Wednesday 23 November 2016

॥ ३६॥ पंगुल्या और पाषाण्या मिलते हैं बापजी से ॥ ३६॥

॥ ३६॥ पंगुल्या और पाषाण्या मिलते हैं बापजी से ॥ ३६॥

तो तू है बापजी। पाषाण्या ने पूछा।
बापजी तन गया। उसे वह उलटा टंगा बंदर और उसकी आँखें दीखने लगीं। अलाव... मानुसबली के लिए लाया गया पिलू...... उसके मांस का स्वाद।
पाषाण्या ने फिर पूछा- तू बापजी?
हाँ।
कौन सी टोली का है?
टोली नही। मेरा छोटा झुण्ड है।
बाहर हवा घों घों कर बह रही थी। सारे अपनी अपनी झोंपडी में चले गए थे।
पाषाण्या ने बापजी को अपनी झोंपडी में बुलाया था। पाषाण्या के साथ पंगुल्या भी था।
तीनों उकडूँ बैठे थे। आंखें एक दूसरे पर।
बापजी माने मुखिया?
नही।
फिर?
बापजी..... समझवाला।
समझवाला। पाषाण्या थूका।
जो टोली यहाँ किसी ने नही देखी उस पर चिढने वाले की क्या समझ?
बापजी हंसा। बाकी दोनों चुप रहे।
तू मुखिया है। यदि तू मना करेगा तो मैं नही बोलूँगा।
पाषाण्या की आंखें शांत थीं।
हंच् वह बुदबुदाया। यहाँ सब कुछ डोह जैसा शांत है।
रोज शिकार मिल जाती है।
नचंदी रात के लिए कोई बली मिल ही जाता है। सू, पिलू, आदमी सारे पल जाते हैं।
हर नए ऋतु में हमारी टोली थोड़ा सा आगे बढकर उदेती की ओर चलती है।
पाषाण्या ने पैर पसारे। पंगुल्या ने अपने पैर पेट की ओर खींच लिए।
बापजी की आंखें पथरीली।
पाषाण्या की ओर देखता हुआ बोला-
सुनना नही चाहते तो मत सुनो।
मै भी नही बोलता।
लेकिन क्या मरण पहले दीखता है?
फिर भी वह पास ही रहता है। आ जाता है। यह आँधी क्या यहाँ बनी? नही। उस पहाड के पार बनी। लेकिन यहाँ तक आ गई।
आँधी आती है। दूर से आती है।
मारती है, थपेडे मारती है। तोड देती है सारी झोंपडियों को।
मुझे यहाँ बली के लिए लाया लेकिन तूने मुझे बचाया।
यह बली नही चाहिए कहा था तूने। मेरा जीवन बचा है इस टोली में। इसलिए अब यह टोली भी मेरी है। और मैं टोली का। इसीसे कहता हूँ।


मैंने देखा दूर तक.....। वह दूसरी आँधी। इसलिए बताया तुम्हें। सुनना है तो सुनो, नही तो मत मानो।
बापजी उठ गया।
जय पाषाण्या। वह चिल्लाया और बाहर निकल गया।
पाषाण्या अब भी चुप। पंगुल्या उसके पास सरका।
पाषाण्या।
हाँ?
मेरी मान। इसे बली चढा दे।
पाषाण्या कांप गया। बोला
हँसता है..... मरण को हंसता है यह बापजी।
उसे बली दे दूँ?
आजतक कोई हँसा है मरण को? बता।
ऐसा हँसने वाला यह बापजी बहुत बडा होगा।
उसके पास बडी शक्ति होगी मृतात्माओं की। इसी लिए वह हँसा। उसकी बली?
मेरी मान। उसे मार डाल। पंगुल्या अकुला कर कहने लगा।
पाषाण्या संभल कर बैठ गया। नही, उसने बस्ती को अपना कहा है।
उसे अब मरण नही।
पंगुल्या चुप हो गया। जय पाषाण्या कहकर उठा और बाहर आ गया।
बाहर आँधी का जोर बढ रहा था। झोंपडी से बाहर जाना संभव नही था। पंगुल्या काँप गया। संभल कर फिर झोपडी के अंदर आ गया।
पाषाण्या। वह पुटपुटाया। बापजी कहता है उसे दूर पहाड के उस पार की आँधी दीखती है।
मुझे तो यहीं की आँधी दीखती है। तुझें भी दीखती है। फिर भी तू चुप रहेगा?
वह मरण को हंसा, इस बात से डर कर? नही पाषाण्या। आँधी नही चाहिए कहकर आँधी टलती नही है। वह नही है कहने से भी नही टलती है।
जो दीखती है उस आँधी को कंधे पर झेलकर भी डट कर खडा रहना, यही किया जा सकता है।
पाषाण्या सुन। आँधी को यों चुप बैठने से नही टाला जा सकता। तुझे भी यह समझ में आएगा। लेकिन तब तक तू जय पाषाण्या नही रहेगा।
वह थूका। फिर अपने हाथ पांव समेटकर करवट लेकर लेट गया।
नींद नही आई। बापजी नाम की आँधी के बारे में सोच सोच कर वह तिलमिलाता रहा।
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