरे को दांत दिखाना।
फिर तीनों में समझौता।
बँटवारे के लिये।
दांत गाड़े गये। रक्त का स्वाद लेने लगे।
झिंग्या की अन्तिम हिचकी निकली।
पेड़ पर बंदरों ने किच किच मचाई।
लेकिन एक तेंदुए ने नाक चढाकर देखा तो बंदर दूर भाग गये।
गुरगुराते हुए तेंदुए झपट पड़े।
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॥ ५१॥ धानबस्ती पर कोमल की बातें ॥ ५१॥

॥ ५१॥ धानबस्ती पर कोमल की बातें ॥ ५१॥

पायडया पेट के बल लेटा था। आँख दूर पर गड़ी हुई थी। एकटक।
वहाँ बाँस में दो बाँस बांध कर त्रिकाटी झोंपड़ी बनाई हुई थी।
झोंपड़ी के उस पार चमकती हुई नदी।
वर्षा की घों घों करती हवाएँ पानी में हिलोरें ला रही थीं।
पायडया के पीछे पैरों की आहट हुई। उसने मुड़कर नही देखा। न हिला। बाई अब पीछे से सामने आकर बैठ गई।
पायडया एकटक उसे देखता रहा।
बाई के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दीख रही थीं। मानों वहाँ किसी ने एक जाल बुन दिया हो।
आँखों में आँसू।
पायडया उठ बैठा।
एक हाथ से बाई का कंधा दबाकर पूछा-
कोमल के लिए?
हाँ।
पायडया ने गर्दन हिलाई। शून्य चेहरे से वह दूर देखने लगा।
बाई रोती रही।
यह बस्ती......यहाँ के पिलू.....कोमल का पिलू.....
मेरे अब चार ऋतु बचे होंगे। फिर आगे?


आगे की कोई और देख लेगी।
बाई ने गर्दन हिलाई।
नही, बाई होने जैसी कोई नही है।
यही है जो पिलू जनकर भी जीवित बची। इसे समझ है। सोचती है। वही अगले पिलू भी जन सकती है- हर वर्षा ऋतु में एक।
वह......वही बाई है मेरे बाद।
क्या वह अकेली है? और भी कई सूएँ हैं। पायडया ने कहा।
नही। बाई ने निश्चयपूर्वक गर्दन हिलाई।
वह अकेली ही थी बाई बनने लायक।
तो अब? पायडया ने झल्लाकर पूछा।
अब ..... कदाचित जानवर खा गए उसे।
बाई हताश हो चली थी।
कहाँ गई होगी?
गई होगी कहीं। पायडया अब चिढ कर बोला। टोली का नियम है, अपनी शिकार आप ढूँढने का। आसपास मिली नही होगी शिकार तो दूर निकल गई होगी। इसमें नई बात क्या है?
या तू सोचती है कि उसे यहीं बैठाकर शिकार ला देनी चाहिए थी?
तेरी पिलू है इसलिए?
बाई ने अपने आँसू रोककर एक लम्बी सांस छोड़ी। पायडया सच कहता था। यही हो रहा था और यही होने वाला था।
पायडया ने उसका कंधा थपथपाया।
उठ। तू तो बाई है..... सावली। तू ही भरमा जाएगी, रोती रहेगी तो हुकुम कौन चलाएगा?
बहुत काम पड़े हैं अभी तेरे लिए।
बाई संभली। उठकर चली गई।
पायडया पीछे से उसे जाते हुए देखता रहा। फिर घुटनों में सिर डालकर कोमल को सोचने लगा।
क्या उसे जानवर खा गए? वह बुदबुदाया।
उसकी छाती में कुछ हिलने लगा। आँख की कोर में पानी आ गया।
फिर टोली में क्यों रहना?
उसने सिर हिलाया।
बाई भी आखिर सू ही है। रो ही पड़ी।
मैं आदमी होकर भी आँसू निकालता हूँ। वह तो सू ही है।
उसने थूक निगला।
लकुटया और दूसरे चार आदमी थे कोमल के साथ। फिर भी बाघ देखकर डर गए।
कोमल उधर..... ये इधर....। वाह।
फिर थोड़ा बहुत ढूँढा उसको।
फिर कूल्हे मटकाते वापस आ गए। घबराए बंदरों की तरह।
कहा- यही नियम है टोली का।
मरने वाला मर जाएगा।
जो बच सकता है, उसे भाग कर अपने को बचा लेना है।
क्यो बचाना है?
किसी दूसरे दिन इसी तरह से मर जाने के लिए? एक क्षण वह सुन्न बैठा रहा। फिर तपाक्‌ से उठकर अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ा।
सामने चार आदमी बांस ढोकर ला रहे थे। कई झोपड़ियों में नए वाँस लगाने थे। औत भी कितने काम।
हरेक का अपना सूर्य उगता था- डूबता था।



धीमे पैरों से वह वापस लौटा।
उन चारों के सामने आ गया।
उधर......। उसने काम की दिशा में अंगुली उठाई।
नई झोंपडियाँ बनाने के लिए खुली जगह।
लयबद्ध डग भरते हुए चारों उधर निकल गए।
पायडया झोंपड़ी में वापस आया।
कोमल की याद में फिर आँसू बहने लगे।
उसका शरीर गदगदाता रहा।
आँधी भरी हवा घों घों करती नदी के उपर बहती रही। 
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