॥ ३८॥ वाघोबा बस्ती में
पंगुल्या और बापजी ॥ ३८॥
पंगुल्या चुपके से अपनी
झोंपडी में घुसा।
हाथ की छोटी हड्डियाँ नीचे
डाल दीं।
उकडूँ बैठ गया।
बली की सिर की हड्डियाँ
टाँगी गई बस्ती के प्रवेशद्वार पर। यह बाकी बचीं।
इतने दिन थीं उसके शरीर में।
मानुस मर जाता है, तो शरीर
बचता नही है।
सड जाता है, गलता है, आग में
डालो तो जल जाता है।
लेकिन हड्डियाँ टिकती हैं।
आग में भी। मिट्टी में भी।
क्या बताती हैं ये देखने
वाले को?
उसने आजतक जमा की हुई सारी
हड्डियाँ अपने सामने फैला लीं।
जांघ की लम्बी मजबूत हड्डी
पर उसकी विशेष नजर थी।
यह हड्डी है उस जाँघ की- जो
मानुस के मरने तक कभी टूटी नही।
यह दूसरी है उस जाँघ की जो
टूट गई थी।
क्या टूटी हुई हड्डी जुड
सकती है?
नही कभी नहीं।
पंगुल्या, क्या तुझे मिली
कोई जांघ की हड्डी जिस पर जोड हो?
नही।
फिर क्यों पूछता है यह
प्रश्न?
उसने अपनी बाँई और दहिनी
जाँघ को बारी बारी से देखा।
दहिनी जाँघ थी सूखी लकड़ी की
तरह।
उसकी हड्डी भी होगी पतली
सींकसी।
पंगुल्या छूकर देख सकता था।
बली दिये गये उसे छोटे से पिलू की जांघ की हड्डी भी पंगुल्या की हड्डी से मोटी थी।
जब वह मरेगा, तब उसकी
हड्डियाँ भी इधर उधर बिखर जायेंगी।
शायद किसी को मिलेगी।
वह पूछेगा- किसकी भी यह
हड्डी? यह पतली हड्डी।
किसी और की जांघ की हड्डियाँ
इतनी पतली नहीं हैं। फिर इसी की क्यों?
नही मिलेगा उसे उत्तर।
क्यों कि पंगुल्या जैसा पंगु
मानुस आजतक कभी जिया ही नहीं।
भरमा जाएगा वह आदमी सोच सोच
कर।
पंगुल्या को भविष्य के उस
आदमी की उलझन में मजा आने लगा। हँसता हुआ वह झोंपड़ी के बाहर आया।
क्यो, क्यों, क्यों?
यह क्यों, वह क्यों?
कुछ प्रश्नों के उत्तर ही
नही होते।
पंगुल्या, तू यहाँ जीवित
कैसे?
तू पेड़ क्यों नहीं?
तू पक्षी क्यों नहीं?
तू पत्थर क्यों नहीं?
वह पागलों की तरह हँसने लगा।
अचानक पीछे से किसी आवाज पर वह मुडा।
बापजी खड़ा था।
क्यों हँस रहा था? बापजी ने
पूछा
मेरी छाती में प्रश्नों का
झरना फूटता है, इसलिए।
अपने पास रखो, मुझे मत
सुनाना। बापजी ने उसे कंधे से हिलाते हुए पथरीली आवाज में कहा।
पंगुल्या कँपकॅपा गया।
वह पीछे हटा। झोंपडी में
घुसकर दो हड्डियाँ ले आया।
ये हड्डियाँ देखो। इन पर
मंत्र चढाया है।
वह पुटपुटाया।
बापजी हँसा।
क्यों हँसते हो?
बापजी फिर हँसा।
रख ले अपनी हड्डियाँ अपने
पास।
मैं नही पूछूँगा कि क्यों
झूठ गढकर बताता है।
तू बता, लोगों को झूठ गढकर
बता.................जिन्दा रह।
मैं तुझे नही पूछूँगा। और तू
भी मुझे नही पूछना।
मैं भी चुप रहूँगा और तू भी
चुप रहेगा।
पंगुल्या समझकर हँसा।
क्यों, ठीक है? बापजी ने
पूछा।
पंगुल्या आगे आया- जय बापजी।
बापजी हँसता हुआ निकल गया।
थरथराता पंगुल्या वापस मुडा।
झोंपड़ी में घुसने से पहले
चारों तरफ देख लिया- किसी ने सुना तो नही? दूर दूर तक देखने, सुनने वाला कोई नही
था।
वह ढीला हो गया। सावधानी से
झोंपड़ी में घुसते हुए बुदबुदाया--
रे पंगुल्या, इस बापजी पर
नजर रखनी होगी।
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