54-55
॥ ५४॥ फेंगाडया देखता है
रंगीन आकृति ॥ ५४॥
फेंगाडया नदी के किनारे खड़ा
था।
नदी में कूद कर तैरता हुआ
बीच तक पहुँच गया। अपने चहेते कातल पर बैठ गया।
बादल अभी अभी एक झडी लगाकर
जा चुके थे।
चारों ओर हरियाली। हवा में
नमी.... जंगली फूलों की सुगंध।
साथी मरा तब भी यहीं आया था
फेंगाडया।
पत्थर पर लेटते हुए उसने
आकाश की ओर देखा।
बादल बिखरे हुए।
भुरभुराती वर्षा का छिड़काव।
बीच में ही धूप की एकाध
किरण। उससे आँख बचाते हुए फेंगाडया ने उलटी दिश में देखा।
उसकी साँस टँगी सी रह गई।
वहाँ पूरे आकाश पर फैली थी
एक रंगभरी आकृति। आधे गोल के आकार में।
क्या है यह?
फेंगाडया हडबडाकर उठ बैठा।
यह कोई बेल है? कोई लता?
या बाँस? या बिजली?
किसी बस्ती की निशानी?
क्या यह उदेती पर आकाश में
रहने वाली किसी बस्ती की निशानी है?
या फिर धानबस्ती की?
या कोमल की ऑख?
कोमल की बात पर उसकी छाती
में कुछ गदगदाने लगा।
कोमल का स्पर्श याद आया।
उससे जुगना याद आया।
एक सिहरन उसके शरीर में दौड़
गई।
वह धानबस्ती की है। उसका एक
पिलू भी है।
तुझे वह चाहिए। ठीक। लेकिन
फिर पिलू को क्या? उसे दूधभरे थान कहाँ मिलेंगे?
तू उठा लाया इसलिए वह बची।
लेकिन अब उसे जाने देगा तो उसका पिलू बचेगा।
वह वापस नही आएगी।
इस गुफा में, अलाव के पास
बैठकर नही हँसेगी।
तू उसे खो देगा।
पहले बापजी को खोया। फिर
साथी। अब कोमल।
बचा लुकडया..... कल वह भी मर
गया तो?
तू और लम्बूटाँगी दो ही बचे।
फेंगाडया गदगदाया।
यह हो रहा है लुकडया को लाने
के कारण। यह किसीमें इतना उलझ जाना।
मानूसपना इतना कठिन होता है?
इतना दुखाने वाला?
फेंगाडया उठा। एकटक आकृति को
देखने लगा।
आकृति के रंग फीके हुए और वह
आकाश में घुल गई।
सूरज बादलों के पीछे जा चुका
था।
क्या यह बादलों की किसी
बस्ती की निशानी है?
देर तक प्रतीक्षा करने पर भी
कमान नही निकली।
फेंगाडया वापस तैरकर किनारे
पर आ गया। जंगल में घुस गया। चढाई चढने लगा। पठार पर आकर थमक गया।
दूर उदेती की तरफ पहाड़ी के
बीच में एक कटाव, एक खाली जगह दीख रही थी।
उसी के पीछे होगी धानबस्ती।
कोमल ने कहा था- वहाँ
चलेंगे।
चलना है?
उसने थूका
मार डालेंगे। बापजी ने क्या
कहा था?
अचानक आती आवाज उसके कानों
ने सोख ली। फेंगाडया झट से पेड़ पर चढ़ गया। पत्तों में छिपकर देखने लगा।
डूब डूब की ओर से वे आए।
कई आदमी। हाथ में लाठियाँ।
फेंगाडया काँप गया।
मानुसबली टोली के आदमी? इतनी
दूर?
झुण्ड आया और उसी वेग से
धाडधाड चलते हुए दहिनी ओर निकल गया। एक मोड पर ओझल हो गया।
क्या ये धानबस्ती पर जा रहे
हैं?
तेजी से फेंगाडया उतरा और
गुफा की दिशा में भाग चला। दूर...!
साँस चढ गई, तो थक कर रुक
गया।
आज शिकार भी नही। वह
बुदबुदाया।
भूख से, पराजय से उसकी छाती
भर आई। वह चिल्लाया ओ च् हो च् हो च् च्
उकडूँ बैठा गदगदाता रहा।
फिर उठ कर दुबारा जंगल नापने
लगा।
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॥ ५५॥ लाल्या पहुँचता है
धानबस्ती तक ॥ ५५॥
लाल्या हाँफते हुए रुक गया।
पीछे आने वाले भी ठहर गए।
उदेती दिशा में बहुत दूर आ
गए थे। सूरज डूबने में अभी देर थी।
एक चढाई सामने थी। घने जंगल
के मोड़ को पार कर वे आगे आ चुके थे।
फिर से लयबद्ध पैर उठने लगे।
नजरें चारों ओर भिरभिरा रही थीं। हाथों में लाठी।
पंगुल्या और उंचाडी को
ढूँढना था।
अचानक लाल्या थमक गया। सामने
एक धष्टपुष्ट भैंसा चर रहा था।
आज एक अच्छी शिकार तो मिली।
झटपट मूक इशारे हुए। आदमी
चारों दिशाओं में फैल गए। हलके पैरों से।
लाल्या पीछे मुड़ा। बाँई ओर
से लम्बा चक्कर लगाते हुए भैंसे की पिछाड़ी में पहुँचा।
भैंसा फुरफुराया। खुरों से
जमीन उकेरने लगा। संशय से देखने लगा।
लाल्या ने पिछाड़ी से छलांग
लगाई और एक ही झटके में भैंसे की पीठ पर चढ बैठा। बांहों की मजबूत पकड से भैंसे की
गर्दन दबोच ली। उसी समय सामने से चार पांच आदमी सामने लाठी लिए आए।
लाठियाँ तडातड भैंसे के माथे
पर पड़ने लगीं। लाल्या अचूकता से अपने को बचाकर कूद गया। भैंसे का सिर फूट गया। वेदना
से वह चिंघाडता रहा। लाठियाँ बरसती रहीं।
मरण का आक्रोश आखिरी बार
भैंसे के गले से निकला।
फिर जंगल में सर्वत्र
स्तब्धता छा गई।
भैंसा औंधा पड़ा था। मर चुका
था।
लाल्या ने थूक निगली। जीत की
लम्बी गर्जना की।
फिर एक बार स्तब्धता।
लयबद्ध काम एक बार फिर आरंभ
हुआ। भैंसे के पैर लाठी पर बांधकर कुछ लोग तैयार हुए।
शिकार अच्छी मिली... लेकिन
उंचाडी और पंगुल्या? एकजन बुदबुदाया।
लाल्या ने एक बार सबको देखा।
फिर बोला-- आगे।
आधे आदमी भैंसे के पास रुके,
बाकी आगे चले।
दहिनी ओर नदी थी। उंचाई से
आती हुई।
लाल्या और उसके साथी चढाई
चढने लगे।
पहाड़ी की उंचाई पर छोटा सपाट
पठार था। वहाँ से नीचे दोनों तरफ का दृश्य देखा जा सकता था।
लाल्या ने साँस रोकी। सामने
अपार दृश्य था।
नीचे नदी अपने रौद्र रूप में
बह रही थी। वह कहीं से बहती हुई सीधी पहाड़ की तलछटी में घुस आई थी। किसी भैंसे की
तरह। वहाँ एक शांत में डोह में समा गई थी। डोह के दहिनी ओर नदी की दूसरी धार बाहर
निकलकर अदृश्य तक जा रही थी।
पीछे की तरफ था वाघोबा वस्ती
का चलन। उधर से ही आए थे लाल्या और उसके साथी। लाल्या ने हाथ से इशारा किया। डोह
से बांई ओर उंची सीधी चढाई। मानों पहाड खडा हो गया था नदी को मोडने के लिए।
लाल्या की आँख उठी ऊँचाई पर
अदृश्य होती एक पगडंडी की तरफ।
फिर एक बार लयबद्ध पदचाप।
हाँफती साँस....... उच्छ्वास।
साथ में नदी का निनाद।
अब वे मोड़ पर आ गए थे। नीचे
नदी।
ऊपर पर्वत की दिवारें सीधी
उठी हुई। मानों नदी का प्रवाह घुमाने के उद्देश्य से ही।
उदेती.....। लाल्या
बुदबुदाया। उसके रोंगटे खड़े हो गए। नसें तन गईं। वह ऊँचाई की ओर दौडने लगा।
इस पहाड़ से घूमकर नदी देखनी
चाहिए। उसने कहा। वहाँ उदेती दिशा में है धान टोली। उसे देखना होगा। आज
ही........।
पहले मोड तक आकर वह रूक गया।
पहाड़ की कगार से नीचे झांका। नीचे गहरा डोह था। अब नदी की दोनों धाराएँ स्पष्ट दीख
रही थीं। पानी बाँई ओर से आकर डोह में कूद रहा था। वहाँ से दहिनी ओर फूट कर नदी की
धारा चली जा रही थी।
अगली चढाई अब भी बाकी थी।
आगे.......। लाल्या
चिल्लाया। हाँफते हुए चढने लगा। उसके हाथ की मुठ्ठियाँ तन गई थीं।
एक और मोड़ आया। उसके ऊपर
सीधी उंची चढाई थी। आगे दर्रा। वहाँ पर्वतों की बीच से झांकता हुआ आकाश।
सारे रुक गए।
कहीं से आहट आई। झट सारे इधर
उधर छिप गए।
कोई आ रहा था। जानवर?
पैरों की आहट हुई.......
आदमी की आहट।
लाल्या एक पेड़ के पीछे था।
निस्तब्ध.....।
नजरें भिरभिराती हुईं।
एक सू सामने आई।
लाल्या सावधान हुआ।
धानबस्ती की सू?
एकआंखी जंगल में लकड़ी चुनने
आई थी। सहजता से एक लकडी उठाने झुकी कि लाल्या ने उसे दबोच लिया। उसके मुँह पर
हाथ..। एकआंखी का दम घुटने लगा।
मुँह दबाए लाल्या उसे खींचकर
एक ओर ले गया।
हाथ हटाया।
फैली आँखों से एकआंखी देखती
रह गई।
सामने लाल्या.. बाकी आदमी।
कौन? वह बुदबुदाई।
तू उदेती टोली की? धानबस्ती
की?
एकआंखी ने हाँ भरी।
सब थर्रा गए। बहुत दूर आ गए
थे।
लाल्या ने हाथ उठाकर एक को
इशारा किया
वह आगे आया। एकआंखी पर टूट
पडा।
एकआंखी की समझ से बाहर।
फिर दूसरा जुगा....फिर
तीसरा....।
लाल्या ने हाथ उठाया-- रोको।
एकआंखी के केश पकड कर उसे
उठाया। उसके कूल्हे पर धौल जमाकर बोला-- जा, जाकर बता दे सबको, कि हम फिर आएंगे।
उदेती की हर सू को जुगेंगे
और हर आदमी को मार डालेंगे।
कह दे बाई को, कि उदेती के
दिन पूरे हुए।
थू। वह थूका।
एकआंखी भाग चली बस्ती की ओर।
लाल्या धीरे से आगे आया।
दबे पांव उसके पीछे पीछे
जाने लगा।
एक अनजानी राह जा रही थी
दर्रे से उस पार।
धानबस्ती का कोई आदमी न
दिखाए तो यह राह ढूँढना कठिन था।
दर्रा लांघकर लाल्या दूसरी
तरफ आया।
पीछे पीछे उसके आदमी- सभी
दबे पांव।
सामने खुला आकाश था। नीचे
नदी। इधर से ही आ रही थी डोह में समाने के लिए। नदी की बांई ओर पठार था। उंचाई से
पठारकी झोंपड़ियाँ साफ दीख रही थीं।
जहाँ लाल्या खड़ा था वहाँ से
सीधे नीचे बस्ती तक पगडंडी पहुँची थी।
एकआँखी उसी पगडंडी पर दौड़ती
जा रही थी। धीरे धीरे उसका आकार छोटा होते होते एक धब्बा बन गया। फिर वह भी ओझल हो
गया।
झोंपडी से नीचे हरी मखमल
बिछी हुई थी।
दूसरे घासों जैसी नही थी ये
मखमल।
सभी थर्रा गए।
यह सब सच है। उदेती की
धानबस्ती...... सचमुच है।
तो बापजी सच कहता था- उसकी
कही बाकी बातें भी सच होंगी।
सूरज डूबने चला।
लाल्या अपने विचारों से बाहर
आया। तेजी से वापस जाने को मुडा।
भागते, हाँफते सारे वापस
जाने लगे।
रात बढती चली। गिरते पडते,
पत्थरों से टकराते वे उनसे मिले जो भैंसे के पास रुके थे।
फुसफुसाहट, बढने लगी।
सच है......हाँ, हाँ.....
मैंने देखा है।
अंधेरे में भैंसा उठाकर सारे
फिर चलने लगे डूब डूब दिशा में।
रात का अंधियारा गहरा चुका
था।
लाल्या फिर विचारों में डूब
गया। उसकी छाती धडधडाने लगी।
बापजी सच ही था।
लाठी पर उसकी पकड कस गई।
उंचाडी? एक ने पूछा तो
लाल्या को ध्यान आया।
उंचाडी को ढूँढने निकले थे
हमलोग और खाली हाथ वापस जा रहे हैं।
जानवर खाएँ उसे। वह
चिल्लाया। अब प्रश्न उंचाडी या पंगुल्या का नही है।
अपने मरने का है।
मरण का वह जानवर, वह
धानबस्ती की सू सबने आँखों से देखी है।
अब उस टोली को मार डाले बिना
दूसरा रास्ता नही है।
भैंसा भारी था। वापसी की गति
धीमी हो रही थी।
रात बीतने को आई।
अब उतराई आ गई थी जो वाघोबा
बस्ती के पठार तक जाती थी।
पैर अब धमक कर चलने लगे।
बस्ती आई।
भोर का उजाला चारों ओर बिखर
गया।
सू, पिलू, बापजी, सारे खडे
थे।
बापजी....., जय वाघोबा।
लाल्या चिल्लाया।
मैंने धानबस्ती देखी।
उदेती में। वो है। सचमुच है।
वहाँ भयानक बाई है। उसका
शैतान, उससे जुगने वाला आदमी है। मंत्र भी हैं।
बापजी ने चमक कर लाल्या को
देखा। विजय भरी एक हंसी बापजी के चेहरे पर दौड़ गई।
अलाव पर भैंसा भूना गया।
दोपहर हुई। खाना हुआ।
झोंपडी झोंपडी में फुसफुसाहट
होने लगी।
बापजी ने चुप्पी लगा ली।
सायंकाल का समय...... अंधेरा
घिरने लगा।
बापजी झोंपड़ी से बाहर आया।
उकडूँ बैठ गया। सिर में
विचार घूमने लगे।
खेल तो तूने शुरू कर दिया
बापजी..... एक नया खेल।
यहाँ के पिलू जो लाठियाँ
लेकर झूठमूठ मार काट का खेल खेलते हैं- वैसा नही। यह सचमुच का खेल।
इसकी मारकाट भी सच्ची होगी।
मरण भी सच्चा होगा।
उसने सिर हिलाया। वहीं पर
लेट गया। शरीर में हिंव भर रहा था। सारा शरीर ठंड से थरथराने लगा। अंगूठे की सूजन
बढ चली थी। धीरे धीरे बापजी का शरीर तपने लगा। ग्लानि उसे भरमाने लगी।
अकेला...... अकेला बापजी।
आँखों देखने लगीं।
सू...... कई सूएँ। लेकिन
सावली? वह अपने जैसी एक ही थी।
फेंगाडया। साथी......।
शिकार......
भैंसा.....वराह.......।
बांस की तिकटी पर टँगे बंदर
की आँखें।
वह छोटा पिलू..... जो उस दिन
अलाव में बली के लिए भूना गया।
उसके माँस का टुकड़ा.....
उसका स्वाद।
ग्लानि में भी बापजी मितलाने
लगा।
थू.... वह थूका। उसकी देह
बुखार में तिलमिलाती रही।
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