Wednesday 23 November 2016

॥ २९॥ बापजी बाघी टोली को देखता है ॥ २९॥

॥ २९॥ बापजी बाघी टोली को देखता है ॥ २९॥

भरी दोपहर अब ढल रही थी।
बापजी सावधानी से चढते हुए चल रहा था।
अचानक चढाई रूक गई। उसने देखा, बहुत उंचाई पर नही था वह।
झाडी घनी थी।
समारे विशाल कातल।
अपना टीसता पैर सहलाते हुए बापजी कातल पर जा बैठा।
सूरज पीठ पर। माने वह उदेती की ओर जा रहा था।
जीभ सूख गई थी। पानी का सोता देखे देर हो चुकी थी।
बापजी उठा। झाडियों के बीच से थोडा आगे आया और चौंक गया।
यहाँ पहाड कटा हुआ था।
कगार से देखो तो सीधा नीचे। पहाड मानों पूरी कातल की दीवार थी।
उसका सिर चकराया। वह झट से नीचे बैठ गया।
हवा उसे थपेडे देती रही।
हांफती साँस, अलसाए पाँव।
थोड़ा संभलकर उसने आँख खोली। नीचे देखा।
घाटी में छोटे छोटे पठार थे।

उनके बीच में एक पठार पर कुछ झोंपडियाँ थीं। आदमी..... , सू......., पिलू भी होंगे--
छोटे चीटों को तरह दीख रहे थे।
वह थूका।
मानुसबली देनेवाली टोली। वह बुदबुदाया।
उसने फिर एक बार देखा। उसकी आँखों में धानबस्ती झिलमिलाई।
आज वह धानबस्ती पर होता तो?
उसकी छाती में कुछ हिला।
बस्ती की लालसा किसे नही है? आदमी को तो है। बापजी को भी थी। वह बुदबुदाया।
सावली...., केशों में सफेद फूल बांधने वाली।
इतनी सूएँ उस बस्ती में थी।
लेकिन सावली, बस सावली थी। बाकी सू उस जैसी नही थीं।
अचानक अंधेरा छाया।
बापजी देखने लगा धानबस्ती की वह रात।
पायडया उसे उठाने आया था।
वह उठा।
पायडया ने कहा- चलो।
वह चला।
दोनों एक झोंपडी के सामने रुक गए।
एक आदमी बाहर आया।
तीनों चुप। किनारे की झोंपडी को जाने लगा।
बापजी ठहर गया।
यह झोंपडी-- भैंसाडया नामके आदमी की है।
हाँ। पायडया ने कहा।
फिर?
उसे मार डालना है।
पायडया की आवाज गहरी हो गई।
बापजी सिहर गया।
कोई ऐसे किसी आदमी को नींद में मार सकता है?
आदमी ही आदमी को मारे?
बाई का हुकुम है।
इसका नाम था भैंसाडया। लेकिन अब यह सचमुच भैंसा बना हुआ है।
शिकार का बडा हिस्सा रख लेता है। सू को, पिलूओं को मारकर अधमरा कर देता है। उनका खाना छीनना है।
लेकिन बापजी जो ठहर गया तो ठहर गया।
मैं नहीं........।
पायडया और वह दूसरा आदमी थूके। फिर दोनों दो भारी पत्थर लेकर अंदर गए।
धाप....धाप ..... दो आवाजें। एक घुटी हुई चीख।
बापजी अंदर आया। भैंसाडया सिर फूटकर मर चुका था।
बापजी की आंखों ने देखा- साथ में एक और आदमी मरा था।
यह?
यह जाग गया। पायडया दुखभरे स्वर में पुटपुटाया। कल बस्ती में शोर मचा देता।
बाई ने कहा था-- किसी को पता नही चलना चाहिए।
इसलिए इसे भी मार दिया।



बापजी आज भी सिहर गया।
अचानक एक चील झपटी। उसके सिर के पास से निकल गई।
बापजी सुधि में आया।
सामने घाटी-- वह कगार पर।
बापजी पीछे हटा। मुडकर एक बडे पेड के पास आया।
आज यहीं, इसी पेड पर सोना होगा।
उसका सिर फिर चकराया।
धानबस्ती की बातें उसे हिलाने लगीं।
पायडया..... बाई का हुकुम था कि किसी को पता नही चले-- इसलिए यह दूसरा आदमी मारा गया।
इसे झूठ ही मरना पडा।
बस्ती में था इसलिए मरना पडा। बस्ती के नियम के लिए मरना पडा।
बस्ती ने उसे क्या दिया? मरण।
वह चिल्लाया। थूका।
मैंने कहा तुझसे पायडया-- कि बस्ती छोड।
बस्ती आदमी के लिए नही है।
वह होगी सू के लिए, पिलूओं के लिए। या बाई के लिए।
उसे शैतान के मंत्र आते हैं।
वह रक्तगंधाती है।
शैतान उसके पास आता है।
हर नए पिलू के आने पर उसे जीवन का मंत्र देता है।
वह बस्ती को बढाती है।
फिर हुकुम देती है- और एक आदमी मर जाता है। आज वह मरा....... कल मैं, या तू.....।
थूकता हूँ ऐसी बस्ती पर। थू।
आदमी को दुख नही चाहिए- मरण नही चाहिए, इसलिए बस्ती चाहिए।
लेकिन बस्ती भी देती है मरण।
एक बाई के कहने से।
कल मेरे लिए भी बाई कहेगी और मैं भी ऐसे सिर फोड कर मारा जाऊँगा।
क्यों मरूँ ऐसे?
नही मरूँगा।
मैं मरूँगा लेकिन जंगल में-- शिकार करते हुए।
मैं सू नही हूँ, पिलू भी नही। मैं बापजी हूँ।
मैं अकेला रहूंगा। अपना गुट बनाऊँगा।
बापजी ने दोनों हाथ आकाश में फेंके।
देवाच् मैं तब अकेला था।
बाई के पास बस्ती थी-- मंत्र थे। शैतान के मंत्र। इसलिए मैं भागा।
नही तो आँधी बनकर बस्ती को उडा देता।
आदमी का मानुसपना भुला दे ऐसी बस्ती क्यों?
पायडया से कहा था- चलो। उसने ना कर दी।
छाती में निश्चय नही था उसकी। अच्छे भले पायडया को बाई ने चींटी बनाकर रखा था।
सारे आदमी चींटी ही थे वहाँ।
एक के पीछे एक चलने वाले। चींटों की तरह।
फेंगाडया मिल जाय, उसे बताना रह गया है। यह बस्ती वाली बात बताना रह गया है। मानुसपना गँवा देने वाली



बस्ती की बात।
बापजी का गला सूख रहा था।
पेड पर भी चढना चाहिए।
वह उठा।
बेलों के आधार से पेड के ऊपरी तने पर कुछ टहनियों पास लाकर जगह तैयार कर ली।
बंदर किचकिचाए। कुछ गिलहरियाँ इधर उधर फुदकीं।
पेड पर फल लटक रहे थे। उसने एक फल तोडा।
खाऊँ? यह पेड देखा नही है कभी।
खा ले। वह अपने पर चिल्लाया।
आज शिकार के लिए ताकद नही बची है। खा ले।
उसने दांतों से फल काटा। खट्टा रस गले से अंदर उतरा।
देवाच् सब कुछ ठीक किया तूने आदमी के लिए।
पेड, फल, हरिण, सूअर।
वह हाथ हवा में फेंककर बोला-
जीने दो मुझे..... फेंगाडया से मिला दो। उसे बताना है बस्ती की बात।
बापजी ने पैर पसार दिए। आंखें मूँद लीं।
बाँई ओर आकाश में बादल भर गए थे।
यह वर्षा की ऋतु की पहली झडी है या गरमी में भटक कर आने वाली झडी?
बापजी ने याद किया।
बहुशः गरमी की ही झडी है। ये बादल वर्षा के नही हैं।
बापजी ने कष्ट से आंखें खोलीं।
अब बूंदे पत्ते पत्ते से टपक कर उसे भिंगोने लगी थीं।
बिजली चमकी। बापजी की आंखे चुँधिया गईं।
हवा में पेड की टहनियाँ हिलती रहीं। उन्ही की लय में बापजी हिचकोले खाता रहा।
-----------------------------------------------------------------
..


No comments: