Wednesday 23 November 2016

44+45 ॥ ४४॥ फेंगाडया और कोमल की भेंट ॥ ४४॥॥ ४५॥ बापजी लाल्या को भरमाता है ॥ ४५॥

॥ ४४॥ फेंगाडया और कोमल की भेंट ॥ ४४॥

दो दिनों से लगातार बदरी लगी हुई थी। बरसात की झडियाँ लगती थीं। रुकती थीं। बारिश को शरीर पर
लिए फेंगाडया वेग से जा रहा था। अचानक किसी आहट से वह ठिठका और झाड़ी में दुबक गया।
सामने से कोई आ रहा था।
फेंगाडया अपनी गुफा से बहुत दूर था। उदेती की दिशा में।
पैरों की चाप पास आई। नसें तन गई। साँस रोक कर खड़ा रहा।
झाड़ियों को दोनों हाथों से हटाते हुए कोमल बाहर निकली। उसकी तेज तेज साँस से छाती हिल रही थी। खुले में आई और सूखे पेड की भाँति गिर पडी।
फेंगाडया ने दूर तक आँखें दौड़ाई। कोई नही।
अकेली ही थी यह।
बादलों के पीछे सूरज डूबने को तैयार था।
कोमल कराही। फेंगाडया ने चमककर उसे देखा।
क्षणभर विचार कर वह आगे आया। कंधे पर मरे हुए सूअर की शिकार तौलते हुए।
बोझ से कंधा जकड सा गया था।

जल्दी वापस लौटना था। समय नही था। सूअर के रक्त में भीगे कंधे टपक रहे थे।
वह कोमल के सामने आया। कोमल की साँसे अब तेज तेज थीं। चेहरा विदीर्ण। भूख से व्याकुल।
सूअर जमीन पर फेंककर फेंगाडया उकडूँ बैठा।
हाथ कोमल के सिर पर रखा।
जुगने की भूख जागी।
उसने कोमल के शरीर पर आँखें दौड़ाई।
ढीला पडा पेट। थानों में दूध टपकता हुआ।
फेंगाडया थरथरी से भर गया।
जुगने की भूख शांत हो चली।
यह पिलू जनकर भी जीवित बची हुई सू है।
एक कोमल भाव फेंगाडया के मन में जागा।
आँखें मूँदे पडी कोमल को स्पर्श का भान हुआ तो उसने आँखें खोल दीं।
सामने एक आदमी....... बलशाली।
उसकी आँखें मुस्काती हुई।
पिलू? उसने पूछा
हाँ।
कहाँ है? मृदु स्वर। छाती में धडधड।
कोमल ने धीमे से उत्तर दिया- बस्ती में है। फेंगाडया तडाक्‌ से खड़ा हुआ। शरीर तना हुआ।
भागने को तैयार। कोमल ने चिल्लाकर कहा-
रुको, मैं अकेली हूँ।
फेंगाडया को भरोसा नही हुआ। आँखें अविश्र्वास से गँदला गईं।
अकेली? बस्ती की सू है तू। पिलू जनकर भी अकेली?
मैं जंगल में भटक गई। अकेली रही। बाकी सारे निकल गए।
फेंगाडया को भरोसा हुआ।
किस बस्ती की हो? उदेती या डूब डूब?
उदेती।
फेंगाडया का मन हल्का हो गया। आँखें पारदर्शी हो चलीं।
बाई की.......धानबस्ती?
क्या सचमुच कोई बाई है?
हाँ।
कुछ याद करके फेंगाडया का चेहरा कडुआहट से भर गया।
धानवाली बस्ती........ थू। वह थूका।
क्षीण स्वर में कोमल ने पूछा-
तुम किस बस्ती से?
बस्ती? अरे हट्। वह चिल्लाया।
मैं फेंगाडया। मुझमे ताकत है।
मुझे बस्ती किस लिए चाहिए?
यह.....यह इतना बड़ा सूअर अकेला मार सकता हूँ मैं।
मुझे बस्ती की कोई गरज नही पडी।
अकेला, अकेला हूँ मैं।
कोमल को कानों पर विश्र्वास नही हुआ। क्या कहता है यह? कोई बाई नही, बस्ती नहीं, सू नहीं, पायडया,  लकुटया जैसे साथी नही, पिलू नही।



अकेला? उसने फिर पूछा।
फेंगाडया फिर बैठ गया। अंधेरा घिरने लगा।
क्या करूँ? उसका मन दुविधा में पड़ गया।
उधर गुफा में लुकडया जखमी पडा हुआ।
लंबूटांगी भी वहीं। अलाव भी राह देख रहा है। कई दिनों बाद सूअर हाथ लगा है। पेट में भूख। अकुलाने वाली।
रात गहरा गई तो उसके जाने में खतरा।
इधर अकेली पडी यह। जखमी। मरण की ओर बढती हुई।
अनिश्चय में वह उठ खड़ा हुआ।
जाओ तुम.... कोमल बुदबुदाई। औंढया देवा, उस दिन पिलू जनकर भी बच गई। सो आज मरने के लिए। जाओ तुम...। उसने गर्दन हिलाई।
फेंगाडया जाने को मुडा। दो डग चला। टिटहरी की कर्कश टिटकारी। पीछे से जानवर की आहट। तीखी गंध उसके नथुनों में भर गई।
गुरगुराहट भी कान तक आई।
फेंगाडया की छाती में एक स्वर जगा। सारा अनिश्चय खतम हुआ।
जी जान से हाथ की लाठी तौलता हुआ वह मुडा और झटके से कोमल के पास पहुँचा।
कोमल आँखें मूँदे काँप रही थी।
फेंगाडया ने चारों ओर नजर दौड़ाई। नथूने फुलाकर फिर सूँघा।
चीता था। रुका हुआ। झाड़ी में। घात लगाए।
चीते की आँखें चमकीं। लाल लाल।
गुंजा ???? की तरह।
पूरा जोर लगाकर फेंगाडया चिल्लाया।
आँखें स्थिरता से चीते पर टिकी हुई।
ओहो च् ओहो च् हो च् च् च्
आवाज चारों दिशा में गूँजा।
स्तब्धता।
चीते की गुरगुराहट। फेंगाडया ने पैंतरा बदला।
चीता अब भी अचल। लाल आँखें फेंगाडया पर गडी हुई।
कोमल ने आँखें खोलीं।
फेंगाडया का पैंतरा देखकर चकित रह गई। वह एक पाँव जमीन पर गड़ाकर तना हुआ था। बलशाली बाहू फुरफुरा रहे थे। मानों वह जमीन से उग आया था। एक विशाल पेड़ की तरह। उसके लिए उगा था।
वह थरथराई।
कभी ऐसा देखा, सुना न था। पिलू देकर अशक्त हुई सू को, जखमी आदमी को छोड़कर अपनी जान बचाने का नियम था। तैरने वाला यदि डूबने वाले की सोचे तो दोनों की जान जाएगी। यही सही था।
यही नियम सिखाया गया था।
लेकिन यह आदमी, यह फेंगाडया, वापस मुडा था। वह भी एक अनजानी, हाल में ही पिलू जनी हुई सू के लिये।
उसने फिर से एकटक देखा। देह पर रोमांच खड़ा हुआ।
यह फेंगाडया .......यही आदमी है। वह बुदबुदाई।
चार क्षणों की स्तब्धता को पत्तों की सरसराहट ने भंग किया।
चीता गुरगुराया। फिर गर्र से मुडकर कुलाँचे भरता हुआ ओझल हो गया।
फेंगाडया ने निश्र्वास छोड़ा। कोमल की तरफ मुड़ा।
उसकी आँखें कोमल की आँखों में अटक कर रह गईं।
कोमल के चेहरे पर प्रसन्नता थी। हास्य था।
फेंगाडया गडबडा गया। किसी ने उसे इस तरह नही देखा था।
यह जुगने वाली सू की आमंत्रक दृष्टि नहीं थी।

यह डरी हुई सू की भी दृष्टि नही थी।
यह कोई अलग ही दृष्टि थी।
नया था किसी का इस तरह देखना।
सम्मान से? नही। गर्व से।
नया था यह देखना।
उसे छाती की धडधड सुनाई दी।
वह आगे आया। एक झटके से जखमी कोमल को उठाकर कंधे पर डाला।
उसने दोनों बाँहें फेंगाडया के गले में डाल दीं। कंधे पर उसके दूधभरे थान कसमसाते रहे।
वह फिर भरमा गया।
सू उसके लिए नई नही थी। लेकिन दूधभरे थान नये थे। पिलू जनी हुई सू नई थी।
उसने एक झटके से कोमल को कंधे पर ठीक किया और दूसरे कंधे पर सूअर को डाल दिया।
कोमल एक हाथ बढाकर सूअर को संभालने लगी।
रात बढ चली थी। वर्षा का जोर थम गया था।
लेकिन अंधड भरी हवा चलने लगी थी।
बिजली भी कड़कने लगी।
लंबे लंबे डगों से रास्ता नापता हुआ फेंगाडया चला जा रहा था।
कंटीली झाडियाँ  दोनों का शरीर नोच रही थीं।
टहनियों की मार भी शरीर पर पड़ रही थी।
फेंगाडया के वेग से कोमल का शरीर हिचकोले ले खा रहा था।
बिजली के चमचमाते प्रकाश में कोमल को जमीन दीख रही थी।
और दीख रहे थे कीचड पर उभरते हुए फेंगाडया के मजबूत पैरों के निशान।
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॥ ४५॥  बापजी लाल्या को भरमाता है ॥ ४५॥

झरने के किनारे बैठकर बापजी अपने पैर की जखम धो रहा था।
हर बार जखम धोते हुए उठने वाली वेदना अब जैसे उसको विचारों में बस गई थी।
अंगूठा भी अब संवेदनाहीन हो चला था। काला, सूखा हुआ।
अंगूठे से ऊपर पैर पर सूजन। थुलथुल माँस।
अचानक आवाज से चौंककर बापजी ने देखा- मजबूत हाथों में लाठी लिए लाल्या सामने खड़ा था।
लम्बी लाठी- एक पुरूष उंची। पत्थर से छील छील कर उसका अगला छोर नुकीला बनाया हुआ था।
बापजी के रोंगटे खड़े हो गए।
लाल्या एक बड़े पत्थर के ऊपर खड़ा था। दोनों हाथों से लाठी मजबूती से तोलते हुए।
जल्दीबाजी कोई नही।
स्तब्धता से पांव जमीन में गड़े हुए।
आँखों में गहराई तक क्रूरता।
बापजी हड़बड़ाया।
लाल्या की लालिमा भरी आँखें।
किस टोली का है तू? लाल्या ने पूछा
बापजी ने लम्बी साँस खींची।
अगल बगल में कोई नही।
देवाच्, उस दिन बच गया। पर आज....
सूरज डूबने को है। हवा भी ठहरी हुई।
  
जानवर, पक्षी, सब चुप।
यह क्या बोल रहा है? बापजी समझ नही पा रहा है।
बाहर की किस टोली ने भेजा है तुम्हें?
बाहर की टोली ने? बापजी ने अविश्र्वास से पूछा।
हाँ।
क्यों?
हमारी टोली का नाश करने।
लाल्या ने अपना बोझ एक पैर से दूसरे पर डाला।
एक लय भरी हलचल।
बापजी हँसा, जोर से हँसा।
लाल्या क्रोध से फूंकार भरने लगा।
दूसरी टोली.... नाश करने को? बापजी बुदबुदाया।
आनंद से दोनों हाथ उठाते हुए खुद से ही बोला- जीत रहा है तू बापजी, जीत रहा है। इस लाल्या ने इतने लम्बे के जीवन में कभी विचार नही किया था कि कोई दूसरी टोली भी होगी।
और आज वह मुझे दूसरी टोली का जानकर मारना चाहता है।
बापजी उठ खडा हुआ-- ठीक है, मार डालो।
लाल्या ने आश्चर्य से एक पैर पीछे खींच लिया।
मार डालो...... यह बाल भी पक चुके। मरण तो मेरे पास ही है। मार डालो।
बापजी ने स्थिर शब्दों में कहा और गर्दन झुकाकर चुप खड़ा रहा।
दो क्षण उसकी छाती भय से कांपती रही। तीसरा क्षण उसका था।
वह आगे बढा।
लाल्या की पीठ पर धप्प से हाथ डालते हुए बोला-
समझदार हो, ताकदवर हो, पर अभी बहुत देखना है तुम्हे।
लाल्या गड़बड़ाया। लाठी नीचे झुका ली।
बापजी ने उसे अंक में भर लिया। सहलाया। गले मिला।
पाषाण्या के बाद अब ये बापजी गले मिल रहा था। लाल्या की छाती आनंद से भरने लगी।
मैं अकेला था। बापजी ने कहा
तुम बली के लिए मुझे लाए थे। दे पाए बली?
नहीं दे पाए। क्यों नही दे पाए? पूछो मुझसे।
अरे पगले, सुनो। अभी भी तू नही मार पाया मुझको। क्यों?
क्योंकि मैं वाघोबा देव से बातें करता हूँ। मृतात्माओं से करता हूँ।
मैं टोली बचा सकता हूँ।
तू अपनी लाठी लेकर मेरी टोली में आ जा। हम दोनों की टोली।
फिर देखना सभी हमारे पीछे आ जाएंगे।
पाषाण्या के राज का अंत कल  होने वाला है-- सो आज हो सकता है।
लाल्या थरथराया- नही, आज नही।
तू मना करता है। लेकिन यदि तू कहे, मैं कहूँ तो पाषाण्या जा सकता है। फिर सब कहेंगे जय लाल्या।
केवल यही टोली नहीं। धानबस्ती भी, उसकी सारी सूएँ, धान उगाने वाली सूएँ भी कहेंगी- जय लाल्या। बापजी ने चिल्लाकर कहा।
लाल्या फिर थरथराया। उससे दूर होते हुए बोला-- जय बापजी।
बापजी हँसा। एक हल्का उन्माद छाने लगा। अपने शब्दों के ताकद का उन्माद।
उठो, अब काम में लग जाओ।



धानबस्ती की टोली अभी भी आ सकती है।
हमें तैयार रहना होगा। अपने लोग तैयार रखने होंगे।
अपने लोगों को टोह लेने के लिए भेजना होगा।
जो टोह लेता रहेगा वही बच सकेगा।
बापजी ने लाल्या की आँखों में गहराई से झांककर देखा।
वहाँ थे- भय, उन्माद, और एक आतुर प्रतीक्षा भी।
और विश्र्वास भी था बापजी के प्रति।
चलो। बापजी ने कहा।
दोनों घने जंगल से चलने लगे।
लाल्या की नस नस तनी हुई थी।
हाथ की लाठी को सप्प से घुमाते हुए उसने एक उंची छलांग लगाई।
धानबस्ती के काल्पनिक आक्रमण को संबोधित करने वह गरजा--
ओ च् हो च् हो च्।
पहाड़ों से प्रतिध्वनि आई-
हो च् ओ च् ओ च् च्
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