Wednesday 23 November 2016

॥ ३१॥ धानबस्ती पर एकआँखी कोमल को देखती है ॥ ३१॥

भोर होते होते एकआँखी जाग गई। पास में लकुटया सो रहा था।
सूरज उपर आने को था। हवा में वर्षा की ऋतु भर गई थी।
एकआँखी ने ओढी हुई पत्त्िायाँ दूर हटाईं और उठ गई।

लकुटया अभी अभी आकर उसके पास सोया था। रात भर ऊपरी चढाई पर पहरा देने की बारी उसकी थी।
आहट सुनकर एकआँखी दौड़कर आई। मोड से नीचे झाँककर देखा।
बस्ती से दूर कोमल नदी की ओर जा रही थी।
कोमल ने हाथ उठाया। एकआँखी ने भी हाथ उठा दिया।
वह दौडती हुई वापस आई। लकुटया के पास। वह अब भी गहरी नींद में था।
उसने झुककर लकुटया को भरपूर हिलाया।
वह चमक कर उठा। उसका हाथ लाठी की तरफ बढा।
कोमल। वह चिल्लाई।
लकुटया छलांग लगाकर बाहर आया। पीछे पीछे वह।
नीचे कोमल खड़ी थी। उसने ऊपर देखा।
वहाँ लकुटया हाथ हिला रहा था।
कोमल ने भी हाथ हिलाया।
फिर वह मुड गई। आगे जाने लगी।
लकुटया धम्म से नीचे बैठ गया।
कोमल पिलू देने जा रही है।
एकआँखी ने सिर हिलाया। वह चुप रही। लकुटया भी चुप रहा।
सूरज ऊपर आ गया।
चलना है? एकआँखी ने पूछा।
तू.... जा।
एकआँखी उसके सामने उकडूँ बैठ गई।
दोनों हाथों से लकुटया का चेहरा हाथ में ले लिया।
मैं हूँ ना। कल रात मुझसे ही जुगे थे ना।
या वह थी कोमल?
एकआँखी का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था।
लकुटया की भरपूर थप्पड उसके गाल पर पडी। वह उलटी हो गई। चिल्लाई।
थूकती हुई बस्ती की ओर चली गई।
लकुटया वैसा ही बैठा रहा। पैर पसारकर। पत्थर की तरह।
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