Wednesday 23 November 2016

॥ १०॥ उंचाडी और झिंग्या ॥१०॥ ॥ ११॥ साथी के लिए फेंगाडया का दुःख॥ ११॥

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॥ १०॥ उंचाडी और झिंग्या ॥१०॥

किर्र च्च् के आवाज में डूबी हुई रात। गरमाए कातलों से ऊष्ण हवा फेंकने वाली।
उंचाडी जग रही है। ऊपर गुफा की छत।
बगल में झिंग्या।
हाथ पैरों की पोटली बांधे सोया पड़ा।
उंचाडी थकी हुई थी। बड़े प्रयास से एक छोटा वराह का बच्चा हाथ लगा था।
वह भरमाई। लगा बगल में कोई है।
ऊष्मा है। साथी के शरीर की ऊष्मा।
वह सिहर गई। कोई नही था।
साथी कहीं चला गया, उसे कितने ऋतु बीत गए।
वे साथ साथ रहे थे।
दोनों साथ साथ शिकार करते। फिर जुगते।
फिर झिंग्या आया।
उसे पीठ पर बांधकर दोनों शिकार के लिए जाते।
रात को थककर वापस आते। इसी गुफा में।
एक दिन वह अकेला ही गया। वापस आया तो थका हुआ था। कहने लगा --
धानबस्ती के आदमी मिले थे।
बहुत दूर है उनकी धानबस्ती।
कहते थे -- तुम आ जाओ धानबस्ती में रहने के लिए।
वहाँ धान है।
आने वाले हर पिलू के लिए धान के दाने हैं।
हर सू, हर आदमी के लिए झोंपड़ी है।
मैंने कहा -- मैं चलता हूँ।
उन्होंने कहा -- अकेले मत आओ।
अपने साथ सू को, पिलू को ले आओ।
काश, उसी समय हम गए होते -- वह बुदबुदाई।
लेकिन तब ताकत नही थी।
जाँघों के बीच से झिंग्या निकले हुए एक ऋतु भी नही बीता था।
सफेद, अशक्त शरीर था उसका।
खरहा भी पकड़ती तो थक जाती।
फिर इतनी दूर चल पाना कैसे संभव था?
साथी भी रुक गया था..... मेरे लिए रुक गया था।
रोज रात अलाव के पास बैठकर नक्षत्रों को देखता।
कहता -- धानबस्ती  पर चलना चाहिए।
वह कहती -- झूठ, सारा झूठ।
ऐसी कोई बस्ती हो ही नही सकती।
धान? वह क्या होता है?
भरमा गया है तू?
ऐसे भी कोई दिन हो सकते है जब भूख ही न हो? भूखसे बिलबिलाना न हो, मरण न हो?
साथी चुप हो जाता।
कभी वह पूछ देती -- उदेती दिशा में है? लेकिन उदेती तो इतनी दूर फैली हुई है। कोई अंत न होने वाली



दूरी तक। कभी कहती- कितना लम्बा रास्ता है? तुझे मालूम है? यह गुफा छोडनी पडेगी। बीच में नरबली टोली पकड़ ले तो?
एक दिन दोनों पास ही गए थे शिकार को। वह जल्दी थक गई।
साथी चला गया...दूर!
उसे श्रम से नींद आ गई। जब तक उठी -- वह नही था।
उसे बहुत पुकारा। बहुत ढूँढा।
लेकिन वह नही मिला।
यदि उसे किसी बाघ बघेरे ने मार दिया होता तो कम से कम मरा हुआ तो दीख जाता।
खो गया....? या भाग गया?
लेकिन मिला नही। इतना ही सच है।
इस जंगल में आदमी अगर आँखों से ओझल हो जाए तो पुकारने से भी नही ढूँढा जाए --
इतना सघन है ये जंगल।
उंचाडी अपने ही खयालों में डूबती रही।
बाहर कुछ खुसफुसाया।
नींद में झिंग्या भी कसमसाया।
वह सिकुड़ गई। हाथ में लाठी कसकर पकड़ ली।
प्रतीक्षा करती रही।
फिर उसे गंध आई -- रीछ की।
वह थोड़ी ढीली पड़ी...। आया होगा चीटियों की माँद खोदने। आने दो...।
वह एक ओर मुड़ी। झिंग्या को संबोधित करती बोली- झिंग्या, तू चलने लगा अब।
खूब चलता है, दौड़ता है, बड़ा हो गया है।
हम कल ही चले चलेंगे।
उदेती की दिशा में
धानबस्ती की ओर।
वहाँ धान है, आदमी हैं, सू हैं।
यहाँ अकेली मैं, अकेले तुम।
यहाँ रहो तो यहाँ मरण है।
रोज छिपकर खड़ा है मरण- इस रीछ जैसा।
यह मरण रोज आदमी नामक चीटियों को सूँघ सूँघ कर खाने के लिए तत्पर है।
हमें धानबस्ती पर चलना ही होगा।
झिंग्या नींद में हँसा। उसका छोटा मृदुल हाथ उसके गालों पर आ गया।
उंचाडी ने झिंग्या को बगल में खींच लिया। वक्ष पर उसका मस्तक दबाते हुए बोली --
कल से चलना है धानबस्ती के रास्ते पर।
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॥ ११॥ साथी के लिए फेंगाडया का दुःख॥ ११॥

तेज हवा में अलाव की लपटें तेज होने लगीं।
अलाव के आगे फेंगाडया, लंबूटांगी और लुकडया सूअर भून रहे थे। सामने गुफा।
सूअर भूनते भूनते लुकडया उठा, दोनों हाथों से कपाल पीटने लगा।
फेंगाडया पथराई निगाह से देखता रहा।
लंबूटांगी उठी। उसने भी साथी के लिए शोक करना शुरू किया।

फेंगाडया ने पैर समेटे और घुटनों में सिर छिपा लिया।
चार जनों के गुट से साथी चला गया। अब बचे तीन।
दो आक्रोश कर रहे थे और एक पथराया बैठा था।
उसकी आँखें देख रहीं थीं साथी को।
रीछ के वार से चकनाचूर खोपडी। उससे बाहर लटकता हुआ माँस।
फेंगाडया का जी मितलाने लगा।
उसने भडभड उलटी की।
जमीन पर लोटने लगा।
चीखने लगा।
लंबूटांगी एक छलांग में उसके पास पहुँची।
उसके ऊपर औंधी गिरी।
फेंगाडया का शरीर अब भी उड रहा था।
लुकडया आगे आया। पूरी ताकत समेट कर फेंगाडया के दोनों पैर दाबे रहा।
फेंगाडया के शरीर में बात घुस गया है। जानवर हो गया है वह।
अब वह पगला जायगा।
फेंगाडया अब भी गदगदा रहा था -- गदगदा रहा था।
थोड़ी देर में वह शांत हुआ।
दोनों को ढकेल कर गुफा में आकर पड़ गया।
दोनों पीछे पीछे आए।
हे देवा, मैं उसे वैसा ही छोड़कर चला आया। वह चिल्लाया।
लुकडया ने अचरज से भरकर उसे देखा।
तो क्या तो क्या करता तू? उसे उठाकर यहाँ लाता?
फेंगाडया ने उसे देखा। उसकी आँखों में एक अलग चमक थी।
हाँ। उसने हुंकार भरा।
उसका शरीर तना हुआ। निश्चयपूर्वक, अचल खड़ा शरीर।
लुकडया के देह में सिहरन उठी।
तू... साथी को उठाकर यहाँ लाने वाला था?
हाँ।
लंबूटांगी हँसी।
कभी सुना है किसीने?
आगे फेंगाडया के पास आकर उसे सहलाते हुए बोली --
तू जख्मी हो जाता...., साथी नही... तब क्या वह तुझे उठाकर यहाँ लाता?
फेंगाडया का तनाव कुछ कम हुआ।
लुकडया बोला --
नहीं, तू मर गया होता।
तू मर गया होता और साथी यहाँ होता, इस गुफा में।
फेंगाडया धप से जमीन पर बैठ गया।
छूट गया। लुकडया चिल्लाया।
लंबूटांगी खिलखिलाई। और यह पगला गया था।
फेंगाडया उठा। उसने लंबूटांगी को अपनी ओर खिंचा।
लुकडया बाहर आया। सूअर भूनने लगा।
आज भी सूअर लाया है फेंगाडया। लंबूटांगी पहले उसीको जुगेगी।
दोनों की ओर पीठ फेरकर वह सूअर भूनता रहा।
भुन गया तो एक टुकड़ा तोड़कर धीरे धीरे खाने लगा।
अंधेरे ने सबको अपनी चपेट में ले लिया।
एक अलाव को छोड़कर।
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