Wednesday 23 November 2016

॥ २५॥ फेंगाडया की अबूझ चाल॥ २५॥

॥ २५॥ फेंगाडया की अबूझ चाल॥ २५॥

नही च्च्     । फेंगाडया चिल्लाया और दौडने लगा।
लम्बूटांगी भी उसके पीछे पीछे।
फेंगाडया की छाती में साँस अटकने लगी।
बापजी गया। देवाच् । खो गया।
फिर साथी....... वह तो मर ही गया।
अब लुकडया नही, नही। वह फिर चीखा।
दौड़ते दौड़ते अचानक रुक गया।

किधर जाना है? लम्बूटांगी कितनी पीछे रह गई।
वह खडा रहा। जानवर की तरह फुफकारते हुए।
लम्बूटांगी हाँफती हुई आई।
कहाँ है लुकडया? किधर? उसने पूछा।
लम्बूटांगी की छाती में धक्क से कुछ हिला।
लुकडया को ले आएगा तू? उसने पूछा।
हाँ।
क्यों?
फेंगाडया ने मजबूत हाथों से उसके कंधे जकड लिए और उसे हिला दिया।
नाक फुलाकर बोला--
आज नियम मत बताना।
वह कांप गई। बोली--
आजतक कभी ऐसा नही हुआ।
तो आज होगा। समझी? फेंगाडया चिल्लाया।
फेंगाडया की बात लम्बूटांगी अब समझी। वह आनंद से खिल उठी। सारी शंका भूलकर फेंगाडया के कंधों पर चढ गई और उसे चूमने लगी।
फेंगाडया, फेंगाडया.. वह बार बार कहने लगी।
फेंगाडया ने उसे अपने से अलग किया। उसे देखता रहा।
उसका ये लिपटना एक मादी का लिपटना नहीं था।
उसने अपने केश झटके, मीठी हँसी और आगे दौडने लगी।
गरमी की पहली वर्षा अब होने को थी।
तेज अंधड आया। पीछे बडी बडी बूंदें।
पहली बौछार ने दोनों को भिंगो दिया। वे आगे बढते गए।
फेंगाडया निश्चय कर चुका था।
आज वह वही करेगा जो साथी के लिए नही कर पाया।
वह बोला--
यह पहले ही करना चाहिए था।
बापजी खो गया, उसे ढूँढना चाहिए था। साथी जखमी हुआ उसे उठा लाना चाहिए था। नही लाया।
क्या मिला? दोनों चले गए।
चले गए? नही, छाती में से नही। अब भी कभी कभी उसे बापजी का भरम होता है।
मरण? उसे निश्च्िात आना है।
तो आने दो। लेकिन ऐसा नियम क्यों?
कि मरनेवाले को छोड दो। उसके पीछे मत जाओ। यह भगोडों का नियम। डरपोक खरहों का नियम। नियम ऐसे होने चाहिए जो आदमी के हों।
लुकडया जखमी हो गया।
तो उसे क्यों ऐसे ही छोडना है? मरने के लिए?
वह आदमी है, मेरी तरह। कोई पेड या बंदर नही।
मेरा साथी है।
मेरी तरह साँस लेता है, छोडता है।
हम दोनों एक जानवर से जूझे हैं।
दोनोंने एक ही सू को जुगा है।
एक अलाव के पास बैठकर शिकार की बातें की हैं।



उसे लुकडया का ऊष्मा से भरपूर हाथ याद आया।
आज उस पाँव टूट गया.... पर मरा नही है।
टूटने दो हड्डी। वह लेटा रहेगा। खड़ा नही होगा। लेकिन मरे क्यों?
शिकार नही कर सकेगा।
तो ठीक है। मैं तो कर सकता हूँ शिकार।
मैं खडा हूँ।
खड़ा रहूँगा उसके और मरण के बीच।
मैं देखूँगा कैसे आ सकता है मरण।
आज अगर लुकडया को भूखे जानवर का ग्रास बनने के लिए नही छोडा तो वह आज नही मरेगा।
मुझे जखमी छोडकर कल कोई नही भागे, तो मैं भी नही मरूँगा।
आज मैं लुकडया को उठाऊँ, कल कोई मुझे उठाएगा।
विचारों ने फेंगाडया को घेर लिया।
दोनों वहाँ पहुँचे जहाँ लुकडया गिरा था।
फेंगाडया सावधानी से नीचे उतरा।
लुकडया से लिपट गया।
चिल्लाया-- लुकडया मैं फेंगाडया।
वर्षा का वेग बढ रहा था। आकाश टपक रहा था।
लुकडया कुछ समझ नही पा रहा था। चारों ओर पानी, गीलापन और ज्यों बिजली कौंधे इस तरह यह फेंगाडया।
इसे तो गुफा में होना चाहिए।
लम्बूटांगी के साथ।
तू?
हां मैं। फेंगाडया बोला। तुझे ले जाने आया हूँ।
लुकडया ने सिर हिलाया। नकार में।
फेंगाडया ने हाँ हाँ कहा।
लुकडया ने धपका मारने के लिए हाथ उठाया। बोला-- आदमी शिकार में मरता है या इस तरह जखमी होकर।
उसे छोड देने का नियम है।
फेंगाडया चिल्लाया- छोडना है मरने के बाद। लेकिन अभी तू है। बोल रहा है, देख रहा है। लुकडया ने सिर हिलाया-- सब कहेंगे खोट हुई, नियम तोड़ा।
तू खोट मत कर। मैं यहाँ मरता हूँ। तू जा। लुकडया ने त्वेष में भरकर कहा।
फेंगाडया ने मजबूत हाथ से उसे एक थप्पड लगाई। लुकडया बेसुध होने लगा। ग्लानी छा गई।
फेंगाडया ने संभाल कर उसे कंधे पर डाला।
ऊपर चढा दिया। लम्बूटांगी ने जोर लगाकर उसे खींच लिया।
फेंगाडया ऊपर आया। लुकडया को फिर कंधे पर उठा लिया। लुकडया के पांव उसके दहिने कंधे पर झूलने लगे, माथा बांए कंधे पर।
लम्बूटांगी  आगे दोनों हाथों से झाडियाँ अलग करती हुई राह बनाने लगी।
दोनों तेज तेज चलने लगे।
चढाई आ गई। और एक मोड। नीचे नदी बह रही थी।
अब अंधेरा गहराने लगा।
फेंगाडया के पेट में भूख की लपटें उठीं। वह रुक गया।
बापजीच्  । मैं कर रहा हूँ यह ठीक तो है ना?
मानूसपना यही है ना?
या मुझे लुकडया को यहीं फेंककर अपने लिए शिकार ढूँढनी चाहिए?



देवा। उसने आकाश में हाथ उठाया। चिल्लाया-- होच्।
उसकी आवाज पहाडों से टकराकर वापस आई।
उसकी छाती में कुछ धडधडाया।
पेट में भूख की हलचल तो छाती में कुछ दूसरी।
लेकिन पेट की भूख से छाती की हलचल बडी थी।
छाती फोडकर मानों कोई झरना बहने लगा।
स्वच्छ प्रकाश का झरना। जिसने भूख को बुझा दिया।
उसकी नसें तन गईं। सिर उंचा उठ गया।
पेड, पत्थर, जानवर......  आज आदमी सबसे अलग था। आज आदमी, आदमी था।
मेरे कारण आज आदमी सबसे अलग है। फेंगाडया बुदबुदाया।
उस थपेडे मारती वर्षा में, और कँपकँपाने वाली हवा में उसकी पीठ को लुकडया के शरीर की
उष्मा छू रही थी।
यह उष्मा ही जीवन है। यूं उष्मा को पीठ पर लाद लेना ही मानुसपना है।
बापजी चाहिए था। वह चिल्लाया।
देवाच् मेरी छाती में यह धडधड, यह हलचल तूने दी है।
अब तू ही बल देना-- दो के लायक शिकार करने को।
मजबूत पैरों से फेंगाडया उतराई उतरने लगा।
लम्बूटांगी उसके पीछे दौडती रही।
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