05-हर जगह वही भूल
इंडियन एअरलाइंस की यंत्रचालित सीढियों में फंसकर ज्योति जेठानी नामक आठ-वर्षीय बालिका की जान चली गई और प्रशासन मुंह लटकाने के सिवाय कुछ नहीं कर सका। दुखियारी मां का आक्रोश सुनने के लिए रुकने तक की संवेदनशीलता किसी के पास नहीं बची थी। फिर उस मां को आठ लाख रुपए का मुआवजा दिया गया और सारे लटके मुंह फिर से अपनी पुरानी जानी-पहचानी बेदिली के साथ ऊँचे उठने के काबिल हो गए। हम और आप जो इस देश के प्रशासन के लिए टैक्स भरते हैं और कई अन्य तरीकों से देश की उन्नति के लिए ईमानदारी से जुटे रहते हैं, क्या यह सवाल पूछ सकते हैं कि हमारी जेब का आठ लाख रुपया गीता जेठानी कोदेकर सर ऊँचा करने का हक प्रशासन को कैसे मिल गया? क्या यह टैक्स के रूप में दिए गए हमारे पैसे का हमारी ईमानदारी का दुरुपयोग नहीं है?
पिछले पचास वर्षों में प्रशासन को सुयोग्य बनाए रखने का एजंडा किसी पार्टी या किसी सरकार का नहीं रहा। एक नौकरशाही व्यवस्था हमने ब्रिटिश राज से विरासत के रूप में पाई। उसे आने वाली हर नई सरकार ने वैसे ही चलते रहने को कहा, सिर्फ दो बातों को भूलकर। पहली बात थी कि वह नौकरशाही व्यवस्था ब्रिटिश राज के फलसफे के लिए उपयुक्त थी क्या वह हमारे स्वतंत्र देश की स्वतंत्र नीतियों के लिए भी उपयुक्त थी? इस सवाल पर गौर नहीं किया गया। सरकार यह मानकर चलती रही कि नौकरशाही के व्यवस्थापन में बदलाव की कोई आवश्यकता नहीं। दूसरी बात कि कोई प्रशासन, कोई नौकरशाही, कोई भी मशीन नियमित देखभाल, नियमित साफ-सफाई और नियमित अपग्रेडेशन के अभाव में अपनी उपयोगिता खो बैठती है। इस पूरे वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण शब्द है 'नियमित'। अच्छा गायक बनने के लिए आपको नियमित रियाज करना पड़ता है, वैसे ही अच्छा प्रशासन पाने के लिए आपको उसकी साफ-सफाई भी नियमित रूप से करनी पड़ती है। सरकारी प्रशासन में वह नियमितता तो है ही नहीं- यह खयाल भी नहीं है कि इस सफाई की जरूरत है।
आज प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मानकर चलते हैं कि उनके साथ काम करने वाले निचली श्रेणी के कर्मचारियों के समूह को अपनी अंदरूनी ताकत है जिसके बल पर वे अपने को खुद ही सुधार लेंगे। वरिष्ठ अधिकारी यही मानते हैं, जानते नहीं क्योंकि मान लेने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। जानना हो तो जानने और समझने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। और यदि यह जानकारी हो गई कि उस समूह के पास वह अंदरूनी ताकत नहीं है, तो समूह को सुधारने की और उसे ताकत देने की-या यों कहिए कि उसे सुयोग्य बनाने की जिम्मेदारी भी सर पर आ जाती है। इतनी चखचख में कौन पड़े? उससे अच्छा है मान लेना कि निचले लोग अपने आप खुद को सुधार लेंगे।
प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी मान लेते हैं तो अति वरिष्ठ अधिकारी क्या करते हैं? वे भी मान लेते हैं कि उनके छोटे अधिकारी या तो बिल्कुल गलती नहीं करते या अपने आपको सुधर लेते हैं। फिर सरकार भी मान लेती है कि नौकरशाही अपने आपको सुधार लेती है। जनता भी मान लेती है कि सरकार अपने आपको सुधार लेती है। इस प्रकार देखा गया जाए तो उस चक्राकर श्रृंखला की कड़ी में हर जगह वही भूल की जा रही है - क्या कर्मचारी, क्या प्रशासन, क्या सरकार और क्या जनता।
नागरिक उड्डयन मंत्री ने मान लिया कि उनके मंत्रालय को सुधारने की आवश्यकता है या नहीं, यह जानना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। मंत्रालय के अफसरों ने मान लिया कि विमानपत्तन प्राधिकरण की कमियों या अच्छाइयों के बारे में पूछने कि जिम्मेदारी या जरूरत उनकी नहीं। विमानपत्तन प्राधिकरण के दिल्ली स्थित वरिष्ठ अधिकारी ने मान लिया कि डयूटी पर तैनात अधिकारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की जिम्मेदारी उसकी नहीं। और डयूटी लगे अधिकारी ने कहा कि कर्मचारियों की सुयोग्यता के बारे में जानने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। कर्मचारियों ने भी मान लिया कि सुयोग्न होने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। ऐसे जान गंवाई ज्योति जेठानी ने। खुशी खोई जेठानी परिवार ने। आठ लाख रुपये गंवाए देश के खजाने यानी कि हमने और आपने। और लटकाए सरों को फिर से ऊँचा, उद्धत और गैर-जिम्मेदार रखने का फख्र पाया उन कर्मचारियों ने, विमानपत्तन अधिकारियों ने, नौकरशाही के वरिष्ठ अधिकारियों ने, मंत्रीजी ने, सरकार ने और सरकार को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी से बेखयाल जनता ने।
अब नया वर्ष हमारे सामने है। प्रशासन को सुयोग्य बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने के लिए नियमित प्रयासों की जरूरत होती है। क्या हम और हमारी सरकार और नौकरशाही सुयोग्य प्रशासन को अपना एजंडा बना सकते हैं? या हमें और कई दुर्घटनाओं, कई जिंदगियों और कई लाख रुपए का मुआवजा देने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?
जनसत्ता ३० दिसमबर १९९९
Saturday, 6 October 2007
सुयोग्य प्रशासन की पहचान (6)y
06-सुयोग्य प्रशासन की पहचान
हवाई अड्डे के एस्केलेटर में ज्योत्सना जेठानी की दुखद मृत्यु के कुछ ही दिन बाद मुझे हवाई जहाज से यात्रा करने का अवसर मिला। देखा कि सेक्यूरिटी चेक-इन वाले गेट पर लंबी लाइन थी। हरेक यात्री को लंबी जांच-पड़ताल के बाद ही अंदर छोड़ा जा रहा था और इस कार्यक्रम में यात्रियों और कर्मचारियों को भी बहुत समय लग रहा था। और फिर विमान अपहरण के बाद से तो यह प्रक्रिया और भी समय खाने वाली हो गई। लगा जैसे सबने यह तय कर लिया हो कि अधिक से अधिक समय लगाकर कड़ी से कड़ी जांच करना ही सुयोग्य प्रशासन की निशानी है। लेकिन मैं सोचती हूं कि सुयोग्य प्रशासन में सुलभता और समय की बचत बहुत महत्वपूर्ण है। सत्रहवीं सदी में शिवाजी महाराज के गुरु रामदास ने सुयोग्य प्रशासन की पहचान बताते हुए लिखा थाः 'जनांचा प्रवाहो चालला' (यानी जन-प्रवाह सुचारु रूप से चल रहा हो), 'म्हणिजे कार्यभाग झाला' (तब समझना कि तुम्हारा प्रशासन ठीक चल रहा है), 'जन ठाई ठाई तुंबला' (जन-प्रवाह को जगह-जगह रुकावटें हों) 'म्हणिजे खोटे' ( तो जानना कि तुम्हारे प्रशासन में कुछ खोट है) ।
ज्योत्सना की मौत और फिर तत्काल काठमांडो से आने वाले विमान के अपहरण में प्रशासन की जो कमी साफ झलकती है वह है सामंजस्य या कोऑर्डिनेशन का अभाव। एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर में किसी अन्य प्रवासी के बैग का फीता फंस गया था तब देखने वालों में से किसी भी कर्मचारी ने अगर इस घटना की रिपोर्टिंग को अपनी जिम्मेदारी माना होता तो शायद दुर्घटना नहीं होती। लेकिन प्रशासन का काम निहायत टुकड़े-टुकड़े बंटा हुआ है। इसलिए एक विभाग का कर्मचारी दूसरे किसी विभाग को सुझाव देने की गुस्ताखी नहीं कर सकता। अव्वल तो कोई उसकी बात सुनेगा नहीं और इतने वर्षों में उसने खुद जो 'छोड़ो, मुझे क्या' वाला रुख अपनाया है, उसे भी निकट भविष्य में नहीं बदला जा सकता।
जहां तक 'उसी विभाग' के कर्मचारियों का प्रश्न है, वे उकताए रहते हैं, क्योंकि 'अधिक समय लगाकर कड़ाई से किए जाने वाले इंस्पेक्शन ' से आगे कुछ नहीं होता है, यह बात वे जानते हैं। सभी सोचते हैं कि रोज-रोज व्यर्थ समय गंवाया जाता है है इसलिए कुछ ही दिनों में फिर इंस्पेक्शन ढीला पड़ जाता रहा है। इंस्पेक्शन और मुस्तैदी को बनाए रखना हो तो उसका रुटीन भी कुछ इस प्रकार सरल और सुगम हो कि उसे कम समय में पूरा किया जा सके। लेकिन प्रशासन में समय की बचत और सुगमता के बावजूद अच्छे नतीजे चाहिए हों तो इसके लिए नए तरीके ढूंढने पड़ते हैं, और कर्मचारियों को उन तरीकों का प्रशिक्षण देना पड़ता है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है - स्थिर प्रक्रिया नहीं। लेकिन इसकी बजाय देखा गया है कि कोई दुर्घटना हो तो फिर से आदेश निकाले जाते हैं कि नियमों का पालन कड़ाई से हो। इतना आदेश निकालकर वरिष्ठ अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। पुराने नियमों को, जो समय की बर्बादी वाले हैं, कोई नहीं बदलता और न सामंजस्य को बढ़ाने वाली कार्रवाई कोई शुरू करता है। फिर प्रशासन अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाता है। कोई दूसरी दुर्धटना होने तक।
जब कंधार ये यात्रीगण हवाई जहाज से वापस आने को रवाना हो चुके थे तो जी-टीवी पर उनके रिश्तेदारों से बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा था कि अब जब एक भारी कीमत चुकाकर देश ने आतंकवादियों से बंधकों को रिहा करवा लिया है, तो इससे आगे देश के नागरिकों का क्या कर्त्तव्य है। बेचारे रिश्तेदारों को इसका कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। और पता नहीं प्रश्न पूछने वालों के मन में भी क्या उत्तर था, क्या सवाल था, क्योंकि उनका उत्तर भी खुलकर सामने नहीं आयो।
लेकिन मेरे दिमाग में इसका उत्तर आया कि देश के नागरिक सरकार से पूछें कि सुयोग्य प्रशासन लाने के लिए वह क्या कर रही है। बार-बार पूछें। नियमित रूप से पूछें। और लीपापोती वाले उत्तरों को स्वीकार न करें। लोकतंत्र में सुयोग्य प्रशासन का आग्रह रखने की जिम्मेदारी भी लोगों की ही है।
जनसत्ता ०८.०१.२०००
...............
हवाई अड्डे के एस्केलेटर में ज्योत्सना जेठानी की दुखद मृत्यु के कुछ ही दिन बाद मुझे हवाई जहाज से यात्रा करने का अवसर मिला। देखा कि सेक्यूरिटी चेक-इन वाले गेट पर लंबी लाइन थी। हरेक यात्री को लंबी जांच-पड़ताल के बाद ही अंदर छोड़ा जा रहा था और इस कार्यक्रम में यात्रियों और कर्मचारियों को भी बहुत समय लग रहा था। और फिर विमान अपहरण के बाद से तो यह प्रक्रिया और भी समय खाने वाली हो गई। लगा जैसे सबने यह तय कर लिया हो कि अधिक से अधिक समय लगाकर कड़ी से कड़ी जांच करना ही सुयोग्य प्रशासन की निशानी है। लेकिन मैं सोचती हूं कि सुयोग्य प्रशासन में सुलभता और समय की बचत बहुत महत्वपूर्ण है। सत्रहवीं सदी में शिवाजी महाराज के गुरु रामदास ने सुयोग्य प्रशासन की पहचान बताते हुए लिखा थाः 'जनांचा प्रवाहो चालला' (यानी जन-प्रवाह सुचारु रूप से चल रहा हो), 'म्हणिजे कार्यभाग झाला' (तब समझना कि तुम्हारा प्रशासन ठीक चल रहा है), 'जन ठाई ठाई तुंबला' (जन-प्रवाह को जगह-जगह रुकावटें हों) 'म्हणिजे खोटे' ( तो जानना कि तुम्हारे प्रशासन में कुछ खोट है) ।
ज्योत्सना की मौत और फिर तत्काल काठमांडो से आने वाले विमान के अपहरण में प्रशासन की जो कमी साफ झलकती है वह है सामंजस्य या कोऑर्डिनेशन का अभाव। एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर को चलाने और रोकने का तरीका यदि वहां उपस्थित सभी विभागों के कर्मचारियों को सिखाया गया होता तो कोई न कोई उसे बंद कर देता। उसके कुछ घंटे पहले जब उसी एस्केलेटर में किसी अन्य प्रवासी के बैग का फीता फंस गया था तब देखने वालों में से किसी भी कर्मचारी ने अगर इस घटना की रिपोर्टिंग को अपनी जिम्मेदारी माना होता तो शायद दुर्घटना नहीं होती। लेकिन प्रशासन का काम निहायत टुकड़े-टुकड़े बंटा हुआ है। इसलिए एक विभाग का कर्मचारी दूसरे किसी विभाग को सुझाव देने की गुस्ताखी नहीं कर सकता। अव्वल तो कोई उसकी बात सुनेगा नहीं और इतने वर्षों में उसने खुद जो 'छोड़ो, मुझे क्या' वाला रुख अपनाया है, उसे भी निकट भविष्य में नहीं बदला जा सकता।
जहां तक 'उसी विभाग' के कर्मचारियों का प्रश्न है, वे उकताए रहते हैं, क्योंकि 'अधिक समय लगाकर कड़ाई से किए जाने वाले इंस्पेक्शन ' से आगे कुछ नहीं होता है, यह बात वे जानते हैं। सभी सोचते हैं कि रोज-रोज व्यर्थ समय गंवाया जाता है है इसलिए कुछ ही दिनों में फिर इंस्पेक्शन ढीला पड़ जाता रहा है। इंस्पेक्शन और मुस्तैदी को बनाए रखना हो तो उसका रुटीन भी कुछ इस प्रकार सरल और सुगम हो कि उसे कम समय में पूरा किया जा सके। लेकिन प्रशासन में समय की बचत और सुगमता के बावजूद अच्छे नतीजे चाहिए हों तो इसके लिए नए तरीके ढूंढने पड़ते हैं, और कर्मचारियों को उन तरीकों का प्रशिक्षण देना पड़ता है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है - स्थिर प्रक्रिया नहीं। लेकिन इसकी बजाय देखा गया है कि कोई दुर्घटना हो तो फिर से आदेश निकाले जाते हैं कि नियमों का पालन कड़ाई से हो। इतना आदेश निकालकर वरिष्ठ अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। पुराने नियमों को, जो समय की बर्बादी वाले हैं, कोई नहीं बदलता और न सामंजस्य को बढ़ाने वाली कार्रवाई कोई शुरू करता है। फिर प्रशासन अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाता है। कोई दूसरी दुर्धटना होने तक।
जब कंधार ये यात्रीगण हवाई जहाज से वापस आने को रवाना हो चुके थे तो जी-टीवी पर उनके रिश्तेदारों से बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा था कि अब जब एक भारी कीमत चुकाकर देश ने आतंकवादियों से बंधकों को रिहा करवा लिया है, तो इससे आगे देश के नागरिकों का क्या कर्त्तव्य है। बेचारे रिश्तेदारों को इसका कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। और पता नहीं प्रश्न पूछने वालों के मन में भी क्या उत्तर था, क्या सवाल था, क्योंकि उनका उत्तर भी खुलकर सामने नहीं आयो।
लेकिन मेरे दिमाग में इसका उत्तर आया कि देश के नागरिक सरकार से पूछें कि सुयोग्य प्रशासन लाने के लिए वह क्या कर रही है। बार-बार पूछें। नियमित रूप से पूछें। और लीपापोती वाले उत्तरों को स्वीकार न करें। लोकतंत्र में सुयोग्य प्रशासन का आग्रह रखने की जिम्मेदारी भी लोगों की ही है।
जनसत्ता ०८.०१.२०००
...............
Saturday, 29 September 2007
२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१ Y
२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१
कलाकार
की कदर
कुछ
बरस हुए,
मैंने
तबले की एक जोडी इस जिद के साथ
खरीदी थी कि तबला सीखूंगी।
तीन-चार
साल में एक बार कभी सनक उभर
आती है,
तो
नए उत्साह से मैं कुछ सीखती
हूं। फिर सब ठप पड जाता है।
लेकिन इस दोर में रा ध्यान एक
विशिष्ट जाति के कलाकारों की
तरफ गया। यह जाति है संगीत-वाद्य
बनानेवाले या उन्हें सुधारनेवाले
कलाकारों की। पुणे में एक
सज्जन श्री औटी तबला पर स्याही
लगाने का ,
तबले
की वादियॉ कसने का और जरूरी
हुआ तो चमडा लगाने का भी काम
करतो आए हैं। वे नए तबले भी
बनाते हैं। साल भर काम चलता
हैं। इसमें महिलाए जादा लगी
हैं,
सो
पन्द्रह से बीस महिलाओं को
रोजी-रोटी
मिलती हैं। लेकिन औटीजी बताते
हैं – “तबला बनाना या उसकी
मरम्मत करना अपने आप में एक
कला हैं,
जिसे
सीखने के लिए काफी श्रम औप लगन
चाहिए। मेरे दोनो बेटे पढ-लिख
कर बैंक अफसर हो गए। वे इस कला
को सीखना नही चाहते। मेरे काम
में दखल नही देते,
लेकिन
में बूढा हो चला,
कभी
न कभी तो रुक जाऊंगा”। मैनें
पूछा,
आप
किसी दूसरे को या काम करने
वाली उन्हीमहिलाओं को क्यो
नही सिखाते?
उनका
उत्तर था-
कोई
अपना समय खर्च करके इसे क्यो
सीखना चाहेंगा?
क्या
इस काम में कोई पैसा या सन्मान
हैं?
मैनें
कहा कि ‘पैसा तो जरुर होगा,
तभी
तो आपकी तीन पीढियों ने इस कला
से उपजीविका चलाई।’ लेकिन
मेरा यह उत्तर पर्याप्त नही
है,
यह
मैं भी समझ रही थी।
मुम्बई
में दादर स्टेशन के बाहर फुटपाथ
पर बरसों से श्री गिंडे बॉंसुरी
बेचा करते थे। उनकी बनाई बॉसुरी
बडी सुरीली हुआ करती थी। पुणे
के एक प्रसिद्ध लेखक और शौकिया
बॉसुरीवादक अनिल अवचट को किसी
ने वहॉ से कुछ बॉसुरीयॉ खरीदवाईं
। अवचटजी ने उनसे पूछा,
जाना।
फिर एक लम्बा लेख लिखकर उन्हें
प्रसिद्ध बना दिया। लेकिन आज
भी मुम्बई महानगरपालिका के
अतिक्रमण-रोको
विभाग के कर्मचारी कोर्ट स्टे
के कारण बॉसुरी की फुटपाथी
दुकान हटा नही पाए और कोर्ट
ऑर्डर के बावजूद गिंडेजी दुकान
के लिए कोई टपरी नही दे रहे
हैं।लेख को कारण इस दिकान की
पहचान बनी तो मुम्बई की एक कला
– संस्था चतुरंग ने कलाकारों
के कार्यक्रम में उनका भी
सन्मान किया। लेकिन ऐसे उदाहरण
अत्यंत कम पाए जाते हैं जब
वाद्य बनानेवाले को सन्मानित
किया जाए।आज गिंडे जीवित नही
हैं,
लेकिन
उनके बेटे ने वह काम सॅभाल
लिया है। गिंडे बताते थे कि
कैसे उन्हें खरीदकर लाए बॉस
अपने घर में ही रखने पडते हैं
और कैसे महानगरपालिका के लोग
उनके घर का व्यापारिक कारण
से उफयोग बताकर गाहो-बगाहे
बॉस जब्त कर लेते हैं। इसी तरह
नासिक में शहनाई बनानेवाले
एक कलाकार हैं जो उस्ताद
बिस्मिला खान के लिए शहनाइयॉ
बनाते हैं और उन्हे गर्व है
कि उनका लडका भी उनसे यह कला
सीख कर माहिर हो गया है।
आजकल
के सभी बॉसुरीवादक प्रायः दो
बॉसुरियों का प्रयोग करते
हैं। एक बार बात चली तो किसीने
मुझसे कारण पूछा। मेरी जानकारी
इतनी ही है कि सामान्यातः
बॉसुरी पर दो ही सप्तक बज सकते
हैं जब कि अच्छे वादन के लिए
कम-से-कम
ढाई सप्तक का विस्तार चाहिए।
प्रथम श्रेणी के गायक तीन
स्प्तक तक का सूर गा लेते हैं।
इसी कारण दो बॉसुरिय़ॉ रखनी
पडती हैं जिनमें एख का निचला
स्वर दूसरी के ऊंचे स्वर से
मेल खाता हो। लेकिन स्वर्गीय
पन्नालाल घोष एक ही बॉसुरी
बजाते थे। इस बॉसुरी में ढाई
या तीन सप्तक के सुर निकल सकें,
इसके
लिए उसकी लम्बाई बढी पडती हैं।
उती लम्बाई पर उंगलियों से
नियन्त्रण कर पाना बहुत कठीण
हैं। पन्नालाल घोष ने यह कठीन
कार्य कर दिखाया। उन्होंने
अपनी बॉसुरीयों की लम्बाई
धीरे धीरे बढाई और उस पर अभ्यास
करते गए। एक बार पंडित ओंकारनाथ
ठाकुर के साथ जुगलबन्दी करने
और उनकी आवाज की हद को बॉसुरी
में पकड पाने के लिए उन्होंने
तीस इंच लम्बी बॉसुरी बनवाई
थी और उसे बजाकर पंडितजी से
वाहवाही लूटी थी। यह जानकारी
मिली पुणे आकाशवाणी के सेवानिवृत्त
डायरेक्टर गजेन्द्रगडकर के
संस्मरण से। संस्मरण में लिखा
है कि स्वयं पन्नालाल घोष
बॉसुरी बनाने वाले उन सज्जन
का बहुत सन्मान करते थे,
लेकिन
आकाशवाणी,
संगीत
कला अकादमी,
भारत
सरकार आदि ने कभी ऐसे व्यक्तियों
का सन्मान किया हो,
याद
नही आता।
मिरज
एक जमाने में अपनी संगीत परम्परा
के लिए बडा प्रसिद्ध था। उस्ताद
अब्दुल करीम खॉ औऱ लता मंगेशकर
भी कभी वही रहे हैं। वहॉ एक
परिवार में उच्च कोटि के
तानपुरे,
सितार,
सरोद
इत्यादि बनाए जे हैं। में वहॉ
कलेक्टर थी तो उनका गोदाम
देखने का मौका मिला। छोटे-बडे
सैकडो जंगली सीताफल (पीले
कद्दू )
सुखाकर
वहॉ रखे हुए थे। उन्हीं को बीच
से चीर कर उनसे जोडी के तानपुरे
बनते हैं। कद्दू के खोल पर
पॉलिश करना,
उसे
लकडी के साथ जोडना,
जोड
छिपाने के लिए नक्काशी करना,
सुर
मिलाना आदि तमाम कलाकारी उसी
दिन देखने को मिली। चलते-चलते
उस परिवार के मुखिया ने अपा
दिख भी खेती करने लगे। अब खेतों
की बाड पर जंगली सीताफल की
बेलें नही लगाई जाती। जंगली
सीताफलों का स्टॉक बडी मुश्किल
से मिलता है। वह प्रजाति भी
नष्ट हो रही है। फिर सितार –
तानपुरे कैसे बजेंगे?
मैडम,
कदर
केवल मेरी ही नही,
उन
जंगली बेलों की भी होनी चाहिए।
(जनसत्ता
:
4 मई,
2001)
मेरी प्रांतसाहबी
मेरी प्रांतसाहबी
आई ए एस में आने के बाद 1 वर्षकी जिला ट्रेनिंग और अगले 2 वर्ष उसी पुणे जिले के हवेली सब डिविजन में सब डिविजनल ऑफिसर की पोस्टिंग में मैंने क्या देखा और क्या सीखा, उसका यह कच्चा-चिठ्ठा .... जो नया ज्ञानोदय के .... अंक में प्रकाशित हो चुका है।
ओर अब इसी नाम से मेरा तीसरा लेख संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।
मेरी प्रांतसाहबी
१० अगस्त १९७६ की तिथी थी जिस दिन मैंने हवेली असिस्टंट क्लेक्टर का पद संभाला। इससे पहले दो वर्षों का कार्यकाल प्रशिक्षण का था। वे दो वर्ष और अगले दो वर्ष- भारतीय प्रशासनिक सेवा की बसे कनिष्ठ श्रेणी के वर्ष होते हैं और जिम्मेदार अफसर बनने के अच्छे स्कूल का काम भी करते हैं। इस पोस्ट का नाम भी जबरदस्त है- असिस्टंट कलेक्टर या सब डिविजनल ऑफिसर। कहीं सब डिविजनल मॅजिस्ट्रेट भी। लेकिन महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में 'प्रांतसाहेब' अधिक परिचित संबोधन है। एकेक जिले में तीन या चार असिस्टंट कलेक्टर होते हैं। उनका काम और अधिकार कक्षा कलेक्टर के काम से काफी अलग, काफी सीमित क्षेत्रों में लेकिन वाकई में जमीनी सतह के होते हैं।
आगे लिंक पर पढें
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kept on janta_ki.... Also
आई ए एस में आने के बाद 1 वर्षकी जिला ट्रेनिंग और अगले 2 वर्ष उसी पुणे जिले के हवेली सब डिविजन में सब डिविजनल ऑफिसर की पोस्टिंग में मैंने क्या देखा और क्या सीखा, उसका यह कच्चा-चिठ्ठा .... जो नया ज्ञानोदय के .... अंक में प्रकाशित हो चुका है।
ओर अब इसी नाम से मेरा तीसरा लेख संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।
मेरी प्रांतसाहबी
१० अगस्त १९७६ की तिथी थी जिस दिन मैंने हवेली असिस्टंट क्लेक्टर का पद संभाला। इससे पहले दो वर्षों का कार्यकाल प्रशिक्षण का था। वे दो वर्ष और अगले दो वर्ष- भारतीय प्रशासनिक सेवा की बसे कनिष्ठ श्रेणी के वर्ष होते हैं और जिम्मेदार अफसर बनने के अच्छे स्कूल का काम भी करते हैं। इस पोस्ट का नाम भी जबरदस्त है- असिस्टंट कलेक्टर या सब डिविजनल ऑफिसर। कहीं सब डिविजनल मॅजिस्ट्रेट भी। लेकिन महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में 'प्रांतसाहेब' अधिक परिचित संबोधन है। एकेक जिले में तीन या चार असिस्टंट कलेक्टर होते हैं। उनका काम और अधिकार कक्षा कलेक्टर के काम से काफी अलग, काफी सीमित क्षेत्रों में लेकिन वाकई में जमीनी सतह के होते हैं।
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Tuesday, 25 September 2007
कमलेश्वर- प्रस्तावना --बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख
जनता की राय
बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख
'दुनिया मेरे आगे' जनसत्ता का लोकप्रिय
कॉलम है ! यह स्वतंत्र विचारों का कॉलम है ! मेरे ख्याल में इसे लिखने की कोई शर्त नहीं होती ! बस, लिखने वाले को अपने विचार ठीक से रखने का शऊर होना चाहिए !
लीना मेहेंदले का नाम इस कॉलम के जरिये ही मैंने पहली बार जाना ! शयद उन्होंने और भी अखबारों में लिखा हो, पर इस कॉलम में जिस तरह उन्होंने लिखा, वह मेरे लिए पठनीय रहा है ! राष्ट्रिय मुद्दों के अलावा भी लीना मेहेंदले ने ऐसी बहसें
खडी करने की कोशिश की कि आश्चर्य होता कि समाज और जीवन की छोटी-सी घटना को किस तरह वे एक राष्ट्रिय मुद्दा बना देती हैं !
लीना मेहेंदले के ये आलेख हिन्दी पत्रकारिता के उत्कृष्ट नमूने हैं ! घटना पर पैनी नजर, सटीक विवेचन और न्यायपूर्ण पक्ष ! कानून का पक्ष, जनता का पक्ष और
सरकार का पक्ष भी, यदि वह जनविरोधी न
हो ! समाज के व्यापक
सरोकारों वाला कोई भी विचार लीना मेहेंदले की गहरी समझ का स्पर्श पाकर उद्दीप्त हो
उठता है ! मैंने अभी हाल ही
में उनके लिखे तीस-पैंतीस आलेख पढे ! कुछ आलेख तो मैं जनसत्ता में पढ ही चुका था ! फिर भी उन्हें दुबारा पढते हुए उनके लेखन की गहराई में जाने की कोशिश की !
लीना मेहेंदले किसी दूर की कौडी का इंतजार नहीं करतीं ! वे लिखने के विषय अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से चुनती हैं ! घटनाएँ रोज आती हैं -- अखबारों की सुर्खियों के रूप में ! बलात्कार, हत्या, लूटपाट और आगजनी ! ये रोज की घटनाएँ हैं, पर कभी-कभी इससे अलग और
विशिष्ट भी घटित हो जाता है, तो लगता है कि जीवन अभी इससे भी आगे है ! क्या समाज की टुच्ची घटनाओं में सिर खपाना जरूरी है? यदि जरूरी है तो लीना उस पर पूरे अधिकार के साथ लिखती हैं ! जैसे कि वे सती शब्द को गलत अर्थो में समझने वाली महिलाओं
के खिलाफ लिखती हैं -- 'उठो जागो !' जब वे 'सती' शब्द की व्याख्या
कर रही होती हैं तो उसके पास पौराणिक आख्यानों की सत्यता होती है ! उसके माध्यम से वे सती के भावार्थ को गलत तरीके से इस्तेमाल
करने वाले और सरकार की नीयत को कठघरे में खडा करती हैं !
इसी तरह लीना मेहेंदले ने
हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक विडंबनाओं की भी बखिया उधेडी है ! 'हिन्दी में शपथ', 'बच्चों को बख्शिए', 'हर जगह वही भूल', 'दिल्ली में युधिष्ठिर', 'भीड के आदमी का हक', 'नमक का दारोगा', 'लालकिले की कालिख', और 'अपने-अपने शैतान' आदि आलेखों में उन्होंने उन मुद्दों को बहस तलब बनाने का साहस किया है, जिस पर कम ही पत्रकार और लेखक विचार करने की जहमत उठाते हैं! निश्चित ही राज्य शासन का कार्य अपनी
राज्य व्यवस्था को दुरूस्त रखना है, पर इसमें नागरिकों की भागीदारी को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है? लेखिका इस बात की तरफ पाठकों या इस देश के जागरूक नागरिकों
का ध्यान बार-बार आकर्षित करती
हैं, साथ ही मुर्दा और
निकम्मी सरकार, इसके भ्रष्ट और
नाकारा मंत्रियों तथा कर्मचारियों के दुराचरण की जमकर आलोचना भी करती हैं !
लीना मेहेंदले के विचारों में गहरी समझ का जादू है ! इससे पाठक बच नहीं सकता! नारीवादी
चेतना
का
इनमें
एक
स्वाभाविक
स्फुरण
है, मगर
इस
मामले
में
उनका
ज्ञान
अधूरेपन
से
ग्रस्त
नहीं
है
! वे
महिला
स्वातंत्र,
महिला
जागरूकता
और
महिला
अस्मिता
की
पक्की
हिमायती
हैं, मगर
व्यापक
मानवीय
संदर्भों
और
उद्देश्यों
के
साथ
! महिला
सशक्तीकरण
के
पक्ष
में
उन्होंने
काफी
लिखा
है
! 'गुजरात
भत्ते
की
दावेदार
कैसे
बनें?',
'इक्कीसवीं
सदी
की
औरत', और
'अंजना
मिश्र
कांड
में
उडीसा
के
पूर्व
महाधिवक्ता
को
तीन
साल
की
कैद' आदि
आलेख
नारी
की
अस्मिता
पर
गहरे
विमर्श
के
लिए
तीखी
दस्तकें
हैं,
जिनको
अनसुना
करना
आसान
नहीं
है
! पत्रकारिता
का
मूलधर्म
है
उन
लोगों
को
आगाह
करना,
जो
शासन
और
सत्ता
के
नशे
में
हमेशा
मस्त
और
बेखौफ
रहते
हैं
! उन
अशिक्षित
और
अनजान
लोगों
को
शिक्षित
करना,
जिनकी
निरीहता
का
लाभ
उठाकर
इस
व्यवस्था
की
खाल
संवेदनहीन
और
मोटी
होती
जा
रही
है
! मुझे
ये
आलेख
उस
नश्तर
की
तरह
लगते
हैं, जो
वैचारिक
रूप
से
शून्य
होते
रहे
समाज,
साहित्य
और
राजनीति
को
नई
चेतना
प्रदान
करते
हैं
! मैं
आशान्वित
हूँ
कि
पत्रकारिता
की
नई
पीढी
को
इनसे
बहुत
कुछ
सीखने
को
मिलेगा
!
मुझे
बेहद
खुशी
है
कि
ये
आलेख
पुस्तकाकार
में
अपने
विस्तार
के
लिए
जगह
बनाने
जा
रहे
हैं
! इनके
विचारों
को
व्यापक
समर्थन
मिलेगा,
इसकी
मुझे
पूरी
उम्मीद
है
!
अपार
शुभकामनाओं
के
साथ
!
कमलेश्वर
२०-०८-२००४
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Monday, 23 July 2007
इस पुस्तक के लेखों की सूची
इसी ब्लॉगपर फेंगाड्या पुस्तककी खण्डशः प्रत भी रखी है।
जनता की राय
आलोकपर्व प्रकाशन, 1/6588, 5-ईस्ट रोहतास नगर, नई दिल्ली--110032, फोन 011-22328142
List below exactly as per book Titles.
समाज बनाम प्रशासन -- मेरे लेखोंकी भूमिका
बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख -- कमलेश्वरजी द्वारा लिखी प्रस्तावना
१. हिन्दी में शपथ - जन. १९ अक्टूबर १९९९ y
२. बच्चों को तो बख्शिए - जन. ३० अक्टूबर १९९९ y
३. उठो जागो - जन. ११ दिसंबर १९९९ y
४. नई सहस्त्राब्दी के पहले - जन. १७ दिसंबर १९९९ y
५. हर जगह वही भूल - जन. ३० दिंसबर १९९९ y
६. सुयोग्य प्रशासन - जन. ८ जनवरी २००० y
७. पचास साल बाद हिन्दी - जन. ३ फरवरी २००० y
८. पुलिस प्रपंच - जन. २५ मार्च २००० y
९. दिल्ली में युधिष्ठिर - जन. ६ अप्रैल २००० y
१०. भीड़ के आदमी का हक - जन. १४ अप्रैल २०००
११. नमक का दरोगा - जन. ५ जून २०००
१२. जनतंत्र की खोज में - जन. १७ जून २०००
१३. अर्थव्यवस्था का नमक - जन. २ अक्टूबर २०००
१४ लालकिले पर कालिख - जन. १४ अक्टूबर २०००
१५. इक्कीसवीं सदी की औरत - जन. १७ दिसंबर २०००
१६. अपने अपने शैतान - जन. २ दिसंबर २०००
१७. तबादलों का अर्थतंत्र - जन. ६ दिसंबर २०००
१८. काननून अन्याय - जन. २६ दिसबंर २०००
१९. राष्ट्रीय संकट में हम - जन. २ फरवरी २००१
२०.गुजरात ने जो कहा - जन. ६ मार्च २००१
२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१
२२. नीरस जीवन की भुक्तभोगी - जन. ६ मई २००१
२३.गुजारा भत्ते की दावेदार कैसे बने - रास. १८ फरवरी २००१
२४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१
२५. छोरी साइकिल चलावै छे - प्रभात खबर ३१ अक्टूबर २००२
२६. बीजींग कान्फरंस, सीडॉ और भारतीय महिला नीति - (जालंधर में दिया गया भाषण)
२७. परीक्षा प्रणाली में आमूलाग्र सुधार हो - नभाटा. १२ फरवरी १९९९
२८. एक स्त्री का साहस - जन. ३ फरवरी २०००
२९. सैनिक.-एक श्रद्धांजली- प्रभात खबर जून १९९९
३०. पढाई का बोझ - रास. २२ जुलाई २००१
३१. क्या हमारे खून में कश्मीर है - हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२
३२. लिंगभेद से जूझते हुए - तारा - सनद, अंक १०
३३. शीतला माता - अप. मार्च २००४
३४. सत्ता तंत्र में कमाई : जनता क्या है तेरी की राय- हिंदुस्तान २३ मार्च २००४
----------------
कुछ और भी हैं इस पुस्तक के बाहर --
कार्यतत्पर दण्डप्रणाली की आवश्यकता
विभिन्न राज्यों में महिला विरोधी अपराध
धुनकी पक्की महिलाएँ
दिल्लीका सांस्कृतिक बंंजर
भ्रष्टाचारसे निपटनेका शुरुआती रास्ता
जनता की राय
आलोकपर्व प्रकाशन, 1/6588, 5-ईस्ट रोहतास नगर, नई दिल्ली--110032, फोन 011-22328142
List below exactly as per book Titles.
समाज बनाम प्रशासन -- मेरे लेखोंकी भूमिका
बंद दरवाजों पर दस्तक देते आलेख -- कमलेश्वरजी द्वारा लिखी प्रस्तावना
१. हिन्दी में शपथ - जन. १९ अक्टूबर १९९९ y
२. बच्चों को तो बख्शिए - जन. ३० अक्टूबर १९९९ y
३. उठो जागो - जन. ११ दिसंबर १९९९ y
४. नई सहस्त्राब्दी के पहले - जन. १७ दिसंबर १९९९ y
५. हर जगह वही भूल - जन. ३० दिंसबर १९९९ y
६. सुयोग्य प्रशासन - जन. ८ जनवरी २००० y
७. पचास साल बाद हिन्दी - जन. ३ फरवरी २००० y
८. पुलिस प्रपंच - जन. २५ मार्च २००० y
९. दिल्ली में युधिष्ठिर - जन. ६ अप्रैल २००० y
१०. भीड़ के आदमी का हक - जन. १४ अप्रैल २०००
११. नमक का दरोगा - जन. ५ जून २०००
१२. जनतंत्र की खोज में - जन. १७ जून २०००
१३. अर्थव्यवस्था का नमक - जन. २ अक्टूबर २०००
१४ लालकिले पर कालिख - जन. १४ अक्टूबर २०००
१५. इक्कीसवीं सदी की औरत - जन. १७ दिसंबर २०००
१६. अपने अपने शैतान - जन. २ दिसंबर २०००
१७. तबादलों का अर्थतंत्र - जन. ६ दिसंबर २०००
१८. काननून अन्याय - जन. २६ दिसबंर २०००
१९. राष्ट्रीय संकट में हम - जन. २ फरवरी २००१
२०.गुजरात ने जो कहा - जन. ६ मार्च २००१
२१. कलाकार की कदर - जन. ४ मई २००१
२२. नीरस जीवन की भुक्तभोगी - जन. ६ मई २००१
२३.गुजारा भत्ते की दावेदार कैसे बने - रास. १८ फरवरी २००१
२४. एड्स का खौफ - रास. २७ मई २००१
२५. छोरी साइकिल चलावै छे - प्रभात खबर ३१ अक्टूबर २००२
२६. बीजींग कान्फरंस, सीडॉ और भारतीय महिला नीति - (जालंधर में दिया गया भाषण)
२७. परीक्षा प्रणाली में आमूलाग्र सुधार हो - नभाटा. १२ फरवरी १९९९
२८. एक स्त्री का साहस - जन. ३ फरवरी २०००
२९. सैनिक.-एक श्रद्धांजली- प्रभात खबर जून १९९९
३०. पढाई का बोझ - रास. २२ जुलाई २००१
३१. क्या हमारे खून में कश्मीर है - हिंदुस्तान २३ जुलाई २००२
३२. लिंगभेद से जूझते हुए - तारा - सनद, अंक १०
३३. शीतला माता - अप. मार्च २००४
३४. सत्ता तंत्र में कमाई : जनता क्या है तेरी की राय- हिंदुस्तान २३ मार्च २००४
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कुछ और भी हैं इस पुस्तक के बाहर --
कार्यतत्पर दण्डप्रणाली की आवश्यकता
विभिन्न राज्यों में महिला विरोधी अपराध
धुनकी पक्की महिलाएँ
दिल्लीका सांस्कृतिक बंंजर
भ्रष्टाचारसे निपटनेका शुरुआती रास्ता
Tuesday, 17 July 2007
नई सहस्त्राब्दी के पहले (4)y
04-नई सहस्त्राब्दी के पहले
गली-गली में शोर है कि नई सहस्त्राब्दी आ रही है और लोग अकारण ही उत्साह में मरे जा रहे हैं। 'खरीदो-खरीदो ' के नारे लगाने वालों को अपनी चीजें बेचने के बहाने चाहिए और नई सहस्त्राब्दी की शुरुआत से अच्छा मौका क्या हो सकता है। लेकिन इस उमंग और उत्साह में एक गलत धारण यह पनप रही है कि सहस्त्राब्दी का आरंभ एक जनवरी २००० से होने वाला है। इस गलत धारणा की क्या वजह हो सकती है? सोचने पर मुझे अचानक समझ में आया कि वजह है - संगणक यानी कंप्यूटर। नई शताब्दी और सहस्त्राब्दी दोनों का आरंभ होगा एक जनवरी २००१ के दिन। यानी अभी पूरा एक साल और दिसंबर के कुछ दिन बाकी हैं वह दिन आने में। एक जनवरी २००० तो अपनी जानी-पहचानी बीसवीं सदी और दूसरी सहस्त्राब्दी के अंतिम वर्ष का पहला दिन होगा - अन्य कई एक जनवरियों की तरह एक साधारण सा एक जनवरी। लेकिन गड़बड़ी कर दी संगणक ने। या यों कहिए कि संगणक की 'वाई टू के ' वाली समस्या ने।
यह समस्या इसलिए उपजी कि जब १९७० के बाद संगणकों में पंचकार्ड सिस्टम विदा हुआ और की-बोर्ड और प्रोग्रामिंग की शुरुआत हुई तो कई व्यापारी कंपनियों की समझ में आया कि लेन-देन के कई व्यवहार इसकी मार्फत किए जा सकते हैं। सो संगणक चल पड़ा। उस पर दिनांक लिखने का वही तरीका था जो रोजमर्रा में था, जैसे २२ मार्च १९७४ को २२.०३.७४ लिखा जाना। संगणक का उसूल है कि बार-बार प्रयोग में आने वाली बातों को जितना छोटा करके लिखा जा सके और संगणक की जगह और काम को बचाया जा सके, उतना ही वह प्रोग्रामिंग अच्छी मानी जाएगी। तरीखों का प्रयोग बार-बार करना पड़ता है। इसलिए २२.०३.१९७४ लिखने की बजाय २२.०३.७४ लिखना अधिक बुद्धिमानी है क्योंकि यों लिखने में दो अंक कम लिखने पड़ते हैं। अब जहां इन तारीखों के आधार पर कुछ गणित भी करना पड़ता है जैसे सूद का हिसाब लगाना-वहां भी संगणक को समझा दिया गया है कि दिन-मास-वर्ष की गिनती कैसे की जाती है। यदि संगणक को २२.०३.७४ से ०९.११.९९ तक के सूद का हिसाब करना होगा तो वह दिन-मास-वर्ष का हिसाब लगाते हुए दूसरी संख्या को घटा देगा और सूद का हिसाब कर लेगा।
लेकिन इस सदी के अंतिम पांच वर्षों में अचानक लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि सन् २००० की तारीख को कैसे लिखा जाएगा और संगणक की बुद्धि उसे कैसे पढ़ पाएगी? यदि एक जनवरी को ०१.०१.२००० लिखते हैं तो संगणक अपने सामने आठ अंक देखता है और पहचान नहीं पाता है कि उसे कोई तारीख बताई जा रही है क्योंकि उसकी प्रोग्रामिंग इस प्रकार हुई है कि वह छह अंकों वाली तारीख को ही पहचानना जानता है। यदि एक जनवरी को ०१.०१.०० लिखते हैं तो संगणक को ादत पड़ चुकी है कि बड़ी संख्या से छोटी संख्या को घटाना है और वह ०० को किसी भी अन्य वर्ष के आंकड़ों की तुलना में छोटी संख्या ही समझेगा। अतः सूद का हिसाब वह नहीं कर पाएगा। इसी तरह, जिन्हें होटलों में एड़वांस बुकिंग करनी है, एअरलाइनों में टिकट कटवाने हैं, रेलवे आरक्षण कराना है, वे सन् २००० या उसके बाद आने वाली तारीखों का ब्योरा संगणक को किस तरह से दें? यह समस्या है जो नई सहस्त्राब्दी के पहले दिन यानी ०१.०१.२००१ के आने तक नहीं रुकेगी, बल्कि उसके एक वर्ष पहले ०१.०१.२००० की तारीख में ही प्रकट हो जाएगी। अतः जो बड़ी खलबली चमी है उसने सबको यों अभिभूत कर दिया मानो ०१.०१.२००० को ही नई सहस्त्राब्दी आरंभ हो रही हो।
दूसरी गलत धारणा बार-बार सुनने में आती है जो हमारे बखानने के ढंग से उपजी है। लोग कहते नहीं थकते नई सहस्त्राब्दी के विषय में। कैसे होंगे उस सहस्त्राब्दी के लोग? कैसा होगा समाज, कैसी होगी सरकार, कैसा होगा प्रशासन, कैसी शिक्षा प्रणाली, कैसी नारी समस्याएं, कैसा समाज सुधार और कैसा विज्ञान? हर कोई अगले हजार वर्षों के सपने बुनने में लगा है। एक सज्जान ने मुझसे कहा कि आइए चर्चा करें कि अगली सहस्त्राब्दी में प्रशासन कैसा होगा। मैंने पूछा कि क्या हम अगले हजार वर्षों के प्रशासन की बात करने वाले हैं, तो झेंपकर कहने लगे कि नहीं, सहस्त्राब्दी शब्द से मेरा मतलब पूरे हजार वर्षों से नहीं था। मैंने फिर पूछा-क्या हम अगले सौ वर्षों के प्रशासन की बातें करेंगे? तो कहा, नहीं इतने अधिक वर्षों की भी नहीं। फिर मैंने पूछा-क्या अगले बीस वर्षों की? तब उन्हें मुक्ति मिल गई। उत्साह से कहने लगे, हां-हां, आइए अगले बीस वर्षों के प्रशासन के संबंध में बात करते हैं। वैसे हजार वर्षों के विषय में सोचना कोई बुरी या अनुचित बात नहीं है। लेकिन वह दार्शनिकों की दुनिया है। सामान्य आदमी के लिए
सहस्त्राब्दी का अर्थ है अगले बीस वर्ष या शायद अगले पांच वर्ष। जिसमें लंबे समय का चिंतन करने की क्षमता हो उसकी को अगले सौ या सहस्त्र वर्षों की बात करनी चाहिए। वरना बातों को अगले दस-बीस वर्षें तक ही सीमित रखें तो हम कम से कम अधिक व्यावहारिक तो होंगे।
जनसत्ता १७.१२.१९९९
गली-गली में शोर है कि नई सहस्त्राब्दी आ रही है और लोग अकारण ही उत्साह में मरे जा रहे हैं। 'खरीदो-खरीदो ' के नारे लगाने वालों को अपनी चीजें बेचने के बहाने चाहिए और नई सहस्त्राब्दी की शुरुआत से अच्छा मौका क्या हो सकता है। लेकिन इस उमंग और उत्साह में एक गलत धारण यह पनप रही है कि सहस्त्राब्दी का आरंभ एक जनवरी २००० से होने वाला है। इस गलत धारणा की क्या वजह हो सकती है? सोचने पर मुझे अचानक समझ में आया कि वजह है - संगणक यानी कंप्यूटर। नई शताब्दी और सहस्त्राब्दी दोनों का आरंभ होगा एक जनवरी २००१ के दिन। यानी अभी पूरा एक साल और दिसंबर के कुछ दिन बाकी हैं वह दिन आने में। एक जनवरी २००० तो अपनी जानी-पहचानी बीसवीं सदी और दूसरी सहस्त्राब्दी के अंतिम वर्ष का पहला दिन होगा - अन्य कई एक जनवरियों की तरह एक साधारण सा एक जनवरी। लेकिन गड़बड़ी कर दी संगणक ने। या यों कहिए कि संगणक की 'वाई टू के ' वाली समस्या ने।
यह समस्या इसलिए उपजी कि जब १९७० के बाद संगणकों में पंचकार्ड सिस्टम विदा हुआ और की-बोर्ड और प्रोग्रामिंग की शुरुआत हुई तो कई व्यापारी कंपनियों की समझ में आया कि लेन-देन के कई व्यवहार इसकी मार्फत किए जा सकते हैं। सो संगणक चल पड़ा। उस पर दिनांक लिखने का वही तरीका था जो रोजमर्रा में था, जैसे २२ मार्च १९७४ को २२.०३.७४ लिखा जाना। संगणक का उसूल है कि बार-बार प्रयोग में आने वाली बातों को जितना छोटा करके लिखा जा सके और संगणक की जगह और काम को बचाया जा सके, उतना ही वह प्रोग्रामिंग अच्छी मानी जाएगी। तरीखों का प्रयोग बार-बार करना पड़ता है। इसलिए २२.०३.१९७४ लिखने की बजाय २२.०३.७४ लिखना अधिक बुद्धिमानी है क्योंकि यों लिखने में दो अंक कम लिखने पड़ते हैं। अब जहां इन तारीखों के आधार पर कुछ गणित भी करना पड़ता है जैसे सूद का हिसाब लगाना-वहां भी संगणक को समझा दिया गया है कि दिन-मास-वर्ष की गिनती कैसे की जाती है। यदि संगणक को २२.०३.७४ से ०९.११.९९ तक के सूद का हिसाब करना होगा तो वह दिन-मास-वर्ष का हिसाब लगाते हुए दूसरी संख्या को घटा देगा और सूद का हिसाब कर लेगा।
लेकिन इस सदी के अंतिम पांच वर्षों में अचानक लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि सन् २००० की तारीख को कैसे लिखा जाएगा और संगणक की बुद्धि उसे कैसे पढ़ पाएगी? यदि एक जनवरी को ०१.०१.२००० लिखते हैं तो संगणक अपने सामने आठ अंक देखता है और पहचान नहीं पाता है कि उसे कोई तारीख बताई जा रही है क्योंकि उसकी प्रोग्रामिंग इस प्रकार हुई है कि वह छह अंकों वाली तारीख को ही पहचानना जानता है। यदि एक जनवरी को ०१.०१.०० लिखते हैं तो संगणक को ादत पड़ चुकी है कि बड़ी संख्या से छोटी संख्या को घटाना है और वह ०० को किसी भी अन्य वर्ष के आंकड़ों की तुलना में छोटी संख्या ही समझेगा। अतः सूद का हिसाब वह नहीं कर पाएगा। इसी तरह, जिन्हें होटलों में एड़वांस बुकिंग करनी है, एअरलाइनों में टिकट कटवाने हैं, रेलवे आरक्षण कराना है, वे सन् २००० या उसके बाद आने वाली तारीखों का ब्योरा संगणक को किस तरह से दें? यह समस्या है जो नई सहस्त्राब्दी के पहले दिन यानी ०१.०१.२००१ के आने तक नहीं रुकेगी, बल्कि उसके एक वर्ष पहले ०१.०१.२००० की तारीख में ही प्रकट हो जाएगी। अतः जो बड़ी खलबली चमी है उसने सबको यों अभिभूत कर दिया मानो ०१.०१.२००० को ही नई सहस्त्राब्दी आरंभ हो रही हो।
दूसरी गलत धारणा बार-बार सुनने में आती है जो हमारे बखानने के ढंग से उपजी है। लोग कहते नहीं थकते नई सहस्त्राब्दी के विषय में। कैसे होंगे उस सहस्त्राब्दी के लोग? कैसा होगा समाज, कैसी होगी सरकार, कैसा होगा प्रशासन, कैसी शिक्षा प्रणाली, कैसी नारी समस्याएं, कैसा समाज सुधार और कैसा विज्ञान? हर कोई अगले हजार वर्षों के सपने बुनने में लगा है। एक सज्जान ने मुझसे कहा कि आइए चर्चा करें कि अगली सहस्त्राब्दी में प्रशासन कैसा होगा। मैंने पूछा कि क्या हम अगले हजार वर्षों के प्रशासन की बात करने वाले हैं, तो झेंपकर कहने लगे कि नहीं, सहस्त्राब्दी शब्द से मेरा मतलब पूरे हजार वर्षों से नहीं था। मैंने फिर पूछा-क्या हम अगले सौ वर्षों के प्रशासन की बातें करेंगे? तो कहा, नहीं इतने अधिक वर्षों की भी नहीं। फिर मैंने पूछा-क्या अगले बीस वर्षों की? तब उन्हें मुक्ति मिल गई। उत्साह से कहने लगे, हां-हां, आइए अगले बीस वर्षों के प्रशासन के संबंध में बात करते हैं। वैसे हजार वर्षों के विषय में सोचना कोई बुरी या अनुचित बात नहीं है। लेकिन वह दार्शनिकों की दुनिया है। सामान्य आदमी के लिए
सहस्त्राब्दी का अर्थ है अगले बीस वर्ष या शायद अगले पांच वर्ष। जिसमें लंबे समय का चिंतन करने की क्षमता हो उसकी को अगले सौ या सहस्त्र वर्षों की बात करनी चाहिए। वरना बातों को अगले दस-बीस वर्षें तक ही सीमित रखें तो हम कम से कम अधिक व्यावहारिक तो होंगे।
जनसत्ता १७.१२.१९९९
बच्चों को तो बख्शिए (2)y
02-बच्चों को तो बख्शिए
जनसत्ता ३०.१०.१९९९
सड़कों पर भागते हुए वाहन अपने से पीछे वालों को कई संदेश देते रहते हैं। यहां मैं उन संकेतों की बात नहीं कर रही जो बाएं या दाएं मुड़ने के लिए या रुकने के लिए दिए जाते हैं। यह उन शब्दों की बात है जो वाहनों के पीछे लिखे होते हैं। इनमें कई संदेश सरकार की ओर से जनता के लिए होते हैं। पर एक संदेश जनता की ओर से सरकार के लिए भी था, जिसमें कहा गया थाः 'हमारा सपना अच्छी सड़कें'। इस ऑटो रिक्शा चलाने वाले का सपना कभी पूरा होगा, यह सरकार ही जाने।
कई संदेश किसी के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए होते हैं, जैसे 'मां का आशीर्वाद या 'साईं प्रसन्न'। एक संदेश जो कई बार देखा जाता है वह है 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'। बुरी नजर वाले के लिए यह शाप किसी भी सामान्य व्यक्ति के दिल से निकलता है और सही भी लगता है। लेकिन कोई संत प्रवृत्त्िा का मालिक भी रहा होगा जिसने ट्रक पर बुरी नजर वाले के लिए एक दुआ लिखी थी कि 'बुरी नजर वाले तेरा भी हो भला'।
तभी बुरी नजर वाले के लिए एक बड़ी बद्दुआ भी देखी जिसमें नई पीढ़ी के प्रति क्षोभ और आक्रोश व्यक्त हो रहा था। लिखा थाः 'बुरी नजर वाले तू सौ साल जिए, तेरे बच्चे बड़े होकर तेरा खून पिएं'। मैं कई महीनों तक इस बद्दुआ के बारे में सोचती रही। हालांकि इसमें बुरी नजर वाले के बच्चों को जरूर घसीटा गया था लेकिन उनकी उस उम्र की बात हो रही थी जब वे वयस्क होंगे। अपने परिवार को चलाने और सोचने के लिए एक प्रौढ़ व्यक्ति की हैसियत से जिम्मेदार होंगे। उनके बचपन को कहीं भी दांव पर या ठेस लगाने वाले मुकाम पर नहीं रखा गया था।
लेकिन हाल में ही मैंने बुरी नजर वाले के लिए ऐसी बद्दुआ देखी जिसने मुझे तिलमिला दिया। यह बद्दुआ बुरी नजर वाले के लिए ही नहीं थी, वरन् उसके बच्चों के लिए थी और उसमें कहा गया था 'बुरी नजर वाले तेरे बच्चे टू इन वन बनें'।
बच्चे ही होते हैं, चाहे दुश्मन के हों या बुरी नजर वाले का आप प्रतिकार नहीं कर सकते उसके मासूम बच्चों के लिए आप बद्दुआ दें। आज पूरा विश्र्व बच्चों को संकटमुक्त और भयमुक्त रखने की बात करता है। हम बच्चों को राष्ट्र का भविष्य बताते हैं। चाहते हैं कि देश के बच्चों पर अच्छे संस्कार हों। लेकिन एक समाज के नाते बच्चों पर अपनी बद्दुआ लादने में हमें कोई संकोच क्यों नहीं होता? हमारे बदले की मनोवृत्त्िा इतनी बुरी हद तक जाती हैं कि उन व्यक्तियों को भी छेड़ने लगती है जो स्वयं निर्दोष हैं।
एक तरफ हमने अभी-अभी दशहरे का पर्व मनाया है। रावण के पुतले जलाए गए हैं। रावण का दोष यह था कि उसकी बहन शूर्पणखा को सताया तो राम और लक्ष्मण ने, पर बदला लेने के लिए वीरों की तरह राम या लक्ष्मण की लड़ाई करने नहीं आया। उसने कायरों की तरह सीता माई को उठा ले जाना ज्यादा ठीक समझा। बुरी नजर वाले के बच्चों को 'टू इन वन' बनने की बद्दुआ देने वाले भी क्या रावण के वर्ग में शामिल नहीं है?
विदेशों में बच्चों के प्रति इतनी सतर्कता रखी जाती है कि इस तरह की समाज-विकृति को प्रकट करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। सजा भी हो सकती है। लेकिन हमारे यहां का सामाजिक मानस अब भी बच्चों को बचाए रखने की आवश्यकता नहीं समझता। इस लिखावट में जो सबसे बुरी बात थी वह यह कि जिस मिनी बस के पीछे बच्चों पर अकारण ही यह बद्दुआ लिखी थी, वह बस दिल्ली के ही किसी अच्छे स्कूल के बच्चों की थी। बस पर स्पष्ट बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा थाः 'स्कूल बस'। क्या हमारे स्कूलों के तमाम शिक्षक, उन बच्चों के अभिभावक, बस मालिक, ड्राइवर आदि सभी इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि बच्चों के बचपन को छीनने की बात करने वाली यह बद्दुआ किसी स्कूल बस पर ही लिखी हो?
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जनसत्ता ३०.१०.१९९९
सड़कों पर भागते हुए वाहन अपने से पीछे वालों को कई संदेश देते रहते हैं। यहां मैं उन संकेतों की बात नहीं कर रही जो बाएं या दाएं मुड़ने के लिए या रुकने के लिए दिए जाते हैं। यह उन शब्दों की बात है जो वाहनों के पीछे लिखे होते हैं। इनमें कई संदेश सरकार की ओर से जनता के लिए होते हैं। पर एक संदेश जनता की ओर से सरकार के लिए भी था, जिसमें कहा गया थाः 'हमारा सपना अच्छी सड़कें'। इस ऑटो रिक्शा चलाने वाले का सपना कभी पूरा होगा, यह सरकार ही जाने।
कई संदेश किसी के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए होते हैं, जैसे 'मां का आशीर्वाद या 'साईं प्रसन्न'। एक संदेश जो कई बार देखा जाता है वह है 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'। बुरी नजर वाले के लिए यह शाप किसी भी सामान्य व्यक्ति के दिल से निकलता है और सही भी लगता है। लेकिन कोई संत प्रवृत्त्िा का मालिक भी रहा होगा जिसने ट्रक पर बुरी नजर वाले के लिए एक दुआ लिखी थी कि 'बुरी नजर वाले तेरा भी हो भला'।
तभी बुरी नजर वाले के लिए एक बड़ी बद्दुआ भी देखी जिसमें नई पीढ़ी के प्रति क्षोभ और आक्रोश व्यक्त हो रहा था। लिखा थाः 'बुरी नजर वाले तू सौ साल जिए, तेरे बच्चे बड़े होकर तेरा खून पिएं'। मैं कई महीनों तक इस बद्दुआ के बारे में सोचती रही। हालांकि इसमें बुरी नजर वाले के बच्चों को जरूर घसीटा गया था लेकिन उनकी उस उम्र की बात हो रही थी जब वे वयस्क होंगे। अपने परिवार को चलाने और सोचने के लिए एक प्रौढ़ व्यक्ति की हैसियत से जिम्मेदार होंगे। उनके बचपन को कहीं भी दांव पर या ठेस लगाने वाले मुकाम पर नहीं रखा गया था।
लेकिन हाल में ही मैंने बुरी नजर वाले के लिए ऐसी बद्दुआ देखी जिसने मुझे तिलमिला दिया। यह बद्दुआ बुरी नजर वाले के लिए ही नहीं थी, वरन् उसके बच्चों के लिए थी और उसमें कहा गया था 'बुरी नजर वाले तेरे बच्चे टू इन वन बनें'।
बच्चे ही होते हैं, चाहे दुश्मन के हों या बुरी नजर वाले का आप प्रतिकार नहीं कर सकते उसके मासूम बच्चों के लिए आप बद्दुआ दें। आज पूरा विश्र्व बच्चों को संकटमुक्त और भयमुक्त रखने की बात करता है। हम बच्चों को राष्ट्र का भविष्य बताते हैं। चाहते हैं कि देश के बच्चों पर अच्छे संस्कार हों। लेकिन एक समाज के नाते बच्चों पर अपनी बद्दुआ लादने में हमें कोई संकोच क्यों नहीं होता? हमारे बदले की मनोवृत्त्िा इतनी बुरी हद तक जाती हैं कि उन व्यक्तियों को भी छेड़ने लगती है जो स्वयं निर्दोष हैं।
एक तरफ हमने अभी-अभी दशहरे का पर्व मनाया है। रावण के पुतले जलाए गए हैं। रावण का दोष यह था कि उसकी बहन शूर्पणखा को सताया तो राम और लक्ष्मण ने, पर बदला लेने के लिए वीरों की तरह राम या लक्ष्मण की लड़ाई करने नहीं आया। उसने कायरों की तरह सीता माई को उठा ले जाना ज्यादा ठीक समझा। बुरी नजर वाले के बच्चों को 'टू इन वन' बनने की बद्दुआ देने वाले भी क्या रावण के वर्ग में शामिल नहीं है?
विदेशों में बच्चों के प्रति इतनी सतर्कता रखी जाती है कि इस तरह की समाज-विकृति को प्रकट करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। सजा भी हो सकती है। लेकिन हमारे यहां का सामाजिक मानस अब भी बच्चों को बचाए रखने की आवश्यकता नहीं समझता। इस लिखावट में जो सबसे बुरी बात थी वह यह कि जिस मिनी बस के पीछे बच्चों पर अकारण ही यह बद्दुआ लिखी थी, वह बस दिल्ली के ही किसी अच्छे स्कूल के बच्चों की थी। बस पर स्पष्ट बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा थाः 'स्कूल बस'। क्या हमारे स्कूलों के तमाम शिक्षक, उन बच्चों के अभिभावक, बस मालिक, ड्राइवर आदि सभी इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि बच्चों के बचपन को छीनने की बात करने वाली यह बद्दुआ किसी स्कूल बस पर ही लिखी हो?
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उठो जागो (3)y
03-उठो जागो
जनसत्ता, १९ दिसंबर १९९९
अब वक्त आ गया है देश की पचास करोड़ औरतों और पचास करोड़ मर्दों को यह बताने का कि उठो, जागो और सोचो कि सती शब्द के पीछे तुमने कितनी गलत धारणाएं पाल रखी हैं। क्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?
सती शब्द सामने आया शिवप्रिया और शिव-पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के नाम से। जरा देखें कि सती की कथा क्या है। कथा यों है कि जब समाज में अभी तय नहीं हुआ था कि किस देवता को कितना उच्च सम्मान दिया जाएगा तब यही सब तय करने दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया। किसी ईर्ष्यावश यह पहलेसे ही तय था कि भगवान शंकर को यज्ञ में न तो निमंत्रित किया जाएगा। सती को भी निमंत्रण नहीं मिला। लेकिन उसने सोचा, पिता के यज्ञ के निमंत्रण की प्रतीक्षा क्यों करूँ? और भगवान शंकर के मना करने पर भी यज्ञस्थल चली गई। वहां देखा कि शिव को समाज के सामने अनुल्लेखित-अचिर्चित रखने की और सम्मान से वंचित रखने की सारी योजना बन चुकी है। जब सती ने इस व्यवस्था पर विरोध प्रकट किया तो उसका अपमान किया गया। इस पर सती ने उस यज्ञ को कोसा, उसमें भाग लेने वाले देवताओं को कोसा और समाज को भी कोसा कि कैसा है यह यज्ञ और यह समाज जो एक लायक व्यक्ति की योग्यता को नहीं पहचान पाता और उस लायक व्यक्ति का जो हक बनता है उसी हक को नाकबूल किया जाता है।
सती ने धिक्कारा अपने पिता को, उन देवताओं को और उस समाज को। लेकिन जब तक खुद शिव अपना हक न जताएं, लोग क्यों उनका हक मानने लगे? और शिव तो परम संतुष्ट पुरुष। वे अपना हक आएंगे ही नहीं। तब सती ने अपने योगबल से अग्नि उत्पन्न की और लोगों को यह शाप देते हुए प्राणार्पण किया कि लोगों, उचित व्यक्ति को उचित सम्मान न देने का दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मेरे पति को यहां आना पड़ेगा और अपना हक प्रस्थापित करना पड़ेगा।
ऐसी थी सती जिसने उचित सम्मान की लड़ाई लड़ी। न सिर्फ समाज को, बल्कि अपने पति को भी चुनौती दी कि समाज में उचित व्यक्ति को उचित मान प्राप्त होने की प्रणाली लानी पड़ेगी। उचित हक के लिए लड़ने वाली ऐसी पहली स्त्री की देखिए हमने क्या दुर्गत बना डाली। सती के नाम से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि उचित व्यक्ति को उचित हक मिले। इसके बजाय हमने क्या किया? एक तो समाज की ऐसी स्थिति बना डाली कि पति के निधन के बाद औरत को समाज में कोई स्थान ही न मिले, सम्मान की बात तो अलग। फिर उसे विवश किया जाए आत्महत्या के लिए और कहां जाए कि देखो वह पति के शव के साथ जल मरी इसलिए वह 'सती' हो गई। लेकिन सती तो अपने पिता की और तत्कालीन समाज की मूढ़ता को कोसते हुए अपने हक के लिए और अपनी आन के लिए अपने पति के जीवित होते हुए अपने ही योगबल से उत्पन्न अग्नि में जली। कहां वह आक्रामक, लड़ाकू वीरभाव और कहां यह समाज से डर कर जिंदा जलने की मजबूरी के सामने शीश झुकाना।
ऐसी कोई भी घटना जहां पति के निधन की विभीषिका से त्रस्त होकर औरत को जल जाना पड़े, बगैर लड़ाई लड़े, बगैर अपना हक मांगे, बगैर समाज को चुनौती दिए, एक मूक हताशा के साथ समाज के सामने झुकना पड़े, उस घटना को 'सती' कहने के लिए मैं राजी नहीं। और न ही सावित्री का नाम उस घटना से जुड़ सकता है, क्योकि सावित्री तो सती से भी अधिक जुझारू, अधिक तेजस्विनी और स्वयं यमराज को जीतने वाली है। पूरे संसार की किसी कथा, किसी इतिहास में इस मृत्युंजयी की दूसरी मिसाल ही नहीं है।
सती और सावित्री से हम यही प्रेरणा ले सकते हैं कि अपने हक की लड़ाई लड़नी है और आवश्यक हुआ तो यमराज से भी जीतकर अपना सर ऊँचा रखना है।
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जनसत्ता, १९ दिसंबर १९९९
अब वक्त आ गया है देश की पचास करोड़ औरतों और पचास करोड़ मर्दों को यह बताने का कि उठो, जागो और सोचो कि सती शब्द के पीछे तुमने कितनी गलत धारणाएं पाल रखी हैं। क्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?
सती शब्द सामने आया शिवप्रिया और शिव-पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के नाम से। जरा देखें कि सती की कथा क्या है। कथा यों है कि जब समाज में अभी तय नहीं हुआ था कि किस देवता को कितना उच्च सम्मान दिया जाएगा तब यही सब तय करने दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया। किसी ईर्ष्यावश यह पहलेसे ही तय था कि भगवान शंकर को यज्ञ में न तो निमंत्रित किया जाएगा। सती को भी निमंत्रण नहीं मिला। लेकिन उसने सोचा, पिता के यज्ञ के निमंत्रण की प्रतीक्षा क्यों करूँ? और भगवान शंकर के मना करने पर भी यज्ञस्थल चली गई। वहां देखा कि शिव को समाज के सामने अनुल्लेखित-अचिर्चित रखने की और सम्मान से वंचित रखने की सारी योजना बन चुकी है। जब सती ने इस व्यवस्था पर विरोध प्रकट किया तो उसका अपमान किया गया। इस पर सती ने उस यज्ञ को कोसा, उसमें भाग लेने वाले देवताओं को कोसा और समाज को भी कोसा कि कैसा है यह यज्ञ और यह समाज जो एक लायक व्यक्ति की योग्यता को नहीं पहचान पाता और उस लायक व्यक्ति का जो हक बनता है उसी हक को नाकबूल किया जाता है।
सती ने धिक्कारा अपने पिता को, उन देवताओं को और उस समाज को। लेकिन जब तक खुद शिव अपना हक न जताएं, लोग क्यों उनका हक मानने लगे? और शिव तो परम संतुष्ट पुरुष। वे अपना हक आएंगे ही नहीं। तब सती ने अपने योगबल से अग्नि उत्पन्न की और लोगों को यह शाप देते हुए प्राणार्पण किया कि लोगों, उचित व्यक्ति को उचित सम्मान न देने का दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मेरे पति को यहां आना पड़ेगा और अपना हक प्रस्थापित करना पड़ेगा।
ऐसी थी सती जिसने उचित सम्मान की लड़ाई लड़ी। न सिर्फ समाज को, बल्कि अपने पति को भी चुनौती दी कि समाज में उचित व्यक्ति को उचित मान प्राप्त होने की प्रणाली लानी पड़ेगी। उचित हक के लिए लड़ने वाली ऐसी पहली स्त्री की देखिए हमने क्या दुर्गत बना डाली। सती के नाम से यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि उचित व्यक्ति को उचित हक मिले। इसके बजाय हमने क्या किया? एक तो समाज की ऐसी स्थिति बना डाली कि पति के निधन के बाद औरत को समाज में कोई स्थान ही न मिले, सम्मान की बात तो अलग। फिर उसे विवश किया जाए आत्महत्या के लिए और कहां जाए कि देखो वह पति के शव के साथ जल मरी इसलिए वह 'सती' हो गई। लेकिन सती तो अपने पिता की और तत्कालीन समाज की मूढ़ता को कोसते हुए अपने हक के लिए और अपनी आन के लिए अपने पति के जीवित होते हुए अपने ही योगबल से उत्पन्न अग्नि में जली। कहां वह आक्रामक, लड़ाकू वीरभाव और कहां यह समाज से डर कर जिंदा जलने की मजबूरी के सामने शीश झुकाना।
ऐसी कोई भी घटना जहां पति के निधन की विभीषिका से त्रस्त होकर औरत को जल जाना पड़े, बगैर लड़ाई लड़े, बगैर अपना हक मांगे, बगैर समाज को चुनौती दिए, एक मूक हताशा के साथ समाज के सामने झुकना पड़े, उस घटना को 'सती' कहने के लिए मैं राजी नहीं। और न ही सावित्री का नाम उस घटना से जुड़ सकता है, क्योकि सावित्री तो सती से भी अधिक जुझारू, अधिक तेजस्विनी और स्वयं यमराज को जीतने वाली है। पूरे संसार की किसी कथा, किसी इतिहास में इस मृत्युंजयी की दूसरी मिसाल ही नहीं है।
सती और सावित्री से हम यही प्रेरणा ले सकते हैं कि अपने हक की लड़ाई लड़नी है और आवश्यक हुआ तो यमराज से भी जीतकर अपना सर ऊँचा रखना है।
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