Wednesday 23 November 2016

॥ ५॥ वाघोबा बस्ती पर पंगुल्या ॥ ५॥

॥ ५॥  वाघोबा बस्ती पर पंगुल्या ॥ ५॥

पंगुल्या एक पाँव से रखडते रखडते झोंपडे में आया।
पीठ के बल लेट गया।
आज फिर उपवास।
शिकार ही नही।
टोली वापस लौट आई है बिना शिकार के।
आज लगातार चौथा दिन है उपवास का।
सूरज डूब गया। अंधियारा धिरने लगा।
उमस...... पसीना ......
आज नाच नही है।
है केवल भूख........
बाहर कुछ परछाइयाँ छितरी।
वह काँप गया।
बाहर आदमी।
पाषाण्या ने अंदर झांका -- बाहर आ।
काँपते शरीर से पंगुल्या बाहर आया।
पाषाण्या की आँखे अंगार।
थू च्। लाल्या थूका, बोला --
तू मंत्र ठीक से नहीं पढता।
वह तेरी हड्डिया - थू।
एक छोटा शिकार का मंत्र नहीं पढ सकता तू।
फिर बाकी मंत्रों की क्या जरूरत?
पंगुल्या गड़बड़ा गया।
पाषाण्या आगे आया। पंगुल्या को कंधे से झकझोरते हुए बोला-
ठीक से देखो हड्डियाँ। समझो उनके संकेत।
ठीक तरह देखकर पढो मंत्र। बताओ --
कल शिकार कैसे मिले?




पंगुल्या झोंपड़ी के अंदर आया।
हड्डियों के ढेर लगे थे।
उन्हीं में से दो हड्डियाँ उठाकर पैर खींचता हुआ बाहर आया।
हडिडयाँ देखकर सब लोग दो कदम पीछे हट गए। थोड़ा सा आदर आँखों में वापस...!
पंगुल्या उकडूँ बैठा।
सामने दो हड्डियाँ।
हाथ आकाश की ओर फेंकते हुए बोला-
वाघोबा। जय वाघोबा।
उसने पास की मिट्टी खाई. चबाकर थूक दी।
उसे हड्डी पर चुपडते हुए मंत्र पढता रहा।
फिर हड्डियाँ उछालकर आकाश में फेंकी।
वह सामने आ गिरीं।
उन्हें देखता हुआ बोला-
कल शिकार मिलेगी। उदेती की दिशा में।
सारे संतुष्ट होकर जाने लगे।
तभी पंगुल्या की आँखें चमकीं।
वह चिल्लाया -- जय पाषाण्या।
सबने पीछे मुड़कर देखा।
पाषाण्या उसके पास आया।
अपना महत्व जताते हुए पंगुल्या बोला -- नचंदी का दिन पास है।
दो और दो.........चार दिनों पर।
नहीं, नहीं....... अभी देर है। लाल्या बुदबुदाया।
पंगुल्या हंसा- केवल दो और दो, चार दिनों की देर।
पाषाण्या की गर्दन हिली................
पंगुल्या गलती नही करता। उसके कहा।
चलो, कल से तैयारी करो।
बली खोजो।
लाल्या की मजबूत बांहों ने लाठी तौली।
वह थूका, मुड़ा और निकल गया।
धीरे धीरे बाकी भी अंधेरे में घुल गए।
पंगुल्या थरथराते हुए बैठ गया।
उसकी आँखों में अंधेरा छा गया।
चाँद के निकलने में बहुत देर है।
अभी केवल नक्षत्र चमचमा रहे हैं।
अंधेरे को तकता हुआ वह अकेला ही।
दो और दो..... कितनी आसान गिनती है।
वह भी इन मूर्खों को नही आती।
वह थूका। पुटपुटाया- पंगुल्या, तेरा एक पैर तो सूखी लकड़ी की तरह।
उसी को खींचते हुए चलता है तू।
तू तो मर ही जाता कभी का।
लेकिन तू जी लिया।




बढ लिया। जुगने लायक बढ लिया।
तू पिलू था तब भी और अब भी....
यह जो तेरी सूझ है -- दो और दो चार समझने वाली......
वही है तेरा सहारा। तेरी लाठी।
उसी लाठी से काँपते हैं सारे।
इसी से लाकर शिकार देते हैं।
हाथ की हड्डियाँ उसने ढेर में फेंक दी।
शिकार का मंत्र।
वह पागलों की तरह ठठा कर हँसा।
मूर्ख... मूर्ख हैं ये सारे।
मेरे पास मंत्र होता जानवरों के शिकार का, तो तुम उद्दाम बेवकूफों को मैं कभी का छोड़ चुका होता।
फिर रोज मैं मंत्र दुहराता।
हड्डियाँ नचाता।
और शिकार खींचा चला आता मेरे पास।
आ जाता डोलते हुए कोई वराह।
मार गिराता उसे एक ही झटके में।
बास्‌.....।
वह पागलों की तरह हँसता रहा। आँखों मे पानी आने तक......!
बाहर अंधेरे में कुछ चमका।
एक सू चली जा रही थी झरने कि ओर।
वह ठिठक कर रुक गई।
उन्माद में भरकर पंगुल्या चीखा -- आ।
उसने इनकार में गर्दन हिलाई।
दौडने को उद्यत हुई।
पंगुल्या ने हड्डी उठाई।
भागी तो सूअर बना दूँगा। आ।
सू थम गई।
काँपते हुए, भारी पैरों से पास आई।
पंगुल्या उस पर झपट पडा।
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