Wednesday 23 November 2016

॥ २४॥ धानबस्ती पर दो आदमी जखमी ॥ २४॥

॥ २४॥ धानबस्ती पर दो आदमी जखमी ॥ २४॥

साँझ घिरने के समय चीख पुकार मच गई।
आदमी दौडे अपनी झोंपडीं के बाहर।
बस्ती के दूसरे छोर से-- जंगल की ओर से चीख आई थीं।
पायडया दौड गया।
साथ में बाकी आदमी, हाथ में लाठियाँ।
थोड़ी देर में जखमी आदमी लेकर पायडया लौटा।
बाघ था। वह बुदबुदाया। एक को पकडा, दूसरा भागा तो बाघ ने उसे भी घेरा।
अब दोनों कराह रहे थे।
एक गंभीर जखमी था।
पेट से माँस के टुकडे झूल रहे थे। वह बेसुध था। दूसरे का कंधे फाड़ दिया था बाघ ने। चेहरा भी नुचा हुआ।
दोनों को जखमाए आदमी के लिए बनी झोंपडी में डालकर पायडया वापस आया।
सारे वापस झोंपडों में।
फिर चारों ओर स्तब्धता, अलाव पर रटरटाकार सीजता हुआ धान।
पायडया बाई के पास गया।
दोनों मरेंगे।
बाई ने सिर हिलाया।
सात दिन तक धान दो। फिरधान बंद कर दो।
मरने को आ जाएं तो मार देना।
पायडया ने सिर हिलाया।
अपने ही आदमी को मार डालना पडे तो छाती में सारा कुछ हिल जाता है। लगता है.....नही चाहिए यह सब।
कैसे नही चाहिए? बाई ने पूछा। आदमी है-- तो शिकार करेगा ही। उसमें बाघ-- रीछ सामने। 
कभी जखम- कभी मरण। ये तो होगा ही। मरण आदमी के पास ही रहता है।
क्या सू नही मरती पिलू जनमते समय?
पायडया ने सांस खींची।
लेकिन तू तो बच गई सावली। कोई कोई सू बच सकती है।
बाई हंसी।
हाँ। कुछ सू तो बचनी ही पडेंगी।
पिलू देने के लिए। उन्हें बडा करने के लिए।
नही तो आदमी ऐसे मरेंगे और सू वैसे मरेंगी।
फिर तो बस्ती भी मर जाएगी।
पायडया हँसा।
बस्ती मरेगी तो क्या होगा?
तू.... और तेरे प्रश्न। बाई उसकी ओर मुडी।
एक वह बापजी था? तुझे याद है?
हाँ।
बडी बाई ने उसे जुगने को बुलाया। उसने ना कर दी।
मेरे पास आया। बोला-- सावली मुझे तू चाहिए।
मैंने कहाँ-- यहाँ बाई का हुकम चलता है। वही बताएगी.... उसे तू चाहिए।
उसने पूछा-- और मैं न जाना चाहूँ तो?
पायडया थूका। बाई कहती गई ।



ऐसा प्रश्न बस्ती पर कोई कभी पूछेगा?
मैं न जाना चाहूँ तो क्या? पूछा है किसी ने?
वह अपने को बापजी कहता था-- माने समझदार।
कहता था-- उसने एक बूढे से सीखा है।
उसे मानुसपना दीखता था। बापजी भी मानुसपने की बात करता है।
लेकिन पायडया, मैं कहती हूँ बस्ती रही तो मानुसपना रहेगा।
मानुस बचा तो मानुसपना रहेगा।
ठीक है ना?
पायडया हंसने लगा। जोर से।
सच बता सावली। तुझे भी बापजी चाहिए था जुगने को। नही मिला। भाग गया। इसलिए तेरा क्रोध है उस पर।
हाँ, चाहिए था मुझे बापजी।
लेकिन तब मैं बाई नही थी।
उसने पथरीली स्वर से कहा।
अब मैं बाई हूँ, सावली नही। यह ध्यान में रखना पायडया।
पायडया चुप रहा। उसकी छाती में कुछ हिल गया।
बडी बाई। वह पुटपुटाया। कभी लगता है तू.....
तू नही है। सामने बडी बाई ही खडी है। वैसी ही आँखे, वहीं हुकुम भरा स्वर।
बाई ठण्डी हँसी हँसी। मुडकर चली गई।
पायडया बैठा रहा।
इन सूओं का कुछ समझ नही आता। इनके पास रह जाती है हर बात। जैसे झरने के पानी ने पत्थर पर लकीर कर दी हो।
केवल पास नही रहती। उनकी छाती के मानों गहरी रिस जाती है।
और वहीं रुकी रहती है बाघ की तरह घात लगाकर। कभी भी टूट पडने को तैयार।
पिलू के लिए इनका थान है, यह ठीक है।
लेकिन आँखें ऐसी ही घात लगाई हुई रहेंगी।
सू की हर बात भेद भरी।
इनका रक्तगंधाना, जैसे उगता हुआ धान।
उठ पायडया, उठ।
किसी सू से, किसी बाई से इतना आडे मत आना। वह उठा।
बाई है मानों एक वृक्ष। कब छाँव में समेट लेगा, कब झुकेगा और कब तन जाएगा, नही कह सकते।
पायडया अपनी झोंपडी को चल दिया।
अपने ही पैरों की आहट उसके कानों में गूँजती रही।
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