Wednesday 23 November 2016

॥ १९॥ अकेला फेंगाडया उदास होता है ॥ १९॥

॥ १९॥ अकेला फेंगाडया उदास होता है ॥ १९॥

फेंगाडया गुफा से बाहर आया।
पेड़ के नीचे उकडूँ बैठ गया।
आज शिकार नही चाहिए। कल ही एक सूअर मारा है।
फेंगाडया अकेला है।
लंबुटांगी और लुकडया अभी वापस नही आए।
फेंगाडया अकेला उदास होने लगा।
आदमी अकेला ही हो तो क्या करे?
लेकिन आदमी अकेला क्यों रहे?
देव ने आदमी को पाँव दिये। घूमने के लिए।
पेड़ों की तरह एक जगह जकड कर रहने के लिए नहीं।
उसने आदमी को सू दी। सू को आदमी दिया।
बतियाने के लिए, जुगने के लिए, घूमने के लिए।
सिर के ऊपर आकाश में दो चीलें तैर रही थीं।
नीचे घाटी में पवन हुंकारे भर रहा था।
फेंगाडया ने एक पत्थर उठाकर फेंका......दूर।
धानबस्ती है, वहाँ सब का स्वागत होता है। सबका......।
आदमी का, सू का, पिलू का.........।
वहाँ फेंगाडया को अकेला नही रहना पड़ेगा।
आस पास आदमी होंगे, सू.....पिलू........।
फिर बापजी क्यों थूकता था धानबस्ती पर?
नियम.....सारे नियम.....।
फेंगाडया का शरीर तन गया।
शिकार करना हो तब भी नियम.....। सू से जुगना हो तब भी नियम......
बाई प्रमुख.......। उसी की सत्ता.... उसी के नियम।
आदमी सारे उसकी बात मानने वाले।
उसे बापजी की नजर याद आई। उसका तिरस्कार याद आया।
हमें बस्ती नही चाहिए।
हम अकेले ही सूअर मार सकते हैं। सू से जुग सकते हैं.......। अकेले।
बापजी की बातें याद कर फेंगाडया बुदबुदाया।
कल कहेंगे यह आदमी इसी सू के साथ जुगेगा...... और किसी के साथ नहीं।
वह हँसने लगा। फिर रूक गया। उसे लंबूटांगी की पथरीली आँखें याद आई।
जुगती है मेरे साथ भी। लेकिन लुकडया से जुगती है तब हँसती रहती है।
लुकडया के साथ शिकार पर जाती है।
मैं अकेला ही.......।
वह फिर एक बार ऐंठ गया।
क्या चले गए दोनों धानबस्ती को?
वह थरथराने लगा।
बापजी हो च्च्......।
वह साथी मर गया। लेकिन वह भी कहता था- धानबस्ती पर चलेंगे।
वहाँ धान हैं बहुत।
रोज शिकार ना करो तो भी भूखे नही रहना पड़ता ।
फेंगाडया आक्रोश में चिल्लाया।
नही, यह सच नही है।
वह शैतान बाई मंत्र फेंकती है।
आदमी को जानवर बना डालती है।
देवा च्च्, अकेला बैठा रहूँ, तो यों भरमा जाता हूँ मैं।
सभी भरमेंगे।
आदमी अगर भूख को भुला पायेगा, तो ऐसा ही बैठा रहेगा और ऐसा ही भरमेगा।
जानवर बन जायेगा।
फिर एक आदमी नोचेगा दूसरे आदमी को।
मार भी डालेगा शायद।
कहेगा- धान में कोई स्वाद नही है, इसमें रक्त मिलाओ। इस सामने बैठे आदमी का रक्त मिलाओ।
फिर कभी कहेगा- मैं ही प्रमुख।
यह नही, यह क्यों हो प्रमुख?
कहेगा- ये सारी सूएँ मेरी...... सारी शिकार मेरी। दूसरे किसी की नही।
सारा मानुसपना निकल जायगा आदमी के भीतर से।
अपने अंदर की आवाज नही सुन सकेगा वह।
फेंगाडया उठा- थके पाँव और थके मन से।
वापस गुफा में आ गया। फिर अकेला।
यहाँ यह अकेलापन है।
वहाँ धानबस्ती में होंगे कई सारे आदमी, सू धान।
लेकिन वहाँ होंगे नियम भी।
गरदन हिलाते बुदबुदाया-
अभी भी नहीं आए दोनों- अभी भी मैं अकेला।
एक आक्रोश और आवेग में भरकर वह उठा और हांक लगाई-
हो च् हो च्



आवाज घूमती रही, प्रतिध्वनि बनकर....... देर तक।
वह झटके से बैठ गया।
अपनी ही आवाज अपना साथ देती है......कब तक?
अभी यहाँ लंबूटांगी चाहिए, लुकडया चाहिए।
हंसना, जुगना, खाना चाहिए। अलाव चाहिए। बातें चाहिए।
और कुछ न भी हो, लेकिन सामने बैठा एक जीवंत आदमी चाहिए, सू चाहिए।
चाहिए बहुत कुछ। लेकिन क्या मिल रहा है? केवल यह भरमाना।
वह पुटपुटाया।
उठकर फिर बाहर आया।
पेड़ के नीचे उकडूँ बैठकर नीचे फैली घाटी को देखता रहा।
न हिलना, न डोलना।
मानों उसके पैरों से पेड की जडें फूटी हों।
सूरज ढलने लगा।
चेहरे पर आती धूप अब पीठ पर आ गई।
फिर भी फेंगाडया वैसा ही बैठा रहा।
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