Wednesday, 23 November 2016

46+47 ॥ ४६॥ फेंगाडया और पेड़ ॥ ४६॥॥ ४७॥ लाल्या की पकड में उंचाडी ॥ ४७॥

46+47

॥ ४६॥ फेंगाडया और पेड़ ॥ ४६॥

फेंगाडया ने आँखें खोलीं। आधी बीत चली थी रात।
वह पीठ के बल लेटा हुआ। ऊपर वह पेड़- झिलमिल पत्त्िायों वाला। सरसराहट होती है तो लगता है उससे बातें कर रहा है।
बापजी गया तबसे यही पेड़ उसका बापजी बना हुआ है।
पेड़ हँसा। वह भी हँसा।
कौन मेरी समझ रख्खेगा। तू ही रख। वह पेड़ से फुसफसाया।
उसने टहनियों को देखा। पत्त्िायों को देखा। झिलमिलाने वाली जीवन्त पत्त्िायाँ।
एक पत्ता टूटा। भिर भिर घूमते हुए उसके पैरों पर आ गिरा।
उसने पत्ता उठाकर देखा। पीला पड़ चुका था।
पेड़ का आधार छोड़कर निकल चुका हो कोई पत्ता तो हराभरा कैसे रहेगा?
वह पीला हो ही जाएगा। मुरझायेगा। मिट्टी से मिलेगा। मर जायेगा।
वह सिहर गया।
मरण।
लुकडया बच गया। कोमल भी बच गई।
मरण को भगा दिया उसने दूर।
अपनी छाती की आवाज सुनकर। अपने काम से।
मानों उसने पीले पड़े पत्ते को उठाकर फिर से पेड़ से चिपका दिया था।
इतने दिन पत्ते पीले पड़ते थे। झड़ते थे और मिट्टी हो जाते थे।
आदमी देखता था। उसके हाथ थे।
उसे हलचल करने की छूट थी।पेड़ की तरह बंधा नही था आदमी। लेकिन उसकी आँखें बंद थीं।
जो आदमी अंदर की आवाज नहीं सुन सकता वह नियम के सिवा क्या बोलेगा?
और नियम के रास्ते पर इस पीले मरण के सिवा और क्या होगा?
आदमी को पहल करने की, हिलने डूलने की छूट थी। तो आना चाहिए आगे, थाम लेना चाहिए गिरता हुआ पत्ता और चिपका देना चाहिए उसे वापस हरे भरे जीवन्त पेड़ में।
  
लेकिन आदमी ने यह कभी किया नही।
आदमी हो गया है देवता से दूर।
उसके अंदर की आवाज गुम हो गई है।
अब वह सुनता है केवल बाहर की आवाज- नियम की आवाज।
लेकिन आज उसने कुछ किया नियम से अलग।
वह चल सकता है अपनी अलग राह पर।
उसे लगा पेड़ उससे बात कर रहा है।
तू ही है मेरा हरा पत्ता--
रस से भरपूर। जीवन्त। ताजा। हर पल जीने वाला।
फेंगाडया हंसा। उसे लगा वह बहुत अलग है- इन टूटे, भरभराकर जमीन पर गिरते पत्तों की तरह जीने वाले, मरने वालो इन बाकी आदमियों से वह अलग है।
फिर एक बार वह सिहर गया।
कितनी कठिन बातें करता है तू। उसने पेड़ से कहा।
पीछे झाड़ियों में कुछ सरसराया और एक झटके से फेंगाडया खड़ा हो गया। सामने एक अर्धवयस्क चीता था। गुरगुरा रहा था।
चीता झपटा। फेंगाडया बाँई ओर झुककर अपने आप को बचाया। फिर पैर पर ही पूरा घूमते हुए उसने चीते पर छलांग लगाई।
अब उसकी मजबूत पकड़ थी चीते की गर्दन पर।
अनक क्षण। पकड़ जरा भी ढीली नही हो सकती।
आखिर चीता ठण्डा पड़ गया।
एक ही झटके से उसे नीचे की घाटी में फेंक दिया फेंगाडया ने।
थकान से चूर, पसीने नहाया फेंगाडया पेड़ के नीचे आया।
अपने आप से कहा-- इस तरह रातभर पगलाकर बाहर घूमते रहने के लिये अब तू स्वतंत्र नही है। अब तू अकेला नही है।
वह मुड़ा और चल दिया गुफा की ओर।
उसका पेड़ हवा में सरसराता रहा।
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॥ ४७॥ लाल्या की पकड में उंचाडी ॥ ४७॥

झिंग्या हांफते हुए उंचाडी के पीछे भाग रहा था।
उंचाडी का शरीर मानों अंगार। बुखार से तपता हुआ। खांसी।
झिंग्या का चेहरा भूख से अकुलाया हुआ।
उंचाडी भागी चली जा रही थी।
आँखें भिरभिरा रही थीं चारों ओर।
हांफते हुए वह धप्प से बैठ गई।उसके केश उड रहे थे।
झिंग्या पास आया तो वह उठी। आगे चलने लगी।
सूरज डूबने में कुछ ही देर बाकी थी।
आज इतने दूर चली आई वह। लेकिन अब तक कुछ मिला नही।
उंचाडी थककर फिर बैठ गई।
झिंग्या मानों उसकी व्याकुलता समझ गया। पास आकर उससे लिपट गया।
उंचाडी ने आंखें मींच ली।
पेड पर बंदरी ने एक डाल से दूसरी पर छलांग लगाई। उसकी छाती से उसका पिलू लटक रहा था।
बंदरी ने झिंग्या को मुँह बिचकाया। झिंग्या उसे टुकुरटुकुर देख रहा था।
  
वह हंसा।
उंचाडी ने आंख खोली। क्यों? उसने पूछा।
बंदरी का पिलू.....। झिंग्या ने इशारा किया।
धप्प से गिरने वाला है।
उंचाडी भी हंसी। उठकर देखा- पेड पर कुछ फल थे।
थककर उसने झिंग्या की तरफ देखा। उसे उठाकर एक उंची डाल पर चढा दिया। झिंग्या गिलहरी की तरह पेड पर चढने लगा। बंदरी ने किचकिच की। लेकिन हट गई। उंचाडी ने आंखे मूंद ली। थकान भगाने लगी। धानबस्ती.... और कितनी दूर? वह पुटपुटाई।
अचानक आहट आई। उसने चौंककर देखा- आदमी थे।
उंचाडी की छाती धडकी। रोंगटे खडे हो गए।
झाड़ी से अचानक निकालकर वे उसके सामने आ गए थे।
लाल्या और उसके चार आदमी।
लाल्या ने लाठी तोली।
आंखे एकटक उसे देख रही थीं।
बाकी चारों ने उसे घेर लिया।
उंचाडी स्तब्ध।
ऊपर झिंग्या ने एक डाल पकड ली। वह निःशब्द लटकता रहा।
दो क्षण.... तीन।
बंदरी ने दांत किचकिचाए और एक छलांग लगाकर दूसरे पेड पर चली गई।
उंचाडी की आंखें डरी हुईं। ये नरबली टोली है या धानबस्ती की?
उन सारी आँखों में एक ही हवस थी-- जुगने की।
वह गडबडाई।
यह नया था।
उठा लो उसे। लाल्या चिल्लाया।
यह उदेती की सू है। जुगो इसे।
दो आदमी आगे आए। उसे गिराकर दबोचे रख्खा।
यह जुगना? एक साथ चारों का?
उसने सिर हिलाया। कुछ कहने के लिए मुँह खोला।
चुप...। लाल्या चिल्लाया। लाठी फेंक उसपर औंधा हो गया।
सारे हँसे। उन्माद में भर गए।
एक एक कर सारे जुगे। थक गए।
उंचाडी स्तब्ध रही। फिर थूकी।
उठा लो। लाल्या चीखा।
लेकिन नचंदी की रात अभी दूर है।
बली के लिए नही। इसे रखेंगे अपनी बस्ती में। यह धानबस्ती की सू है। धानबस्ती की हर सू को जुगेंगे।
लाल्या विकट हँसा।
अपनी बस्ती के सब इसे जुगेंगे।
फिर छोड देंगे इसे। जाकर बताएगी धानबस्ती में।
लाल्या भर्राए स्वर में बोला-- हमारी टोली को मिटाने की बात करते हैं वे।
जानवर। धानबस्ती के।
उनकी एक एक सू को जुगेंगे।
उंचाडी ने कुछ कहना चाहा लेकिन उन आँखों का अंगार देख कर चुप रही।
  
चारों ने उसे जकड़ लिया। एकने उसकी कमर पर लात मारी। खींचकर ले चलने लगे।
उंचाडी चीखी। लाल्या ने एक जोरदार थप्पड से उसे चुप कर दिया। चल।
आगे लाल्या। पीछे वह झुण्ड। बीच में घिरी उंचाडी।
उसने झिंग्या को पुकारना चाहा। लेकिन चुप रही। उसे लाठी से कोंचते हुए लाल्या के आदमी ले चले।
झुण्ड आंखों से ओझल हुआ तो इतनी देर से कसकर पकडी हुई डाली झिंग्या ने छोड दी। वह थाड से जमीन पर गिरा, कराहा।
फिर उठा और झुण्ड की उलटी दिशा में भागने लगा।
भागते भागते एक झरने के पास पहुँचा। वही झुककर उसने पानी में मुँह लगा दिया।
अब अंधेरा हो गया था।
सामने जाली थी करौंदे की। उसकी कंटीली झाडियाँ उठाकर वह अंदर गया। पडा रहा। थरथराते हुए। आंखों में शून्यता।
चेहरा डरा हुआ। मुँह में थूक घूमने लगा।
बगल में किसी के पांव की आहट। एक भालू डोलते हुए निकल गया।
वह औंधा हो गया। आंखें जोर से मींच लीं। जाली से टप-टप चींटे उस पर गिरते रहे।
अंधेरा बढा। थककर वह सो गया।
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