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जनता की राय
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समाज बनाम प्रशासन -- मेरे लेखोंकी भूमिका
बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख -- कमलेश्वरजी द्वारा लिखी प्रस्तावना
१. हिन्दी में शपथ - जन. १९ अक्टूबर १९९९ y
२. बच्चों को तो बख्शिए - जन. ३० अक्टूबर १९९९ y
३. उठो जागो - जन. ११ दिसंबर १९९९ y
४. नई सहस्त्राब्दी के पहले - जन. १७ दिसंबर १९९९ y
५. हर जगह वही भूल - जन. ३० दिंसबर १९९९ y
६. सुयोग्य प्रशासन - जन. ८ जनवरी २००० y
७. पचास साल बाद हिन्दी - जन. ३ फरवरी २००० y
८. पुलिस प्रपंच - जन. २५ मार्च २००० y
९. दिल्ली में युधिष्ठिर - जन. ६ अप्रैल २००० y
१०. भीड़ के आदमी का हक - जन. १४ अप्रैल २०००
११. नमक का दरोगा - जन. ५ जून २०००
१२. जनतंत्र की खोज में - जन. १७ जून २०००
१३. अर्थव्यवस्था का नमक - जन. २ अक्टूबर २०००
१४ लालकिले पर कालिख - जन. १४ अक्टूबर २०००
१५. इक्कीसवीं सदी की औरत - जन. १७ दिसंबर २०००
१६. अपने अपने शैतान - जन. २ दिसंबर २०००
१७. तबादलों का अर्थतंत्र - जन. ६ दिसंबर २०००
१८. काननून अन्याय - जन. २६ दिसबंर २०००
१९. राष्ट्रीय संकट में हम - जन. २ फरवरी २००१
२०.गुजरात ने जो कहा - जन. ६ मार्च २००१
२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१
२२. नीरस जीवन की भुक्तभोगी - जन. ६ मई २००१
२३.गुजारा भत्ते की दावेदार कैसे बने - रास. १८ फरवरी २००१
२४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१
२५. छोरी साइकिल चलावै छे - प्रभात खबर ३१ अक्टूबर २००२
२६. बीजींग कान्फरंस, सीडॉ और भारतीय महिला नीति - (जालंधर में दिया गया भाषण)
२७. परीक्षा प्रणाली में आमूलाग्र सुधार हो - नभाटा. १२ फरवरी १९९९
२८. एक स्त्री का साहस - जन. ३ फरवरी २०००
२९. सैनिक.-एक श्रद्धांजली- प्रभात खबर जून १९९९
३०. पढाई का बोझ - रास. २२ जुलाई २००१
३१. क्या हमारे खून में कश्मीर है - हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२
३२. लिंगभेद से जूझते हुए - तारा - सनद, अंक १०
३३. शीतला माता - अप. मार्च २००४
३४. सत्ता तंत्र में कमाई : जनता क्या है तेरी की राय- हिंदुस्तान २३ मार्च २००४
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कुछ और भी हैं इस पुस्तक के बाहर --
कार्यतत्पर दण्डप्रणाली की आवश्यकता
विभिन्न राज्यों में महिला विरोधी अपराध
धुनकी पक्की महिलाएँ
दिल्लीका सांस्कृतिक बंंजर
भ्रष्टाचारसे निपटनेका शुरुआती रास्ता
Monday, 23 July 2007
Tuesday, 17 July 2007
नई सहस्त्राब्दी के पहले (4)y
04-नई सहस्त्राब्दी के पहले
गली-गली में शोर है कि नई सहस्त्राब्दी आ रही है और लोग अकारण ही उत्साह में मरे जा रहे हैं। 'खरीदो-खरीदो ' के नारे लगाने वालों को अपनी चीजें बेचने के बहाने चाहिए और नई सहस्त्राब्दी की शुरुआत से अच्छा मौका क्या हो सकता है। लेकिन इस उमंग और उत्साह में एक गलत धारण यह पनप रही है कि सहस्त्राब्दी का आरंभ एक जनवरी २००० से होने वाला है। इस गलत धारणा की क्या वजह हो सकती है? सोचने पर मुझे अचानक समझ में आया कि वजह है - संगणक यानी कंप्यूटर। नई शताब्दी और सहस्त्राब्दी दोनों का आरंभ होगा एक जनवरी २००१ के दिन। यानी अभी पूरा एक साल और दिसंबर के कुछ दिन बाकी हैं वह दिन आने में। एक जनवरी २००० तो अपनी जानी-पहचानी बीसवीं सदी और दूसरी सहस्त्राब्दी के अंतिम वर्ष का पहला दिन होगा - अन्य कई एक जनवरियों की तरह एक साधारण सा एक जनवरी। लेकिन गड़बड़ी कर दी संगणक ने। या यों कहिए कि संगणक की 'वाई टू के ' वाली समस्या ने।
यह समस्या इसलिए उपजी कि जब १९७० के बाद संगणकों में पंचकार्ड सिस्टम विदा हुआ और की-बोर्ड और प्रोग्रामिंग की शुरुआत हुई तो कई व्यापारी कंपनियों की समझ में आया कि लेन-देन के कई व्यवहार इसकी मार्फत किए जा सकते हैं। सो संगणक चल पड़ा। उस पर दिनांक लिखने का वही तरीका था जो रोजमर्रा में था, जैसे २२ मार्च १९७४ को २२.०३.७४ लिखा जाना। संगणक का उसूल है कि बार-बार प्रयोग में आने वाली बातों को जितना छोटा करके लिखा जा सके और संगणक की जगह और काम को बचाया जा सके, उतना ही वह प्रोग्रामिंग अच्छी मानी जाएगी। तरीखों का प्रयोग बार-बार करना पड़ता है। इसलिए २२.०३.१९७४ लिखने की बजाय २२.०३.७४ लिखना अधिक बुद्धिमानी है क्योंकि यों लिखने में दो अंक कम लिखने पड़ते हैं। अब जहां इन तारीखों के आधार पर कुछ गणित भी करना पड़ता है जैसे सूद का हिसाब लगाना-वहां भी संगणक को समझा दिया गया है कि दिन-मास-वर्ष की गिनती कैसे की जाती है। यदि संगणक को २२.०३.७४ से ०९.११.९९ तक के सूद का हिसाब करना होगा तो वह दिन-मास-वर्ष का हिसाब लगाते हुए दूसरी संख्या को घटा देगा और सूद का हिसाब कर लेगा।
लेकिन इस सदी के अंतिम पांच वर्षों में अचानक लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि सन् २००० की तारीख को कैसे लिखा जाएगा और संगणक की बुद्धि उसे कैसे पढ़ पाएगी? यदि एक जनवरी को ०१.०१.२००० लिखते हैं तो संगणक अपने सामने आठ अंक देखता है और पहचान नहीं पाता है कि उसे कोई तारीख बताई जा रही है क्योंकि उसकी प्रोग्रामिंग इस प्रकार हुई है कि वह छह अंकों वाली तारीख को ही पहचानना जानता है। यदि एक जनवरी को ०१.०१.०० लिखते हैं तो संगणक को ादत पड़ चुकी है कि बड़ी संख्या से छोटी संख्या को घटाना है और वह ०० को किसी भी अन्य वर्ष के आंकड़ों की तुलना में छोटी संख्या ही समझेगा। अतः सूद का हिसाब वह नहीं कर पाएगा। इसी तरह, जिन्हें होटलों में एड़वांस बुकिंग करनी है, एअरलाइनों में टिकट कटवाने हैं, रेलवे आरक्षण कराना है, वे सन् २००० या उसके बाद आने वाली तारीखों का ब्योरा संगणक को किस तरह से दें? यह समस्या है जो नई सहस्त्राब्दी के पहले दिन यानी ०१.०१.२००१ के आने तक नहीं रुकेगी, बल्कि उसके एक वर्ष पहले ०१.०१.२००० की तारीख में ही प्रकट हो जाएगी। अतः जो बड़ी खलबली चमी है उसने सबको यों अभिभूत कर दिया मानो ०१.०१.२००० को ही नई सहस्त्राब्दी आरंभ हो रही हो।
दूसरी गलत धारणा बार-बार सुनने में आती है जो हमारे बखानने के ढंग से उपजी है। लोग कहते नहीं थकते नई सहस्त्राब्दी के विषय में। कैसे होंगे उस सहस्त्राब्दी के लोग? कैसा होगा समाज, कैसी होगी सरकार, कैसा होगा प्रशासन, कैसी शिक्षा प्रणाली, कैसी नारी समस्याएं, कैसा समाज सुधार और कैसा विज्ञान? हर कोई अगले हजार वर्षों के सपने बुनने में लगा है। एक सज्जान ने मुझसे कहा कि आइए चर्चा करें कि अगली सहस्त्राब्दी में प्रशासन कैसा होगा। मैंने पूछा कि क्या हम अगले हजार वर्षों के प्रशासन की बात करने वाले हैं, तो झेंपकर कहने लगे कि नहीं, सहस्त्राब्दी शब्द से मेरा मतलब पूरे हजार वर्षों से नहीं था। मैंने फिर पूछा-क्या हम अगले सौ वर्षों के प्रशासन की बातें करेंगे? तो कहा, नहीं इतने अधिक वर्षों की भी नहीं। फिर मैंने पूछा-क्या अगले बीस वर्षों की? तब उन्हें मुक्ति मिल गई। उत्साह से कहने लगे, हां-हां, आइए अगले बीस वर्षों के प्रशासन के संबंध में बात करते हैं। वैसे हजार वर्षों के विषय में सोचना कोई बुरी या अनुचित बात नहीं है। लेकिन वह दार्शनिकों की दुनिया है। सामान्य आदमी के लिए
सहस्त्राब्दी का अर्थ है अगले बीस वर्ष या शायद अगले पांच वर्ष। जिसमें लंबे समय का चिंतन करने की क्षमता हो उसकी को अगले सौ या सहस्त्र वर्षों की बात करनी चाहिए। वरना बातों को अगले दस-बीस वर्षें तक ही सीमित रखें तो हम कम से कम अधिक व्यावहारिक तो होंगे।
जनसत्ता १७.१२.१९९९
गली-गली में शोर है कि नई सहस्त्राब्दी आ रही है और लोग अकारण ही उत्साह में मरे जा रहे हैं। 'खरीदो-खरीदो ' के नारे लगाने वालों को अपनी चीजें बेचने के बहाने चाहिए और नई सहस्त्राब्दी की शुरुआत से अच्छा मौका क्या हो सकता है। लेकिन इस उमंग और उत्साह में एक गलत धारण यह पनप रही है कि सहस्त्राब्दी का आरंभ एक जनवरी २००० से होने वाला है। इस गलत धारणा की क्या वजह हो सकती है? सोचने पर मुझे अचानक समझ में आया कि वजह है - संगणक यानी कंप्यूटर। नई शताब्दी और सहस्त्राब्दी दोनों का आरंभ होगा एक जनवरी २००१ के दिन। यानी अभी पूरा एक साल और दिसंबर के कुछ दिन बाकी हैं वह दिन आने में। एक जनवरी २००० तो अपनी जानी-पहचानी बीसवीं सदी और दूसरी सहस्त्राब्दी के अंतिम वर्ष का पहला दिन होगा - अन्य कई एक जनवरियों की तरह एक साधारण सा एक जनवरी। लेकिन गड़बड़ी कर दी संगणक ने। या यों कहिए कि संगणक की 'वाई टू के ' वाली समस्या ने।
यह समस्या इसलिए उपजी कि जब १९७० के बाद संगणकों में पंचकार्ड सिस्टम विदा हुआ और की-बोर्ड और प्रोग्रामिंग की शुरुआत हुई तो कई व्यापारी कंपनियों की समझ में आया कि लेन-देन के कई व्यवहार इसकी मार्फत किए जा सकते हैं। सो संगणक चल पड़ा। उस पर दिनांक लिखने का वही तरीका था जो रोजमर्रा में था, जैसे २२ मार्च १९७४ को २२.०३.७४ लिखा जाना। संगणक का उसूल है कि बार-बार प्रयोग में आने वाली बातों को जितना छोटा करके लिखा जा सके और संगणक की जगह और काम को बचाया जा सके, उतना ही वह प्रोग्रामिंग अच्छी मानी जाएगी। तरीखों का प्रयोग बार-बार करना पड़ता है। इसलिए २२.०३.१९७४ लिखने की बजाय २२.०३.७४ लिखना अधिक बुद्धिमानी है क्योंकि यों लिखने में दो अंक कम लिखने पड़ते हैं। अब जहां इन तारीखों के आधार पर कुछ गणित भी करना पड़ता है जैसे सूद का हिसाब लगाना-वहां भी संगणक को समझा दिया गया है कि दिन-मास-वर्ष की गिनती कैसे की जाती है। यदि संगणक को २२.०३.७४ से ०९.११.९९ तक के सूद का हिसाब करना होगा तो वह दिन-मास-वर्ष का हिसाब लगाते हुए दूसरी संख्या को घटा देगा और सूद का हिसाब कर लेगा।
लेकिन इस सदी के अंतिम पांच वर्षों में अचानक लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि सन् २००० की तारीख को कैसे लिखा जाएगा और संगणक की बुद्धि उसे कैसे पढ़ पाएगी? यदि एक जनवरी को ०१.०१.२००० लिखते हैं तो संगणक अपने सामने आठ अंक देखता है और पहचान नहीं पाता है कि उसे कोई तारीख बताई जा रही है क्योंकि उसकी प्रोग्रामिंग इस प्रकार हुई है कि वह छह अंकों वाली तारीख को ही पहचानना जानता है। यदि एक जनवरी को ०१.०१.०० लिखते हैं तो संगणक को ादत पड़ चुकी है कि बड़ी संख्या से छोटी संख्या को घटाना है और वह ०० को किसी भी अन्य वर्ष के आंकड़ों की तुलना में छोटी संख्या ही समझेगा। अतः सूद का हिसाब वह नहीं कर पाएगा। इसी तरह, जिन्हें होटलों में एड़वांस बुकिंग करनी है, एअरलाइनों में टिकट कटवाने हैं, रेलवे आरक्षण कराना है, वे सन् २००० या उसके बाद आने वाली तारीखों का ब्योरा संगणक को किस तरह से दें? यह समस्या है जो नई सहस्त्राब्दी के पहले दिन यानी ०१.०१.२००१ के आने तक नहीं रुकेगी, बल्कि उसके एक वर्ष पहले ०१.०१.२००० की तारीख में ही प्रकट हो जाएगी। अतः जो बड़ी खलबली चमी है उसने सबको यों अभिभूत कर दिया मानो ०१.०१.२००० को ही नई सहस्त्राब्दी आरंभ हो रही हो।
दूसरी गलत धारणा बार-बार सुनने में आती है जो हमारे बखानने के ढंग से उपजी है। लोग कहते नहीं थकते नई सहस्त्राब्दी के विषय में। कैसे होंगे उस सहस्त्राब्दी के लोग? कैसा होगा समाज, कैसी होगी सरकार, कैसा होगा प्रशासन, कैसी शिक्षा प्रणाली, कैसी नारी समस्याएं, कैसा समाज सुधार और कैसा विज्ञान? हर कोई अगले हजार वर्षों के सपने बुनने में लगा है। एक सज्जान ने मुझसे कहा कि आइए चर्चा करें कि अगली सहस्त्राब्दी में प्रशासन कैसा होगा। मैंने पूछा कि क्या हम अगले हजार वर्षों के प्रशासन की बात करने वाले हैं, तो झेंपकर कहने लगे कि नहीं, सहस्त्राब्दी शब्द से मेरा मतलब पूरे हजार वर्षों से नहीं था। मैंने फिर पूछा-क्या हम अगले सौ वर्षों के प्रशासन की बातें करेंगे? तो कहा, नहीं इतने अधिक वर्षों की भी नहीं। फिर मैंने पूछा-क्या अगले बीस वर्षों की? तब उन्हें मुक्ति मिल गई। उत्साह से कहने लगे, हां-हां, आइए अगले बीस वर्षों के प्रशासन के संबंध में बात करते हैं। वैसे हजार वर्षों के विषय में सोचना कोई बुरी या अनुचित बात नहीं है। लेकिन वह दार्शनिकों की दुनिया है। सामान्य आदमी के लिए
सहस्त्राब्दी का अर्थ है अगले बीस वर्ष या शायद अगले पांच वर्ष। जिसमें लंबे समय का चिंतन करने की क्षमता हो उसकी को अगले सौ या सहस्त्र वर्षों की बात करनी चाहिए। वरना बातों को अगले दस-बीस वर्षें तक ही सीमित रखें तो हम कम से कम अधिक व्यावहारिक तो होंगे।
जनसत्ता १७.१२.१९९९
बच्चों को तो बख्शिए (2)y
02-बच्चों को तो बख्शिए
जनसत्ता ३०.१०.१९९९
सड़कों पर भागते हुए वाहन अपने से पीछे वालों को कई संदेश देते रहते हैं। यहां मैं उन संकेतों की बात नहीं कर रही जो बाएं या दाएं मुड़ने के लिए या रुकने के लिए दिए जाते हैं। यह उन शब्दों की बात है जो वाहनों के पीछे लिखे होते हैं। इनमें कई संदेश सरकार की ओर से जनता के लिए होते हैं। पर एक संदेश जनता की ओर से सरकार के लिए भी था, जिसमें कहा गया थाः 'हमारा सपना अच्छी सड़कें'। इस ऑटो रिक्शा चलाने वाले का सपना कभी पूरा होगा, यह सरकार ही जाने।
कई संदेश किसी के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए होते हैं, जैसे 'मां का आशीर्वाद या 'साईं प्रसन्न'। एक संदेश जो कई बार देखा जाता है वह है 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'। बुरी नजर वाले के लिए यह शाप किसी भी सामान्य व्यक्ति के दिल से निकलता है और सही भी लगता है। लेकिन कोई संत प्रवृत्त्िा का मालिक भी रहा होगा जिसने ट्रक पर बुरी नजर वाले के लिए एक दुआ लिखी थी कि 'बुरी नजर वाले तेरा भी हो भला'।
तभी बुरी नजर वाले के लिए एक बड़ी बद्दुआ भी देखी जिसमें नई पीढ़ी के प्रति क्षोभ और आक्रोश व्यक्त हो रहा था। लिखा थाः 'बुरी नजर वाले तू सौ साल जिए, तेरे बच्चे बड़े होकर तेरा खून पिएं'। मैं कई महीनों तक इस बद्दुआ के बारे में सोचती रही। हालांकि इसमें बुरी नजर वाले के बच्चों को जरूर घसीटा गया था लेकिन उनकी उस उम्र की बात हो रही थी जब वे वयस्क होंगे। अपने परिवार को चलाने और सोचने के लिए एक प्रौढ़ व्यक्ति की हैसियत से जिम्मेदार होंगे। उनके बचपन को कहीं भी दांव पर या ठेस लगाने वाले मुकाम पर नहीं रखा गया था।
लेकिन हाल में ही मैंने बुरी नजर वाले के लिए ऐसी बद्दुआ देखी जिसने मुझे तिलमिला दिया। यह बद्दुआ बुरी नजर वाले के लिए ही नहीं थी, वरन् उसके बच्चों के लिए थी और उसमें कहा गया था 'बुरी नजर वाले तेरे बच्चे टू इन वन बनें'।
बच्चे ही होते हैं, चाहे दुश्मन के हों या बुरी नजर वाले का आप प्रतिकार नहीं कर सकते उसके मासूम बच्चों के लिए आप बद्दुआ दें। आज पूरा विश्र्व बच्चों को संकटमुक्त और भयमुक्त रखने की बात करता है। हम बच्चों को राष्ट्र का भविष्य बताते हैं। चाहते हैं कि देश के बच्चों पर अच्छे संस्कार हों। लेकिन एक समाज के नाते बच्चों पर अपनी बद्दुआ लादने में हमें कोई संकोच क्यों नहीं होता? हमारे बदले की मनोवृत्त्िा इतनी बुरी हद तक जाती हैं कि उन व्यक्तियों को भी छेड़ने लगती है जो स्वयं निर्दोष हैं।
एक तरफ हमने अभी-अभी दशहरे का पर्व मनाया है। रावण के पुतले जलाए गए हैं। रावण का दोष यह था कि उसकी बहन शूर्पणखा को सताया तो राम और लक्ष्मण ने, पर बदला लेने के लिए वीरों की तरह राम या लक्ष्मण की लड़ाई करने नहीं आया। उसने कायरों की तरह सीता माई को उठा ले जाना ज्यादा ठीक समझा। बुरी नजर वाले के बच्चों को 'टू इन वन' बनने की बद्दुआ देने वाले भी क्या रावण के वर्ग में शामिल नहीं है?
विदेशों में बच्चों के प्रति इतनी सतर्कता रखी जाती है कि इस तरह की समाज-विकृति को प्रकट करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। सजा भी हो सकती है। लेकिन हमारे यहां का सामाजिक मानस अब भी बच्चों को बचाए रखने की आवश्यकता नहीं समझता। इस लिखावट में जो सबसे बुरी बात थी वह यह कि जिस मिनी बस के पीछे बच्चों पर अकारण ही यह बद्दुआ लिखी थी, वह बस दिल्ली के ही किसी अच्छे स्कूल के बच्चों की थी। बस पर स्पष्ट बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा थाः 'स्कूल बस'। क्या हमारे स्कूलों के तमाम शिक्षक, उन बच्चों के अभिभावक, बस मालिक, ड्राइवर आदि सभी इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि बच्चों के बचपन को छीनने की बात करने वाली यह बद्दुआ किसी स्कूल बस पर ही लिखी हो?
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जनसत्ता ३०.१०.१९९९
सड़कों पर भागते हुए वाहन अपने से पीछे वालों को कई संदेश देते रहते हैं। यहां मैं उन संकेतों की बात नहीं कर रही जो बाएं या दाएं मुड़ने के लिए या रुकने के लिए दिए जाते हैं। यह उन शब्दों की बात है जो वाहनों के पीछे लिखे होते हैं। इनमें कई संदेश सरकार की ओर से जनता के लिए होते हैं। पर एक संदेश जनता की ओर से सरकार के लिए भी था, जिसमें कहा गया थाः 'हमारा सपना अच्छी सड़कें'। इस ऑटो रिक्शा चलाने वाले का सपना कभी पूरा होगा, यह सरकार ही जाने।
कई संदेश किसी के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए होते हैं, जैसे 'मां का आशीर्वाद या 'साईं प्रसन्न'। एक संदेश जो कई बार देखा जाता है वह है 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'। बुरी नजर वाले के लिए यह शाप किसी भी सामान्य व्यक्ति के दिल से निकलता है और सही भी लगता है। लेकिन कोई संत प्रवृत्त्िा का मालिक भी रहा होगा जिसने ट्रक पर बुरी नजर वाले के लिए एक दुआ लिखी थी कि 'बुरी नजर वाले तेरा भी हो भला'।
तभी बुरी नजर वाले के लिए एक बड़ी बद्दुआ भी देखी जिसमें नई पीढ़ी के प्रति क्षोभ और आक्रोश व्यक्त हो रहा था। लिखा थाः 'बुरी नजर वाले तू सौ साल जिए, तेरे बच्चे बड़े होकर तेरा खून पिएं'। मैं कई महीनों तक इस बद्दुआ के बारे में सोचती रही। हालांकि इसमें बुरी नजर वाले के बच्चों को जरूर घसीटा गया था लेकिन उनकी उस उम्र की बात हो रही थी जब वे वयस्क होंगे। अपने परिवार को चलाने और सोचने के लिए एक प्रौढ़ व्यक्ति की हैसियत से जिम्मेदार होंगे। उनके बचपन को कहीं भी दांव पर या ठेस लगाने वाले मुकाम पर नहीं रखा गया था।
लेकिन हाल में ही मैंने बुरी नजर वाले के लिए ऐसी बद्दुआ देखी जिसने मुझे तिलमिला दिया। यह बद्दुआ बुरी नजर वाले के लिए ही नहीं थी, वरन् उसके बच्चों के लिए थी और उसमें कहा गया था 'बुरी नजर वाले तेरे बच्चे टू इन वन बनें'।
बच्चे ही होते हैं, चाहे दुश्मन के हों या बुरी नजर वाले का आप प्रतिकार नहीं कर सकते उसके मासूम बच्चों के लिए आप बद्दुआ दें। आज पूरा विश्र्व बच्चों को संकटमुक्त और भयमुक्त रखने की बात करता है। हम बच्चों को राष्ट्र का भविष्य बताते हैं। चाहते हैं कि देश के बच्चों पर अच्छे संस्कार हों। लेकिन एक समाज के नाते बच्चों पर अपनी बद्दुआ लादने में हमें कोई संकोच क्यों नहीं होता? हमारे बदले की मनोवृत्त्िा इतनी बुरी हद तक जाती हैं कि उन व्यक्तियों को भी छेड़ने लगती है जो स्वयं निर्दोष हैं।
एक तरफ हमने अभी-अभी दशहरे का पर्व मनाया है। रावण के पुतले जलाए गए हैं। रावण का दोष यह था कि उसकी बहन शूर्पणखा को सताया तो राम और लक्ष्मण ने, पर बदला लेने के लिए वीरों की तरह राम या लक्ष्मण की लड़ाई करने नहीं आया। उसने कायरों की तरह सीता माई को उठा ले जाना ज्यादा ठीक समझा। बुरी नजर वाले के बच्चों को 'टू इन वन' बनने की बद्दुआ देने वाले भी क्या रावण के वर्ग में शामिल नहीं है?
विदेशों में बच्चों के प्रति इतनी सतर्कता रखी जाती है कि इस तरह की समाज-विकृति को प्रकट करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। सजा भी हो सकती है। लेकिन हमारे यहां का सामाजिक मानस अब भी बच्चों को बचाए रखने की आवश्यकता नहीं समझता। इस लिखावट में जो सबसे बुरी बात थी वह यह कि जिस मिनी बस के पीछे बच्चों पर अकारण ही यह बद्दुआ लिखी थी, वह बस दिल्ली के ही किसी अच्छे स्कूल के बच्चों की थी। बस पर स्पष्ट बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा थाः 'स्कूल बस'। क्या हमारे स्कूलों के तमाम शिक्षक, उन बच्चों के अभिभावक, बस मालिक, ड्राइवर आदि सभी इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि बच्चों के बचपन को छीनने की बात करने वाली यह बद्दुआ किसी स्कूल बस पर ही लिखी हो?
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उठो जागो (3)y
03-उठो जागो
जनसत्ता, १९ दिसंबर १९९९
अब वक्त आ गया है देश की पचास करोड़ औरतों और पचास करोड़ मर्दों को यह बताने का कि उठो, जागो और सोचो कि सती शब्द के पीछे तुमने कितनी गलत धारणाएं पाल रखी हैं। क्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?
सती शब्द सामने आया शिवप्रिया और शिव-पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के नाम से। जरा देखें कि सती की कथा क्या है। कथा यों है कि जब समाज में अभी तय नहीं हुआ था कि किस देवता को कितना उच्च सम्मान दिया जाएगा तब यही सब तय करने दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया। किसी ईर्ष्यावश यह पहलेसे ही तय था कि भगवान शंकर को यज्ञ में न तो निमंत्रित किया जाएगा। सती को भी निमंत्रण नहीं मिला। लेकिन उसने सोचा, पिता के यज्ञ के निमंत्रण की प्रतीक्षा क्यों करूँ? और भगवान शंकर के मना करने पर भी यज्ञस्थल चली गई। वहां देखा कि शिव को समाज के सामने अनुल्लेखित-अचिर्चित रखने की और सम्मान से वंचित रखने की सारी योजना बन चुकी है। जब सती ने इस व्यवस्था पर विरोध प्रकट किया तो उसका अपमान किया गया। इस पर सती ने उस यज्ञ को कोसा, उसमें भाग लेने वाले देवताओं को कोसा और समाज को भी कोसा कि कैसा है यह यज्ञ और यह समाज जो एक लायक व्यक्ति की योग्यता को नहीं पहचान पाता और उस लायक व्यक्ति का जो हक बनता है उसी हक को नाकबूल किया जाता है।
सती ने धिक्कारा अपने पिता को, उन देवताओं को और उस समाज को। लेकिन जब तक खुद शिव अपना हक न जताएं, लोग क्यों उनका हक मानने लगे? और शिव तो परम संतुष्ट पुरुष। वे अपना हक आएंगे ही नहीं। तब सती ने अपने योगबल से अग्नि उत्पन्न की और लोगों को यह शाप देते हुए प्राणार्पण किया कि लोगों, उचित व्यक्ति को उचित सम्मान न देने का दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मेरे पति को यहां आना पड़ेगा और अपना हक प्रस्थापित करना पड़ेगा।
ऐसी थी सती जिसने उचित सम्मान की लड़ाई लड़ी। न सिर्फ समाज को, बल्कि अपने पति को भी चुनौती दी कि समाज में उचित व्यक्ति को उचित मान प्राप्त होने की प्रणाली लानी पड़ेगी। उचित हक के लिए लड़ने वाली ऐसी पहली स्त्री की देखिए हमने क्या दुर्गत बना डाली। सती के नाम से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि उचित व्यक्ति को उचित हक मिले। इसके बजाय हमने क्या किया? एक तो समाज की ऐसी स्थिति बना डाली कि पति के निधन के बाद औरत को समाज में कोई स्थान ही न मिले, सम्मान की बात तो अलग। फिर उसे विवश किया जाए आत्महत्या के लिए और कहां जाए कि देखो वह पति के शव के साथ जल मरी इसलिए वह 'सती' हो गई। लेकिन सती तो अपने पिता की और तत्कालीन समाज की मूढ़ता को कोसते हुए अपने हक के लिए और अपनी आन के लिए अपने पति के जीवित होते हुए अपने ही योगबल से उत्पन्न अग्नि में जली। कहां वह आक्रामक, लड़ाकू वीरभाव और कहां यह समाज से डर कर जिंदा जलने की मजबूरी के सामने शीश झुकाना।
ऐसी कोई भी घटना जहां पति के निधन की विभीषिका से त्रस्त होकर औरत को जल जाना पड़े, बगैर लड़ाई लड़े, बगैर अपना हक मांगे, बगैर समाज को चुनौती दिए, एक मूक हताशा के साथ समाज के सामने झुकना पड़े, उस घटना को 'सती' कहने के लिए मैं राजी नहीं। और न ही सावित्री का नाम उस घटना से जुड़ सकता है, क्योकि सावित्री तो सती से भी अधिक जुझारू, अधिक तेजस्विनी और स्वयं यमराज को जीतने वाली है। पूरे संसार की किसी कथा, किसी इतिहास में इस मृत्युंजयी की दूसरी मिसाल ही नहीं है।
सती और सावित्री से हम यही प्रेरणा ले सकते हैं कि अपने हक की लड़ाई लड़नी है और आवश्यक हुआ तो यमराज से भी जीतकर अपना सर ऊँचा रखना है।
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जनसत्ता, १९ दिसंबर १९९९
अब वक्त आ गया है देश की पचास करोड़ औरतों और पचास करोड़ मर्दों को यह बताने का कि उठो, जागो और सोचो कि सती शब्द के पीछे तुमने कितनी गलत धारणाएं पाल रखी हैं। क्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?
सती शब्द सामने आया शिवप्रिया और शिव-पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के नाम से। जरा देखें कि सती की कथा क्या है। कथा यों है कि जब समाज में अभी तय नहीं हुआ था कि किस देवता को कितना उच्च सम्मान दिया जाएगा तब यही सब तय करने दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया। किसी ईर्ष्यावश यह पहलेसे ही तय था कि भगवान शंकर को यज्ञ में न तो निमंत्रित किया जाएगा। सती को भी निमंत्रण नहीं मिला। लेकिन उसने सोचा, पिता के यज्ञ के निमंत्रण की प्रतीक्षा क्यों करूँ? और भगवान शंकर के मना करने पर भी यज्ञस्थल चली गई। वहां देखा कि शिव को समाज के सामने अनुल्लेखित-अचिर्चित रखने की और सम्मान से वंचित रखने की सारी योजना बन चुकी है। जब सती ने इस व्यवस्था पर विरोध प्रकट किया तो उसका अपमान किया गया। इस पर सती ने उस यज्ञ को कोसा, उसमें भाग लेने वाले देवताओं को कोसा और समाज को भी कोसा कि कैसा है यह यज्ञ और यह समाज जो एक लायक व्यक्ति की योग्यता को नहीं पहचान पाता और उस लायक व्यक्ति का जो हक बनता है उसी हक को नाकबूल किया जाता है।
सती ने धिक्कारा अपने पिता को, उन देवताओं को और उस समाज को। लेकिन जब तक खुद शिव अपना हक न जताएं, लोग क्यों उनका हक मानने लगे? और शिव तो परम संतुष्ट पुरुष। वे अपना हक आएंगे ही नहीं। तब सती ने अपने योगबल से अग्नि उत्पन्न की और लोगों को यह शाप देते हुए प्राणार्पण किया कि लोगों, उचित व्यक्ति को उचित सम्मान न देने का दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मेरे पति को यहां आना पड़ेगा और अपना हक प्रस्थापित करना पड़ेगा।
ऐसी थी सती जिसने उचित सम्मान की लड़ाई लड़ी। न सिर्फ समाज को, बल्कि अपने पति को भी चुनौती दी कि समाज में उचित व्यक्ति को उचित मान प्राप्त होने की प्रणाली लानी पड़ेगी। उचित हक के लिए लड़ने वाली ऐसी पहली स्त्री की देखिए हमने क्या दुर्गत बना डाली। सती के नाम से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि उचित व्यक्ति को उचित हक मिले। इसके बजाय हमने क्या किया? एक तो समाज की ऐसी स्थिति बना डाली कि पति के निधन के बाद औरत को समाज में कोई स्थान ही न मिले, सम्मान की बात तो अलग। फिर उसे विवश किया जाए आत्महत्या के लिए और कहां जाए कि देखो वह पति के शव के साथ जल मरी इसलिए वह 'सती' हो गई। लेकिन सती तो अपने पिता की और तत्कालीन समाज की मूढ़ता को कोसते हुए अपने हक के लिए और अपनी आन के लिए अपने पति के जीवित होते हुए अपने ही योगबल से उत्पन्न अग्नि में जली। कहां वह आक्रामक, लड़ाकू वीरभाव और कहां यह समाज से डर कर जिंदा जलने की मजबूरी के सामने शीश झुकाना।
ऐसी कोई भी घटना जहां पति के निधन की विभीषिका से त्रस्त होकर औरत को जल जाना पड़े, बगैर लड़ाई लड़े, बगैर अपना हक मांगे, बगैर समाज को चुनौती दिए, एक मूक हताशा के साथ समाज के सामने झुकना पड़े, उस घटना को 'सती' कहने के लिए मैं राजी नहीं। और न ही सावित्री का नाम उस घटना से जुड़ सकता है, क्योकि सावित्री तो सती से भी अधिक जुझारू, अधिक तेजस्विनी और स्वयं यमराज को जीतने वाली है। पूरे संसार की किसी कथा, किसी इतिहास में इस मृत्युंजयी की दूसरी मिसाल ही नहीं है।
सती और सावित्री से हम यही प्रेरणा ले सकते हैं कि अपने हक की लड़ाई लड़नी है और आवश्यक हुआ तो यमराज से भी जीतकर अपना सर ऊँचा रखना है।
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